रविवार, 14 सितंबर 2014

मैं खिड़की हूँ ……

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मैं खिड़की हूँ …… 
दोनों और निहारती हूँ 
कोई बंद कर लेता है जब 
सोचती हूँ उनके बारे में 
जो होते हैं कमरे के भीतर
पर ठीक उसी वक्त फीडबैक
मिलता है मुझे दुनिया के
विहंगम,विकल -अविकल
विकास और विनाश का भी !
मैं खिड़की हूँ। …
समझो तो एक सेतुबंध
भीतरी/बाहरी दुनिया के बीच
यह तो आपपर है निर्भर
जानना और आत्मसात करना -
खुली खिड़की का ध्रुव सत्य
अगर मन-मेधा की अपने
रखोगे खिड़की खुली
हो जाओगे पूर्णतः अपडेट
समय - सापेक्ष सरोकारों से
वर्ना-मैं रहूंगी चिर मौन !
और आप?-ठहरा हुआ पानी!
अतः सोचो अपने बारे में
मैं खिड़की हूँ। ....

(अपर्णा अनेकवर्णा की भेजी एक पोस्ट के बाद मैंने सोचा-)

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