गुरुवार, 18 सितंबर 2014

किसने भीगी हुई जुल्फों से झटका पानी झूम के आई घटा ,टूट के बरसा पानी

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किसने भीगी हुई जुल्फों से झटका पानी   झूम के आई घटा ,टूट के बरसा पानी
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खुली खिड़की के रोशन चौरस टुकड़े से बाहर सब कुछ नजर आ रहा था -साफ़ साफ़.हरी भीगी और कहीं -कहीं  पर लबालब घांस.. बीच बीच में छेड़ते पत्थरों से बचकर इठलाती -बलखाती जल धाराएँ  और मैदान में सरे आम नहाते पेड़.शाखों की चमकीली हरी पत्तियों से टपकती पानी की बूँदें ... बारिश से खुद को बचाती शाख पर नैन मटकाती बदन के रोयें बे-बूँद करती नन्ही चिड़िया की प्यारी थिरकन. भीगते सायकल सवार.. कुछेक छतरियां...रेनकोट उठाये  स्कूटर सवार और उनकी बाजू से  पैदल आते-जाते   कीचडिया रास्ते पर लगभग कैट वाक या डिस्को करते पैदल चलते लोग.कभी-कभार दुपहियों की जोरदार फर्र....की वजह से बेरंग-बदरंग हुए अपने कपड़ों के लिए बुदबुदाते   और उनसे माँ... बहन का रिश्ता जोड़ते लोग और सबसे ऊपर नीली छतरी वाले की काली घटाओं का लगातार बरसता कहर....
                    अपने शहर में अभी रेन-डांस अब आहिस्ता -आहिस्ता शुरू हो गया है . बड़े शहरों में युवक -युवतियां बारिश आने पर मानसून का स्वागत  करने रेन-डांस किया करते हैं बड़े भी उनका साथ देने लगते  हैं.यह तो बस मौसम का मजा लेने का एक तरीका भर है! उफ़ ये मौसम की कैसी बदमिजाजी!खुली खिड़की के रोशन चौरस टुकड़े से बाहर का दृश्य .. हर तरफ... छपाक... छपाक...और मैं भीतर... लिहाफ में लिपटा , दद्दू से साथ बैठकर चाय की चुस्कियां ले रहा हूँ.सामने वाले मकान  के पोर्च में बारिश से बचते कुछ बिंदास नौजवानों की गपशप और बाइक पर सवार युवक का एकाएक   रुकना.... पल भर भीगी -भीगी युवती से आँखें चार होना और यह कहकर फुर्र हो जाना कि-
               कागजी जिस्म हों जिनके वो घरों को जाएँ
              मुझको इस बारिश का मजा लेने दो
वह तो बारिश का मजा लेने सड़कों पर इतराता रहा और दद्दू ने मुंह में पकौड़ा ठूंसकर मुझपर सवालिया फायर किया,"खबरची!पिछली बार बेतहाशा बारिश हुई थी. ऐसे में तो फसलें चौपट हो जाती होंगी?   और... निचली बस्तियों के घरों में भी पानी भर जाता होगा? " हाँ दद्दू!देखते नहीं...अभी अपने बिलासपुर का क्या हाल हो रहा है? सड़कें बर्बाद हैं. सिम्प्लेक्स कपनी पर सियासी अंकुश नहीं होने  का खामियाजा  जनता भुगत रही है... मासूम बच्चे ... क्या बड़े .. मौत का सिलसिला शुरू हो गया है.."" 
निचली बस्तियों में भी घनघोर बारिश के बाद दरकती दीवारें... टपकती छतें..और नीचे गीली टहनियां...छेना ... सुलगाते  मजदूर   बस्तियों की तकलीफें मेरी जुबान का दर्द बन जाती हैं- 
                 रात भर बरसात में छप्पर मेरा टपका किया
                 जेहन में मेरे लेकिन कितने मकान बनते रहे 
मकान भीग रहा था ... कुछ देर बाद धूप  खिली चंद लम्हों के लिए और गुम    हो गया सूरज. आप भी देखो... खुली खिड़की के रोशन टुकड़े से बाहर-जब भी बारिश हो... बारिश में किसी पेड़ को देखना .. हरी शाल ओढ़े हुए भीगता कौन है!"धूप और घटाओं की लुका-छिपी मुझे कालेज के उन दिनों की ओर ले गई जब मैंने " उससे " कहा था ," कभी धूप निकले कभी छाये बादल... तेरे सर से जैसे सरक जाए आंचल"
               दद्दू के दोबारा फायर करने पर मैं अपने आप में लौटा, " अब चलो भी जरा बाहर की तफरीह कर आते है? चहलकदमी करते हैं मैं और दद्दू खेतों तक.खेतों में कहीं ख़ुशी, कहीं गम!गेहूं ने मायूस मसूर के गालों को सहलाकर कहा," मैं हूँ ना!" इधर रुआंसी सब्जियों और तिवरा को प्यार से पुचकारा धान ने और कहा  " हमसाथ-साथ हैं" बरखा जीभ निकालकर चिढ़ा रही थी,"" मै तो रिकार्ड बना रही हूँ!"
                         लौट कर एक-एक प्याला चाय और.खुली खिड़की के रोशन चौरस टुकड़े से बाहर अब नया दृश्य है.हमारे लौटने के लिए रुकी बारिश फिर शुरू.एक अजनबी लडखडाती चाल में कुछ दूर आगे बढ़ा .मेरे मकान के दाहिने कोने पर खड़े बिजली के खम्बे से टकराया और नीचे बैठ गया.बढ़ी हुई दाढ़ी... एक हाथ में पुरानी चीकट पोलीथिन में दफन कुछ बेतरतीब पन्ने और दूसरे हाथ में आधी खाली चेपटी ( दारू की बोतल).यकायक मुंह उठाकर जोरों से अलापने लगा वह-
                         पीने का इरादा तो नहीं था मगर  ऍ जोश
                         काली घटा को देखकर नीयत बदल गई!
नीयत बदल गई स्कूल से घर जाते बच्चों की.  रिक्शे से उतारकर सड़क पर बने गंदे पानी के डबरे में छपाक-छपाक कूदने लगे.अपनी मस्ती के चक्कर में ये नन्हे लीलाधर भूल गए कि बाजू से गुजरती डोकरी दाई जी भरकर चिचिया रही है.इधर बारिश में भीगते कुत्ते ने अपने थूथन से लेकर दुम के अंतिम छोर तक शरीर को जोरों से श्वान लय में महा-कम्पित किया और चला गया " किसी के " बुलावे पर .
                       वह  चला गया पर दद्दू अभी जमे हुए थे.घडी ने छः बजे की इलेक्ट्रानिक धुन बजाई और चौंक पड़े  दद्दू ," बाप रे! छः बज गए!इधर उन्होंने घर लौटने का अफसाना बुनना शुरू किया और उधर श्रीमती जी दफ्तर से लौट गई.रेनकोट के बावजूद बारिश से तर-बतर .खूँटी से बाहर रेनकोट टांगकर उन्होंने अपने केशों को कुछ इस अंदाज में झटका की खुद को रोक न सका मैं और बे साख्ता  मुंह से निकल पड़ा-

                          किसने भीगी हुई जुल्फों से झटका पानी
                            झूम के आई घटा ,टूट के बरसा पानी
पानी बरसता रहा और दद्दू ने खुले मुंह से हमारा मूड भांपकर नौ-दो ग्यारह होने मने ही शायद अपनी भलाई समझी होगी.हो सकता है इन लाइनों को पढ़ते वक्त बारिश हो रही हो ... थम चुकी हो...या धूप ही निकली हो.बारिश के " उन दिनों में "आपने क्या किया  यह मुझे जरूर बताना.अभी देखो.... सारे दृश्य अब गुम हो चुके हैं . सामने दिखाई दे रहा  है -खुली खिड़की का अँधेरा चौरस टुकड़ा ... जिससे छनकर आ रही है बिजली के खम्बे पर टंगी ट्यूब लाईट की दूधिया रोशनी !
                     आज इतना ही... अपना ख्याल रखिये... मुस्कुराते रहें...
                                                                                किशोर दिवसे. मोबाइल  09827471743



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