शनिवार, 9 मई 2015

कचरे में मिली नेत्रदान की 2000 आँखें ,महादान अभियान की मिट्टीपलीत!

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कचरे में मिली  नेत्रदान की 2000 आँखें ,महादान  अभियान की मिट्टीपलीत!


बेहद शर्मनाक घटना। साथ में चिकित्सकीय तथा नेत्र दान से जुड़ी  संस्थाओं के लिए विचारणीय भी। देश व्यापी अभियान चल रहा हैं नेत्र दान -महादान का। यह मामला है हरियाणा के पीजीआईएमएस   को  नेत्र दान की गई 2000  आँखें कूड़ेदान में मिलीं। ऐसा क्यों हुआ?दलील दी जा रही है की दान की गई आँखों का समय पर इस्तेमाल नहीं किये जाने की वजह से वे खराब हो गई।  इन्हें कचरे में फेक देना पड़ा।
                              नेत्रदान-महादान से पहले क्या मेडिकल क्राइसिस  मैनेजमेंट ने इसपर कुछ नहीं सोचा कि  अगर नेत्र प्रत्यारोपित करने के लिए रिसीवर न मिले तो उसे कैसे सुरक्षित रखा जाये ? या फिर दीगर जगहों  पर जरूरत मन्दो के लिए भेजने का इन्तेजाम किया जा सके?अब सवाल यह  है की इस प्रकरण का दोषी कौन? यह दुर्घटना फिर न हो इसके लिए मेडिकल साइंस और जुड़े हुए डॉक्टर  क्या रणनीति बनायेंगे और कब? भावनात्मक रूप से सोचा जाये तो  ऐसी घटना अगर दुहराई गई तब नेत्रदान के प्रति देशव्यापी जागरूकता के अभियान की क्या मिटटी पलीत नहीं होगी? नेत्रदान संस्थाएं ,आइएमए और चिकित्सक तबका इसपर सक्रीय हस्तक्षेप करे. सभी राज्यों को इस गम्भीर मुद्दे पर जल्द ही सोचकर जरूरी कदम उठाने होंगे 

अगर आदिवासी हिन्दू हैं तो पारम्परिक वर्ण व्यवस्था में वे कहाँ हैं?

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अगर आदिवासी हिन्दू हैं तो पारम्परिक वर्ण व्यवस्था में वे कहाँ हैं?-क्षत्रिय, ब्राह्मण , वैश्य या शूद्र? मेरे मीडिया साथी आलोक पुतुल ने फेसबुक  पर यह सवाल उठाया है। मुझे लगता है कि  आदिवासी और हिन्दू दोनों ही शब्द- उत्पत्ति और क्रमिक विकास के नजरिये से  भौगोलिक, राजनैतिक,( राजनीति समर्थित संवैधानिक ) ऐतिहासिक , मान्यताओं  और निहित स्वार्थों का शिकार भी हुए हैं। दोनों ही शब्दों और जुड़े समूहों के मसले पर इतना अधिक घालमेल और असमंजस पैदा किया गया कि  आज भी कमोबेश यथा स्थिति कायम है। हालांकि संविधान ने कुछ स्पष्ट बात जरूर  की है।  फिर भी मिथक मिश्रित इतिहास और इतिहास के पुनर्लेखन के दौर में उहापोह अब भी कायम है।
                          कुछ इतिहासकार और नृतत्व विज्ञानी यह  मानते हैं की लोक हिंदूवाद या folk Hinduism आदिवासी मान्यताओं, मूर्ति  पूजा व् देवताओं का विलयीकरण है। यह धारणा मूल इंडो-आर्यन मान्यता के विपरीत है जिसके तहत  बन्दर, गाय, मयूर नाग,हाथी जैसे प्राणियों और और पीपल ,तुलसी,नीम,जैसे वृक्षों को पवित्र दर्जा दिया जाता रहा। कुछ आदिवासी जनजातियों  में यह सब कुल चिन्ह माने जाते रहे.  
आदिवासी शब्द भारत के मूल  निवासी  माने गए जातीय अल्पसंख्यक के  विविध समूह  के लिए प्रयुक्त छत्र शब्द umbrella term है। बांग्ला देश में भी आदिवासी तथा श्रीलंका में वेद्दा शब्द का प्रयोग होता है। नेपाल में इसे  आदिवासी तथा जनजाति  कहते हैं। संवैधानिक व्याख्या के अनुसार

                       हिन्दू शब्द का मूल धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान से जुड़ा है।  Iहिन्दू वह व्यक्ति है जो भारतीय उद्गम के किसी भी धार्मिक विश्वास को मनाता है।  हिन्दू दरअसल कवि इक़बाल  , मंत्री एमसी छागला  तथा आर एस एस की राय में धर्म से परे  सिंधु नदी के दूसरे पार रहने वाला इंसान है।  परशियाई भौगोलिक शब्दावली में हिन्दू शब्द भी प्राचीन भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर पश्चिमी क्षेत्र की Indus River , संस्कृत में सिंधु ,नदी क्षेत्र के वासियों का स्थानीय नाम रहा। तब हिन्दू शब्द का आधार भौगोलिक रहा। कुछेक संस्कृत ग्रंथों में कश्मीर के रजत रंगिनी (Hinduka, c. 1450) प्रयुक्त हुआ। विद्यापति, एकनाथ और कबीर के काल खंड में धर्म का चेहरा लेक हिन्दू , और इस्लम आमने -सामने खड़ा हो गया। यहीं स्थिति चैतन्य चरितामृत ,
चैतन्य भागवत में रही। यूरोपीय सौदागरों और साम्राज्यवादियों ने भारतीय धर्मों के मानने वालों को हिन्दू कहा. ।(16 -18  वी सदी। ) उन्नीसवी  सदी में . धर्म ,दर्शन और संस्कृति के आधार पर हिन्दू की व्याख्या की गई।
                               बहरहाल  ,वर्ण व्यवस्था कालांतर में भारतीय समाज के भीतर पुरोहित वर्ग के वर्चस्व से उपजी कार्रवाई या साजिश का नतीजा प्रतीत होती है। आदिवासी  और हिन्दू शब्द व् मानव समूह को भौगोलिक  ,नृतत्व विज्ञानी, मिथकीय, दर्शन शास्त्रीय,राजनैतिक ,जातिगत या अनय  विवाद से  मुक्त कर विशुद्ध भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। भारत में सिर्फ भारतीय। जिनेटिक्स का आधार वैज्ञानिक शोध का अलहदा विषय जरूर हो सकता है। फिर भी आलोक पुतुल का यह मुद्दा बम  सोच के लिहाज से जरूर धमाकेदार है।बहस जारी रहे!

शुक्रवार, 8 मई 2015

सच पूछो तो सब ही मुजरिम हैं कौन यहाँ किसकी गवाही दे?

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सच पूछो तो सब ही  मुजरिम हैं
कौन यहाँ किसकी गवाही दे?



* भारत की न्यायपालिका ने अपनी असलियत इस तरह खुल के कभी नहीं बताई थी. बिकने के लिए होड़ मचाये चार खम्भों वाले लोड-तंत्र में स्वागत है.
The justice has gone to dogs, so is republic.-समर अनार्य
* दुखद तो है मगर सलमान को सजा जरुर मिलेगी,-प्रकाश कुकरेती
राष्‍ट्रीय आपदा समाप्‍त.
(न्‍यूज़ चैनलों वाले अपने-अपने काम धंधों पर लौटे ही समझो. )-काजल कुमार
* सोचता हूँ संजय को क्यों नहीं मिली?-टीएस दराल
जो लोग सलमान खान के लिए संवेदना की नदी बहा रहे हैं । उन्हें इनकी मौत और इनके परिवार बाले की दुर्दशा पर भी कुछ फील होता है ??? अतुल्य भारत...!-अजय आनंद
* क्या दबंग का चुलबुल पाण्डेय एक रईसजादे और फ़िल्मी स्टार को इतनी आसानी से जाने देता. ये सच्चाई जानने के बाद की इस रईसजादे ने नशे की हालत में चार लोगो को कुचल दिया. इसमें एक की मृत्यु हो गयी. एक पुलिस वाले को तिल तिल कर मरने पर मजबूर का दिया. वो पुलिसवाला इस मामले में गवाह था. अगर नहीं तो क्या भारतीय कानून व्यस्था इस दो कौड़ी की फिल्म के पुलिस वाले से भी बदतर है?-कुंदन पाण्डेय
क्या दबंग का चुलबुल पाण्डेय एक रईसजादे और फ़िल्मी स्टार को इतनी आसानी से जाने देता. ये सच्चाई जानने के बाद की इस रईसजादे ने नशे की हालत में चार लोगो को कुचल दिया. इसमें एक की मृत्यु हो गयी. एक पुलिस वाले को तिल तिल कर मरने पर मजबूर का दिया. वो पुलिसवाला इस मामले में गवाह था. अगर नहीं तो क्या भारतीय कानून व्यस्था इस दो कौड़ी की फिल्म के पुलिस वाले से भी बदतर है?
* चिल्लाते रहो तुम। सच में "बड़ा दबंग" है सल्लू भाई।-अलोक कुमार
* अँधा कानून और मिलेंगी  तो बस "तारीख पे तारीख"-तारस पाल मान
                          सलमान खान क्या सजा निलंबित होने पर सोशल साइट्स पर प्रतिक्रियाओं का तूफान मचा .और भी ढेर सारी। .... बतौर फैन और आलोचक भी।  फिर भी  कुछ सवाल और भी  उठ खड़े होते हैं?
1 अगर अदालत ने आरोपी के नैतिक अधिकार के तहत किया तो क्या गलत किया?लेकिन आम  आदमी को यही छूट मिलती?
2 जो लोग सलमान की सजा माफ़ी पर जैकपॉट मिलने की तरह खुश हो रहे है वे क्या तब भी यही सोचते अगर सलमान की कार से कुचलकर उनका  बाप,माँ बेटा  ,बेटी या रिश्तेदार   तड़पकर मर जाता?
3. अमूमन सभी सिस्टम बिकाऊ हैं, बिक रहे हैं-आम नजरिया है। विशवास का संकट.
4 .     क्या अब भी आपको भरोसा है कि   समाज में जमीर लहूलुहान नहीं ,पूरी तरह चंगा है?
                           एक बड़े से विज्ञापन पर मेरी निगाह पड़ती है- मजमून है-" बिकाऊ हैं इंसान का जमीर और देश के सभी सिस्टम।  खरीदने वाले को निःशर्त लोड़तंत्र ( लोकतंत्र? ) के चारों खम्बों में से किसी में भी नीति निर्धारक कुर्सी प्रदान की जायेगी। योग्यता -एक्सरे रिपोर्ट में रीढ़ न होना जरूरी। उनके नल से करेंसी बहती हो।
             लहूलुहान रूह का साया मेरे चेहरे के आसपास मंडराता है.यकीनन हिट एंड रन केसेस में मरे किसी बन्दे की होगी। दर्द भरी आवाज में कराह -
मैं कहाँ से पेश करता एक भी सच्चा गवाह
जुर्म भी आपका था और  आपकी सरकार थी!
 उस रूह की कराह के जवाब में सिक्कों की खनखनाहट का कानफाडू कोहराम मचता है।   हड़बड़ाकर मेरी नींद खुलती है. ओह! तो यह सपना था ?
कितना सच। .... कितना झूठ!
मुझे काविश हैदरी याद आते हैं -
सच पूछो तो सब ही  मुजरिम हैं
कौन यहाँ किसकी गवाही दे?
बॉलीवुड की अगली  फिल्म में आप सलमान के मुह से यह डॉयलोग सुन सकते हैं-कुछ तो हालात ने मुजरिम हमें ठहराया है,और कुछ आप भी इल्जाम दिए जाते हैं?तराजू के दो पलड़े हैं। एक और स लमान दूसरी और ज्यूडिशियरी . अदृश्य रूप से अंतरात्मा!     
खामोश। … खामोश …। क्या मरने वालों की रूहों  या फिर उनके लिए आंसूं बहाने वालों के लिए कोई सोच रहा है? जिसने सोचा  सिर्फ वही मुजरिम नहीं। ......

             
                                             











गुरुवार, 7 मई 2015

"कृषि को" विजन -2015 " का सर्वाधिक महत्वपूर्ण एजेंडा बना लेना चाहिए " मुफ्त के बजाये -"खूब काम करो ,खूब अनाज पैदा करो " की नीति पर सोचें

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"कृषि को" विजन -2015  " का सर्वाधिक महत्वपूर्ण एजेंडा  बना लेना चाहिए "
मुफ्त के बजाये -"खूब काम करो ,खूब अनाज पैदा करो  " की नीति पर सोचें


क्या सचमुच में जमीनी स्तर पर कोई किसान नेता है?
क्या सरकार कृषि  क्षेत्र  के प्रति गंभीर दीखती हैं?
क्या खेतिहरों ( पुरुष व् महिला दोनों )की माली हालत ( उनकी चंद मजबूरी और कमजोरी के बावजूद) बेहतर कही जा सकती है?
क्या? बगैर मेहनत मुफ्त अनाज दिया जाना  ऐसे लोगो को आत्मनिर्भर बनाने की बजाये उन्हें आत्मसम्मान विहीन नहीं बना रहा है?
क्या कभी सीमांत किसानों को कृषि उत्थान के योजना एजेंडा में शामिल किया गया?
क्या शहरों के अंधाधुंध विकास की कीमत पर  गावों को सलीब पर  नहीं लटकाया जा रहा है?
क्यों  खेती की जोत भूमि और भूमि माफिया के अवैध रिश्ते सरकार और प्रशासन की आँखों की किरकिरी नहीं बनते?
                अरे    अरे अरे। ...... ज़रा सांस भी लोगे या फिर सवालों की मशीनगन  दागते रहोगे दनादन !
इस दफे दद्दू ,हमारे मित्र प्रोफ़ेसर प्यारे लाल को लेकर आये।  मैंने प्रोफ़ेसर प्यारेलाल से पूछा," प्रोफ़ेसर आप तो कृषि विश्व विद्यालय  में हो। दद्दू के  सवालो का जवाब मुझसे बेहतर दे सकते हो!"
" दद्दू के सवाल सौ फीसदी वाजिब हैं" प्रोफ़ेसर शुरू हो गए,"इन सभी सवाल और मुद्दों पर तो सरकारों , बुद्धिजीवियों , नागरिकों और प्लानरों को सोचना चाहिए। देशव्यापी बहस होनी चाहिए।  यह भी सच है कि खेती के मसले पर अपडेट होना खेत मजदूरों , किसानों के लिए ,जरूरी है और इसके लिए उन्हें  योजना में भागीदार भी अवश्य बनाना होगा। साथ ही आत्मनिर्भरता और आत्मसम्मान के मनोवैज्ञानिक  मुद्दे पर भी उन्हें पुख्ता बनाने सरकारी तंत्र में कसावट की बेहद दरकार है। "
                           
                       
    दद्दू को अखबार की एक खबर याद हो आई। वे बोले ,"महिला किसान कृषि आयोग के गठन की बात उठी है . यह मांग बुलंद की है भाजपा के दिग्गज  तरुण विजय ने जो एक संपादक भी रहे हैं .बेशक स्वागत योग्य है लेकिन पहले हमें " महिला किसान (?)की परिभाषा पर गौर करना होगा .
 हालांकि एक सर्वे रिपोर्ट  में बतौर निष्कर्ष कहा गया है की देश में 66 फीसदी महिला किसान हैं अगर खेतिहर मजदूरों को भी शामिल कर लिया जाये तो इसका फीसदी 80 तक हो जाएगा ."
                         " निश्चित रूप से खतिहारों की हालत बेहतर नहीं कही जा सकती .  हालत तो किसानो की बदतर है . देश में किसान आत्महत्याएं कर रहे है . तब ऐसी स्थिति में महिला किसान आयोग की मांग करना निश्चित रूप से सोचने वाली बात होगी ."- प्रोफ़ेसर ने अपनी राय जाहिर की।
    "   अपने  देश  में तो जब किसानो की बात होती है बनिहारिनो का जिक्र तक नहीं होता . एक और गम्भीर मसला है की जहाँ भी मुफ्त में अनाज की बात रही  है खेतिहरों में लापरवाही देखी  जा रही है . " - मैंने अपनी बात कही। ( शायद आपको भी अनुभव आया होगा हर कारोबार में लगे मजदूरों के संकट का. यहाँ पर उनकी तकलीफें और उनसे होने वाली शिकायते दोनों शामिल हैं ) . मुझे   तो लगता है कृषि को" विजन -2016 " का सर्वाधिक महत्वपूर्ण एजेंडा  बना लेना चाहिए। कम से कम छत्तीसगढ़ सरकार यह जरूर कर सकती है। गाँव कम क्यों हो रहे हैं क्या इस पर किसी ने सर्वे किया? "
                  " हाँ   अख़बारनवीस! " मुफ्त के बजाये -"खूब काम करो ,खूब अनाज पैदा करो  " की नीति व्यापक बनाकर काम का इंतजाम अगर सरकार करे तो कैसा रहेगा? और मुफ्त अनाज उन्हीं को जो शारीरिक तौर पर निशक्त या विशेष श्रेणी( डिसेबल्ड) में आते हों "- दद्दू ने  मशविरा दिया।
   " वो तो ठीक है ,  , भाजपा के तरुण विजय महिला किसान आयोग की बात कर रहे हैं. वे संपादक भी रहे. उन्होंने यह सोचा कि मीडिया में खेती और उससे जुडी खबरों को कितना स्थान दिया जाता है? -  प्रोफ़ेसर ने मुझसे पूछा।
 "ये जो महिला आरक्षण बिल है वह   पांच  साल से क्यों अटका है? दद्दू ने मुझसे   पूछा .,"इसके जरिये संविधान संशोधन होता . लोकसभा तथा राज्यों की सभी विधान सभाओं में  में  33 फीसदी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हो जातीं .( शायद और भी बढ़ाने की बात चली है )
          " ठीक कह रहे हो दद्दू ..राज्यसभा  ने तो  इसे 2010 में ही पास कर दिया था .लोकसभा अगर इसे पारित कर दे और देश की आधी  विधानसभाएं अपनी मुहर लगा दें तब तो सचमुच महिलाएं राजनीति में अत्यधिक शक्तिशाली हो जाएँगी .
.
     " यही तो समझने वाली बात है दद्दू! अगर ऐसा हो गया तो राजनीति में मर्दों का वर्चस्व खतरे में नहीं पद  जाएगा?वे यही तो नहीं चाहते की
 महिलाएं शक्ति शाली हो जाएँ.    ३३ फीसदी आरक्षण राजनीति में मिलने पर निश्चित रूप से उनकी राजनैतिक ,सामाजिक और आर्थिक हैसियत पुख्ता  हो जाएगी . "   कृषि को विजन -2015  " का सर्वाधिक महत्वपूर्ण एजेंडा  बना लेना चाहिए  और मुफ्त के बजाये -"खूब काम करो ,खूब अनाज पैदा करो  " की नीति पर सोचें।  मुफ्त अनाज उन्हीं को जो शारीरिक तौर पर निशक्त या विशेष श्रेणी( डिसेबल्ड) में आते हों "-इन मुद्दों पर चलो रायशुमारी की जाये -इस पर सहमति के साथ हम तीनो ने विदा ली।


                   






बुधवार, 6 मई 2015

कृत्या कविता की पत्रिका

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कृत्या कविता की पत्रिका है, जो हिन्दी सहित सभी भारतीय  एवं वैश्विक भाषाओं में लिखी जाने वाली आधुनिक एव प्राचीन कविता को हिन्दी के माध्यम से प्रस्तुत करती है। यह इन्टरनेट के माध्यम से साहित्य को जन सामान्य के सम्मुख लाने की नम्र कोशिश है। इसका उद्देश्य हिन्दी भाषा के प्रति सम्मान जगाना भी है.मेरी अनूदित कविताओं के प्रकाशन हेतु आभार ,रति सक्सेना जी
http://www.kritya.in/0905/hn/our_masters.html

सेलिब्रेटी और आम आदमी की औकात का फर्क!

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सेलिब्रेटी और आम आदमी की औकात का फर्क!





हैल्लो। । हैल्लो सल्लू बोल रहा हूँ।
1  बजकर 35  मिनट की दोपहर का वक्त.
क्या! मैं चौंक गया। … सेल फोन की स्क्रीन को घूरा। लिखा था दद्दू।
इससे पहले कि मैं कुछ बोलता, दद्दू बोल उठे ," यार अखबार नवीस , सल्लू हिट एंड रन केस में अंदर हो गयेला है। 5 साल की जेल।
"अरे बीड़ू! खाली - पीली आप काहे टेंशन ले रहेले हो!  हो तो दद्दू और खुद को बोल रहे हो सल्लू! आ जाओ। .फुर्सत से बात करते हैं। "... अपने दद्दू तो आज टीवी की स्क्रीन के सामने सोफे पर फेविकोल का जोड़ लगाकर चिपक गए थे। बोले, अपना सल्लू  फिल्म स्टार तो है अपुन का फेवरिट। बड़ा शानदार ,कोई शक नहीं। फिर भी बुर्ज़ -ए -खलीफा की साइज का  सवाल ये है कि -
" .कोई भी अदालती फैसले की घडी और मानवीय भावना के बीच क्या रिश्ता है?फैसले में तरलता के क्या पैरामीटर हैं?क़ानून अँधा क्यों कहा जाता है?तो क्या उसे भावना में बहना चाहिए? सेलिब्रेटी और आम आदमी पर कोर्ट फैसले के वक्त भावनाओं के ज्वार या इमोशनल कोशंट पर जमीर या कॉन्शस या अन्तरात्मा की आवाज का वजूद कितना है या होना चाहिए?"
              "ऐसा है दद्दू सेलिब्रेटी स्टेट्स की चकाचौंध से कइयों की आँखें चुंधिया जाती हैं। " मैंने कहा,"अब तो फैसला आ गया। जेल फिर हाईकोर्ट में बेल की तैयारी। फिर भी एक सवाल मुझे चुभता है.सेलिब्रेटी स्टेटस और आम आदमी की औकात में इतना फर्क क्यों ?आम आदमी के फैसले पर तो काला कुत्ता भी मुंह नहीं उठाता. सिने स्टार या है प्रोफाइल स्टेटस तो तब दमदार-दमदार सभी को "वहां पर"रहमानी कीड़ा काटने लगता है!
           " ठीक कह रहे हो अखबार नवीस,"  दद्दू गम्भीर हो गए,"सितारे के लिए मीडिया की फ़ौज, उपकृत और फैन का जबरदस्त हुजूम और आम आदमी। ।पूरी  तरह बेचारा! "
सोढल साइट्स पर मेरे अनेक साथियों ने अपने नजरिये का कोहराम मचाया।  लेकिन मुझे लगता है यह आम आदमी की रिएक्शन भी बेहद मायने रखती है. एक बानगी देखिए -
"सलमान खान नशे में लोगों की जान लेने का ही नहीं, अदालत में शपथ लेकर झूठ बोलने का भी अपराधी है, 12 साल बाद झूठा (और ग़रीब) गवाह ख़रीद अपने किये के लिये उसे जेल भिजवाने की साज़िश का भी अपराधी है। हद यह कि मुजरिम साबित होने के तुरंत बाद हृदयरोगी होने का सर्टिफ़िकेट पैदा कर देने का भी- वरना जिसके छींकने की खबर तक 'ब्रेकिंग' होती है, उसके बारे में यह बात पता न चलती?
सो वह आदमी कितना भी भला हो- सजा तो बनती है न?-"--समर अनार्य
"उस समय जो सुरक्षाकर्मी साथ था जिसने सलमान के खिलाफ गवाही दी थी वो तो नायगांव के एक कमरे में टीबी से अकेले लड़ते लड़ते गुमनाम मर गया".-प्रेम शुक्ला
" हाँ, बहुत लोग दुखी हैं ,पर इस सजा से बचने के बहुत पैंतरे अपनाए गए . गलती की सजा तो जरूरी है ".-रश्मि रविजा
 और भी अनेकानेक खरी-खरी प्रतिक्रियाएं मेरे मित्र कुनबे की। ।  अपने दिल की बात! ( कितनों के नाम लिखूं ? सब मेरे अपने हैं। जागती आँखों और चौकन्ने दिमाग वाले!
 इसी मसले पर मेरे मन के  विचार मैंने दद्दू के सामने कहे   "यार दद्दू!एक बड़ा संजीदा मसला है.कोई भी अदालती फैसले की घडी और मानवीय भावना के बीच क्या रिश्ता है?फैसले में तरलता के क्या पैरामीटर हैं?क़ानून अँधा क्यों कहा जाता है?तो क्या उसे भावना में बहना चाहिए? सेलिब्रेटी और आम आदमी पर कोर्ट फैसले के वक्त भावनाओं के ज्वार या इमोशनल कोशंट पर जमीर या कॉन्शस या अन्तरात्मा की आवाज का वजूद कितना है या होना चाहिए?  
              दद्दू! देखो मेरी वॉल  पर विदूषी पुष्पा तिवारी  का नजरिया-   "कानून तो लिखी हुई इबारत है । जो परेशानी में है उसकी मानसिकता अलग है वकील की अलग ।सारा दारोमदार तीसरे पर वह कितना अच्छा हो सकता है यह उसकी लियाकत और ईमानदारी पर है । जब अब समय ही सब ( ईमानदारी भावना आत्मा ) शब्दों को व्यथॆ बना रहा है तो अदालत भी तो इंसानों का जमावड़ा है ।" संत राम थवाईत ने कहा- सेलिब्रेटी की पल पल खबर और आम आदमी!
               " बात तो सोलह आना सच है." दद्दू सहमत थे। पर मेरे मन का गुस्सा कम नहीं हो रहा था- मैंने दद्दू से कहा -
" यार दद्दू! लायसेंस ले लो लायसेंस!अक्खे समाज में दूकाने खुल चुकी है.तमाम धार्मिक सिंबल अपने जिस्म पर चिपकाइये और पूरी बेशर्मी से अपराध करने का परमानेंट लायसेंस लीजिये.छद्म धार्मिकता का मुखौटा लगाइये और खुलकर अपराध कीजिए. नौ दिन नवरात्रि में पूजा करो और दसवे दिन फाटे तक दारू पियो!  चैरिटी का ढोंग करते रहिये अपराध पर सजा कम करने कई मगरमच्छ आंसू बहायेंगे.मैं उन कथित छदमवादियो से पूछता हूँक़ि अगर हिट एंड रन  हादसे में आपका कोई बेटा बहन भाई पिता या माँ मर गई होती तब आप क्या सोचते?चैरिटी करना क्या सजा कम करने का सबब हो सकता है?क्या कभी आम आदमी के मामले में "बीइंग ह्यूमन "मुद्दे पर इतनी गहराई से सोचा जाता है?या सब कुछ सेलिब्रेटी के लिए?दो कौड़ी का आम आदमी जाये भाड़ में!  दद्दू का मुंह खुला का खुला था।
            मैंने दद्दू से पूछा।  फिल्म स्टार राजकुमार के बेटे पुरू राजकुमार का भारत का पहला हिट एंड रन केस ( सेलिब्रेटी सन्दर्भ , यूं को कई लोग कीड़े-मकोड़ो की तरह हादसों में मरकर दफन-ए -फ़ाइल भी हो जाते हैं). उस मामले में 1990 में देर रात पुरू ने सड़क पर सोते गरीबो पर कार चढा  दी।  दो  लोग कुचलकर मर गए।  स्टार पुत्र पुरू राजकुमार
खुशकिस्मत था। उसे न जेल हुई न होमीसाइड का आरोप लगा। एक-एक लाख दिया और मामला फिस्स। .
कोर्ट ने मृतको  के परिजनों को 30000 प्रत्येक का मुआवजा दिया। आहत को 5000 .
               सलमान या सेलिब्रेटी के मामले में मीडिया पर भी अंगुलिया उठती हैं।  हादसों में मृतकों या आहटों की सुध क्यों नहीं ली जाती? सभी चोंचले स्टार के लिए? खैर! सलमान को सजा के ऐलान के बाद अनेक सवाल। . कयास। … कोशिशें। । रिएक्शन के दौरों का जलजला चलेगा।  देखते हैं तब तक।  " लेकिन अखबार नवीस ! ये कोर्ट के फैसले  इतनी देरी से क्यों आते हैं?
              "सल्लू के केस पर फैसला आने में 13 साल लगे.... ऐसा कब तक चलेगा? अदालती फैसला सर आँखों  पर  लेकिन अगर न्याय जल्दी मिले और वह भी पूरी पारदर्शिता से ,तब न्याय व्यवस्था पर आम आदमी का भरोसा और भी बढ़ जाएगा, ऐसा  मुझे लगता है। "- दद्दू ने दो-टूक बात कही।
 " सच्ची बात दद्दू !    इस मसले पर तो समूचे भारत को सोचना चाहिए। … तब तक किसी को भी अगर ये वाला उपन्यास मिलेगा
Doctor jekyll and mister hyde  तो  जरूर पढियेगा। फिर मिलते हैं। ..... 

मंगलवार, 5 मई 2015

"दद्दू चले छत्तीसगढ़ के सी एम रमन सिंह से मिलने!"

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"दद्दू चले छत्तीसगढ़ के सी एम रमन सिंह से मिलने!"



" जा रहा हूँ मैं सीएम डॉ रमन सिंह से मिलने "- दद्दू ने मुझसे मिलते ही धम्म से गोला  दागा । । मैंने पूछा ," क्या हुआ दद्दू! पैसे -कौड़ी की  मदद..... या फिर नेतागिरी  का चक्कर?.
"नहीं अखबारनवीस,स्मार्ट शहर का भोंपू जोर-शोर से बज रहा है। करमजले  बिलासपुर का तो नसीब ही फूटा है। कभी- कभी तो लगता है बिलासपुर हर मामले में अरसे से रायपुर का एक उपनिवेश था , है और रहेगा!", दद्दू की पेशानी पर बल साफ़ नजर आ रहे थे।
"दुखी मत हो दद्दू,  हर रात के बाद सुबह होती है। ",मैंने ढाढस बंधाकर उनसे कहा,"सी एम ने बिलासपुर  का नाम तो भेजा है अब जे बात तो सब को मालूम है कि छत्तीसगढ़ में अक्खा बिलासपुर ही है जहा सीवरेज  योजना  लागू हुई। अब इसको सफल बनाकर अगर बिलासपुर को स्मार्ट सिटी बनाने की दिशा में नागरिकों ने ही कोशिश नहीं की  तो  पक्का मिलेगा-बाबाजी का टुल्लू!
"शांत -शांत हो दद्दू!." मैंने एसी  का स्विच ऑन कर दिया। " यार दद्दू! अगर अपना बिलासपुर  स्मार्ट शहर नहीं बना तो भी एक ऑप्शन बचा है हमारे पास "
" वो क्या! दद्दू की आँखें डिश एंटेना के  डिश की तरह फ़ैल गईं।
" बिलासपुर क्षेत्र का हर- एक गाँव तो स्मार्ट गाँव बन सकता है"!,मैंने कहा। " क्या पीएम आदर्श ग्राम योजना की बात कर रहे हो अखबारनवीस?-दद्दू ने कोंचा।
" नहीं भाई मैं वारंगल से १४ किलोमीटर दूर गंगादेविपल्ली की बात कर रहा हूँ।
" क्या खासियत है उसमें! "दद्दू शायद पत्रकार साथी सुजीत ठाकुर की रिपोर्ट नहीं पढ़ पाये थे।  मैंने बताया। 32 बरस से शराबबंदी ,कोई अपराध नहीं ,सौ फीसदी साक्षरता। सबसे ख़ास बात तो यह कि कोई मंदिर ,मस्जिद ,गुरुद्वारा , चर्च भी नहीं। सिर्फ ग्राम देवता  की पूजा। गाँव वालों की अपनी कमेटियां , नुक्सान करने पर जुर्माना। पूरी पंचायत बगैर सरकारी ढोल-धमक्के के सिर्फ गाँव वालों की मेहनत के दम  पर देश में छा गई है यह पंचायत।अनेक योजनाकार ,सिने  स्टार, ६० से अधिक देशों के प्लानरों ने इसे देखा है।  
     
               
  " अखबार नवीस मैं सोच रहा हूँ पंचायतों के मुखिया या कोई जागरूक नागरिक भी आंध्र प्रदेश के गंगादेविपल्ली का गहन  अध्ययन करे तो अपने गाँव को आदर्श गाँव बना सकता है.।- दद्दू की बुद्धिमत्ता चुचुआने लगी।
" सच्ची बात!गाँव वालों का अपने दम पर आदर्श गाँव बनाना  यकीनन काबिल-ए -सलाम बात है।  ख़ास बात तो यह है की अधिकाँश शहर-गाँवों में   जहाँ धार्मिक स्थलों व् ट्रस्ट में आर्थिक घपले और लफड़े, पंचायतों में लूट-खसोट जमकर हो रही हैं वहां गंगादेवीपल्ली पंचायत में सुधार का ऐसा करिश्मा कैसे हुआ?
( अगर  आप भी गंगादेविपल्ली के बारे में नहीं जानते तो गूगल बाबा की शरण में जाइए।  वे अन्तर्यामी हैं।  सब कुछ बता देंगे। )
     " चलता हूँ अखबार नवीस! " रायपुर जाकर सीएम साहब से कहूँगा ," सर जी! आपके मंत्री तो विदेशों  का दौरा तो करते ही रहते हैं. एक बार उन्हें और प्रशासनिक अधिकारियों को गंगादेविपल्ली का टूर मारने बोलिए। अपने छत्तीसगढ़ के गाँवों में भी सच्ची वाला सुराज आ जायेगा। तभी सब लोग गर्व से कह सकेंगे -क्रेडिबल छत्तीसगढ़ .
                     

सोमवार, 4 मई 2015

जिंदगी का आर्थिक फलसफ़ा : कालजयी हैं कार्ल मार्क्स :

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 जिंदगी का आर्थिक फलसफ़ा : कालजयी हैं कार्ल मार्क्स :

 मार्क्स  एक सिद्धांत शैली अवधारणा और फ़लसफ़ा है। अगरचे एक   जिंदगी हैं मार्क्स कहा जाय तो अतिरंजना  नहीं होगी। मार्क्स को   समझना जिंदगी को  भी समझना है। मार्क्स  के सूत्र एक दिशा है।  समयअनुसार  उसमें जीवनानुकूल परिवर्तन भी नजर आते हैं। मार्क्स, ,आंबेडकर, कबीर  अर्थतंत्र के कुछेक मसलों पर गलबहियां करते भी नजर आते हैं। मार्क्स और विभिन्न कालखंडों के अर्थ चिंतकों के तुलनात्मक अध्ययन किये गए हैं। फिर भी मार्क्स हर जगह प्रकारांतर से बतौर बुनियाद नजर आते हैं। मार्क्स को पढ़ना एक तरह जिंदगी के आर्थिक अतलांत को समझना भी है।
           बरक्स विकिपीडिया  कार्ल हेनरिख मार्क्स (1818 - 1883) जर्मन दार्शनिक, अर्थशास्त्री और वैज्ञानिक समाजवाद का प्रणेता रहे। 5 मई 1818 को त्रेवेस (प्रशा) एक यहूदी परिवार में पैदा हुए । 1824 में उसके परिवार ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। 17 वर्ष की अवस्था में मार्क्स ने कानून का अध्ययन करने के लिए बॉन विश्वविद्यालय में प्रवेश किया। तत्पश्चात्‌ उसने बर्लिन और जेना विश्व-विद्यालयों में साहित्य, इतिहास और दर्शन का अध्ययन किया। इसी काल में वह हीगेल के दर्शन से बहुत प्रभावित हुआ। 1839-41 में उसने दिमॉक्रितस और एपीक्यूरस के प्राकृतिक दर्शन पर शोघ-प्रबंध लिखकर डाक्टरेट प्राप्त की।

                          शिक्षा समाप्त करने के पश्चात्‌ 1842 में मार्क्स उसी वर्ष कोलोन से प्रकाशित 'राइनिशे जीतुंग' पत्र में पहले लेखक और तत्पश्चात्‌ संपादक के रूप में सम्मिलित हुआ किंतु सर्वहारा क्रांति के विचारों के प्रतिपादन और प्रसार करने के कारण 15 महीने बाद ही 1843 में उस पत्र का प्रकाशन बंद करवा दिया गया। मार्क्स पेरिस चला गया, वहाँ उसने 'द्यूस फ्रांजोसिश' जारबूशर पत्र में हीगेल के नैतिक दर्शन पर अनेक लेख लिखे। 1845 में वह फ्रांस से निष्कासित होकर ब्रूसेल्स चला गया और वहीं उसने जर्मनी के मजदूर सगंठन और 'कम्युनिस्ट लीग' के निर्माण में सक्रिय योग दिया। 1847 में एजेंल्स के साथ 'अंतराष्ट्रीय समाजवाद' का प्रथम घोषणापत्र (कम्युनिस्ट मॉनिफेस्टो) प्रकाशित किया


                        1848 में मार्क्स ने पुन: कोलोन में 'नेवे राइनिशे जीतुंग' का संपादन प्रारंभ किया और उसके माध्यम से जर्मनी को समाजवादी क्रांति का संदेश देना आरंभ किया। 1849 में इसी अपराघ में वह प्रशा से निष्कासित हुआ। वह पेरिस होते हुए लंदन चला गया जीवन पर्यंत वहीं रहा। लंदन में सबसे पहले उसने 'कम्युनिस्ट लीग' की स्थापना का प्रयास किया, किंतु उसमें फूट पड़ गई। अंत में मार्क्स को उसे भंग कर देना पड़ा। उसका 'नेवे राइनिश जीतुंग' भी केवल छह अंको में निकल कर बंद हो गया।


                        1859 में मार्क्स ने अपने अर्थशास्त्रीय अध्ययन के निष्कर्ष 'जुर क्रिटिक दर पोलिटिशेन एकानामी' नामक पुस्तक में प्रकाशित की । यह पुस्तक मार्क्स की उस बृहत्तर योजना का एक भाग थी, जो उसने संपुर्ण राजनीतिक अर्थशास्त्र पर लिखने के लिए बनाई थी। किंतु कुछ ही दिनो में उसे लगा कि उपलब्ध साम्रगी उसकी योजना में पूर्ण रूपेण सहायक नहीं हो सकती। अत: उसने अपनी योजना में परिवर्तन करके नए सिरे से लिखना आंरभ किया और उसका प्रथम भाग 1867 में दास कैपिटल (द कैपिटल, हिंदी में पूंजी शीर्षक से प्रगति प्रकाशन मास्‍को से चार भागों में) के नाम से प्रकाशित किया। 'द कैपिटल' के शेष भाग मार्क्स की मृत्यु के बाद एंजेल्स ने संपादित करके प्रकाशित किए। 'वर्गसंघर्ष' का सिद्धांत मार्क्स के 'वैज्ञानिक समाजवाद' का मेरूदंड है। इसका विस्तार करते हुए उसने इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या और बेशी मूल्य (सरप्लस वैल्यू) के सिद्धांत की स्थापनाएँ कीं। मार्क्स के सारे आर्थिक और राजनीतिक निष्कर्ष इन्हीं स्थापनाओं पर आधारित हैं।

                      1864 में लंदन में 'अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ' की स्थापना में मार्क्स ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। संघ की सभी घोषणाएँ, नीतिश् और कार्यक्रम मार्क्स द्वारा ही तैयार किये जाते थे। कोई एक वर्ष तक संघ का कार्य सुचारू रूप से चलता रहा, किंतु बाकुनिन के अराजकतावादी आंदोलन, फ्रांसीसी जर्मन युद्ध और पेरिस कम्यूनों के चलते 'अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ' भंग हो गया। किंतु उसकी प्रवृति और चेतना अनेक देशों में समाजवादी और श्रमिक पार्टियों के अस्तित्व के कारण कायम रही।

                      'अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ' भंग हो जाने पर मार्क्स ने पुन: लेखनी उठाई। किंतु निरंतर अस्वस्थता के कारण उसके शोधकार्य में अनेक बाधाएँ आईं। मार्च 14, 1883 को मार्क्स के तूफानी जीवन की कहानी समाप्त हो गई। मार्क्स का प्राय: सारा जीवन भयानक आर्थिक संकटों के बीच व्यतीत हुआ। उसकी छह संतानो में तीन कन्याएँ ही जीवित रहीं।
                      मार्क्स और विभिन्न कालखंडों में सक्रिय  अर्थ चिंतकों की स्थापनाओं के तुलनात्मक अध्ययन पर आधारित अनेक भाषाओँ में पुस्तकें उपलब्ध हैं।     मार्क्स और आंबेडकर पर भी अनेक पुस्तके लिखी गयीं। कालजयी हैं कार्ल मार्क्स ,और रहेंगे भी। ....   किसी न किसी रूप में।  कार्ल मार्क्स  को सलाम। उनके दर्शन को भी......

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देखा! भूल गए न सैम !पित्रोदा को !
सैम पित्रोदा का  जन्मदिन आज

आज  बच्चे से लेकर बूढ़े तक हर किसी के हाथ में मोबाइल है। 3 जी   4  जी   5 जी और न जाने क्या क्या।लेटेस्ट  गैजेट्स हैं।  वात्ज़प ,वेब कैम , इंटरनेट  और सोशल साइट्स की दीवानगी तो देखते बनती है अपने बिलास्पुर  के राजीव प्लाज़ा में तो ९० फीसदी दुकाने मोबाइल की हैं  .भारत में सूचना क्रान्ति के जनक का नाम लिया जाय  एक ही नाम है-सैम पित्रोदा।   सैम पित्रोदा ने 1984 में भारत लौटने के बाद सी-डैक की स्थापना की थी.
भारतीय सूचना क्रांति के अग्रदूत माने जाने वाले सैम पित्रोदा का पूरा नाम सत्यनारायण गंगाराम पित्रोदा है. चार मई 1942 को  ओड़िशा  के टिटलागढ़ में जन्मे पित्रोदा एक भारतीय अविष्कारक, कारोबारी और नीति निर्माता हैं.
वर्तमान में पित्रोदा भारतीय प्रधानमंत्री के जन सूचना संरचना और नवप्रवर्तन सलाहकार हैं. प्रधानमंत्री के सलाहकार के रूप में उनकी भूमिका विभिन्न क्षेत्रों में नागरिकों को मिलनेवाली सुविधाओं को प्रभावी बनाना और नवप्रवर्तन के लिए रोडमैप तैयार करना है.
पित्रोदा राष्ट्रीय नवप्रवर्तन परिषद के चेयरमैन भी हैं.
साल 2005 से 2009 तक सैम पित्रोदा भारतीय ज्ञान आयोग के चेयरमैन थे. इस उच्च स्तरीय सलाहकार परिषद का गठन देश में ज्ञान आधारित संस्थाओं और उनके आधारभूत ढांचे को बेहतर बनाने के लिए परामर्श देने के लिए किया गया था.
भारतीय ज्ञान आयोग के चेयरमैन की हैसियत से काम करते हुए पित्रोदा ने 27 क्षेत्रों में सुधार के लिए क़रीब 300 सुझाव दिए थे.

भौतिकी में स्नातकोत्तर करने के बाद इलेक्ट्रोनिक्स में मास्टर की डिग्री हासिल करने के लिए पित्रोदा शिकागो के इलिनॉय इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी गए.
साठ और सत्तर के दशक में पित्रोदा दूरसंचार और कंप्यूटिंग के क्षेत्र में तकनीक विकसित करने की दिशा में काम करते रहे. पित्रोदा के नाम सौ से भी अधिक पेटेंट हैं.
साल 1984 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पित्रोदा को भारत आकर अपनी सेवाएं देने का न्योता दिया.
भारत लौटने के बाद उन्होंने दूरसंचार के क्षेत्र में स्वायत्त रूप से अनुसंधान और विकास के लिए सी-डॉट यानि 'सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ़ टेलिमैटिक्स' की स्थापना की.

विज्ञान के क्षेत्र में पित्रोदा के विशेष योगदान के लिए उन्हें 2009 में पद्म भूषण से नवाज़ा गया .
उसके बाद प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सलाहकार की हैसियत के उन्होंने घरेलू और विदेशी दूरसंचार नीति को दिशा देने का काम किया.
1990 के दशक में पित्रोदा एक बार फिर अपने कारोबारी हित साधने के लिए अमरीका चले गए और लंबे समय तक वहां तकनीकी अनुसंधान का काम करते रहे.
2004 में जब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार सत्ता में आई तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सैम पित्रोदा दो फिर भारत आने का न्योता दिया और उन्हें भारतीय ज्ञान आयोग का चेयरमैन बनाया गया.
रा्ष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई पुरस्कारों से सम्मानित पित्रोदा को विज्ञान और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए 2009 में पद्मभूषण से नवाज़ा गया.
1992 में पित्रोदा संयुक्त राष्ट्र में भी सलाहकार रहे. पिछले साल उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने सैम पित्रोदा को ओबीसी पोस्टर ब्वाय के रूप में उतार कर नया चुनावी समीकरण बनाने की कोशिश की थी
SATYANARAYAN GANGAARAM PITRODA -popularly known as Sam Pitroda (born 4 May 1942) is a telecom engineer, inventor, entrepreneur and policymaker. He was born in Titilagarh, a poor, remote village in rural Odisha, India. In 1964, he traveled to Chicago to study electrical engineering. Pitroda had never used a telephone before arriving in the US.

After many years Pitroda visited India and could not make a phone call to his wife. So he returned to India and spent nearly a decade with Prime Minister Rajiv Gandhi as leader of an effort to build an Indian information industry. The task was to extend digital telecommunications to every corner of the country, including remote villages, like the one of his birth. Pitroda launched the Center for the Development of Telematics (C-DOT), and served as Advisor to the Prime Minister on Technology Missions related to water, literacy, immunization, oil seeds, telecom, and dairy. He is also the founding Chairman of India’s Telecom Commission.

Pitroda returned to India a second time in 2004 to focus on building knowledge institutions and infrastructure. Pitroda served as chairman of the National Knowledge Commission (2005–2009), a high-level advisory body to the Prime Minister of India, to give policy recommendations for improving knowledge related institutions and infrastructure in the country. During its term, the National Knowledge Commission submitted around 300 recommendations on 27 focus areas.

Pitroda also founded the National Innovation Council (2010), and served as the Advisor to the Prime Minister with rank of a cabinet minister on Public Information Infrastructure and Innovation, to help democratize information.

Pitroda founded and served as Chairman of C-SAM.[3] The company maintains its headquarters in Chicago with offices in Singapore, Tokyo, Pune, Mumbai and Vadodara. Pitroda holds around 100 technology patents, has been involved in several start ups and lectures extensively.
Pitroda has also started several businesses as a serial entrepreneur (Wescom Switching, Ionics, MTI, Martek, WorldTel, C-SAM, etc.) in the US and Europe.
He has also served as an advisor to the United Nations and in 1992, his biography Sam Pitroda: A Biography was published
and became a bestseller on The Economic Times list for five weeks.

As technology Advisor to the Prime Minister, Rajiv Gandhi in 1984, Pitroda not only heralded the telecom revolution in India, but also made a strong case for using technology for the benefit of society through missions on telecommunications, literacy, dairy, water, immunization and oil seeds.
Pitroda's claim of heralding the Telecom Revolution in India has been disputed in an article by Rajeev Mantri and Harsh Gupta published by LiveMint.
He has lived in Chicago, Illinois since 1964 with his wife and two children and also in Delhi.
(COURTSEY WIKIPAEDIA)

अत्तदीप भव।।

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 अत्तदीप भव।।
क्या समाज इसे सच्चे  दिल  से स्वीकार रहा  है? हाँ? नहीं?  ?कैसे? सिद्धार्थ , बोधिवृक्ष के नीचे बुद्ध बन गए। क्या  हमने /आपने / किसी  ने "  बोधिवृक्ष " (?) की तलाश की? क्या हो सकता है आज  के  इंसान का बोधि वृक्ष? वक्त  मिला जिंदगी की अनवरत रस्साकशीं में इस तलाश   लिए?  इंसान बनना है तो आपको खुद ही अपने हर सवाल, हर समस्या का जवाब ढूँढना  होगा। क्या आप तैयार हैं? चलिए बुद्ध की  सीखों को आज  सन्दर्भ में समझने की कोशिश खुद करें!  अत्तदीप भव!



शनिवार, 2 मई 2015

घर पडोसी का महक जाए चमन की सूरत तेरे आँगन से मुहब्बत की वो खुशबू निकले! अपने दद्दू से बात हो रही थी मकान के मसले पर. बोले ," यार कलम घसीटू!रोटी ,कपड़ा और मकान बुनियादी जरूरतें हैं. यार दद्दू! जे कौन सी नयी बात कह दी? मैंने कहा। दद्दू बोले , नहीं! मेरे कहने का मतलब ये की जो लोग मकान नहीं बना पाते या फिर जिनके मकान ढह जाते हैं भूकम्प जैसी विपदा में उन्हें कितनी मुश्किल होती होगी नई क्या? नया मकान बनने में न जाने कितना वक्त लग जाता है! सरकार के अच्छे दिन न जाने कब आते हैं, आते हैं भी या नहीं! बात सही है दद्दू! एकड़ तो मकान बनाना कितना लोहे के चने चबाना हो गया है इस महंगाई के जमाने में। उसपर अगर कही भूकम्प जैसी तबाही बच जाए तब तो हालत यूं हो जाते हैं मानो -- दीवारें क्या गिरी मेरे मकान की लोगों ने आने जाने का रास्ता बना लिया रास्ता बनाने की बात करते हो दद्दू, मैंने छेड़ा," मुंबई जैसे शहर में कई बीड़ू तो मकान सा सपना देखते देखते गुमनामी में खो जाते हैं । आशियाना मिल जाए तो खुशनसीबी वर्ना !और तो और कई दफे तकदीर और तदबीर का खेल यूं होता है की समंदर बाँधने के लिए चले इंसान का घे पहली बारिश ही उजाड़ देती है. सलीम अख्तर के दर्द के इस अंदाज में - मैं समंदर बाँधने निकला था बस्ती छोड़कर क्या खबर थी पहली बारिश मेरा घर ले जायेगी! जो भी हो सच कहूँ तो मकान छोटा हो या बड़ा वो अपना घर होना चाहिए। जीवंत जहाँ पर रिश्ते जिए जाते हैं। दूसरे शब्दों में ईटों और दीवारों से नहीं घर तो उसमें रहने वालों से बनता है। " घर के साथ आँगन भी कितना अच्छा लगता है अखबार नवीस!" दद्दू ने चोंच खोली "यार आजकल तो अपार्टमेंट का ज़माना आ गया है। आँगन मिले तो ठीक न मिले तो भी ठीक! जरूरी बात बोले तो- मेरी ख्वाहिश ये है कि आँगन में न दीवार उठे मेरे भाई मेरे हिस्से की जमीन तू लेले! मेरी भावनाओं को समझो दद्दू! वर्ना आजकल तो जमीन और मकान के लिए भाई -भाई और परिवार में न जाने कितने सर फुटौव्वल होते हैं।बहरहाल मकान के मसले पर तो कहने को काफी कुछ है पर अपना मकान जब भी बने, छोटा हो या बड़ा हो। .... अपनी जरूरतों के बरक्स बनायें फकत इतना ख्याल रखिये क़ि - घर पडोसी का महक जाए चमन की सूरत तेरे आँगन से मुहब्बत की वो खुशबू निकले! मैंने शेर कहा और दद्दू ने इसे गुनगुनाते हुए मुझसे विदा ली।

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घर पडोसी का महक जाए चमन की सूरत
तेरे आँगन से मुहब्बत की वो खुशबू निकले!-1



अपने दद्दू से बात हो रही थी मकान के मसले पर. बोले ," यार कलम घसीटू!रोटी ,कपड़ा और मकान बुनियादी जरूरतें हैं. यार दद्दू! जे कौन सी नयी बात कह दी?
मैंने कहा।  दद्दू बोले , नहीं! मेरे कहने का मतलब ये की जो लोग मकान नहीं बना पाते या फिर जिनके मकान ढह जाते हैं भूकम्प जैसी विपदा में उन्हें कितनी मुश्किल होती होगी नई क्या? नया मकान बनने में न जाने कितना वक्त लग जाता है! सरकार के  अच्छे दिन न जाने कब आते हैं, आते हैं भी या नहीं!
बात सही है दद्दू! एकड़ तो मकान बनाना कितना लोहे के चने चबाना हो गया है इस महंगाई के जमाने में। उसपर अगर कही भूकम्प जैसी तबाही बच जाए तब तो  हालत यूं हो जाते हैं  मानो --
दीवारें क्या गिरी मेरे  मकान की
लोगों ने आने जाने का रास्ता बना लिया
रास्ता बनाने की बात करते हो दद्दू, मैंने छेड़ा," मुंबई जैसे शहर में कई बीड़ू तो मकान सा सपना देखते देखते गुमनामी में खो जाते हैं  । आशियाना मिल जाए तो खुशनसीबी वर्ना !और तो और कई दफे तकदीर और तदबीर का खेल यूं होता है की समंदर बाँधने के लिए चले इंसान का घे पहली बारिश ही उजाड़ देती है. सलीम अख्तर के दर्द के  इस अंदाज में -
मैं समंदर बाँधने निकला था बस्ती छोड़कर
क्या खबर थी पहली बारिश मेरा घर ले जायेगी!
जो भी हो सच कहूँ तो मकान छोटा  हो या बड़ा वो अपना घर होना चाहिए। जीवंत जहाँ पर रिश्ते जिए जाते हैं।  दूसरे  शब्दों में ईटों और दीवारों से नहीं घर तो
उसमें रहने वालों से बनता है। " घर के साथ आँगन भी कितना अच्छा लगता है अखबार नवीस!" दद्दू ने चोंच खोली "यार आजकल तो अपार्टमेंट का ज़माना आ गया है। आँगन मिले तो ठीक न मिले तो भी ठीक! जरूरी बात बोले तो-
मेरी ख्वाहिश ये है कि आँगन में न दीवार उठे
मेरे भाई मेरे हिस्से की जमीन तू लेले!
मेरी भावनाओं को समझो दद्दू! वर्ना  आजकल तो जमीन और मकान के लिए भाई -भाई और परिवार में न जाने कितने सर फुटौव्वल होते हैं।बहरहाल मकान के मसले पर तो कहने को काफी कुछ है पर अपना मकान जब भी बने, छोटा  हो या बड़ा हो। .... अपनी जरूरतों के बरक्स बनायें  फकत इतना ख्याल रखिये क़ि -
घर पडोसी का महक जाए चमन की सूरत
तेरे आँगन से मुहब्बत की वो खुशबू निकले!
मैंने शेर कहा और दद्दू ने इसे गुनगुनाते हुए  मुझसे विदा ली।


शुक्रवार, 1 मई 2015

अनुसन्धान के क्षेत्र में बिलासपुर का गौरव -समीक्षा वासनिक

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"कड़ी मेहनत और लक्ष्य तय कर काम करने से सफलता जरूर मिलती है"
अनुसन्धान के क्षेत्र में छत्तीसगढ़

का गौरव -समीक्षा वासनिक


"मुझे हमेशा प्रतिस्पर्धात्मक और चुनौती भरे माहौल में काम करना पसंद रहा है। कड़ी मेहनत और लक्ष्य तय कर काम करने से सफलता जरूर मिलती है"- समीक्षा वासनिक। छोटी सी कद काठी की इस युवती में अनुसन्धान की असाधारण प्रतिभा छिपी थी जो आज उसे बिलासपुर से आस्ट्रेलिया होते हुए केलिफोर्निया तक ले गयी है। बैन ऑफ़ महाराष्ट्र से  सेवानिवृत्त कपूर वासनिक ( मोबाइल लाइब्रेरी के नाम से मशहूर ) की बेटी है समीक्षा. बिलासपुर की इस बेटी ने सचमुच शहर , छत्तीसगढ़ और देश का नाम गौरवान्वित किया है। वर्तमान में समीक्षा लोमा लिंडा यूनिवर्सिटी कैलिफोर्निया ,अमेरिका के रिजनरेटिव मेडिसिन विभाग में पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च कर रही हैं।
                                     सेल एंड टिशू कल्चर इंजीनियरिंग ,हैदराबाद में वे कार्यरत रही। उन्हें संगीत और पर्यटन में काफी दिलचस्पी है।  यकीनी तौर पर " किताबी कीड़ा " तो होंगी ही!अकादमिक शिक्षा की बात करें तो समीक्षा ने गुरु घासीदास विवि बिलासपुर छत्तीसगढ़ के बायो तकनालॉजी  विभाग से मास्टर ऑफ़ साइंस की उपाधि 2003-2005में प्रथम श्रेणी एवं स्वर्ण पदक  से  हासिल की  थी।बीएस सी माइक्रो बायोलॉजी ,डीपी विप्र महाविद्यालय से किया।
.समीक्षा वासनिक के मॉलिक्यूलर बॉयोलॉजी में वैज्ञानिक अनुसन्धान के विषय रहे हैं- DNA, RNA isolation. DNA preparation. olymerase chain reaction. Reverse transcription. Reverse transcription. Protein purification. Spec quantification of nucleic acids and protein. DNA sequencing (ABI -3700). Real time PCR. Blunt end cloning. Plasmid isolation.Gel electrophoresis.    

Cell biology के विषय में Derivation, maintenance and differentiation of Adult stem cells from different sources.

Cell culture of different human cell lines. (Digestion, passaging, trypsenization, freezing and revival of cells, subcuturing)
Characterization of different types of MSCs.Morphological analysis of cells,Karyotyping, CFU, FACS, cell counting.
Immunostainings and immunoprofiling of cells.Cloning, transfection, transformation.

अनुसन्धान पर आधारित उनके शोध लेख में प्रमुख हैं -1  Dopamine transporter (DAT1) VNTR polymorphism and alcoholism in two culturally different populations of south India.
 2 . Ex vivo expansion of haematopoietic stem/progenitor cells from human umbilical cord blood on acellular scaffolds prepared from MS-5 stromal cell line
3  Evaluation of nano-biphasic calcium phosphate ceramics for bone tissue engineering applications: In vitro and preliminary in vivo studies
                            कोई अनुसंधानकर्ता कम्प्यूटर सावी न हो कैसे हो सकता है?वे Windows and Macintosh. BLAST, ClustalW, clustalX, genedoc, genetool, primer3, PERL PRIMER. Auto assembler, sequencing analysis
 GenBank, SwissProt, Mitoanalyzer में पूरी तरह एक्सपर्ट हैं। अब करें शोध अनुभव की बात
सितमबर 2006 -2008 तक उन्होंने सीएसआईआर स्पॉन्सरशिप के प्रोजेक्ट में सेंटर फॉर सेल एंड मॉलिक्यूलर बॉयोलॉजी हैदराबाद के डॉ। शशि सिंह के मार्दर्शन में प्रोजेक्ट सहायक के बतौर काम किया।  इस प्रोजेक्ट के उद्देश्य थे

Epithelial cells- Culture of corneal stem cells, Subtraction of epithelial stem cells from central cornea.
Scaffold perpetration, Growth of different cells in scaffold, Histology of scaffold.
Genomic of epithelial cells using different markers and isolation of corneal endothelial cells.
Real Time analysis of different corneal cells stem cells markers.

अप्रैल   2006 से अगस्त  2006तक समीक्षा सीसीएमबी में “Molecular epidemiology of alcoholism” प्रोजेक्ट के अंतर्गत डॉ के थंगराज के साथ
गेस्ट वर्कर रहीं। इसका उद्देश्य था To evaluate candidate genes for alcoholism like Dopamine receptor, alcohol dehydrogenase, Aldehyde dehydrogenase, Neuropeptide Y, Gamma amino butyric acid (GABA) receptor.
फरवरी से जुलाई  2005 के एमएससी प्रोजेक्ट वर्क में -
 “Y-chromosome and mtDNA phylogeny among Sonkar caste of Chhattisgarh”पर कार्य किया।
इसके अलावा उन्होंने अनेक वर्कशॉप में भागीदारी निबाही।बीएचयू  (14-16 dec2007) में
Differentiation of Mesenchymal Stem Cells into Osteogenic cells in vitro
At XXXI all India cell biology conference and symposium on stem cells held at BHU.  विषयक पोस्टर प्रेजेन्टेशन भी दिया। वर्तमान में समीक्षा वासनिक लोमा लिंडा यूनिवर्सिटी कैलिफोर्निया ,अमेरिका के रिजनरेटिव मेडिसिन विभाग में पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च कर रही हैं  पी एच डी  में उनका विषय था
"Tissue Engineered, Biomimetic Acellular Matrices for Expansion of Hematopoietic Progenitors" पर पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च कर रही हैं। युवाओं के लिए सबसे प्रेरक बात तो यह है की समीक्षा पुणे में अपने काम  के दौरान पार्ट टाइम जॉब कर अपना खर्च खुद निकालती रही। अनुसंधान के क्षेत्र में उनका कार्य छत्तीसगढ़ के युवाओं में निश्चित रूप से प्रेरणास्पद होगा।