सोमवार, 26 सितंबर 2011

एक हंसी हर वक्त हो उनको मनाने के लिए

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पिताजी.. मैं नहीं चाहता गुस्सा करना पर क्या करूं अपने आप पर काबू नहीं रख सकता."- एक बेटा कह रहा था.
" बेटा तुम एक काम करना,जब भी तुम्हे गुस्सा आये दरवाजे  पर एक कील ठोंक देना." पिता ने उसे सलाह दी.कुछ ही दिनों में पूरा दरवाजा कीलों से भर गया.बदशक्ल दरवाजा दखकर बेटे को बड़ी  कोफ़्त हुई.वह फिर गया अपने पिता के पास और कहने लगा< " पिताजी सारा दरवाजा कीलों से ठुक गया है पर गुस्सा है की कम होता ही नहीं.
" ऐसा करो बेटा मन में ठान लो की गुस्सा नहीं करना है.जिस दिन गुस्सा न करो एक कील उखाड़ लेना." पिता ने इस बार दूसरी सलाह दी.बेटे ने वैसा ही किया.इस बार कुछ ज्यादा दिन लगे  पर दरवाजे से सारी कीलें उखड़ चुकी थी.अब वे दोनों दरवाजे के सामने थे.बेटा खुश था की मैंने अपने गुस्से पर काबू पा  लिया है.
             " बेटा देख रहे हो दरवाजे पर कीलों के भद्दे निशान!तुम्हारे गुस्से ने  इसे बदसूरत बना दिया..अब तुम्हे गुस्सा नहीं आता पर दरवाजा तो बदशक्ल हो गया न!उस पर बने निशान तो नहीं मिटे!जानते हो.. घर के दरवाजे की तरह हमारे दिल का दरवाजा होता है.गुस्से में आप़ा खोकर किसी को इतने बुरे शब्द न कहें की उसके दिल के दरवाजे पर ऐसे ही अमिट निशान बन जाएँ...
                        अपने गुस्से पर नियंत्रण रखना सीखें.प्लूटार्क ने कहा है,"क्रोध हंसी की हत्या कर ख़ुशी को नष्ट कर देता है.क्रोध उतना कारगर नहीं होता  जितना की साह्स.ग्यानी पुरुष या स्त्री का पतन भी क्रोध से ही होता है.गुस्से को अगर जीतना है तो शांति से जीतो.
               उनको आता है प्यार पे गुस्सा
                 हमको गुस्से पे प्यार  आता है
अमीर मीनाई की इस बात पर आप अगर यकीन करते हैं तो बड़ी अच्छी बात है.प्यार से ही गुस्से  की गरमी भाप बनकर उड़  जाएगी.पर एक बात जरूर है की हर उम्र के गुस्से का अंदाज-ए-बयां अलहदा होता है.अपने दद्दू का नाती मिंटू गुस्से में खिलौने तोड़ देता है.कोई गुस्से में आप़ा खोकर उल-जलूल बकने लगता है और शांत होने पर माफ़ी मांग लेता है.मुकेश गुस्से में आकर घर छोड़कर चला गया.मूर्ख स्नेह ने गुस्से में आकर खुद पर मिटटी तेल छिडक लिया.पति-पत्नी के बीच भी यदा कदा गुस्से का ज्वालामुखी फटता है.किशन को जब गुस्सा आता है वह खामोश रह जाता है.कुछ देर उसकी पत्नी राधा उबलकर ठंडी पड़ जाती है.बहरहाल आपकी महबूबा अगर गुस्से में हो तब यह सुनाना क्या बुरा है-
                       भवें तनती है खंजर  हाथ में है तन के बैठे हैं
                       किसी से आज बिगड़ी है जो वो  क्यूं बन के बैठे  है
सबसे खातारहम होता है भीड़ का गुस्सा क्योंकि उसका कोई चरित्र नहीं होता.गुस्से को विध्वंसात्मक होने की बजाये उसे क्रिएटिव दिशा में रूपांतरित किया जा सकता है बशर्ते आप चाहें.सुना है फ़्रांस के घरों और दफ्तरों में एक WRANGLE ROOM हुआ करता था.झगड़ने के लिए विशेष कमरे में जाया करते थे.किसी दफ्तर में सभी की मूर्तिया बना कर रख दी गहि थी.जब जिस किसी पर  गुस्सा आता था उसकी मूर्ती पर चप्पलें बरसाया करता. अगर यह भारत में होने लगे तब कहाँ किसकी मूर्ती के परखच्चे मिलेंगे यह सोचा जा सकता है.और हाँ, अगर बात किसी प्रेमी जोड़े के रूठने -मानाने की है तब फ़िराक साहब ने तो सारी बला हमपर टाल दी है इस  अंदाज में-
                        मान लो तुमसे रूठ जाये कोई
                            तुम भला किस तरह मनाओगे
तीन एजर्स का गुस्सा हमेशा उनकी नाक पर रहता है.नौजवानों का गुस्सा आत्म नियंत्रण के बगैर दिशाहीन, बेकाबू होकर अनहोनी तक पैदा कर देता है.खास तौर पर युवाओं को चाहिए की वे आलोचनाओं पर गुस्स्सा करने के बजाये चुनौती समझ कर कोई रचनात्मक लक्ष्य हासिल करें.अधिक गुस्सा करना भी कमजोरी का लक्षण है.इसे अपनी कमजोरी मत बनने दीजिये.जरा सोचिये आपके घर में गुस्सा कौन किस तरह से करता 
 है.और हाँ जब भी कोई गुस्सा हो जाये मन में यह बात आनी चाहिए की-
                   आपसे- हमसे रंज ही कैसा 
                   मुस्कुरा दीजिये , सफाई है...
                                                                                    अपना ख्याल रखिये....
                                                                                         किशोर दिवसे.
                                                                                      
                                  
                                   



                          

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

" जाति -बंधन से लहू लुहान होते दिलों के रिश्ते.

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" जाति -बंधन से लहू लुहान होते दिलों के रिश्ते...

आंसुओं  के मोती झर-झर  के वहीँ पर गिरे जहाँ पर अखबार के कालम में ढेर सारे क्लासिफाइड छपे थे.- बंगाली वर चाहिए,सजातीय श्रीवास्तव.. जैन.. ब्रह्मण... पंजाबी ...मराठी.. आदि-आदि... वर चाहिए... जातिबंधन के नासूर ने रूही का दिल छलनी कर दिया था.वह  सोचने लगी,"," शादी तो दो दिलों का चिरंजीवी रिश्ता है .जाती की दीवारों से क्यों लोग इसे तंग कोठी  बना देते  हैं .क्या बुराई है रोहन में .सिर्फ सजातीय नहीं है बस!पर एमबीए है..अच्छी खासी सर्विस है तब पापा ने क्यों उसे खरी-खोटी सुनाई?शादी के बाद म्युचुअल अंडर स्टैंडिंग  जरूरी है या जाती के कैक्टस की लहू लुहान कर देने वाली बाड़!
                        दद्दू ने स्नेह से रूही के सर पर हाथ रखा और बोले,"बेटी तुम चिंता मत करो.रोहन से बेझिझक शादी  कर सकती हो.शादी के लिए सबसे जरूरी है आपसी सामंजस्य  और एक-दुसरे को उसकी अच्छाइयों और कमजोरियों के साथ स्वीकार करना.रहा सावल तुम्हारे पिता की नाराजगी का ,उन्हें मैं समझा लूँगा." रूही आश्वस्त होकर घर लौटी और थोड़ी देर में दद्दू तफरीह के लिए निकल पड़े.काफी हाउस के सामने एकाएक मुझपर निगाह पड़ी तब हम दोनों  काफी की टेबल पर थे.
                                  फ्राक पहन कर इठलाने नाचने से आज छाती पर ओधनी रखने की उम्र तक का वक्त मनो फुर्र से उड़ गया था.कल के पल-पल की यादों के साथ रूही का आज दद्दू के सामने था रूही का वही दर्द दद्दू की आँखों में छिपाए न छिप सका.  " आखिर जाती बंधन की दीवार से कब तक लहू लुहान होते रहेंगे दिलों के रिश्ते?बात सिर्फ रूही की नहीं.. नितिन... कंचन..दीपक.अभिषेक.. संजय या रश्मि..जाती बंधन की वजह से किसी का भी सपना क्यों टूटना चाहिए?
युवा और रूढ़िवादी बुजुर्वा -इन दो पीढ़ियों के बीच शादी के मामले में जतिबंधन शिथिल करने के सवाल पर समाज का केनवास दृश्यों का कोलाज दिखा रहा है.सपनों के टूटने से खुद्कुस्हीं करते युवा,थोपा हुआ फैसला मानने पर मजबूर नौजवान,ऐसे शेरदिल जिन्होंने सजातीय या विजातीय प्रेम विवाह सहमती या असहमति से किये.कोलाज के दृश्यों में कुछ अड़ियल बुजुर्ग हैं जिन्होंने नौजवान दिलों के रिश्ते अपनी जिद की सूली पर लटका दिए.आज की  आधुनिक जनरेशन से दोस्ताना सम्बन्ध चलने वाले माता -पिता भी हैं जो अपने-बेटे-बेटी की पसंद को कसौटी पर परख कर " स्वप्न नीड़ बनाने की हरी झंडी देते हैं सही मायने में जनरेशन गैप का भूत ऐसे परिवारों पर काला साया ओढाने का दुस्साहस कभी नहीं करता.
                               सांस लेने का नाम अगर जीना है साहिर
                               तो सांस लेने के अंदाज भी बदलते रहिये.
अंतरजातीय विवाह जरूरी नहीं लेकिन आज की पीढ़ी यदि प्रेमविवाह या जाती बंधन मुक्त विवाह की पक्षधर है तब सारे पूर्वाग्रह या दुराग्रह छोड़कर पीठ थपथपाने में देर क्यों होनी चाहिए?अब तो शेक्स्पीरियां मैरिज भी होने लगी है.जो सफल भी हैं.छत्तीस में से बत्तीस गुण मिलाने वाला युगल साड़ी जिंदगी लड़ते भिड़ते गुजर देता है. बिना कुंडली देखे विवाह करने वाले कई दंपत्ति समझदारी से बेहतर जिंदगी भी बिताते है. 
                        पुराने पड़ गए अब फेंक दो तुम
                          ये कचरा अब फेंक दो तुम
दो महीने यूं ही गुजर गए.एक रोज भरी दुफारी में दद्दू ने आकर बताया." खाना खाकर यूं ही सुस्ता रहा था.काल बेल बजने पर दरवाजा खोला तो सामने रूही ... साथ में युवक को देखकर समझने में देर नहीं लगी की वः रोहन ही है.रोम  रोम में बसी खुशियाँ अल्फाज बनकर फूट पड़ीं.उसने बताया मम्मी -पापा आखिर राजी हो गए.वे आने वाले थे लेकिन... उसकी आँखों की भीगी कोरों से मैंने पूरी इबारत पढ़ ली थी.
                       शादी का कार्ड देकर रूही ने दद्दू के पाँव छुए." जादू की झप्पी के बाद रोहन-रूही jb बीड़ा हुए दद्दू उन्हें ओझल होने तक देखते रहे.अलमारी में रखी अखबार की वह कतरन देखी  जो कभी रूही के आंसुओं  से भीग  गई  थी.भीगी आँखों से मुस्कुराकर  दद्दू ने दीवार पर टंगे केलेंडर पर सात नवम्बर की तारीख को लाल घेरे में समेट लिया. 
                                                      अपना ख्याल रखिये
                                                                               किशोर दिवसे 

          

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

पचपन बरस का होने पर......

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करिश्माई होती हैं दुआएं .उम्र पचपन की होने पर उम्रदराज होते जाने का मतलब बेहतर समझ में आने लगता है.अधिक जिम्मेदार होने की खुशियाँ और अदृश्य  दराज में रखी उम्र कितनी बची इसकी धुकधुकी भी...यानि कुछ खट्टा, कुछ मीठा.फिर भी फेस्बुकिया रिश्ते का एहसास अब मेरे मन को सम्मोहित कर चुका है.मेरे सभी अपनों के  जन्मदिन पर मेरे लिए भेजे बधाई  सन्देश निश्चित रूप से जिंदगी को हर पल अधिक ऊर्जा से जीने का हौसला देते हैं.फेसबुक परिवार का मेरा हर एक साथी  उम्र में छोटा हो या बड़ा ,मेरे दिल के भीतर मौजूद है.सब से सीखने की कोशिश की है मैंने.कभी छेड़ा है तो समझाया भी है.मन के भीतर भी सभी लोग बतियाते है मुझसे.मेरे जन्मदिन पर आप  सभी का प्यार सर आँखों पर.सच!कितना जादू है आपकी  दुआओं में!...महकता ही रहूँगा मैं आने वाले हर पल के दौरान....अपना बनायें रखें बस यही एक इल्तजा.    अपना ख्याल रखिये....प्यार  और आपके लिए हमेशा दुआओं सहित   -  किशोर दिवसे.

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

छत्तीसगढ़ के रायपुर और बिलासपुर में 4000 समलैंगिक

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छत्तीसगढ़ के रायपुर और बिलासपुर में 4000  समलैंगिक ... आज नवभारत बिलासपुर  और रायपुर संस्करण का बैनर है. यकीनन यह खबर  स्वास्थ्य अमले के लिए सबसे बड़ी चुनौती है.  वैसे इसके लिए एन जी ओ कुनबे  तथा समाज को जनजागृति का कार्य जमीनी  स्तर पर करना चाहिए. एच  आई वी टेस्ट में हजारो का पाजिटिव आना छत्तीसगढ़ के लिए एक बेहद खतरनाक संकेत है.एड्स जाग्रति से जुड़े सरकारी / गैर सरकारी संगठन भी कागजी नहीं वरन  एक मुहीम चलाकर इस आसन्न विपदा का सामना करें जिसमें मीडिया को भी भागीदार बनाया जाये.  जल्द काबू न पाया गया तो एड्स  छत्तीसगढ़  में नासूर बन जायेगा.

रमजान का चाँद और खूबसूरत हरियाली....

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आसमान  की चादर से नीचे झुककर रमजान के चाँद ने खूबसूरत हरियाली को देखा.रोजेदारों के घर इबादत की पाकीजगी से सराबोर थे.हरियाली को देखकर चाँद मुस्कुराया और दोनों गुफ्तगू करने लगे.वक्त-वक्त की नमाज के लिए रोजेदारों की मसरूफियत के साथ ही सहरी -अफ्तार की आपधापी भी चाँद के लम्हों का एक हिस्सा थी. हरियाली भी तो सावन उत्सव में हरे शेड्स के आउट फिट्स में शोख.. हसीं ... और दिलकश लग रही थी.
                " चाँद.. तुमने देखा!सावन उत्सवों में हम सब कितने मजे ले रहे हैं!- हरियाली बोली." ठीक कह रही  हो हरियाली!" रमजान के चाँद ने कहा ,"हाँ.. इसलिए शायद... पाबंदियों के भीतर अपनी अनुकूलता के बाईपास बनाये और ढूंढ लिए गए है.आस्था -अनास्था जिंदगी का हिस्सा बन  गई है.अपना-अपना "सर्फ़ एक्सेल" तलाशने की जिम्मेदारी भी अब खुद की हो गई है.
                           " चेहरे नजर आ रहे हैं मुझे रोजेदारों के" हरियाली के मयूरपंख फैले,"रौशनी से छिपा चाँद का अँधेरा कोना मैंने महसूस किया है.अमीरी -गरीबी की खाई दुनिया में अब भी बेहद  गहरी है .यकीनन ,फाकेमस्ती करने वालों के लिए तो रोजे मजबूरी बन जाते है. बकौल निदा फाजली-
                               माहे रमजान वक्त से पहले नहीं आता
                               घर की हालत देख के बच्चों ने रोजा रख लिया
हरियाली के कानों में गूँज रही है सावन उत्सवों की मीठी-मस्ती भरी खिलखिलाहटें .  
                   महिलाऐं  सावन के मदमाते गीतों की मस्ती में मस्त हैं.रमजान का चाँद भी तकरीबन हर उम्र के रोजेदारों की खिदमत में मशगूल है. दरअसल रमजान का महीना जाने-अनजाने हुए अपने गुनाहों के दाग धोने का मौका है.हर एक मुसलमान के लिए ऐसी इबादत का वक्त जब वह जन्नत नसीब होने के लिए अच्छे काम करता है. रोजे के दौरान या रोजा-
                       भूख और प्यास का एहसास दिला देता है 
                       रोजा इंसान को इंसान बना देता है
हरियाली ने चाँद को एक लतीफा  सुनाया.अपने दद्दू और मियां जुम्मन दोनों ही उसके अजीज हैं. उनसे ही सुना था हरियाली ने-वह तरन्नुम में बोली-
                        माहे रमजान का मुझे भी एक लतीफा याद है
                        इत्तेफाकन एक दिन जुम्मन ने रोजा रख लिया
                          कर दिया इस कद्र हुक्के की तलब ने बाद हवास 
                          पाँव में टोपी पहन ली,सर पे मोजा रख लिया! 

सावन, हरियाली के यौवन उन्माद का प्रतीक है. हरियाली ने रमजान के चाँद से कहा," मेरे चाँद! रमजान के पाक मौके पर रोजेदार ,परवरदिगार के कितने करीब हो जाते है न!यूं लगता है की-
                         अल्लाह! क्या नसीब है ये रोजेदार के
                         बन्दे करीब हो गए परवरदिगार के!
                        
दूधिया  रोशनी है रमजान के चाँद की. उसकी छुअन से हरीतिमा और भी शोख हो जाती है.सावन बहकता है... छलकता है.. महकता और दहकता भी है..... बस जरूरत इसके एहसास की है.ॐ नमः शिवाय  ... बोल बम.... की गूँज है..बहाने सावन के काश हम सब कुदरत के सुप्रीम पावर को याद कर उसका सम्मान करना सीख लें.एक और बात, सावन के उपवास हो या रमजान के रोजे- ईश्वर-अल्लाह के सामने  सारी कायनात यह दिली एहसास करे की-
                                   आज कोई ऐसा  मजहब चलाया जाये 
                                  जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाये
मुस्कुरा रहा है रमजान का चाँद...उसकी दूधिया रौशनी ने हरियाली के गालों को छूकर ओठों पर मुस्कान ला दी है. तभी तो वो देखो सारे कोंपल.. पत्तियां और किसलय भी मस्ती में कैसे झूम कर खुशियों  की हामी भर रहे है!!

                                                            जल्द ही मिलेंगे.. अपना ख्याल रखिये...
                                                                                 किशोर दिवसे 
                    .

रविवार, 17 जुलाई 2011

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5. उलूक -        THE OWL -- by- EDWARD THOMAS 




पहाड़ियों की ऊंचाइयों से होकर                   
तलहटी तक नीचे उतरा मैं
भूखा ,पर नहीं था क्षुधार्त 
शांत पर ज्वालामुखी बसा था मुझमें 
उस उत्तरी चक्रवात से जूझने 
तब एक सराय में मैंने बुझाई
 अपनी आग,भूख और थकान 
मैंने समझा कि कितना अतृप्त 
और थककर चूर हो गया था मैं
निस्तब्ध निशा का वह सन्नाटा
जिसे चीरती थी कर्कश चीख
उलूक ध्वनि-कितनी अवसाद भरी 
लम्बी चीख पहाड़ी पर गूंजती
जिसमें न था ख़ुशी का लेशमात्र पर 
उस रात जो मैंने पाया दूसरों ने नहीं
जब मैं पहुंचा था उस सराय में 
पक्षियों के कलरव से आनंदित 
नक्षत-जडित नीली चादर के नीचे
उन सिपाहियों और ग़रीबों के लिए थी
वह मीठी चहक ,जो भूखे थे 
उस आनंद और उल्लास के

    6.शिशिर में वनों के राजहंस   THE WILD SWANS AT COOLE    -BY-Y.B.KEATS

सूखी  है  वनों  की  पगडंडियाँ                     
और वृक्षों पर छाया शिशिर का सौन्दर्य
शरत की गोधूली  वेला पर 
अंकित है स्थिर नीलाभ का प्रतिबिम्ब 
पत्थरों पर छलकती जलधाराओं के बीच
विहार कर रहे हैं राजहंस
******
मुझ पर छाई उन्नीस वसंतों की गमक
धवल परिंदों के परों का कोलाहल 
अचानक हो गया मौन...स्पन्दन्हीन
मेरा मन हो गया अवसाद से पूर्ण
गोधूली वेला में मैंने पहली बार महसूसी थी
घंटियों की मानिंद,धवल पंखों की थिरकन
आहिस्ता-आहिस्ता वह प्रणय नर्तन
अनथक हंस युगलों की जलक्रीडा
तब झरनों में थी ,अब नीलाभ  की ओर
प्रणय उन्माद    वही है ..पर गंतव्य सर्वथा नया
******
शिशिर  में ,रहस्यमय मोहक शांत जल पर 
झील के किनारे या किसी पोखर में 
बसा चुके होंगे वे अपना नया बसेरा
उन्हें देख चमकती होंगी कई आँखें
पर किसी रोज जब जागूँगा मैं
दूर... उड़  चुके होंगे वे वनों के राजहंस 

            7. बाज निद्रा -- HAWK ROUSTING---BY-TED HUGH ES 

दरख्तों की ऊंचाई पर ,मुंदी आँखों से           
बैठता हूँ में शांत-स्थितिप्रग्य 
नहीं होते कोई मिथ्या स्वप्न
वक्रदृष्टि और पंजों की जकडन के बीच
नींद में भी सधता है अचूक निशाना 
मृत्युदंड -और सब कुछ ख़त्म
*******
वृक्षों की गगनचुम्बी ऊंचाइयों का सुख
प्राणवायु की उत्प्लाविता और 
सूर्य की रश्मियाँ हैं वरदान हैं मेरे लिए 
पृथ्वी का ऊर्ध्वमुख करता है चातकी  निगरानी
खुरदरी छाल पर पंजों की जकडन
मानो लग गई हो समूची सृष्टि 
मेरे पंख-दर-पंख रचने में 
और उन्हीं पंखों से जकड लिया है सृष्टि को  मैंने
*****
बांधे हैं मृत्युदंड  के सारे आदेश
वृहत  वर्तुलो के अपने यमपाशों से 
जब जिस पर चाहूँ देता हूँ फेंक 
सब कुछ मेरा होने का दंभ
लबादा नहीं ओढा है संस्कारों का 
मेरे झपटते से ही उड़ते हैं खोपड़ियों के परखचे 

8.              मार्जर विलाप      MORT AUX CAT-    BY-PETER पोर्टर

अब नहीं होंगी कहीं बिल्लियाँ                   
फैलाती हैं वे संक्रमण और प्रदूष्ण 
अपने वजन से सात गुना अधिक 
हजम कर जाती हैं ये बिल्लियाँ
पतनोन्मुख समाजों में थी वे पूजित
बैठकर करती हैं वे मूत्र विसर्जन 
जुगुप्स है उनकी प्रणय आराधना
******
चंद्रमा पर होती हैं वे आसक्त
मार्जर जगत में हो वे सह्य
पर विलोम हैं हमारे उनके रिवाज 
वे सूंघती हैं ,आदत से हैं लाचार
बिल्लियाँ देखती है टेलीविजन
और तूफानों में भी हो जाती है निद्रालीन
नोंच लेती है अचानक वे दबे पाँव 
*****
वे लोग नहीं बन सकते बड़े कलाकार
जिनकी आदतें होती है बिल्लियों की तरह
सिरदर्द, मरते पौधे की दोषी हैं वे 
बढ़ रही है बिल्लियाँ हमारे इलाके में 
और गिरते जा रहे हैं नैतिकता के मूल्य
अनगिनत बिल्लियों का रक्तपात
देखता हूँ जब आते हैं दिवा स्वप्न
आखिर क्यों करती है वे गूढ़ प्रलाप
पर बिल्लियों का रक्तपात!  श्वानों की सता 
हजारों वर्षो तक रहेंगे शाश्वत!

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

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कृष्ण करे  तो रास लीला, हम करें तो...

राष्ट्रपति की गोवा यात्रा निजी थी या सरकारी -शीर्षक से आशीष कुमार ने कई अत्यधिक प्रज्ज्व्लन्शील   मुद्दे उठाये हैं.अगर समुद्र तट कानून के नजरिये में सार्वजनिक स्थान है तब छायाचित्र लेना क्यों गलत है?यह भी सच है कि २०० मीटर का घेरा भारतियों के लिए प्रतिबन्ध , विदेशियों के लिए नहीं? रहा सवाल  भ्रष्टाचार का- मै  तो दो टूक इस राय का हूँ कि - अगर कोई इंसान है, भारतीय नागरिक है तब उसके भ्रष्टाचार पर टिप्पणी करने का नागरिक अधिकार  होना चाहिए ..चाहे वह किसी भी क्षेत्र में किसी  भी पद पर क्यों न  हो. 

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,उन्हें मगर शर्म क्यों नहीं आती?
नवभारत के बिलासपुर ,छत्तीसगढ़ संस्करण में एक खबर छपी है." सरकारी  परमिशन सड़क पर बाँट रही मौत".पंद्रह बरस  क़ी बच्ची झलक  मेघानी  की मौत कई सवाल खड़े करती है. नो एंट्री में प्रवेश करने के लिए सरकारी  ट्रक अन्नदूत को भीड़ भरे इलाके से जाने क्यों दिया गया?यातायात विभाग की चौकसी क्यों नहीं?  ट्रकों को भीड़ भरे यातायात के समय जाने देने का मतलब ही होता है की प्रशासन जिम्मेदार है इन मौतों के लिए..सड़कों से अतिक्रमण तो हटता नहीं( खास तौर पर शहर के प्रमुख मार्ग) , पार्किंग पर ध्यान दिया जाता नहीं,सारा मामला पैसे के लेन-देन से जुड़ा होता है.बड़े वाहनों के शहर के बीच से जाने का समय सुनिश्चित किया जाना जरूरी है.झलक जैसी  बच्ची या किसी भी इंसान क़ी हादसे में मौत के बाद समाज तो यह कहकर खामोश हो जाता है ," होनी को कौन टाल सकता है भला?" लेकिन कडवा सच यह है ," किसी को खोने का दुःख तो वही समझ सकता है जिसने अपने करीबी को खोया है?

आखिर धर्म या मजहब है किसलिए?

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नेपाल की इक्कीस वर्षीय नन सामूहिक बलात्कार का शिकार हो गई.जिस ननरी में उसने दस बरस तक अपनी सेवाएँ दी वहा से उसे निकाल दिया गया.विगत माह एक पब्लिक बस में उसे पांच लोगो ने बलात्कार का शिकार बनाया था.ननरी  का दो टूक हुक्मनामा है कि वह युवती अब नन या भिक्षुणी नहीं रह सकती .नेपाल बुद्धिस्ट फेडरेशन  का मंतव्य है कि बलात्कार की शिकार नन अब धर्मविहीन हो गई. क्या धर्म दो कौड़ी का बना दिया गया है जो बलात्कार होने पर उस इंसान से अलहदा हो जाता है?फेडरेशन यह भी कहती है की बुद्ध के जीवन काल में कभी ऐसा नहीं हुआ था . अतः  ऐसे मामलो में क्या फैसला लिया जाए इसकी कोई नजीर नहीं है.क्या धार्मिक संगठन चलाने वाले इतने कमअक्ल है कि  उनके अपने  दिमाग ... विवेक ...सोचने क़ी ताकत क़ी धज्जियाँ उड़ गई है??अस्पताल में उसके इलाज पर सात लाख के खर्च का इंतजाम ....ननरी न लौट पाने क़ी मजबूरी...बेहतर है उसे ऐसे वाहियात धार्मिक संगठनों  को छोड़कर अपने पैरो पर   खड़ा होना चाहिए. सवाल उन महिला संगठनों पर भी हैं जो या तो महज कास्मेटिक बने रहते हैं या किसी तरह पैसे क़ी जुगत में!!!



मंगलवार, 5 जुलाई 2011

दुखवा मैं कासे कहूं मोरी सखी!!!

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प्रिय सखी
सच कहती हूँ... मेरी तकदीर में सुख कम दुःख ज्यादा लिखे हैं.अक्सर सफ़र पर ही रहती हूँ.कभी शहर के भीतर तो कभी लम्बे सफ़र पर....छोटे शहर से बड़े शहर तक.कई बार मेरी यात्रा एकदम तन्हाइयों में होती है . हाँ शहर के भीतर जरूर बच्चे से लेकर बूढ़े तक मेरे साथ होते हैं.दूर के सफ़र में मेरे इर्द-गिर्द बस... पेड़ -पौधे ... आसमान से मेरा चेहरा तकते चाँद-सूरज और मेरे जिस्म से होकर गुजरते इक्का-दुक्का इंसान या फिर भीड़ का रेला जो कभी रुकता ही नहीं.
सखी रे..मेरे बगैर कोई भी नहीं रह सकता.सब मुझे इस्तेमाल कर भूल जाते है.यूज किया और हाथ झाड़कर चल दिए.कभी कोई गौर करता है मेरी हालत पर?कैसी दिख रही हूँ मैं.. मेरी तबीयत ठीक है या नहीं... शरीर पर जख्म हैं तो नहीं! कई लोग तो बेवकूफों की तरह देखते रहते हैं ... मेरा जिस्म छलनी हुआ जाता है पर मुझसे बदसलूकी करने वालों को रोकते ही नहीं.... सजा क्या ख़ाक देंगे?माना कि मेरे साथ मील के पत्थर हैं पर वे भी तो गूंगे हैं!
सखी रे! तुम सब मेरी सहेलियां हो जो छोटी-छोटी जगह से आकर मुझसे अक्सर मिलती हो .न जाने कितने कोनों से.. नुक्कड़ों से घूम-फिरकर कितनी तकलीफें बर्दाश्त कर मेरे पास आती हो.तुम भी तो कह रही थीं आस-पास के लोग इतने बदतमीज हैं जरा भी ध्यान नहीं रखते.सच कहूं...अगर हमारे बाजू वाले घर के लोग इंसानों की तरह रहना सीख जाएँ तो हम सब क्या खुश नहीं रहेंगी?नल की पाइप लाइन और केबल बिछाने वालों ने तो हमारा जीना हराम कर रखा है.सखी रे.. लोग कितने बेशर्म हैं.. अपना घर तो रखेंगे टिप-टाप लेकिन कचरा हमपर फेक देंगे.न जाने अपनी जिम्मेदारी समझने की अक्ल उन्हें कब आयेगी ?
जब से अन्दर ग्राउंड ड्रेनेज का काम शुरू हुआ है सिम्प्लेक्स वालों ने हमारा सब कुछ लूट लिया.. कहीं मुंह दिखने लायक नहीं छोड़ा. अरे नामाकूल साहबों!हमारी हालत सुधरने की सही प्लानिंग नहीं कर सकते तो कम से कम हमारी अस्मत तो मत...गैरों के करम... अपनों के सितम!एक बात बताऊँ.."बड़े साहब" लोगों के घर के सामने से जब मैं गुजरती हूँ तब प्रशासन भी मेरा खूब ख्याल रखता है.लगता है मैं पार्लर से आ रही हूँ.लेकिन बाहरी और शहर के भीतरी इलाकों में मेरी हालत बद से बदत्तर है. आल अफसरों के कुकर्मों की सजा मुझे ... गालिया मेरे नसीब में क्यों !
सखी रे...नेताओं के आगमन पर स्वागत के लिए गेट बनाने वाले ,शादी के मंडप गाड़ने वाले इतने नालायक हैं ... मेरी हालत बिगड़कर रख देते हैं.न जाने कितनी बार कह चुकी हूँ की मेरी देह की दूरियां सम्हालकर आहिस्ता-आहिस्ता बड़े प्यार से....तय किया करो. कितनी जल्दबाजी... अरे बच्चा ..युवक ,युवती ही या बूढा... कोई भी इंसान हो उसके खून से मेरा जिस्म ही भीगता है न! भगवान न करे आपको कुछ हो गया तो!!! जख्मी होंगे आप पर दिल तो मेरा जार -जार रोयेगा न! धीरे नहीं चला सकते गाड़ियाँ?सखी रे!देख न! लोग कितने गैर-जिम्मेदार हैं !उस पढ़े-लिखे नौजवान ने गुटका खाया और पाउच फेक दिया मुझपर. लड़कियों ने कार के भीतर से पालीथिन और प्लास्टिक की बोतले बाहर फेक दीं.खाओगे पान और थूकोगे मुझपर! अपने घर के कमरे में थूको. जरा भी नहीं सोचते ... स्टूपिड कहीं के.. नगर निगम और लोक निर्माण विभाग मेरा बाबुल है तो आप सब भी मेरा ही परिवार हो.
आपके शहर में अक्सर बीमार रहती हूँ. आपके घर आने वाले मेहमान भी मुझे देखकर मुह बिचकाते हैं.विदेशों में तो मेरे साथ बदतमीजी करने पर तुरंत जुरमाना होता है . दोराहे तिराहे और चौराहे पर जब भी सखियों से मुलाकात होती है हाल-चाल जानने को मन उतावला रहता है.देख न.. न जाने कितने लोग हमसे होकर चले गए लेकिन किसी ने हमारे बारे में सोचा! रायपुर , नागपुर और कई शहरों की मेरी सहेलियां कितनी खूबसूरत और टनाटन ...गार्जियस लग रही है.एक बात तय है. अप मेरा जितना ख्याल रखोगे मै आपका उतना ख्याल रखूंगी.
अच्छा अब आप मेरा नाम पूछेंगे.पर बिलकुल नहीं बताऊंगी.पहचान कौन???चलो ठीक है.आप सब मेरे अपने है.पहले वायदा कीजिए कि आप लोग मेरा ख्याल रखेंगे ... वर्ना कभी फिसलकर गिरेंगे तो खूब ठहाका मारकर हसूंगी आपपर हाँ!!! फिर मत कहना.क्या कहा/ मिलना है मुझसे? ठीक है.. तो घर से बाहर आ जाओ न..चौराहे तक साथ चलो मेरे साथ. लेकिन मुझसे मिलने जरा अपनी निगाहें तो झुका लीजिये जनाब!!!!! अपना और मेरा ख्याल रखिये....
किशोर दिवसे.



दुखवा मैं कसे कहूं मोरी सखी!!!

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प्रिय सखी
सच कहती हूँ... मेरी तकदीर में सुख कम दुःख ज्यादा लिखे हैं.अक्सर सफ़र पर ही रहती हूँ.कभी शहर के भीतर तो कभी लम्बे सफ़र पर....छोटे शहर से बड़े शहर तक.कई बार मेरी यात्रा एकदम तन्हाइयों में होती है . हाँ शहर के भीतर जरूर बच्चे से लेकर बूढ़े तक मेरे साथ होते हैं.दूर के सफ़र में मेरे इर्द-गिर्द बस... पेड़ -पौधे ... आसमान से मेरा चेहरा तकते चाँद-सूरज और मेरे जिस्म से होकर गुजरते इक्का-दुक्का इंसान या फिर भीड़ का रेला जो कभी रुकता ही नहीं.
सखी रे..मेरे बगैर कोई भी नहीं रह सकता.सब मुझे इस्तेमाल कर भूल जाते है.यूज किया और हाथ झाड़कर चल दिए.कभी कोई गौर करता है मेरी हालत पर?कैसी दिख रही हूँ मैं.. मेरी तबीयत ठीक है या नहीं... शरीर पर जख्म हैं तो नहीं! कई लोग तो बेवकूफों की तरह देखते रहते हैं ... मेरा जिस्म छलनी हुआ जाता है पर मुझसे बदसलूकी करने वालों को रोकते ही नहीं.... सजा क्या ख़ाक देंगे?माना कि मेरे साथ मील के पत्थर हैं पर वे भी तो गूंगे हैं!
सखी रे! तुम सब मेरी सहेलियां हो जो छोटी-छोटी जगह से आकर मुझसे अक्सर मिलती हो .न जाने कितने कोनों से.. नुक्कड़ों से घूम-फिरकर कितनी तकलीफें बर्दाश्त कर मेरे पास आती हो.तुम भी तो कह रही थीं आस-पास के लोग इतने बदतमीज हैं जरा भी ध्यान नहीं रखते.सच कहूं...अगर हमारे बाजू वाले घर के लोग इंसानों की तरह रहना सीख जाएँ तो हम सब क्या खुश नहीं रहेंगी?नल की पाइप लाइन और केबल बिछाने वालों ने तो हमारा जीना हराम कर रखा है.सखी रे.. लोग कितने बेशर्म हैं.. अपना घर तो रखेंगे टिप-टाप लेकिन कचरा हमपर फेक देंगे.न जाने अपनी जिम्मेदारी समझने की अक्ल उन्हें कब आयेगी ?
जब से अन्दर ग्राउंड ड्रेनेज का काम शुरू हुआ है सिम्प्लेक्स वालों ने हमारा सब कुछ लूट लिया.. कहीं मुंह दिखने लायक नहीं छोड़ा. अरे नामाकूल साहबों!हमारी हालत सुधरने की सही प्लानिंग नहीं कर सकते तो कम से कम हमारी अस्मत तो मत...गैरों के करम... अपनों के सितम!एक बात बताऊँ.."बड़े साहब" लोगों के घर के सामने से जब मैं गुजरती हूँ तब प्रशासन भी मेरा खूब ख्याल रखता है.लगता है मैं पार्लर से आ रही हूँ.लेकिन बाहरी और शहर के भीतरी इलाकों में मेरी हालत बद से बदत्तर है. आल अफसरों के कुकर्मों की सजा मुझे ... गालिया मेरे नसीब में क्यों !
सखी रे...नेताओं के आगमन पर स्वागत के लिए गेट बनाने वाले ,शादी के मंडप गाड़ने वाले इतने नालायक हैं ... मेरी हालत बिगड़कर रख देते हैं.न जाने कितनी बार कह चुकी हूँ की मेरी देह की दूरियां सम्हालकर आहिस्ता-आहिस्ता बड़े प्यार से....तय किया करो. कितनी जल्दबाजी... अरे बच्चा ..युवक ,युवती ही या बूढा... कोई भी इंसान हो उसके खून से मेरा जिस्म ही भीगता है न! भगवान न करे आपको कुछ हो गया तो!!! जख्मी होंगे आप पर दिल तो मेरा जार -जार रोयेगा न! धीरे नहीं चला सकते गाड़ियाँ?सखी रे!देख न! लोग कितने गैर-जिम्मेदार हैं !उस पढ़े-लिखे नौजवान ने गुटका खाया और पाउच फेक दिया मुझपर. लड़कियों ने कार के भीतर से पालीथिन और प्लास्टिक की बोतले बाहर फेक दीं.खाओगे पान और थूकोगे मुझपर! अपने घर के कमरे में थूको. जरा भी नहीं सोचते ... स्टूपिड कहीं के.. नगर निगम और लोक निर्माण विभाग मेरा बाबुल है तो आप सब भी मेरा ही परिवार हो.
आपके शहर में अक्सर बीमार रहती हूँ. आपके घर आने वाले मेहमान भी मुझे देखकर मुह बिचकाते हैं.विदेशों में तो मेरे साथ बदतमीजी करने पर तुरंत जुरमाना होता है . दोराहे तिराहे और चौराहे पर जब भी सखियों से मुलाकात होती है हाल-चाल जानने को मन उतावला रहता है.देख न.. न जाने कितने लोग हमसे होकर चले गए लेकिन किसी ने हमारे बारे में सोचा! रायपुर , नागपुर और कई शहरों की मेरी सहेलियां कितनी खूबसूरत और टनाटन ...गार्जियस लग रही है.एक बात तय है. अप मेरा जितना ख्याल रखोगे मै आपका उतना ख्याल रखूंगी.
अच्छा अब आप मेरा नाम पूछेंगे.पर बिलकुल नहीं बताऊंगी.पहचान कौन???चलो ठीक है.आप सब मेरे अपने है.पहले वायदा कीजिए कि आप लोग मेरा ख्याल रखेंगे ... वर्ना कभी फिसलकर गिरेंगे तो खूब ठहाका मारकर हसूंगी आपपर हाँ!!! फिर मत कहना.क्या कहा/ मिलना है मुझसे? ठीक है.. तो घर से बाहर आ जाओ न..चौराहे तक साथ चलो मेरे साथ. लेकिन मुझसे मिलने जरा अपनी निगाहें तो झुका लीजिये जनाब!!!!! अपना और मेरा ख्याल रखिये....
किशोर दिवसे.


शनिवार, 2 जुलाई 2011

सूखी अरपा ....

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सूखी अरपा ....

आज सचमुच देखा 
अपनी अरपा का सूखा तन 
कसक उठी,दुखी हुआ मन
सूखी अरपा ,खोया यौवन धन 
  
 आज सचमुच देखा
अरपा की पसरी रेत
दूर तक फैला पाट
बेजान  ,नीरव और सपाट

आज सचमुच देखा 
 चीखती अरपा पहियों के नीचे 
छलनी करती लौह मशीनें
उसे बेचकर चांदी कूतते
नराधमों का कुनबा

आज सचमुच देखा
अरपा के पाट का दर्द
हाँ! उसे ही दिखता है दर्द 
जो सुनता है नदी की कराह को 
और महसूसता है मरू के श्वास

आज सचमुच देखा
अरपा के पाट पर गूंजते 
स्वर संकेतों का  करुण क्रंदन 
पाट गर्भ से गूंजती चीखें
नवजात शिशुओं , अनचीन्हे शवों की
और रेत से निकलती गर्म साँसें 
कहाँ है सचमुच की नदी
उसकी खिल-खिल हंसी!!!

आज सचमुच देखा 
रेत को बदलते  हुए 
अनगिनत इंसानी शक्लों में
सुना आपने! सूखी रेत पूछती है 
कहाँ है पानी... कहाँ है पानी!!


अरे इंसान बंद कर  नादानी
कब तक रौंदेगा मेरी छातियों को?
सूखा है पाट, धधकता है मन
कब भीगेगा मेरा प्यासा तन?
मेरी गहराइयों का अतलांत!
मै गाऊंगी- कल -कल छल- छल 
स्वप्नाकांक्षा  कब होगी शांत!!!
                                                                   किशोर दिवसे 















शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

गूगल के संस्थापकों से आगे निकले फेसबुक के जुकरबर्ग

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गूगल के संस्थापकों से आगे निकले फेसबुक के जुकरबर्ग




 सोशल नेटवर्किग साइट फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग अमीरी के मामले गूगल के संस्थापकों सर्गी ब्रिन और लैरी पेज से आगे निकल गए हैं। महज 27 साल के जुकरबर्ग 18 अरब डॉलर [करीब 81 हजार करोड़ रुपये] की संपत्ति के साथ अब प्रौद्योगिकी के क्षेत्र की तीसरी सबसे अमीर शख्सियत बन गए हैं। माइक्रोसॉफ्ट के बिल गेट्स [56 अरब डॉलर] और ओरेकल के लैरी एलिसन [39.5 अरब डॉलर] ही अब उनसे आगे हैं।
टाइम मैगजीन के मुताबिक इस साल की शुरुआत में जुकरबर्ग की संपत्ति 13.5 अरब डॉलर [करीब 60,750 करोड़ रुपये] आंकी गई थी। जुकरबर्ग की संपत्ति में यह इजाफा फेसबुक में जीएसवी कैपिटल कॉरपोरेशन के निवेश के बाद हुआ है। इस हफ्ते की शुरुआत में जीएसवी कैपिटल ने 29.28 डालर प्रति शेयर के हिसाब से फेसबुक के दो लाख 25 हजार शेयर खरीदे। इससे चर्चित वेबसाइट का मूल्य करीब 70 अरब डॉलर [करीब 3,15,000 करोड़ रुपये] हो गया।
टाइम ने लिखा है, 'नए आकलन के मुताबिक जुकरबर्ग ने गूगल के सर्गी ब्रिन और लैरी पेज को पीछे छोड़ दिया है।' माना जा रहा है कि दोनों की संपत्ति में गिरावट आई है। मार्च के 19.8 अरब डॉलर के मुकाबले उनकी संपत्ति अब 17 अरब डॉलर [करीब 76,500 करोड़ रुपये] आंकी गई है

गुरुवार, 30 जून 2011

डाक्टर्स डे पर सभी डाक्टरों को बधाई

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डाक्टर्स डे आज जुलाई की पहली तारीख को है. सभी डाक्टरों को बधाई .साथ ही यह आव्हान भी की वे यह सोचें की मरीजों के साथ उनके भावनात्मक  सम्बन्ध कितने रह गए है. मेडीकल ज्यूरिसप्रूडेंस  में Doctor -Patient bonding  का विस्तृत उल्लेख किया गया है. फिल्म मुन्ना भाई एमबीबी एस  में डीन का यह कहना " मैं मरीज से कभी प्यार नहीं करता. -आखिर क्या दर्शाता है? 
                  अस्पतालों की क्या हालत है? सरकारी डाक्टर और निजी प्रेक्टिस का विवाद जारी है.शासकीय अस्पताल अभी तक सुविधाओं के आभाव से जूझ  रहे है. क्या डाक्टरों की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं? प्रोफेशनल होने का क्या यह मतलब होता है की इंसानियत को ताक़ पर रख दिया जाये? इन्डियन मेडिकल एसोसियेशन पूरी तरह निष्क्रिय है? झोला छाप डाक्टरों के विज्ञापन अखबारों में छप रहे है. चिकित्सकीय सुविधाएँ पर्याप्त हैं या नहीं इसे कोई भी नहीं देख रहा है.
                               Medical representative  और डाक्टरों के बिजनेस रिश्ते मरीजों की जेब पर डाका डाल रहे है.दवाइयों की कीमतें अनाप-शनाप वसूली जा रही हैं .जेनेरिक दवाइयों और मल्टीनेशनल कंपनियों की दवाओं में कुश्तियां जारी हैं .मार्जिन २००-३०० फीसदी खींच रही हैं  कम्पनियाँ. कोई  देखनेवाला नहीं.
                 छत्तीसगढ़ का हाल  देखिये. रायपुर ,बिलासपुर, जगदलपुर मेडिकल कालेज और अस्पतालों में पिछले तीन महीनों से दवाइयाँ नहीं हैं. करोड़ों का बजट है पर दवा नहीं खरीदी जा रही है. मरीज परेशान है,वे भाड़ में जाएँ किसी को क्या फरक पड़ता है? स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल कहते हैं की हम पता लगाते है... बहरहाल डाक्टरों को अपने पेशे में पारदर्शिता बरतनी चाहिए. पैसा तो जरूर कमायें पर कुछ नैतिकता बचाकर रखें. डाक्टर्स डे पर उन्हें हार्दिक बधाइयाँ....
                                                               किशोर दिवसे 

बुधवार, 29 जून 2011

अपनी ही साँसों का कैदी, रेशम का यह शायर

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शहतूत की शाख पे बैठा कोई                                                              
बुनता है रेशम के तागे 
लम्हा-लम्हा खोल रहा है, पत्ता-पत्ता बीन रहा है 
एक-एक सांस बजाकर सुनता है सौदाई
एक-एक सांस को खोल के ,अपने तन पे लिपटाता जाता है
अपनी ही साँसों का कैदी  रेशम का यह शायर एक दिन
अपने दी तागों में घुटकर मर जायेगा
                      शहतूत  की पत्तियों पर बैठे हरे रंग के कीड़े को रेशमी शायरी ओढाने की अद्भुत  कल्पना सिर्फ गुलजार के बस की ही बात  हो सकती है शायद किसी और की  नहीं.रेशम का एक हसीन शायर कहकर शाह्तूती कीड़े को जो इज्जत बक्षी है गुलजार ने उसका अंदाज रेशम विभाग के किसी अफसर ने सपने में भी  सोचा होगा ऐसा नहीं लगता.बिलकुल आसान  नहीं था रेशम बुनने वाले इस अदने से जीव की शब्दों के पवित्र फूलों से सारी जिन्दगी संवार देना.
                           यों तो जिन्दगी का फलसफा जड़-चेतन वस्तुएं ,भूख-प्यास ,प्रेम,ईर्ष्या,मौसम,नजर ,समंदर,रोजा,आग,इंसान,कासिद,तन्हाई,कलाम,हिचकी,जुर्म,अखबार   युद्ध,नेता,सियासत और ऐसे ही अनगिनत विषयों पर कवियों और शायरों ने खूब लिखा है .. लिखते ही रहते है.फिर भी कीड़े -मकोड़ों ,जानवरों या प्राणी जगत पर रचनाएं अपेक्षाकृत  कम ही देखने -पढने को मिलती हैं.हिंदी के कवियों ने जीव-जंतुओं पर काफी कलम चलाई है लेकिन अंग्रेजी के साहित्यकारों ने प्राणी जगत को पंखिल शब्दों  के जादू से जो करिश्माई और गगनचुम्बी ऊंचाई दी है वह सचमुच कमाल की है.
                  किसी भी जंतु अथवा प्राणी की आकृति और चरित्र को यथार्थ और फंतासी के दोहरे नजरिये से महसूस कर कवितायेँ रचना कमाल का हुनर  है.अंग्रेजी कविताओं के अनुवाद इस करिश्मे का साक्ष्य हैं.
                " मैंने नहीं देखी होती वह पगडण्डी                     
               सफ़ेद पतली और चमकीली
              कभी न कर पाता कल्पना मैं
               धीमी पर निश्चित प्रगति के लिए
                 घोंघे के उस मंथर उन्माद की
                हरी चादर पर रेंगता है एक घोंघा
    घोंघे पर थोमस गन की यह कविता जीवंत चित्रण करने में सक्षम है.एडवर्ड थोमस ने उल्लू पर  लिखा है -
                  

                      निस्तब्ध निशा का वह सन्नाटा 
                     जिसे चीरती  थी कर्कश चीख 
                      उलूक ध्वनी थी कितनी अवसाद भरी 
                     लम्बी चीख पहाड़ी पर गूंजती 
वाय.बी कीट्स ने शिशिर में वनों के राजहंस की कल्पना में प्रकृति का चित्रं करते समय लिखा है -
                 धवल पंखों की थिरकन/वह प्रणय नर्तन
                 हंस युगलों की जलक्रीडा 
               और उनका नया बसेरा
 टेड हग ने अपनी कविता हाक रूस्तिंग   में बाज के खौफ का जिस अंदाज में वर्णन किया है वह निम्न काव्यांश में स्पष्ट है-
                 " और उन्ही पंजों से जकड लिया है/
                   सृष्टि को मैंने
                  बांधे हैं मैंने मृत्यु दंड के आदेश
                  वृहत वर्तुलों के अपने यम् पाशों  से 
                  जब जिस पर चाहूँ देता हूँ फेंक
 रहस्यवाद  के आवरण में पीटर पोर्टर ने  बिल्ली पर कल्पना की है कि  वे पतनोंमुखी समाज में पूजित रहीं.वे बैठकर मूत्र विसर्जन करती है और जुगुप्सा भरी है उनकी प्रणय-आराधना.दी .एन. लारेंस ने भी पहाड़ी सिंह पर  लिखी कविता में मानव समाज की और से प्राणी जगत में होने वाले अतिक्रमण की पराकाष्ठा का चित्रण किया 
है.
                    इंसान अधिकारी है खुलेपन का
                     और हम सिमटे है घाटी के धुंधलके में!
घाटी के धुंधलके से लौटते हैं हम अपने घरों में जहाँ हम परेशां हैं मच्छरों से.डेविड हर्बर्ट लारेंस की कविता  में पारभासी पिशाच के   रक्त शोषी चरित्र  से आप  दंशित  हो चुके हैं.विस्तृत कविता  में उल्लिखित बिम्ब और प्रतिमान अद्भुत हैं.अल्फ्रेस लार्ड टेनिन्सन ने उकाब ( ईगल) का वर्णन करते हुए लिखा है-
                 तीक्ष्ण दृष्टि है उसकी शिकार के पीछे
                 झपटता है वह बिजली बनकर नीचे
अपने प्रेमगीतों के लिए मशहूर पर्सी बायसी शैली की लिखी कविता " टू द विडो बर्ड " के काव्यांश  देखिये-
                 बिछड़ी माशूका के गम में मायूस था 
                विरह से व्यथित एक विरही परिंदा
               बैठा था कांपती डाल के कोने पर 
                  गुमसुम यादों के हसीं हिंडोले पर 
हिंडोले से नीचे उतरकर कल्पना कीजिए विलियम कापर के उस खरगोश की जो चिर निद्रा में लीन है.कापर ने अपने शब्दों में दर्द इस तरह से उंडेला है-
                अब अखरोट की छाया तले है 
                 उसका बसेरा ,चिरनिद्रा में लीन
                 मानो  खामोश करता है प्रतीक्षा 
               मेरे पुचकारने की!!!!
पुचकारते हुए शब्दों को वितर बायनर ने सरपट दौड़ते हुए अश्व की अनावृत्त पीठ कहा है." हार्सेस "नामक कविता में शब्दों के लिए अश्व का अद्भुत प्रतीकात्मक उपयोग किया गया है.
               काव्यधारा में वनचरों की आकृति ,चारित्रिक एवं व्यवहारगत विशेषताएं रचना धर्मियों  के लिए प्रेरक हैं.वनचरों को दर्शन से जोड़ने की महारत एक तरह से नए रचनाकारों को उत्तेजित और उकसाती हुई लगनी चाहिए..हिंदी-अंग्रेजी कविताओं के अलावा शायरियों में भी कीट-पतंगे को परवाने की शक्ल में अक्सर याद किया गया है गौर कीजिए-
                    इक मुअम्मा है समझने का न समझाने का
                   जलती है शम्मा मगर नाम है परवाने का
परवाने की बात छोडिये सांप को प्रतीक बनाकर चंदन और दोस्त के साथ अनेकों बार वाहवाही लूटी गई है.कबूतर और जुगनू भी फिल्मी गीतकारों के अजीज रहे है .फिल्मी गीत कबूतर जा  जा  जा और राहत इन्दौरी की यह बात कभी-कभी आपके मन को भी जगमगाती होगी-
                 लाख सूरज से दोस्ताना  रखो 
                चंद जुगनू भी पाल रखा करो 
जुगनुओं की झिलमिल के बीच एक बार  फिर मुझे काव्यधारा में प्रकृति चित्रण के अद्भुत रचयिता विलियम वर्डस्वर्थ की एक कविता " टू द  कक्कू "की याद आ रही है .उनके कूकते हुए शब्दों ने अपनी भावनाएं  कुछ इस तरह से व्यक्त की हैं-
                   ओ ऋतुराज वसंत की प्रियतमा 
                   ओ वसंत दूत ,ओ ऋतू अंकशायिनी
                       अब भी मैं सुनता हूँ वह कूक
                         मदनिका कोयल का रति उन्माद
                    स्मृतियों की इन आम्र मंजरियों से 
                 झंकृत होते है हृदय वीणा के तार 
                                                                                        किशोर दिवसे
( अंग्रेजी से अनुदित कुछेक कविताओ के अंशों पर आधारित)
                     

                
                    
       
                
                            
                         .
                         

मंगलवार, 28 जून 2011

ख़ुशी का पैगाम कहीं . कहीं दर्दे जाम लाया .

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शायद इस बूढ़े बाप को मनी आर्डर भेजा हो बेटे ने..मेरा इंटरव्यू काल लेटर होना चाहिए...पप्पू  ने सोचा ... बलम परदेसिया को दुखियारी बिरहन की याद आई हो... उस भाभी का मन कह रहा था जिसके साजन नौकरी -धंधे की जुगत में दूर शहर में रहते हैं... और नजरें चुराकर चांदनी भी देखती है कहीं उसके चकोर ने गुलाबी खत भेजा हो! इधर  निपट देहातन बुढिया की सूनी नजरें भी तक रही है उसी को ...जी आकर चिट्ठी भी बांच देगा.और कोई नहीं वह शख्स जिसे हम कहते हैं पोस्टमैन या डाकिया.
                        अब तो शहर और गाँव के हाल-चाल  भी काफी बदल गए है. फिर भी कई गाँव-शहरों में कम ही सही वह दीखता है अक्सर.याद है पहले कितनी चिट्ठियां लिखा करते थे आप और हम!ख़ुशी और गम के कडवे -मीठे घूँट चिट्ठियां बांचते ही पीने पड़ते थे.मुस्कान और आंसू देने वाली ये इबारतें कभी लिफाफे के भीतर तो कभी अंतर्देशीय  और पोस्ट कार्ड पर.ज़माने की रफ़्तार ने ढेर सारे नए जरिये पैदा कर दिए . डाकिये भी हैं और उनका विकल्प भी हाई टेक युग में आना ही था.मोबाइल.. ए टी एम्  कूरियर से काम हो रहा है .फिर भी कभी -कभार कानों में गूँज जाती है एक आवाज जो बढा देती है हर किसी की धड़कन.
                          डाकिया डाक लाया,...डाकिया डाक लाया 
                          ख़ुशी का पैगाम  कहीं कहीं दर्दे जाम लाया 
याद है आपने पहली बार चिट्ठी कब लिखी थी?वही  डाकिया जो दरवाजे की सांकल या कालबेल बजाकर आवाज लगाता था -पोस्टमैन अब कितनी बार घर आता है?चिट्ठिया लिखना ही काम हो गया है तो मिलेंगी कहाँ से?अब तो चिट्ठी लिखने की आदत भी नहीं रही. लिखने को बैठो तो क्या लिखो  समझ में ही नहीं आता..  मोबाइल से सीधे बात  कर लो. 
                       सारे परिवार का हाल-चाल सुख-दुःख की बातें मान-मनुहार यानी भानमती का पिटारा हुआ करती थी चिट्ठियां.बच्चों को तो अब चिट्ठी लिखना भी नहीं आता. अपने ज़माने में लिखी चिट्ठियां  बच्चों को दिखाई थी उनका मुंह खुला का खुला रह गया था.स्कूल में छुट्टी की अप्लिकेशन लिखना भर आता है उन्हें.गाँव के लड़के लड़कियां तो गंवैया शायरियां लिखा करते थे.शहरी नौजवान तो मैसेज से काम चला लेते है  वो भी रूमानी और बिंदास टाइप के... और खुद को नहीं आता तो नेट पर जुगाड़ कर लीजिये.
                         खैर.. आप में से बहुतों को मालूम है चिट्ठियां लेने  -ले जाने वाला कासिद हुआ करता है.राजा-महाराजाओं के ज़माने में कबूतर भी कासिद हुआ करते थे.जो प्यार  के पैगाम ले जाते रहे..ऐसे ही आशिक राजकुमार के दीदार को तरसती माशूका ने एक ख़त लिखा और तड़पकर कासिद से कहा-
                            नामाबर,ख़त में मेरी आँख भी रखकर ले जा
                           क्या गया ख़त जो देखने वाली न गई!
खतों में गीत ,गजलें शायरियां लिखने का रिवाज भी खूब  चला था.दिल को छू लेने वाली चिट्ठियां लिखना भी एक कला है.पंडित नेहरू,महात्मा गाँधी,अब्राहम लिंकन ,अमृता प्रीतम के  लिखे ख़त ऐतिहासिक दस्तावेज हैं.चित्रकार  विन्सेंट वान गाग ,और उनके भाई थियो के पत्रों पर आधारित उपन्यास लस्ट फार लाइफ अद्भुत रचना है.पत्रों का अनोखा संसार है क्योंकि चिट्ठियां ऐसी पंखदार कासिद हैं जो पूरब से पश्चिम, तक प्यार की राजदूत बनकर जा सकती हैं.ऐसी ही एक चिट्ठी मोर्चे पर डटे जवान को मिलती है और खंदक में ही वह अपने दोस्तों के साथ एक गीत गाता है( फिल्म बार्डर)
                             संदेशे आते हैं,वो पूछे जाते हैकि तुम कब आओगे
                             कि घर कब आओगे,ये घर तुम बिन सूना  है....
  फिल्म पलकों की छांव में डाकिये की भूमिका में राजेश खन्ना ने पर्दे पर दिल  छू लेने वाला गीत गया था -डाकिया डाक लाया.. डाकिया लाया ...फिर ये मेरा प्रेम पात्र पढ़ के ...और ख़त लिख दे सांवरिया के  नाम बाबू....और चिट्ठी आई है आई है चिट्ठी आई है ..
                         और एक बात है मेरे नौजवान  दोस्तों के लिए-साहित्यकार जीन जैकिस रूसो ने कहा है सबसे अच्छा प्रेम पत्र लिखने, बगैर यह जाने लिखना शुरू कीजिये की आप क्या चाहते हैं और यह जाने बिना ख़त्म कीजिए कि आपने क्या लिखा है.पर जरा गौर तो कीजिए इस  नौजवान    ने एक रुक्के  पर हाले- दिल जिस तरह बयान किया है -
                        मेरे कासिद जब तू पहुंचे मेरे दिलदार के आगे 
                       अदब से सर झुकाना हुस्न की सरकार के आगे 
डाकिये की जिंदगी रील लाइफ जितनी अलहदा है रियल लाइफ में उतनी ही कहीं और संघर्ष पूर्ण.उसकी सायकल के कैरियर पर और झोले में बिल, व्यावसायिक पात्र,अखबार,मैगजीनें या रजिस्टर्ड पार्सल होंगे . पर जज्बातों में डूबी चिट्ठिया अब नहीं होतीं.
          एक  बात जरूर समझ में आ गई कि बदलते वक्त के साथ लोगों के मिजाज भी बदल गए हैं.दद्दू के घर टीवी चैनल पर  एक फ़िल्मी गीत चल रहा है-
                             कबूतर  जा जा जा ... कबूतर जा जा जा 
                             पहले प्यार की पहली चिट्ठी साजन को दे आ
 नन्ही इबारतों वाले ख़त आज का सच हैं जो मोबाइल नाम के कासिद ले जाते है. उसकी भी क्या जरूरत... अब तो सीधे डायलाग दिए जाते है. पर एक बात का यकीन मानिये अच्छी और प्यारी  खूबसूरत चिट्ठियां  लिखने वाला इंसान ही संजीदा ,संवेदनशील और मुहब्बत भरे दिल का मालिक होता है.चिट्ठी लिखकर अपने भीतर खुद की तलाश  कीजिए.सिर्फ चिट्ठियों के जरिये पूरी तरह अजनबी से किया जाने वाला प्यार प्लेटोनिक लव कहलाता है.
                          एक बार फिर चिट्ठियों ,खतों कासिद और नामाबर की दुनिया के करीब से गुजरकर देखिये .. खुद को तलाशने का एक आइना यह भी  है. एक मिनट...रुकना जरा ...देखूं तो मेरा कासिद " इलेक्ट्रोनिक डाकिया यानि मेरा मोबाइल कौन  सा पैगाम  लेकर आया है?-
                          अगर जिंदगी में जुदाई न होती
                        ,तो कभी किसी की याद न आई होती
                        साथ ही अगर गुजरते हर लम्हे 
                        तो शायद रिश्तों  में ये गहराई न होती 
                                                                                      पुरानी चिट्ठियां  देखिये... दिखाइए.. लिखते रहिये                                                                                                                                  
       
                                                                                                                                          किशोर दिवसे 

                            
                                 

सोमवार, 27 जून 2011

तुम शीशे का प्याला नहीं झील बन जाओ...

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अब तो दादा -दादी या नाना -नानी के मुह से कहानियां सुनने का फैशन ख़त्म ही हो गया है.आज कल के बच्चों  के पास इसके लिए वक्त ही नहीं होता. न वे इसमें रुचि ही लेते हैं.कम्प्यूटर तो बस बहाना है .इन्ही कहानी-किस्सों के जरिये बच्चों के मन में संस्कार डाले जाते थे. फिर भी पढने वाले लोग या तो किताबें लेकर बैठते है  या हाईटेक  पीढ़ी की तरह डिजिटल हो गए हैं..यदा-कदा हम सब किसी बचपन को देखकर लौटते हैं अपने बचपन में तब अनायास ही वे कहानियां याद आने लगती हैं जो कभी हमारे बुजुर्ग सुनाया करते थे  . वे कहानियां कभी-कभार किताबों में भी मिल जाया करती हैं.
                     मुझे याद है की  यह किस्सा सोने के वक्त जिद कर पलकें मूंदते तक सुनने वाला नहीं था.बचपन में ही सही नानी ने मुझसे कहा,"जाओ...शीशे का प्याला लेकर आओ".नानी ने प्याले में पानी डाला और मुझसे कहा ," डाल दो इसमें मुट्ठी भर नमक". मैंने वैसा ही किया.फिर नानी ने मुझसे कहा," बेटा जरा इसका स्वाद बताना"."छी !!!!! कितना नमकीन!.. मैंने मुहं बनाकर थूक दिया.. पिच्च...!
                   नानी ने मुझसे कहा ," चलो बेटा ...जरा झील तक घूम आते हैं".मैं  हाथ पकड़कर उसे झील तक ले गया.फिर उसने कहा,' बेटा !सामने वाली दुकान से मुट्ठी भर नमक ले आना" मैं दौड़कर ले आया.नानी ने मुझसे वह नमक ले लिया और झील में डाल दिया."अब तुम इस झील का पानी पीकर बताओ." नानी ने मुझसे कहा.




                     जैसे ही अंजुली भर तालाब का पानी मैंने पीया नानी ने मुझसे पूछा,बेटा पानी का स्वाद बताना."" अच्छा लग रहा है नानी." मैंने कहा." नमकीन तो नहीं लग रहा है न?" नानी ने पूछा.मैंने जवाब दिया,"बिल्कल नहीं नानी."
                     मैं और नानी झील के किनारे बने मंदिर के चबूतरे पर बैठे थे.नानी ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में लिए और कहा,"" बेटा! जिन्दगी में जो तकलीफें हैं वे भी इसी नमक की तरह हैं.न ज्यादा न कम.परेशानियाँ अपने जीवन में वही रहती हैं लेकिन उन तकलीफों का अहसास इस पर निर्भर करता है की हमने उन्हें किस नजरिये से देखा है."
                   इसलिए बेटा ... " जब भी जीवन में तुम्हें परेशानियाँ हों तुम सिर्फ  इतना ही करना की जीवन  को समझने का नजरिया व्यापक बना लेना." आसान शब्दों में समझना है तब मैं एक ही बात कहती हूँ,' तुम शीशे का प्याला नहीं झील बन जाओ.!हालाकि उस बात का मतलब मैं उतनी गहराई से नहीं समझ पाया  था क्योंकि उस समय मैं मात्र नौवी का छात्र था.आज इस किस्से को याद कर जिन्दगी के अक्स हकीकत के आईने में दिखाई देते है और ताजा हो जाती है नानी की यादें.

                          ***********
गर्मियों की छुट्टियों में नानी और मैं फुटपाथ से होकर गुजर रहे थे.सड़क पर भीड़ थी.तेज रफ़्तार दौडती गाड़ियों , बाइक और उनके हार्न तथा साइरन  का कानफाडू शोर गूँज रहा था.अचानक नानी ने मुझसे कहा," बेटा!मुझे झींगुर की आवाज सुनाई दे रही है."
                       मैंने कहा," आप भी सठिया गई हो नानी.आप इतने शोर-गुल के बीच झींगुर की आवाज कैसे सुन सकती हो:" नहीं मैं सच कह रही हूँ..नानी ने कहा,"मैंने झींगुर की आवाज सुनी है." " सचमुच.. आपका दिमाग  चल गया है नानी." मैंने मजाक उड़ाया.अचानक मैंने अपने कानों पर जोर दिया और फुटपाथ के कोने में उगी झाड़ी देखी.मैं उसके नजदीक गया तब पता चला की झाड़ी के भीतर एक टहनी पर झींगुर बैठा था." यह तो बड़े कमाल की बात है नानी." मैंने नजरे झुकाकर कहा," लगता है आपके कानों में कोई अलौकिक शक्ति है"
                        " बिलकुल गलत बेटा,यह कोई अलौकिक-वलौकिक शक्ति नहीं है.मेरे कान भी तुम्हारे जैसे ही हैं.मैंने झींगुर की किर्र-किर्र सुन ली.यह तो तुमपर निर्भर करता है की तुम क्या सुनना चाहते  हो.?
                       " लेकिन यह कैसे  हो सकता है नानी!" मैंने हैरत से पूछा," आखिर इतने कानफाडू शोर  में  मैं छोटे से झींगुर की आवाज सुन ही नहीं सकता." " हाँ! ठीक कह रहे हो बेटा." नानी ने मुझे समझाया,"सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है की तुम्हारे लिए क्या महत्वपूर्ण है.देखो...में तुम्हे इसे सच साबित करके बताती हूँ."
                     नानी ने अपनी कमर में खोंसकर रखा नन्हा सा बटुआ निकला.उसमें से कुछ सिक्के निकाले और चुपचाप सड़क के किनारे बगैर किसी के ध्यान में आये डाल दिए." चलो.अब कोने में खड़े रहकर तमाशा देखते हैं." नानी मुझे एक कोने में ले गई.  

                                        

                    सड़क पर गुजरती गाड़ियों का कोलाहल अब भी उतना ही था.हम दोनों ने देखा की जो  भी धीमी रफ़्तार से गुजरता उनके अलावा अधिकांश राहगीर अमूमन बीस फीट दूरी से मुड़कर यह देखते की नीचे पड़े चमकने वाले सिक्के कहीं उनकी जेब से तो नहीं गिरे हैं!" क्यों बेटा!बात तुम्हारी समझ में आई?
                   " हाँ नानी ! आप  सच कहती थी.... सब कुछ इस बात पर निर्भर  करता है की सभी बातों के बीच आपकी बुद्धि किस बात को महत्त्व देती है.आपको क्या जरूरी लगता है."नानी की वह बात आज ही मुझे याद है.अरे... वह देखो!!!!सड़क पर गिरे सिक्कों को देखकर न जाने कितने लोगों के हाथ अचानक अपनी जेब छूने लगे हैं!                                            आज बस इतना ही .. शब्बा खैर ... शुभ रात्रि... अपना ख्याल रखिये...
                                                                                   किशोर दिवसे.

हम सब इस रंगमंच की कठपुतलियां हैं...

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धू-धू कर जलती चिता... शोक संतप्त  जनों को ढाढस बंधाते शब्द और मृत्यु को प्राप्त इंसान के जीवन की यादों से जुड़े पहलुओं के बीच ही कहीं से जन्म लेता है शमशान वैराग्य.सच कहें तो मौत के एहसास से चोली-दामन का साथ है जिंदगी का.शायद जीवन के होने का अभिप्राय बोध भी करा जाता है -"मौत " इन  दो शब्दों के भीतर छिपा गूढार्थ .हर अच्छे और बुरे व्यक्ति की सिर्फ अच्छाइयों को याद कर शमशान वैराग्य का प्रवाह हमसे कहलवा जाता है -"बाबू मोशाय.. हम सब इस रंगमंच की कठपुतलियां हैं जिसकी डोर  ऊपर वाले हाथों में है.कब कौन किस वक्त....
                और यह श्मशान  वैराग्य भी देखिये किस हाई  -टेक हो गया है इन दिनों!बातें शुरू होती है .. मौत तो सिर्फ एक बहाना है भैया.. जिसका समय आ गया उसका खेल ख़त्म .फिर घर परिवार की बात... अचानक मोबाइल घनघनाते है और कोई बिजनेस की बाते करते  है तो कोई अपने धंधे  की.हंसी- मजाक और मसखरी से बोझिल वातावरण हल्का-फुल्का होने लगता है.अच्छा है... यह जरूरी भी है.
                  झूले से लेकर काठी तक ज्यादा देर नहीं लगती ,क्या आप जानते हैं की   कितना फासला है जिंदगी और मौत के बीच! कोई नहीं जनता .पर तय होता है हरेक के लिए की उसे इस नाटक में  कितना अभिनय कहाँ और कैसे करना है.कोई कहता है," जिंदगी प्यार की दो-चार घडी होती  है"किसी दार्शनिक ने यह भी कहा है,LIFE IS TOO LONG  TO LIVE BUT  TOO SHORT TO LOVE"   लेकिन इसे मानने या समझने की कोशिश कौन करता है.जीवन और मृत्यु के बीच चल रहे इस प्रहसन के दौरान अंधी सुरंग में दौड़ रहे हैं हम सब.धन-पिपासा ,उच्चा कांक्षा ,बच्चों के बीच संपत्ति के विवाद  ... गलाकाट रंजिश,सुखों के अनंत  आकाश को समेट लेने की छीना-झपटी के बीच हम सबने कहीं न कहीं पर महसूस किया होगा अपनों को दुत्कारने का सायास षड्यंत्र.लहू लुहान रिश्तों की चीख -पुकार के बीच कभी यह भी हुआ की आम इंसान सोचता रह गया की कोई भरोसा नहीं जिंदगी का क्यों न हम प्यार से रहें और अनायास ही ऊपर वाले ने डोर खींची और कठपुतली लुढ़क गई.         जिंदगी का सफ़र है ये किस सफ़र
               कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं     
जब यह सच मालूम है तब क्यों हम सब गलतियों पर गलतियाँ किये जाते हैं?धन पिपासा  की होड़ में भागते वक्त पल भर रुककर  क्या यह सोचा  होगा की सुख बटोरने की हवस में हम उन सुखों का उपभोग करने के लिए अनफिट तो नहीं हो गए है?इस शहर  में कई लोग ऐसे है जिनके पास बेपनाह दौलत है प़र न चैन से खा -पी सकते हैं न सो सकते हैं बीमारियों ने जकड़ लिया और किसी काम के लायक नहीं रहे-हीरे, मोती, सिक्के और करेंसी चबाकर पेट नहीं भरा जा सकता.एकाएक सुबहअखबारों में पता चलता है दौलतराम चल बसे.न तो उनहोंने सुखों का उपभोग किया .उलटे प्रापर्टी के नाम से परिवार में हो गई कुत्ता घसीटी शुरू!इस पर हम सब सोचते क्यों नहीं'
                   क्या यह कम आश्चर्य की बात है की लोगों को लगातार दुनिया से जाते हुए सीखकर भी यह मन संसार की  मोह-माया छोड़ नहीं पाता!-संस्कृत सूक्ति
                  मरने पर छः फुट जमीन हमें काफी हो जाती है लेकिन जीते-जी हम सारी दुनिया को पा लेना चाहते हैं-फिलिप 
                 सभी ने यह मृत्यु दर्शन पढ़ा और सुना है लेकिन शायद समझकर नासमझ बने रहने  का नाम ही जिंदगी है.जिंदगी और मौत के दर्शन पर सारे लोग बातें कर रहे हैं तरह-तरह की.अलविदाई के मौके पर भी मौत के सामने जिंदगी के अनेक रंग बातचीत की शक्ल में उभर रहे हैं .जितने मुहं उतनी बातें पर श्मशान वैराग्य का भाव कहीं न कहीं पर हावी है.यह बात भी उतनी है सच है की छोटे शहरों की सोच अभी तक कर्मकांडों के मामले में उतनी प्रगतिशील नहीं हो पाई है.फिर भी कुछ समाजों ने व्यवहारिक आवश्यकतानुसार इन्हें सीमित करने का प्रशंसनीय कार्य किया है.कुछ परम्पराओं को आज के परिप्रेक्ष में औचित्य की कसौटी पर अपडेट किया जाना  ही चाहिए.बाकी पुरातनपंथी समाजो को सीखना चाहिए उनसे  जो आज के सच को समझ कर चल रहे हैं.
                  हर किसी  को एक न एक दिन जाना ही है.... हम सब क्या लेकर इस दुनिया में आये और क्या लेकर जायेंगे?गीता ,कुरान बाइबल और गुरु ग्रंथ साहिब में जीवन -मृत्यु पर अच्छी बातें लिखी हैं पर इन सबके बीच कडवा सच एक ही है-
                      हंस रहा था अभी वो ,अभी मर गया
                    जीस्त और मौत का फासला देखिये!
  मेरा मानना है की लाख शिकायतें हों जिन्दगी से पर मौत का सच सामने रखकर जिंदगी को यह सोचकर जियो की " जियो और जीने दो"और " जीवन चलने का नाम ,चलते रहो सुबह  शाम" यही नहीं ," कल क्या होगा किसको पता ,अभी जिन्दगी का ले लो मजा". पर मजे लेते वक्त कोई यह न भूले की अनजाने में हम किसी को दुःख  तो नहीं पहुंचा रहे है ? क्योंकि जिंदगी और मौत के बीच का फासला इस कदर अबूझ है की कहीं ऐसा न हो दुःख पहुँचाने  के बाद सुख देने के लिए प्रायश्चित्त करने का मौका भी हाथ से निकल जाये और हाथ मलने के सिवाय कुछ न बचे.
                 अफ़सोस भरे शब्दों में सिर्फ  यही कहना नसीब  में रह जायेगा की काश!हम अपने माता -पिता को प्यार और सम्मान दे पाते....क्यूं भोंक दिया अपने दोस्त की पीठ पर छुरा?...रिश्तों के साथ बेईमानी और बेइंसाफी क्यों की?. मौत की अदृश्य -दृश्य शक्लें देखने के बाद हम सबको कहीं न कहीं यह जरूर लगना चाहिए की जीवन और मौत के बीच हमने क्या किया.समाज और परिवार ही नहीं देश के ऋणानुबंध से क्या हम मुक्त हो पाए?दोस्ती और इंसानियत के सारे फर्ज हमने अपनी जिन्दगी के दौरान पूरे किये या नहीं?क्योंकि मृत्यु शाश्वत है इसलिए -
                      जिंदगी ऐसे जियो जैसे सब तुम्हारा है
                     मरो तो ऐसे  की तुम्हारा कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं और सब कुछ के बीच श्मशान वैराग्य का आखिरी पड़ाव.कर्मकांड पूरे होते है. परम्पराओं और उत्तर आधुनिकता  के बीच दो पीढ़ियों  के द्वंद्व सामने  होते है. रस्म अदायगियां  और " . राम नाम सत्य..ओम शांति . "के बाद जीवन पर मृत्यु का रेड सिग्नल  हरी झंडी में बदल जाता है.ठहरा सा विचार प्रवाह फिर गतिमान होता है हरेक की अपनी जिंदगी के ताने-बाने होते हैं .जीवन -मृत्यु के शाश्वत चक्र के बीच एक ही बात याद रहती है -वक्त हरेक जख्म पर मरहम है.समय ही सारी गुत्थियों का सुलझाव.... जीवन चलने का ही नाम है...चरैवेति... चरैवेति .मैं अपनी आँखों की छल छलाह्त को छिपाकर अपनी भावनाओं  का मन ही मन इजहार कुछ इस तरह से करता हूं.-
                   उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
                    न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाये
                                                                                                 खुश रहें और खुश रखें ...
                                                                                                        किशोर दिवसे 
                           

                     

शनिवार, 25 जून 2011

बरगद की बातें करते है गमलों में उगे हुए लोग!!!!

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सारी जिंदगी एक ऐसी  में तब्दील हो चुकी है जिसमें कई लोग अपनी बोली लगाने हद दर्जे तक समझौते कर रहे है in!क्रिकेटरों  की मंडी में सबसे बड़ी बोली लगी थी  और बिक गए सितारा क्रिकेटर.जिसको देखो वही बिकने पर उतारू है.फ़िल्मी सितारे., अफसर, नेता, मीडिया,कर्मचारी ... अमूमन जिंदगी के सभी क्षेत्रों    में बिकाऊपन ठाठें  मार रहा है.यूं कहिये की जिंदगी के आईने में बाजार का सच इस तरह आतिशबाजी बन गया की  उसकी चुन्धियाह्त   से आँखें मुंदती हुई सी लगी.यकीनन इस आतिशबाजी से गहरा धुंआ निकल रहा है .इसके जहर ने  सिद्धांत ,संस्कार और ईमानदारी ( आज के दौर में वाहियात बनती किताबी बाते)की साँसों को  धौंकनी की तरह चलने पर भी मजबूर कर दिया है .
                          फिर भी आज के सच का सामना करने स्वीकारने या   नकारने  की अपनी  -अपनी   पसंद   के अलावा  और कोई  विकल्प  ही नहीं .हाँ इस बात पर जरूर बहस की जानी चाहिए की बाजार जिंदगी का हिस्सा है या जिंदगी ही बाजार बन गई है.और इस बाजार में -
                        क़त्ल इंसा हो रहा है चंद सिक्कों के लिए
                           इस कद्र दौलत का भूखा पहले आदमी न था
यह भी आज का सच है.आँखों की सफेदी पर छाते सुर्ख डोरों ने  पहले ही इशारा  कर  दिया था की अपने दद्दू के अंदाज-ए- बयान में तल्खी आ चुकी है'बाजार के सच पर हैरत जताने वालों के लिए दद्दू कहते है  ," सच है ,पहले किसी को बिकाऊ कह देने पर कोई भी भडक उठता था.आज की जिन्दगी में बिकाऊपन, मार्केट वेल्यू जैसे शब्द स्टेटस सिम्बल बन चुके   है.यह मान लिया जाता है की बिकाऊ ही खरा सिक्का है. चीखते रहने वाला या तो लल्लू  है या फिर उसे बाजार रेट पर बिकने का मौका ही नहीं मिला या उसके लायक ही नहीं!"
                    दरअसल बाजार  युग के  जो लायक है उसने अपनी कीमत तेज कर ली.जिन्होंने मौकों का फायदा नहीं  उठाया या इस सोच को नहीं अपना पाए वे अपनी सोच के आत्मदाह में झुलसकर विधवा विलाप करते रह गए.. रेस से बाहर हो गए, या हो जाते हैं.मौजूदा वक्त की नब्ज पहचान कर संतुलित  तरीके से चलने वाले ही सफल हो रहे हैं.प्रोफेशनलिज्म की फर्राटा रेस में हादसों  की आशंका  के बावजूद ढीले-ढाले भकुवाये बूढ़े घोड़ों को ख़ास जलसों और आयोजनों  की बारात में आवश्यकताओं की धुन पर नाचने की काबिलियत साबित करनी होगी.
                      ये दुनिया है, यहाँ जरदार ही सब कुछनहीं होते
                      किसी का नाम चलता है किसी का दाम चलता है
मीडिया  को भी सेलेबल आइटम की तलाश है.इन संस्थानों में दिखावे या चापलूसी  की छद्म संस्कृति इतनी हावी है की सभी पद नीलामी के चक्रव्यूह में पॅकेज के लिए अपना जमीर बेचने की कवायद चकलाघरों की तरह करने लगे हैं.खुले आम बाजारू होने का नंगा सच ये नहीं  कबूलते.  बजाये जब ये " चुडैलो की सौन्दर्य स्पर्धा के दलाल "ईमानदारी का मुखौटा ओढ़कर नैतिकता के प्रवचन देने  लगते है तब पेशानी पर बल पड  जाते  है क्योंके-
                           मुद्रा पर बिके हुए लोग ,सुविधा पर टिके हुए लोग
                            बरगद की बातें करते है गमलों में उगे हुए लोग






                     
शादी की मंडी में दूल्हा बिकता है.भूख और गरीबी से बच्चे बिकते है.जिस्म और जमीर की बिकवाली के बाजार में हो रहे सीरियल ब्लास्ट से संस्कारों  और सिद्धांतों की धज्जिया उड़ते देखी जा रही हैं. वर्तमान दौर  समाज के लिए नपुंसक तटस्थता का नहीं बल्कि मस्तिष्क में विचारों का जीवित ज्वालामुखी बनाने वाला होना चाहिए.निहित स्वार्थों के लिए औरतो के जीवन मूल्य भी बिकते  देखे जा रहे हैं." गोयबल्स के अवैध संतानों "की हरकतों पर बाजार का एक नजारा यह भी है-
                        कुछ लोग ज़माने को नजर  बेच रहे हैं
                                       अफवाह को कुछ कह के खबर बेच रहे हैं
                                   बीमार को बस अब हवाओं पे छोडिये
                       कुछ लोग दवाओं में जहर बेचते है
सोना अगर  मिटटी के मोल हो तो बदकिस्मती और मिटटी को सोने के मोल बेचना बाजार की चालाकी है.लेकिन जिंदगी के कैनवास पर मसलों का फौरी हल निकलने की झुंझलाहट विचारों  की मुख्य धारा का केंद  क्यों नहीं बनती?सवाल यह है की हम मसलों  के हल या विकल्पों की तलाश किस जिद से करते हैं.यकीनन बाजारवाद ने कुछ बेहतरी भी दी है .फिर भी  उहापोह, असमंजस  ,कन्फ्यूजन और सवालों का बीहड़ घना है.जिंदगी विसंगतियों का नरक न बने इसका फैसला करने वाले आप खुद है क्योंके-
                                          ये जिंदगी भी सवालों का एक जंगल है
                                           हर शख्स भटकता हुआ जवाब लगे है 
                                                                          फिर मिलेंगे.. अगली पोस्ट 
                                                                           पढने के वक्त....
                                                                                        किशोर दिवसे