सारी जिंदगी एक ऐसी में तब्दील हो चुकी है जिसमें कई लोग अपनी बोली लगाने हद दर्जे तक समझौते कर रहे है in!क्रिकेटरों की मंडी में सबसे बड़ी बोली लगी थी और बिक गए सितारा क्रिकेटर.जिसको देखो वही बिकने पर उतारू है.फ़िल्मी सितारे., अफसर, नेता, मीडिया,कर्मचारी ... अमूमन जिंदगी के सभी क्षेत्रों में बिकाऊपन ठाठें मार रहा है.यूं कहिये की जिंदगी के आईने में बाजार का सच इस तरह आतिशबाजी बन गया की उसकी चुन्धियाह्त से आँखें मुंदती हुई सी लगी.यकीनन इस आतिशबाजी से गहरा धुंआ निकल रहा है .इसके जहर ने सिद्धांत ,संस्कार और ईमानदारी ( आज के दौर में वाहियात बनती किताबी बाते)की साँसों को धौंकनी की तरह चलने पर भी मजबूर कर दिया है .
फिर भी आज के सच का सामना करने स्वीकारने या नकारने की अपनी -अपनी पसंद के अलावा और कोई विकल्प ही नहीं .हाँ इस बात पर जरूर बहस की जानी चाहिए की बाजार जिंदगी का हिस्सा है या जिंदगी ही बाजार बन गई है.और इस बाजार में -
क़त्ल इंसा हो रहा है चंद सिक्कों के लिए
इस कद्र दौलत का भूखा पहले आदमी न था
यह भी आज का सच है.आँखों की सफेदी पर छाते सुर्ख डोरों ने पहले ही इशारा कर दिया था की अपने दद्दू के अंदाज-ए- बयान में तल्खी आ चुकी है'बाजार के सच पर हैरत जताने वालों के लिए दद्दू कहते है ," सच है ,पहले किसी को बिकाऊ कह देने पर कोई भी भडक उठता था.आज की जिन्दगी में बिकाऊपन, मार्केट वेल्यू जैसे शब्द स्टेटस सिम्बल बन चुके है.यह मान लिया जाता है की बिकाऊ ही खरा सिक्का है. चीखते रहने वाला या तो लल्लू है या फिर उसे बाजार रेट पर बिकने का मौका ही नहीं मिला या उसके लायक ही नहीं!"
दरअसल बाजार युग के जो लायक है उसने अपनी कीमत तेज कर ली.जिन्होंने मौकों का फायदा नहीं उठाया या इस सोच को नहीं अपना पाए वे अपनी सोच के आत्मदाह में झुलसकर विधवा विलाप करते रह गए.. रेस से बाहर हो गए, या हो जाते हैं.मौजूदा वक्त की नब्ज पहचान कर संतुलित तरीके से चलने वाले ही सफल हो रहे हैं.प्रोफेशनलिज्म की फर्राटा रेस में हादसों की आशंका के बावजूद ढीले-ढाले भकुवाये बूढ़े घोड़ों को ख़ास जलसों और आयोजनों की बारात में आवश्यकताओं की धुन पर नाचने की काबिलियत साबित करनी होगी.
ये दुनिया है, यहाँ जरदार ही सब कुछनहीं होते
किसी का नाम चलता है किसी का दाम चलता है
मीडिया को भी सेलेबल आइटम की तलाश है.इन संस्थानों में दिखावे या चापलूसी की छद्म संस्कृति इतनी हावी है की सभी पद नीलामी के चक्रव्यूह में पॅकेज के लिए अपना जमीर बेचने की कवायद चकलाघरों की तरह करने लगे हैं.खुले आम बाजारू होने का नंगा सच ये नहीं कबूलते. बजाये जब ये " चुडैलो की सौन्दर्य स्पर्धा के दलाल "ईमानदारी का मुखौटा ओढ़कर नैतिकता के प्रवचन देने लगते है तब पेशानी पर बल पड जाते है क्योंके-
मुद्रा पर बिके हुए लोग ,सुविधा पर टिके हुए लोग
बरगद की बातें करते है गमलों में उगे हुए लोग
शादी की मंडी में दूल्हा बिकता है.भूख और गरीबी से बच्चे बिकते है.जिस्म और जमीर की बिकवाली के बाजार में हो रहे सीरियल ब्लास्ट से संस्कारों और सिद्धांतों की धज्जिया उड़ते देखी जा रही हैं. वर्तमान दौर समाज के लिए नपुंसक तटस्थता का नहीं बल्कि मस्तिष्क में विचारों का जीवित ज्वालामुखी बनाने वाला होना चाहिए.निहित स्वार्थों के लिए औरतो के जीवन मूल्य भी बिकते देखे जा रहे हैं." गोयबल्स के अवैध संतानों "की हरकतों पर बाजार का एक नजारा यह भी है-
कुछ लोग ज़माने को नजर बेच रहे हैं
अफवाह को कुछ कह के खबर बेच रहे हैं
बीमार को बस अब हवाओं पे छोडिये
कुछ लोग दवाओं में जहर बेचते है
सोना अगर मिटटी के मोल हो तो बदकिस्मती और मिटटी को सोने के मोल बेचना बाजार की चालाकी है.लेकिन जिंदगी के कैनवास पर मसलों का फौरी हल निकलने की झुंझलाहट विचारों की मुख्य धारा का केंद क्यों नहीं बनती?सवाल यह है की हम मसलों के हल या विकल्पों की तलाश किस जिद से करते हैं.यकीनन बाजारवाद ने कुछ बेहतरी भी दी है .फिर भी उहापोह, असमंजस ,कन्फ्यूजन और सवालों का बीहड़ घना है.जिंदगी विसंगतियों का नरक न बने इसका फैसला करने वाले आप खुद है क्योंके-
ये जिंदगी भी सवालों का एक जंगल है
हर शख्स भटकता हुआ जवाब लगे है
फिर मिलेंगे.. अगली पोस्ट
पढने के वक्त....
किशोर दिवसे
क़त्ल इंसा हो रहा है चंद सिक्कों के लिए
इस कद्र दौलत का भूखा पहले आदमी न था
यह भी आज का सच है.आँखों की सफेदी पर छाते सुर्ख डोरों ने पहले ही इशारा कर दिया था की अपने दद्दू के अंदाज-ए- बयान में तल्खी आ चुकी है'बाजार के सच पर हैरत जताने वालों के लिए दद्दू कहते है ," सच है ,पहले किसी को बिकाऊ कह देने पर कोई भी भडक उठता था.आज की जिन्दगी में बिकाऊपन, मार्केट वेल्यू जैसे शब्द स्टेटस सिम्बल बन चुके है.यह मान लिया जाता है की बिकाऊ ही खरा सिक्का है. चीखते रहने वाला या तो लल्लू है या फिर उसे बाजार रेट पर बिकने का मौका ही नहीं मिला या उसके लायक ही नहीं!"
दरअसल बाजार युग के जो लायक है उसने अपनी कीमत तेज कर ली.जिन्होंने मौकों का फायदा नहीं उठाया या इस सोच को नहीं अपना पाए वे अपनी सोच के आत्मदाह में झुलसकर विधवा विलाप करते रह गए.. रेस से बाहर हो गए, या हो जाते हैं.मौजूदा वक्त की नब्ज पहचान कर संतुलित तरीके से चलने वाले ही सफल हो रहे हैं.प्रोफेशनलिज्म की फर्राटा रेस में हादसों की आशंका के बावजूद ढीले-ढाले भकुवाये बूढ़े घोड़ों को ख़ास जलसों और आयोजनों की बारात में आवश्यकताओं की धुन पर नाचने की काबिलियत साबित करनी होगी.
ये दुनिया है, यहाँ जरदार ही सब कुछनहीं होते
किसी का नाम चलता है किसी का दाम चलता है
मीडिया को भी सेलेबल आइटम की तलाश है.इन संस्थानों में दिखावे या चापलूसी की छद्म संस्कृति इतनी हावी है की सभी पद नीलामी के चक्रव्यूह में पॅकेज के लिए अपना जमीर बेचने की कवायद चकलाघरों की तरह करने लगे हैं.खुले आम बाजारू होने का नंगा सच ये नहीं कबूलते. बजाये जब ये " चुडैलो की सौन्दर्य स्पर्धा के दलाल "ईमानदारी का मुखौटा ओढ़कर नैतिकता के प्रवचन देने लगते है तब पेशानी पर बल पड जाते है क्योंके-
मुद्रा पर बिके हुए लोग ,सुविधा पर टिके हुए लोग
बरगद की बातें करते है गमलों में उगे हुए लोग
शादी की मंडी में दूल्हा बिकता है.भूख और गरीबी से बच्चे बिकते है.जिस्म और जमीर की बिकवाली के बाजार में हो रहे सीरियल ब्लास्ट से संस्कारों और सिद्धांतों की धज्जिया उड़ते देखी जा रही हैं. वर्तमान दौर समाज के लिए नपुंसक तटस्थता का नहीं बल्कि मस्तिष्क में विचारों का जीवित ज्वालामुखी बनाने वाला होना चाहिए.निहित स्वार्थों के लिए औरतो के जीवन मूल्य भी बिकते देखे जा रहे हैं." गोयबल्स के अवैध संतानों "की हरकतों पर बाजार का एक नजारा यह भी है-
कुछ लोग ज़माने को नजर बेच रहे हैं
अफवाह को कुछ कह के खबर बेच रहे हैं
बीमार को बस अब हवाओं पे छोडिये
कुछ लोग दवाओं में जहर बेचते है
सोना अगर मिटटी के मोल हो तो बदकिस्मती और मिटटी को सोने के मोल बेचना बाजार की चालाकी है.लेकिन जिंदगी के कैनवास पर मसलों का फौरी हल निकलने की झुंझलाहट विचारों की मुख्य धारा का केंद क्यों नहीं बनती?सवाल यह है की हम मसलों के हल या विकल्पों की तलाश किस जिद से करते हैं.यकीनन बाजारवाद ने कुछ बेहतरी भी दी है .फिर भी उहापोह, असमंजस ,कन्फ्यूजन और सवालों का बीहड़ घना है.जिंदगी विसंगतियों का नरक न बने इसका फैसला करने वाले आप खुद है क्योंके-
ये जिंदगी भी सवालों का एक जंगल है
हर शख्स भटकता हुआ जवाब लगे है
फिर मिलेंगे.. अगली पोस्ट
पढने के वक्त....
किशोर दिवसे
2:25 am
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