सुला जब वठार  पहुँचीं सुबह के नौ बजे थे। आज उसे पहुँचने में देर हो गयी थी। अब दोपहर बारह-एक बजे तक गाव के सभी घरों मेमांगने उसे जाना था।  हर मंगलवार को देवी क दिन होता है। इस दिन वह जोगना मांगने वठार आतीं है। न जाने कितने बरसों से उसके घर मे यह  प्रथा कायम  है। उसके पहले माँ  और नानी भीं वठार आकर जोगवा मांगती थीं। उनके  बाद सुला ने भी यह प्रथा जारी रखी है। उम्र के अाठवें वर्ष में ही उसका ब्याह देवी के साथ हो चुका  था। उसके बाद वह जोगवा मांगने ,गीत गाने और  जगराता करने लगी। पूर्णिमा के रोज वह जोगवा माँगने बाहर निकलती। वैसे आम तौर पर यह घर में ही रहती थीं।  सुबह शाम वह देवी की पूजा करती  . मधुर स्वर में देवी गीत गाया करती थी। 
            बीस बरस की  सुला गजब क़ी  खूबसूरत थीं। उसकी आँखें काली और मृगनयनी थीँ। देह यष्टि किसी साँचे मे ढली हुई और केश लम्बे तथा घने थे। दीगर देव दासियों की तरह उसकी जटाएं नहीं  थी डूबते सूरज की तरह उसका रंग ताम्बई था  ज़ब वह मुस्कुरातीं उसके गालो पर पड़ने वाला डिम्पल भी हंसने लगता। कुल मिलकर उसकी सुंदरता किसी भी पुरुष  के दिल की घंटियां बजाने के लिये पर्याप्त थीं 
                       अपने साथ झुलवा लगाने की  फिराक  मे गांव के मुस्टण्डे  गिद्ध दृष्टि लगाये बैठे थे। वे लोग हरसंभव जुगाड़ लगने मे जुटे रहते की  कैसे वह कमसिन कली आपने हाथ लग जाएं! सुला थी जो किसी को भी घांस नहीं डालती। सुबह- शाम उसकी देहरी मे ताँक -झाँक करने वाले शोहदों की भीड़ बढती जा रही थी। लम्बे और फैशनेबल हेयर स्टाइल वाले नौजवान  सिगरेट बीड़ी  के खीचने टशन वाले युवक " कैसी हो सुला!क्या हाल-चाल है कहकर लार टपका कर नज़रों से ही जिस्म का एक्स-रे करने वाले रोमियो उसके दरवाजे पर मंडराते रहतें  .सुला ने किसी को भी भाव नहीँ दिया। बल्कि कभी-कभार खरी-खोटी सुना  देती ," देवी की दासी को देखकर खखारने मे शर्म नहीं आती तुझे? छेड़ने के लिये तेरे घर मे माँ -बहन है या नहीं?  दो टका सवाल पूछकर वह शोहदों की  बारात बैरंग लौटा देती। मस्ती  मरने वाले युवकों  को भला इन झिड़कियों से क्या फर्क पड़ना था !वे सुला की  ओर देखकर काक्रोच कि तरह मंडराते और दीवानों की  मानिंद करते। 
                             ऐसा भी होता कि सुला जब घरों मे जोगवा मांगने जातीं ये छैला बाबू ही बाहर निकलकर जोगवा देने की फ़िराक़ में रह्ते। "अपनी माँ को भेजना  कहकर सुला उन्हें उलटे मुंह  लौटा   देती।  माँ के आने पर ही जोगवा स्वीकार करती।  सूपे में भंडारा डालकर जी भरकर दुआएं देती। उन्हें वापस भेजती लेकिन  उससे पहले यह जरूर  कहती ,"मौसी !जरा लड़कों को समझा देना। बेवजह परेशान करते हैं। दरवाजे पर आकर कैसी गंदी-  गंदी बातें करते हैं अरे! देवी की दासी से छेड़छाड़ का  मतलब अंगारों से खेलना है  नहीं क्या? अब ये लड़के अपनी गली के हैं गांव के हैं  इसलिये  शाप नहीं  देतीं। देवी का शाप बड़ा भयानक होता  है उन्हें समझाना   नहीं तो उनकी शादी  कर देना। !"जोगवा देने वाली औरतों को उसकी  बात जचती थीं। वे अपने लड़कों की बखिया उधेड़ने लगतीं। 
                                        सुला जब वठार  पहुँचीं उस गांव के अनेक पुरुष सदस्य खेतों पर  जा चुके थे। घर की औरतें ही धीरे-धीरे कामकाज निपटाते हुए अपने बच्चोँ-कच्चों में उलझी हुई थी  सुला हमेशा  कीं  तरह घर के सामने जोगवा मांगने लगी " अकुनदे   जोगवा " कहते ही भीतर से कोई  आता। पूरे भक्ति भाव से जोगवा देकर वापस लौटता। उससे पहले चुटकी भर भंडारा देते वक्त सुला उनकी खुशहाली  के बारे मे पूछताछ करती। फिर दूसरे   घर के दर वाजे पर दस्तक देती। सुला के कंधे से एक झोला लटक रहा था।  हाथ  में एक डलिया  थी  जिसमें यल्लम्मा की  मूर्ति रखीं हुई  थी। शायद वह पीतल की रही होगी। मूर्ती के सामने भंडारे से भरी थैली थी। समूची डलिया  भंडारे से सनी   हुई थी। मूर्ति के पास ही हरी चूड़ियाँ और कुछ रेजगारी।  अनाज झोली   मेँ रखकर चिल्हर डलिया में डाल  लेतीं। उसका मस्तक भी भंडारा  यानि प्रसाद से सना हुआ था।  सफ़ेद मनकों  की माला गले  लटक  रही थी। कानों में बुंदके और नथुने मे चमकीली  नथ। पैरों में पाजेब तथा कमर मे कमरबंद कसकर  बंधा  था। वह चाँदी का था। सुला ने साडी भी पीले रँग की पहनीं थी। चोली भी उसी रंग की थी जो गीली हल्दी की  तरह झक्क पीली नजर आई। सूरज की किरणें जब उसके चेहरे पर पड़तीं तब वह साड़ी और भी खुलकर दिखती।  
                  एक के बाद दूसरा घर वह जोगवा माँग रही  थीं। सुला को यह गाव जल्दी हीं  निपटाकर शाम तक आपने गांव मेँ जोगवा मांगना था। जल्द-जल्द डग  भरकर वह चलती  और जोगवा लेती। फिर दूसरे  घर के दरवाजे पर दस्तक देती। धूप  तेज होने लगी। देखते ही देखते सूरज सर   पर आग बरसाने लगा। पसीने की धाराएं उस पर पीली हल्दी और सूर्य की प्रखर  किरणें ,स्वेद बिंदु मोतियों से चमकने  लगें। 
               बढ़ती धूप के साथ ही सुला के कदम भी  बोझिल होने लगें। "अकुंदे  जोगवा "कहते वक्त हलक सूखने  लगा। उसके  मन में विचार आया कि गांवके पाटिल क एक घऱ निपटाकर वापस लौटा जाये। पाटिल के घर जोगवा लेने के लिये वह गई। दरवाजे पर खड़े रहकर उसने कहा  "अकुंदे  जोगवा " ज़ैसे ही घर के भीतर उसने नजर डाली खुद पाटील सामने खडा नजर आया। उसकी निगाहें सुला पर ही टिकी हुई थीं सुला को पाटील कि  आँखोँ से बरसता वासना का जहर पहचानने मैं जरा  भी देर नहीँ  लगी। पाटिल सोफे पर बैठकर पल भर सुला को घूरता रहा। अधिक देर तक पाटिल से नजरेँ मिलाना  असहनीय होने पर  सुला ने अपनी  गर्दन झुका  ली। डलिया में रखी  हल्दी और भन्डारे  की  थैली टटोलते हुए उसने कहा ," माँ घर पर नहीं है शायद है शायद !"" घर पर नहीं होने के लिये क्या हुआ ?। है ना घर पर"
"उनसे कहिये जोगवा  लेकर आएँ " कहकर सुला ने चुंटकी भर हलदी घर की देहरी पर रखी।  भंडारा रखने के लिए जैसे वह नीचे झुकी उसके काँधे का आँचल नीचे गिर गया। फ़ौरन ही सतर्क होकर उसने आंचल फ़िर कंधे पर  डाला। इतनी देर में पाटिल पागल हो चुका था। 
"लगता  है इस बार फसल जोरदार लहलहा रही है "
" मैं समझी नहीं " सुला ने आँचल ठीक करते हुए कहा। 
" समझोगी कैसे?यह बात तो लहलहाती फसल देखने वाले किसान ही समझ सकते हैं "
सुला खामोश खडी थी। 
पाटिल ने पूछा ," किसे चुना है झुलवा करने के लिये ?"
" जी! अभी तय नहीं किया। " सुला। 
" जल्दी ही तय कर ले ना ! वरना लहलहाती फसल बेकार जायेगी। हमारे बारे में भी सोच ले!तुझे किसी तरह की कमी नहीं  होने देंगे। झुलवा का अनुभव है मुझे "पाटिल  मूछों पर ताव देते हुए कहा। 
सुला मारे  शर्म के पानी -पानी हो गई  थी। ठीक उसी वक्त पाटलिन बाई अपने हाथ मे सूपा लेकर बाहर आई। पाटिल पर खिसियाते हुए उसने कहा ,"क्यों, जोगवी का मजाक उड़ा रहे हो? 
"हाँ!नहीं तो और करू? झुलवा के लिये उसे अपने बारे मे विचार  करने को कह रहा  था। "
" बोलने से पहले इन्सान को अच्छी तरह सोच लेना चाहिये। दो- तीन बार होगया  है झुलवा। अब हमारे बच्चे शादी के लायक हो गए  हैं। यह सब अच्छा  नहीं लगेगा। " पाटलिन बाई गुस्से में तमतमा रही  थी पाटिल  ने बेशर्मी से हँसते उए कहा ," बाल-बच्चे शादी के लायक हो गए हैं तो क्या हुआ?उम्र होने पर सभी शादी के लायक हो जाते हैं. "इस बार फसल लहलहा रही है सिर्फ़ इतना ही तो कहा था मैने!?
 " अजी! देवी की दासी का ऐसा  मखौल नही उड़ाया करते। "
पाटिल ठहाका मारकर हंसा ,"अरे! देवी की दासी से मजाक नहीँ करुँ तो क्या गढ्ढेः से करुँ? तुझे समझ मेन नाहीं आऐंगी ये बाते। "
" रहने दीजिये   रहने दीजिये कहकर पाटलिन बाई डिहरी पर पहुंचीं उस्ने सला कि झोली मे  सूपा खाली किया। दहलीज पर रखा भंडारा अपने माथे    पर लगाया। सुला बगैर कुछ बोले अपनी राह चली गई। 
  धूप कुछ और तेज हो गई थी।  सारा जिस्म झुलसने लगा था। सुला जल्दबाज  क़दमों से गांव की ओर जाने लगी। आज उसे पर्याप्त जोगवा भी नाहीं मिला था। गाँव चार किलोमीटर की दूरी पर था। वहां पहुँचते तक तीन-चार बज जाते बज जाते। वैसे मंगलवार उसके उपवास का  दिन होता है। सुबह से उसके पेट में अनाज का  एक दाना भी नहीं गया था। लगातार चलकर उसके पैरों के तलुए दर्द से जवाब देने लग गये थे। तीखी धूप  की वजह से हलक  सूख़ चुका था। उसके मन में  विचार आया कि बाड़ी रुककर कूएं पर पानी पीकर निकला  जाएं।बाड़ी दीखते ही उसे खुशी हुई। अमूमन पचास कदम जाने पर वह बाड़ी मे पहुँच चुकी थी। कुँए में लगा पम्प पानी उगल रहा  था। साफ़ पानी की नाली लबालब भरी हुई थी जहान से पूरी बॉडी  मे सिचांई होती थी। 
                     सुला ने गले से झोला निका लकर रखा और उसपार डलियाँ रख दी। ."आई येल्लूबाई "उच्चारकर जैसे ही पानी में हाथ डुबोये वैसे ही पानी उलीचने वाली जगह से आवाज आई," क्या हाल-चाल है कबूतरी!"
माने पाटिल की  आवाज सुनकर सुला चौक गई। उसने नजर उठाकर देखा पाटिल किसी  जंगली सूअर  की तरह  दस कदम दूर खडा था। काला डामर जैसा रंग और उंची-पूरी कद-काठी के पाटिल को देखकर ऐसा लगा मानो  उसकी छाती के भीतर  दिल के धड़कने की बजाये हथौड़ा पीटने की  रही हो।  उसे देखे बगैर  सुला ने अपनी हथेलियों की अंजुरी फ़िर पानी मे डुबोई। उसी वक्त  माने पाटिल ने मुंह खोला 
     "क्या बोलती तू कबूतरी!लगता है थक  गई है !"
     सुला अब भी खामोश थी। 
     लगा ," माँ कसम!लगातार गुटुर गूँ करने की उम्र मे इस कबूतरी कि चोच बन्द क्योँ है ?"
   सुला अब सहम गई थी। माने अगले पल क्या कर बैठेंगा कोइ भरोसा नहीं  था। सुला ने अपनी मधुर आवाज मेन की," क्या मालिक!में देवी की दासी क्यों इस गरीब का मजाक उड़ा रहे हैं ?"माने दांत निपोरकर कहने  लगा। ," अरे वाह! यह कबूतरी तो बोलती भी है!" अरे! देवी की दासी है इसलिए तो आया हूँ तेरे  पीछे -पीछे ! अब शिकार जब खुद ही चलकर शिकारी के पास आ गया है तब उसे यूं ही छोड़ देना  भी ठीक नहीँ है ना!तू चल ना मड़ैया के भीतर। थोड़ी देर वहां आराम कर ले। वैसे भी बाड़ी के भीतर कितनी  ठंडक है ना!"
     माने एक-एक कदम गंभीरता से आगे बढ़ रहा था। सुला ने बाड़ी पर सभी  ओर नजर घुमाई।दूर -दूर तक उसे कोइ इन्सान नही  दिखाईं दिया।  छाती के भीतर हथौड़ों के प्रहार कि गति तेज हो चुकी थी। मन ही मन वह देवी की प्रार्थना करने लगी वासना    के चरम पर माने क़ब शरीर को दबोच ले!बाह पल कभी भी आ सकता  था। उसने पानी के भीतर से अपनी अंजुरी  बाहर निकाली। झोले पर रखी डलिया उठाई फ़िर बगैर पल भर गवाए बिजली की रफ़्तार से दौड़ने लगी ।माने पर वासंना का उन्माद  सवार था। वह भी सुला के पीछे  भागने लगा। सुला भयभीत हिरणी की तरह भाग रहीं थी। अपने शरीर सारी ताकत इकठ्ठा कर बदहवास दौङ रही थी। दौड़ते-दौड़ते उसने पीछे मुड़कर देखा। माने किसी वहशी भेड़िये की तरह पीछा कर रहा था। सुला अब दुगुनी रफ़्तार से भागने लगी। हलक सूख गया था। उसे ऐसा लगा मानो  गश खाकर गिर पड़ेगी। रास्ते के किनारे आम के पेड़ के नीचे उसने धौकनी की तरह चलतीं  साँसों को संयत करने की चेष्टा की। एक बार फिर उसने पीछे मुड़कर देखा ,माने उसे कहीँ भी नजर नहीँ आ रहा था ।उसने ठंडी साँसें लीं एक नजर खुद   को जी   भरकर देखा अपने उफनते यौवन को ही हजार गालियाँ दी.बिखरे हुए केश ठीक किये। अपना आँचल कंधे पर डाला आये हाथ मे रखीं डलियाँ पर  उसकी नजर पड़ी। वह पूरी तरह खाली हो चुकी थी। भागने के उन्माद में डलिया  से देवी की  मूर्र्ति   कब गिरी इसका भान भी नही  रहा। मूर्र्ति  के सामने रखी भंडारे की थैली भी ग़ायब थी। पानी उलीचने वाले कनस्तर मे फंसकर गले मे लटकती माला के मोती भी बिखर चुके थे। माथे पर लगा भंडारा ( हल्दी )पसीने से गया  था। झोली भी  जगत पर ही रह  गयी थी। 
                  सुला किं कर्तव्य विमूढ़ थी।  संज्ञा शून्य स्थिति मे उसे पता  ही नहीं चलाकि वह क्या मह्सूस कर रही है!बगैर देवी की  डलिया  का क्या फायदा! यह सोचकर उसने डलिया पूरी ताकत से फेंक दी। न जाने क्यों दूसरे  ही क्षण उसे ऐसा लगा मानो उसने सही नहीं  किया।  आखिर कुछ भी हो  की डलिया थी उसे   घर लेकर ही आना चाहिए था। डलिया वापस लेने उसने एक कदम आगे बढ़ाया लेकिन इससे पहले कि  दूसरा कदम बढ़ातीं वह ठिठक गई। हाथों देवी  रहने के बावजूद   सारी जिन्दगी देवी को अर्पित करने पर भी  मर्द मेरी इज्जत तार-तार कर देने  भेडियो की तरहमेरे  पीछे क्योँ  प ड़े ?आखिर देवी की दासी की तकदीर मे ही ऐसा छलावा क्योँ? सवालों के तीर सुला के ह्रदय  को छलनी किये  जा रहें थे। उसने दूर जमीन पर पड़ी डलिया पर नजर डाली। दुबारा डलिया उठाने  की इच्छा मन  में  नहीं हुई। सुला अपने खाली हाथों से ही  घर रवाना हो गई। उसने ठान लिया था वह डलियाअब कभी भी जीवन मे नहीं उठाएगी। 
                                                                     अनुवाद-किशोर दिवसे 

1:04 pm
 
 
 
 
 
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