शहर कागज का है और शोलों की निगहबानी है
अगर तासीर की बात करते हैं तो शहर और इंसान एक बराबर हैं.और, शहर ही क्यों गाँव,शहर और महानगर भी कई दफे इन्सान की जिन्दगी जीते हैं उनका भी दिल धडकता है. वे भी हँसते हैं... रोते है.. गाते हैं...खिलखिलाते हैं .जब मह्सूस करते हैं की उनकी बातें सुनने वाला कोई नहीं है तब खामोश होकर बैठ जाते हैं गुमसुम किसी " रियल दरवान " के इन्तेजार में.आपकी और हमारी तरह मसीहा के आने की कल्पना में खोए हुए...
ढेर सारे रंग होते हैं इंसान की जिन्दगी में गाँव और शहर के चेहरों पर भी यकीनन उभरते हैं इसी तरह के रंग.-कई खूबसूरत , कुछ बदसूरत.शहर भी कमोबेश इसी तरह की शख्सियतों को लेकर जीता है .थर्मोकोल सी-ऊपर से चमकदार पर फूंक मारते ही उड़ जाने वाली -ऐसे कई लोग हैं.कुछ ऐसे भी जो फौलादी हैं पर खोटे सिक्के के बाज़ार में अपनी खनखनाहट गुम कर बैठे हैं . यकीनन इनमें से ही कुछ अपनी आवाज बुलंद करने की कोशिश करते हैं. जो आत्मकेंद्रित हैं वे मसलों के होने या न होने से कोई सरोकार नहीं रखते.
सरोकार रखने या नहीं रखने से क्या बीहड़ खत्म हो जायेंगे?आम आदमी की जिन्दगी के बीहड़ निजी पारिवारिक मसले हैं जिनकी भूल-भुलैया में खो जाता है वह.अपने शहर में भी कई बीहड़ हैं,अरसे से घनीभूत.किस्म-किस्म की समस्याएँ.पेयजल, पानी की निकासी,सड़कें,बिजली,अपराध,छेड़खानी, धूल-कचरा .सबसे बड़ी समस्या है विकास के प्रति नागरिको का अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाना.उलटे अपनी बेशर्मी और निरंकुशता से परेशानियाँ बढ़ाना.अमूमन ये मसले इतने दाहक हैं की सारी जिन्दगी झुलस रही है ... शहर जल रहा है-
जल रहा सारा शहर और हम खामोश हैं
ज़र्रा -ज़र्रा अंगारा और हम खामोश हैं
यातायात बेतरतीब है... सड़कों के इर्द-गिर्द शॉपिंग माल और होटलें बन रही हैं लेकिन पार्किंग के मामले में नगर निगम पूरी तरह लापरवाह है.हालिया सेन्ट्रल पार्किंग का प्रयोग शुरू हुआ लेकिन लोग तकलीफ में हैं क्योकि सड़कें बदतर हैं। और कुछ लोग तो अपनी मर्जी के मालिक बिल्डिंग बनने के बाद ही उन्हें भी होश आता है, फिर भी कारवाई नहीं होती.
समस्याएँ सहज स्वाभाविक है पर उन्हें सुलझाने की नीयत होनी चाहिए.सड़कों के चौडीकरण में कई धर्म स्थालियाँ और बूढ़े पेड़ बाधक हैं पर कोई ठोस योजना नहीं बनती.होना यह चाहिए कि शहर में विकास करने के पहले लोगों को " डेवलपमेंट फ्रेंडली " बनाने की सोच विकसित की जाये.समस्याओं के प्रति संवेदनहीनता से हालत यह बनती है की -
अनलहक की सदा अब क्यों गूंजती नहीं फ़ज़ाओं में
जुबान रखते हुए भी आज इंसान बेजुबान क्यों है?
नागरिक और प्रशासन - दो धुरियाँ हैं समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में .दोनों को ही सुधरना होगा.दोनों की ही बदमिजाजी पर अंकुश लगाना चाहिए .शहरी समस्याओं के हल में सरकारी आश्रितता के मुद्दे पर भी सोचना होगा.शहरी लोगो को इस बात का गुरूर है कि अब हम पढ़े-लिखे लोग है. तो खुद या निरंकुश औलादों की सरे आम बदतमीजी देखने और करने के बजाये _ अनुशासित और सुंदर शहर क्यों नहीं बनने देते. धनाढ्य होने का मतलब यह तो नहीं की शहर किसी के पूज्य पिताजी का हो गया!अपनी जिम्मेदारी के प्रति जागरूकता जरूरी है क्योंकि -
अहले दानिश को इस बात पे हैरानी है
शहर काग़ज़ का है और शोलों की निगहबानी है
अक्ल के पीछे डंडा लेकर पिल पड़ने का दौर खत्म करना होगा.तभी माहौल ऐसा बनेगा कि समस्याओं के अँधेरे के बीच एक टुकड़ा धूप आसानी से मिलेगी .आस्था रद्दी के बाज़ार में बिकनी बंद हो जाएगी.आज रोते हुए शहर और गाँव को हंसाने की जिम्मेदारी सियासत सहित हम सभी की है .जो भीतर से इस्पाती सोच के हैं और छ्द्म्वादी नहीं.सत्यान्वेषी सक्रिय व् कर्मठ मानव बारूद चाहिए अब रंगे सियारों से यह कहने का वक्त खत्म हो गया की -" मूंग की दाल और साग खाना शुरू कर दो!!!!
जिम्मेदार और जागरूक रहिये
अपना ख्याल रखें....
किशोर दिवसे
12:36 am
समरथ को नही दोष गोसांई। बहुत खूब कहा किशोर भाई। खरी खरी।
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों बाद आपके ब्लाग पर पहुंचा. उसी शानदार कलम से फिर रु-बरू हुआ जो आप नवभारत में नियमित लिखा करते थे. बधाई.
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