शनिवार, 30 अप्रैल 2011

बसंती! इन कुत्तों के सामने मत नाचना!!!!!

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बसंती! इन कुत्तों के सामने मत नाचना!!!!!




कुत्तों की भाषा के डिजिटल  अनुवाद की खबर अरसा पहले किसी अखबार में छपी थी.  खबर में कहा गया था कि जापान की ताकारा कम्पनी ने डिजिटल अनुवादक भी तैयार कर लिया है.उस वक्त बात आई-गई हो गई लेकिन मैंने सोचा  की आने वाले समय में  हो सकता है पशु-पक्षियों की भाषा या मनोभावों तो ताड़ना इस डिजिटल अनुवादक के जरिये आसान हो जाये. फ़िलहाल की स्थिति में जैक लन्दन के उपन्यास CALL OF THE WILD  में प्राणियों और मानव के अंतर संबंधों की सबसे दार्शनिक और दो -टूक व्याख्या की गई है.
                                बहरहाल सोचिये,कुत्ते( सम्मानजनक भाषा में श्वान )किस वक्त क्या सोच रहे है, अगर डिजिटल अनुवादक यह बता दे तब रोजमर्रा की जिंदगी में कैसी-कैसी परिस्थितियां बन सकती हैं?  यकीनन ऐसा होने पर कई कुत्ता मालिकों की पोल खुल जाएगी और कामेडी और ट्रेजेडी के प्रसंग ठहाको और विचार के मुद्दे बन जायेंगे.
                          समय:                      आने वाले सालों में कभी भी 
                           स्थान व् दिन:          कहीं किसी रोज 
मल्टीप्लेक्स से लगा हुआ एक अखबार का दफ्तर है.सामने श्वान समूह की भारी भीड़ देखकर यह अंदाज लगाया जा सकता है की वे काफी गुस्से में हैं.नुकीले दांत दिखाकर एक श्वान गुर्राया,अब हम बर्दाश्त नहीं करेंगे कि कोई आदमी बार-बार यह कहे -- अबे कुत्ते..   कुत्ते की औलाद .. कुत्ते कहीं के! हम इंसानों को तो कभी नहीं कहते -अबे आदमी... आदमी की औलाद.. आदमी कहीं के!
                               नेता के घर का कुत्ता चाटुकारों की चमचागिरी देखकर मुस्कुराते हुए पडोसी दद्दू के घर के श्वान से कह  रहा था ," तुम ही बताओ यार!अब यह कहना कहाँ तक सही है कि कुत्तों की तरह दुम मत हिलाओ!" मंत्रालय के बाहर गपियाते श्वान समूह में यही चर्चा था ... देखा यार!नेताजी किस तरह मुख्यमंत्री के सामने दुम हिला रहे  हैं!
                           यकायक दो युवा श्वान किसी बात पर झपट पड़े.नोच-नोच कर एक-दूसरे को लहू लुहान कर  दिया.बूढ़े सीनियर श्वान ने समझाइश दी," नालायक ! बेशर्म कहीं के!अच्छी भली श्वान की जिंदगी मिली है ,ये क्या इंसानों की तरह एक-दूसरे की मिटटी-पलीत कर रहे हो?" दोनों ने सामने के दोनों पाँव( या हाथों) से शेक हेंड कियाऔर पतली गली से खिसक लिए.
                              किंग्स पार्क के आगे एक युवा श्वान युगल जैसे ही मिले उनकी आँखे चार हुई और दद्दू समझ गए  पूर किस्सा  ..... " आती क्या खंडाला!!!!"थोड़ी ही देर बाद वे दोनों वहां से गायब थे.उस रोज दद्दू के श्वान का मूड था पिक्चर जाने का.पडोसी  गर्ल फ्रेंड के साथ फर्स्ट शो देखने चल दिए.कुत्ता नम्बर -1,डान डाबर मेन ,पामेरियन आर फ़ारेवर, श्वानवंषम ,  2015-एक श्वान कथा,.. ढेर सारी फ़िल्में लगी थी. 
               काफी हाउस में दो बूढ़े श्वान डान हर्मन शेफर्ड और टच टेरियर उलझ पड़े थे.शेफर्ड ने कान खड़े करते हुए खिंचाई की," यार टेरियर! जरा तो ईमानदारी रख.तेरे जैसे घटिया श्वान ने बिरादरी की नाक कटा दी .सम्मान पाने की इतनी भूख कि राजधानी जाकर कुत्तालय में सेटिंग कर ली और श्वान रत्न का पुरस्कार जुगाड़ कर लिया.श्वान समुदाय चिंतित था.श्वान श्री,श्वान वाचस्पति जैसे पुरस्कार " फिक्सिंग " कर कुछ खूसट श्वान लपक रहे थे.इसी बीच श्वान गाथा  वेब साईट ने भी अपने पुरस्कारों का ऐलान कर दिया था.सत्ता से उनकी सेटिंग अच्छी थी लिहाजा पुरस्कार जिन्हें मिलाने वाला था  उनके लिए तो " मोगाम्बो खुश हुआ" और जो वंचित रह गए वे आसमान की और मुह उठाकर ऊ SSSSS  की ध्वनी निकल रहे थे.
                        किसी घर में मिसेज श्वान ने मिस्टर श्वान की आँखों में झांककर कहा,"एजी!आप कितने अच्छे हो!भुलक्कड़ ही सही पर आदमी की तरह बेवफा तो नहीं जो उम्रदराज होने पर भी कहीं भी लार टपकाते  ...मुह 
मारते फिरते हैं! हम तो सावन में ही बदनाम है .साहित्यकार  "सावन के कुकुर" कहकर मसखरी करते है. और नामुराद ... मुए आदमियों का तो हर वक्त ही " सीजन " होता है.
                           डिजिटल भाषा डिकोड करने की वजह से दद्दू अब समझने लग गए थे की शिर्डी में मंदिर के सामने श्वानों को दूध क्यों पिलाया जाता है.मेहनत के बावजूद पुलिस महकमे के श्वान स्क्वाड में खासी फुर्ती थी.स्वामी भक्ति का पर्याय बनाये जाने से भी वे खुश थे.फिर भी कुत्ता संबोधन का सरे आम प्रयोग किये जाने पर उन्हें सख्त आपत्ति थी.
                                 आपत्ति इस डायलाग पर भी थी की धर्मेन्द्र ने फिल्म  शोले में कहा,"बसंती! इन कुत्तों के सामने मत नाचना."क्यों!.. बसंती कहे नहीं नाचेगी?.. हम कुत्तों की  कोई इज्जत नहीं है क्या?आगे ऐसे वाहियात डायलाग बंद नहीं हुए तो हम भी अपनी श्वान  बिरादरी में फतवा जारी कर देंगे,"," टामी! इन इंसानों को देखकर मत भूकना ." लेकिन हम इंसान थोड़े ही हैं... हमारा जमीर अभी जिन्दा है.
                                 दद्दू उस रोज बेहद  चिंतित थे.श्वानोत्सव देखकर लौटे उनके श्वान परिवार में जूनियर श्वान विचित्र हरकतें  कर रहा था.हालत बेकाबू होते देखकर दादी श्वान ने अनुभवी आँखों  से ताड़कर कहा," बेटा  ब्रूट!जल्द इसे डाक्टर के पास ले जाओ  . मुझे लगता है इसे जरूर किसी पागल आदमी ने काट खाया है. इंजेक्शन लगवाना और उस आदमी पर भी नजर रखना .  कही वो आदमी मर गया तो अपने पर आफत आई समझो. !
                                   सुबह जूनियर श्वान को लेकर तफरीह पर निकले थे दद्दू .रास्ते में कई साइन बोर्डों पर नजर पड़ी-  दाग्फोर्ड  यूनिवर्सिटी ,श्वानालय,होटल श्वान,श्वान विला, रेस्टोरेंट  भौं भौं,उसी रोज किसी अखबार में खबर भी छपी थी की जिला चिकित्सालय में आदमी काटने के इंजेक्शन  भी नहीं हैं . बूढी श्वान दादी ने धमकाया सभी पिल्लों को " खबरदार !!!! किसी आदमी के पास मत फटकना."
                    अब आप सोच रहे होंगे की भला दद्दू को श्वान भाषा में कैसे महारत हासिल हो गई!भाई! सो सिम्पल...कुत्तों की भाषा के डिजिटल अनुवाद के बाद इतनी तरक्की नहीं हो सकती की अपने दद्दू श्वान भाषा में ही पी एच डी कर ले!तभी तो वे समझ गए की तफरीह के समय   अमीरचंद का श्वान जो लबादा ओढ़े हुए था फुटपाथ पर अधनंगा बदन सोये बच्चों को देखकर हिकारत से मुह फेर रहा था . मिडिल क्लास श्वान ने अमीर श्वान को खीझ भरी निगाह से देखा . पास में खड़े एक रोडेशियाँ कुत्ते ( सड़क छाप)  ने  मन में सोचा कि कुत्ते का बच्चा अपने हिंदुस्तान में हजारों  रूपये  में  मिलता है   और  कई नवजात शिशु ....डस्टबीन में!!!!  उन्हें गोद लेने वाले तक नहीं मिलते!!!!  मिडिल क्लास श्वान ने कथरी ओढ़े  इंसान के बच्चों को अपनी जीभ से दुलारा और चलते-चलते गुनगुनाने लगा 
                                             मुफलिस को तो कोई चादर नहीं नसीब
                                            कुत्ते अमीरों के हैं लपेटे हुए लिहाफ!
                                                                                                                  

                                                                                                                        किशोर दिवसे 
                                                                                                       

                                  
                                          
                               
 

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

पापा एक घंटे में कितना कमाते हैं आप?

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पापा एक घंटे में कितना कमाते हैं आप?
किसी कार्पोरेट कंपनी का अधिकारी देर शाम थका- हारा निढाल होकर अपने घर लौटा.दरवाजे पर उसे अपना पांच बरस का छोटू खड़ा मिल गया.छोटू ने पापा से पूछा ,"" पापा! आपसे एक सवाल पूछूं?". उसके पापा बोले,"हाँ हाँ पूछो बेटा!"" आपको एक घंटे में कितने पैसे मिल जाते है?" छोटू ने पूछा." नन ऑफ़ योर बिजनेस "छोटू के पापा ने गुस्से से पूछा.," तुम ऐसा सवाल मुझसे क्यूं पूछ रहे हो?"छोटू बोला," पापा मैं सिर्फ इतना जानना चाहता हूँ ... प्लीज बताइये न!आपको एक घंटे में कितना पैसा मिल जाता है?"ठीक है... यही जानना चाहते हो  तो सुनो.मुझे एक घंटे में सौ रूपए मिल जाते हैं" छोटू के पापा ने जवाब दिया.
                          ओह! ( बेटे का सर झुका हुआ था.) "पापा क्या आप मुझे पचास रूपए देंगे?" . इतना सुनना था की छोटू के पापा आग-बबूला हो गए.यानि तुम इसलिए यह बात पूछ रहे थे की पैसे लेकर कोई फालतू सा खिलौना या कोई चीज खरीद लोगे! जाओ सीधे जाकर अपने कमरे में सो जाओ.मैं रोज दिन-रात कितनी मेहनत करता हूँ और तुम्हारा ऐसा बचकानापन !
                       छोटू ने अपने कमरे में जाकर दरवाजा बंद कर लिया.उसके पापा बैठकर छोटू के सवालों पर गुस्से से चिढ़ते रहे.आखिर बच्चा पैसे लेने के नाम पर ऐसे सवाल पूछ रहा था?एक घंटे बाद वह अधिकारी शांत हुआ और सोचने लगा," हो सकता है छोटू को पचास रूपए से कुछ खरीदना हो.वैसे भी वह हमेशा पैसे के लिए तंग नहीं करता. छोटू के कमरे में जाकर उसके पापा ने दरवाजा खोला-"बेटा! सो गए क्या ?-उनहोंने पूछा ." नहीं पापा  ... मैं जाग  रहा हूँ." छोटू ने जवाब दिया.
                          " सोच रहा था की बेकार  ही मैं तुमपर गुस्सा करने लगा.... दरअसल थकान  थी इसलिए गुस्सा तुमपर उतरा.ये लो बेटा पचास रूपये तुम मांग रहे थे न!"छोटू फौरन उठकर बैठ गया.मुस्कुराकर उसने कहा," थैंक यूं पापा ".फिर वह धीरे से अपने तकिये के पास गया और उसके नीचे रखे कुछ मुड़े-टुडे नोट निकाले.छोटू के पापा ने देखा की पहले ही बच्चे के पास रूपए हैं .तब उनका गुस्सा भड़कने लगा.छोटू ने पैसे गिने और अपने पापा की और देखा.
                            " जब तुम्हारे पास पैसे थे तब मुझे और पैसे के लिए क्यूं कहा?". उसके पापा गुस्से में थे." पापा अब मेरे पास कुल सौ रूपए हो गए है......पापा  पापा...क्या आपके एक घंटे का समय मैं खरीद सकता हूँ?प्लीज कल जल्दी घर आ जाना.मैं आपके साथ खाना खाऊंगा.पापा."
   कार्पोरेट अधिकारी पिता मर्माहत था.उसने अपने बेटे को आलिंगन बद्ध कर लिया.पिता ने कहा," छोटू बेटा! आई एम् वेरी सॉरी."
                            यह घटना नहीं एक चेतावनी है.उन लोगों के लिए जो दिन-रात हाई पॅकेज और धन-पिपासा के वशीभूत घर के बाहर रहकर सिर्फ पैसा कमाना चाहते हैं.( अब तो मजबूरी में बच्चों ने भी व्यस्त रहने के वैकल्पिक उपाय सोच लिए है. लेकिन माता-पिता से अक्सर संवाद न होने वाले बच्चो में किस्म-किस्म के काम्प्लेक्स  बन जाते हैं).
                             ठीक यही पल होता है जब धन -पिपासा देखकर अपने दद्दू की  आँखों के कोने   नम हो जाते हैं.दद्दू कहते हैं ," हमें अपनी अँगुलियों के बीच से वक्त को रेत की तरह फिसलने नहीं देना चाहिए.खास तौर पर पैसे की कीमत पर....बगैर उन लोगों के साथ वक्त बिताए जो सचमुच हमारे लिए मायने रखते हैं.... जो हमारे दिल के करीब हैं... एकदम करीब.रूपयों के नोट उन अपनों से अधिक कीमती नहीं हैं जिन्हें आप प्यार करते है. 
                            पैसा जरूरी है... बेहद जरूरी पर उसकी हवस में परिवार के लिए वक्त नहीं निकलने वाले लोगों को दद्दू अक्सर यही समझाइश देते हैं ," सोचो!कल के रोज अचानक हम मर गए तब वह कंपनी जिसके लिए हम काम कर रहे हैं वहां पर हमारी जगह कुछ ही दिनों में कोई नया व्यक्ति आ जाएगा.लेकिन, जो परिवार ... दोस्तों और अपने चने वालों का कुनबा हम अपने पीछे छोड़ जाएँगे वे लोग साड़ी जिन्दगी कमी महसूस करेंगे."
                           यह कार्पोरेट कल्चर का जूनून है.पैसा  जरूरत है ,सब कुछ नहीं.परिवार के खुशियों  की कीमत पर कभी नहीं.परिवार और प्रोफेशनल जिन्दगी में सही संतुलन बनाए रखिए क्योंके पैसा भरपूर साधन  देगा लेकिन सुख !!!!!!!!!
०००००००
पता नहीं मुझे ऐसा क्यूं लगा की यह किस्सा हर उम्र के बेटे- बेटी और  पापा के लिए एकदम खरा उतरता है .हुआ यूं. की एक नन्ही बच्ची और उसके पिता पुल पार कर रहे थे.नीचे बहती पहाड़ी नदी की तेज धारा  देखकर पिता का दिल जोरों से धडकने लगा.पापा ने अपनी बेटी से कहा," बेटी!मेरा हाथ पकडकर चलो.कहीं ऐसा न हो की हाथ छूट  जाए और तुम नदी में गिर जाओ.वह बच्ची कहने लगी ," नहीं पापा आप मेरा हाथ पकड़ लो." क्या फर्क पड़ता है बेटी!"-उसके पापा ने पूछा .
               " बहुत फर्क है पापा ! अगर मैं आपका हाथ पकडकर चलती हूँ और मुझे कुछ हो जाता है तब हो सकता है की मेरी पकड़ से आपका हाथ छूट जाए.लेकिन अगर आप मेरा हाथ पकडकर चलते है तब मुझे पूरा विश्वास है की आप मेरा हाथ कभी नहीं छूटने देंगे.... फिर चाहे कुछ भी हो जाए.
                                  दद्दू एक बार फिर अपनी सजल होती आँखों को छिपाने की कोशिश करते है.कुछ रुंधे गले से कहते है ," आप और  हम सबको यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए की किसी भी रिश्ते में विश्वास की महक एक अटूट ऋणानुबंध है ... इसलिए जो भी आपको प्यार करता है उसका हाथ थामे रहिए.न की आप यह उम्मीद करें की वह आपका हाथ थामकर रखेंगे.!        
                                                                           
















                                                                                                          
                     
                      

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

कौन याद करता है हिचकियाँ समझती हैं..

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कौन  याद करता है हिचकियाँ समझती हैं... 
बेटा ...कोई शायद याद कर रहा है इसलिए इतनी हिचकियाँ ले रहा है तू ... चल जा पानी पीकर आ"...बचपन में माँ के कहे हुए शब्द आज भी याद हैं.और पानी पीने से पहले जाने-अनजाने कितनों को याद कर लिया था उन दिनों में.  नौजवानी ने कदम बढ़ाए और जवानी के दौरान भी छेड़खानी  के अंदाज़  में ही सही इन हिचकियों के साथ ही अपनों को याद करने का इतना प्यार भरा तरीका मुझे नहीं लगता हमारे देश के अलावा किसी और जगह सोचा भी जा सकता है.
                 हिचकियाँ... पानी का गिलास और बहाना ही सही अपनों को याद कर लेना ..जरा सोचिये तो सही किसके मन में सबसे पहले यह विचार आया होगा kii हिचकी आई  है चलो अपनी नजरों से दूर चहेतों को याद तो कर लें नै पीढ़ी के मेरे नौजवान दोस्त पता नहीं हिचकियों से जुड़ा यह  रेशमी रिश्ता छू पाते हैं या नहीं जो अक्सर मन को गुदगुदा जाता है .भूले -बिसरे लोगों को  इसी बहाने याद करके देखिए तो सही कितना मजा आता है!
              इसका मतलब यह हुआ की मुझे हिचकियाँ नहीं आती यानि मुझे कोई याद ही नहीं करता."गंजी चाँद पर हाथ फेरते हुए दद्दू ने कहा," लगता है सब  लोग मुझे भूलते जा रहे हैं इसलिए हिचकियाँ आनी बंद हो गई हैं" इसी बीच दद्दू को हिचकी आई और दो घूँट पानी से हलक तर करते ही उनका कंठ खुल गया -
              हिचकियाँ इसलिए अब मुझको नहीं आती हैं 
              रफ्ता-रफ्ता वो मुझे भूल गया है शायद 
हिचकियों और यादों से जुडी बातों के रस्ते दद्दू और मैं कुछ दूर निकल पड़ते हैं तफरीह के लिए.सिमटते मैदान के कोने में खड़े आम के पेड़ की डाल पर बुलबुल और एक फुनगी पर सैयाद के होने का एहसास मिठास भरी कूक से होता है." पत्रकार भाई!कहीं इस बुलबुल के स्वर  में सैयाद के बिछोह की व्याकुलता तो नहीं छिपी है?" दद्दू ने मुझसे सवाल किया ." न तो मुझे पक्षियों की बोली का ज्ञान है और न ही मैं आरनिथोलाजी का विशेषग्य." लेकिन कहानियां और उपन्यास मैंने जीभरकर पढ़े हैं और बुलबुल और सैयाद के जरिये प्रेमी जोड़ों की कल्पना की गई है." मैंने कहा.
                       "तब कहीं यह कूक सैयाद की याद में बुलबुल की हिचकी तो नहीं!" दद्दू ने मुझे फिर टोका.अपने सर के बाल नोंच लेने का जी चाहा था दद्दू के इस " सेन्स आफ एस्थेटिक्स " पर.फिर भी आज के युवा दोस्तों के इर्द-गिर्द मौजूदा माहौल के मद्देनजर  मुझे एहसान दानिश का यह शेर याद आता है-
                दो  जवां  दिलों  का गम  दूरियां  समझती  हैं 
                कौन याद करता है हिचकियाँ समझती हैं 
                  
 कभी घर में यूं ही बतरस  के दौरान अपनों से बातचीत कर पूछिए इस बारे में की हर उम्र के लोग हिचकियों के बारे में क्या सोचते हैं?नै जनरेशन को हिचकियों का तिलस्म मालूम भी है या नहीं!मुझे तो लगता है की इंसान चाहे आयु के किसी भी दौर से गुजर रहा हो जब भी मौत सामने आये रिश्तों की मिठास इतनी गहरी होनी चाहिए की उसमें डूबकर अलविदाई के समय भी हर कोई अपने अजीज से कहे-
                            आखिरी हिचकी तेरे जानू पे आये
                             मौत भी मैं शायराना चाहता हूं
लीजिये बातों ही बातों में दद्दू और मैं तफरीह पूरी कर घर लौट आये.घर के सामने ही उसी बिजली के खम्भे के पास लडखडाता हुआ एक आदमी हिचकियाँ ले रहा होता है .बदबू का तेज झोंका नथुनों से जैसे ही टकराया ,दद्दू ने आलाप लिया," अखबार नवीस !यह हिचकी दारू ज्यादा होने की है या " कोटा " कम पड़ जाने का सिग्नल?"
" मुझे इसकी जानकारी सचमुच नहीं है  दद्दू "  यह कहकर जैसे ही मैं अपने घर में दाखिल होने को था मैंने देखा दद्दू  हिचकियाँ ले रहे थे.फौरन मैंने कहा ," घर जाओ दद्दू लगता है भाभीजी याद कर रही हैं "
                               सुबह सोकर उठता हूँ चाय की प्याली के साथ अखबार के पन्ने पलटने लगता हूँ.अरे!!!! यह क्या !!!मुझे हिचकियाँ आ रही हैं  ." ऐसी भी क्या बात है!!! सच बताइए... कहीं आप मुझे याद तो नहीं कर रहे हैं!!!!!                                                       
                                                                           हिचकियों सहित 
                                                                                                    किशोर दिवसे      
                        
                   

बुधवार, 27 अप्रैल 2011

डाक्टर बिनायक सेन पर फिल्म

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 डाक्टर बिनायक सेन पर फिल्म 




आज टाइम्स ऑफ़ इंडिया पढ़ रहा था.ज्योति पुन्वानी का एक लेख छपा है उसमें डाक्टर बिनायक सेन पर.अच्छा लगा इसलिए उसके कुछ अंश आपके लिए हिंदी में देने की इच्छा है. लब्बो-लुबाब ये की अधिकांश लोगों को  डा. सेन के बारे में इतना भर मालूम है की उन्हें नक्सल मामलों में आजन्म कारावास की सजा हुई है.उनपर एक डाक्युमेंटरी फिल्म बनाई है मिनी वैद  ने. शीर्षक है,"A DOCTOR TO DEFEND". इस फिल्म को एमनेस्टी इंटर नेशनल १४ मई को यू के. में प्रदर्शित करेगी.
                                इस लेख के मुताबिक डाक्टर बिनायक सेन  क्रिश्चन मेडिकल  कालेज वेल्लोर से गोल्ड मेडलिस्ट है.इस फिल्म  में डा. सेन ने कहा है, We read our politics off the bodies of our patients."  इसमें यह भी बताया गया है की क्या कारण थे की उनहोंने  आम डाक्टर जैसे रहने की बजे जेल जाने का रास्ता चुना.कम्युनिटी हेल्थ पर उनहोंने काफी काम किया.  सात साल तक शंकर गुहा नियोगी के साथ दल्ली राजहरा के ठेका श्रमिकों के साथ उनके मसलों को समझा. फिर छत्तीसगढ़ के जंगलों में  अपने अभियान पर डटे रहे.  मिनी वैद ने अपनी फिल्म में  Two India theory परिभाषित की है.पीयूसीएल में उनकी सहयोगी एडवोकेट सुधा भारदवाज भी आइआइटी टापर है.डाक्टर बिनायक सेन के बारे में  जानकारियां कई जगह उपलब्ध हैं लेकिन  पत्रकार से डाक्यूमेंटरी फिल्म मेकर  बनी मिनी वैद   की इस फिल्म को  कम से कम मीडिया वालों को देखना  चाहिए.

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

कौन है व्यापारी और उसकी चार पत्नियाँ !

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कौन है व्यापारी और उसकी  चार पत्नियाँ !
सुनो विक्रमार्क! एक अमीर व्यापारी की चार पत्नियाँ थी.वह अपनी चौथी पत्नी को सबसे ज्यादा प्यार   करता था और दुनिया की सबसे बेहतरीन सुविधा मुहैया कराता.अपनी तीसरी पत्नी से वह अपेक्षाकृत कम प्यार करता था.अपने दोस्तों को भी दिखाया करता पर डरता भी था कि वह किसी के साथ भाग न जाये.अपनी दूसरी पत्नी से वह व्यापारी और भी कम प्यार करता.वह समझदार और व्यापारी की भरोसेमंद थी.जब भी व्यापारी किसी मुसीबत में होता दूसरे नंबर की पत्नी उसे मुश्किलों  से उबार लेती.
                        अब व्यापारी की पहली पत्नी की बात.उस पहली पत्नी ने व्यापारी की तमाम दौलत  और कारोबार संभाला तो था ही घर की  देखभाल भी की. लेकिन  वह व्यापारी अपनी पहली पत्नी से बिलकुल प्यार नहीं करता था.जबकि सच यह था कि पहली पत्नी उसे बे इन्तहां  प्यार करती थी.दुर्भाग्य से वह व्यापारी अपनी पहली पत्नी की तरफ झांकता तक नहीं था.
                                   एक रोज वह व्यापारी बीमार पड़ गया.उसे लगा कि वह जल्द मर जायेगा.व्यापारी सोचने लगा,"मेरी चार पत्नियाँ हैं .मरने  के बाद तो मैं कितना अकेला रह जाऊंगा! जबकि अभी तो मेरी चार पत्नियाँ हैं."घबराकर व्यापारी ने अपनी चौथी पत्नी से पूछा ," तुम्हें मैंने सबसे ज्यादा प्यार किया.जो माँगा वो दिया. अब तो मैं मर रहा हूँ.क्या तुम  साथ चलकर मेरा साथ दोगी?
                            " क्या बात करते हो जी!यह सब छोड़कर मैं भला क्यों जाऊ?" इतना कहकर चौथी  पत्नी बगैर व्यापारी की और देखे चली गई.व्यापारी के दिल पर पहला छुरा चला था.उदास होकर उसने अपनी तीसरी पत्नी से कहा,"चौथी से कम सही सारी जिंदगी मैंने तुम्हें बहुत चाहा.मैं अब मर रहा हूँ.तुम भी मेरे साथ चलो न!"
                              " नहीं ...नहीं.. कितनी खूबसूरत है यहाँ की जिंदगी...तुम्हारे मरने के बाद मैं दूसरी शादी कर लूंगी."व्यापारी के कलेजे पर यह दूसरा वार था.उसने ठंडी साँसे भरकर दूसरी पत्नी से पूछा,"मुझे हरेक मुश्किल से तुमने ही उबारा है .एक बार मुझे फिर तुम्हारी मदद चाहिए.मेरे मरने पर तुम तो अवश्य मेरे साथ चलोगी ?"
                           " ए जी.. माफ़ करना इस बार मै तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकूंगी.अधिक से अधिक तुम्हें श्मशान घाट तक छोड़ने की व्यवस्था कर दूँगी." व्यापारी पर एक बार फिर वज्राघात हुआ.उसने मन में सोचा," अब तो मैं कहीं का नहीं रहा." इतने में एक कमजोर सी आवाज उसके कानों में सुनाई दी-
 " सुनो साजन! मैं तुम्हारे साथ चलूंगी.आप चाहे कहीं भी जाएँ मेरा और आपका साथ हमेशा-हमेशा रहेगा." मायूस व्यापारी ने जब सर उठाकर देखा तब पता चला कि यह कहने वाली उसकी पहली पत्नी थी.एकदम दुबली-पतली,मरियल सी.पश्चाताप के आंसू भरकर व्यापारी ने कहा," प्रिये! काश मैंने तुमपर ही सबसे अधिक ध्यान दिया होता."
                                 " अब बताओ राजा विक्रमार्क वो चार पत्नियाँ कौन हैं?" जानते हुए भी अगर तुमने इस सवाल का जवाब नहीं दिया तो तुम्हारी खोपड़ी के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे."-वेताल ने अग्नि परीक्षा  लेनी शुरू की.
                                कुछ पल मुस्कुराते हुए राजा विक्रमार्क ने वेताल को कंधे पर लादा और रवाना हुए गंतव्य की ओर.उनहोंने जवाब दिया-
" सुनो वेताल!दरअसल हम सब पुरुषों की चार पत्नियाँ हैं .शुरू करते हैन्चौथी पत्नी से.चौथी पत्नी हमारा शरीर है.हम इसके लिए खूबसूरत बनाने में चाहे जितना भी समय और धन खर्च करें मरने पर वह हमारा साथ कभी नहीं देगी.हमारी तीसरी पत्नी संपत्ति और स्टेटस है.हम मर जाते हैं लेकिन वे हमारे साथ जाते हैं क्या?हमारी दूसरी पत्नी है हमारा परिवार और बच्चे.सारी जिंदगी हमारे जीते जी चाहे वे कितने भी दिल के करीब रहें वे श्मशान के आगे स्वर्गलोक के रास्ते कभी हमारे साथ होते हैं क्या?"
                    
                         वेताल का दिल अब धडकने लगा था.राजा विक्रमार्क ने अपना चिन्तन जारी रखा," "वेताल! हमारी पहली है हमारी आत्मा.सारी जिंदगी हम उसकी उपेक्षा करते हैं.भौतिक सुख और साधनों के नाम पर वह " पहली पत्नी" तन्हाइयों में बेबस होकर जीती है. और  वही अंतिम यात्रा के बाद भी कहती है, "सुनो साजन!आप चाहे कहीं भी जाएँ मैं आपके साथ चलूंगी.अपनी आत्मा को सच्चे आदर्शों के साथ मजबूत बनाने का यही समय है.आखिर क्यों इसके लिए मृत्यु शैय्या का इन्तेजार करे ?"
                                 राजा विक्रमार्क! तुमने मेरे सवाल का सही जवाब दिया और ये मैं चला... हूँ ...हूँ... हा...हा...के अट्टहास के साथ एक बार फिर वेताल ,महाकाल की नगरी उज्जयिनी की ओर कूच कर गए.
                                                                       शुभ रात्रि.. शब्बा खैर...अपना ख्याल रखिये
                                                                                        किशोर दिवसे 
                                                                                        मोबाइल 09827471743
                           
                               
                                 
                        

आओ बूंदों के पुजारी अश्वमेध पर कूच करें!

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आओ बूंदों के पुजारी अश्वमेध पर कूच करें!
गुस्सैल सूरज  का पारा भड़क गया है और भड़कता ही जा रहा है.लाल आँखों से घूरते सूरज के दावानल का कहर अब दिन दूना-रात चौगुना बढ़ रहा  है.पहले तो धरती के जिस्म में  अनगिनत दरारें पड़ने  लगीं फिर मानव शरीरों से रश्मियों के प्रखर ने बूंदे निचोड़ना शुरू कर दिया .अब तो पराकाष्ठा है ,तपती धूप में  स्वेद स्नान...सूखे कुंड और तालाब...मुह से पानी के बजाए भाप उलीचते हेंडपंप .....कहीं नल के आगे रोते-गिडगिडाते बर्तन भांडों की कतारें और उन मर्तबानों की आवाज से लाखों  गुना कर्कश स्वर में चीखते -चिल्लाते झगड़ने पर उतारू लोग.गाव -खेड़े ,शहर उनके मुहल्लों में यह हालत आम होने लगी है.और  शहरों में तो कम महानगरों की हालत तो पस्त हो चुकी है.
                         बूँदें भाप बनकर उड़ने लगीं.जीवनदायी बूंदों का साम्राज्य रीता हो रहा है.धरती के गर्भ में मौजूद जल संचय का मानव समाज ने उपभोग तो किया पर ऋणानुबंध  के प्रति लापरवाह है समाज.इस कर्ज से मुक्त हुआ जा सकता है बशर्ते बूंदों की पूजा सर्वोपरि समझी जाए.जो बून्दों की रक्षा का संकल्प लेगा.वह होगा बूंदों का पुजारी.खिलवाड़ करने वाले महापातक का नरक भुगतेंगे .कायदे से तो ऐसे लोगों को दण्डित किया जाना चाहिए -जो बूंदों का मर्म नहीं समझते.
                        अश्वमेध का प्रसंग याद आता है.रामायण कालीन अश्वमेध साम्राज्य की आकांक्षा से किए जाने का उल्लेख है.उस समय का अश्व आज का मानव है और आकांक्षा-वही बूंदों की पूजा का संकल्प.तार्किक आधार पर भी सोचें तो अश्वमेध का अर्थ होता है मेध यानि मानव मेधा ( मस्तिष्क ) को अश्व की तरह दौड़ाना.इंसान ने खुदगर्जी के जूनून में जलस्रोतों की बर्बादी की .. गर्भ जल स्रोत सूखते रहे और आज हालत यह है कि-
                          सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या हुआ?
अब सही समय है.समाज और सरकार दोनों को ही  चौकन्ना होकर कार्य योजनाएं बनानी होंगी. बेशर्मी की हद तो तब होती है जब बुद्धि के विन्ध्याचल बने लोग  मूर्खता भरी दलील देते है कि अपने शहर में तो उतनी बुरी हालत नहीं है. तो क्या आग लगेगी तब कूवा  खोदोगे!आम आदमी पानी बचाने के प्रति ईमानदार हो गया तो आधा मसला हल. सुदूर गाँव में जहाँ जल-समस्या है वहा सरकार की दुम मरोड़ने के लिए नागरिको और मीडिया को  फौरी पहल करनी ही चाहिए.ढीली-ढाली सरकारी एजेंसियां और पेपर टाइगर तथा धन-दोहन में लगे एनजीओ  गंभीरता से काम करे. बहरहाल छत्तीसगढ़ समेत सारे देश को  जल समस्या के  गहराते खतरे   से बचाने के प्रति  पहरुए बनना सामूहिक जवाबदेही है.लिहाजा आइये... हम सब बन जाएँ बूंदों के पुजारी और एक साथ करें जल-स्रोतों के लिए महा-अश्वमेध का आवाहन .
                                                                                किशोर दिवसे 
                                                                               मोबाइल 09827471743

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

मेरी जीवन संगिनी

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मेरे सभी  मित्रों ,

अपनी पत्नी सुधा के नाम एक कविता उनके जन्मदिन पर लिखी थी. बहाने इसकी आपको दोस्ताना चुनौती दे रहा हूँ अपनी पत्नी के लिए कविता लिखने की..जो शादीशुदा है वो मौजूद पत्नी के लिए , जो शादी करेंगे वे होने वाली पत्नी के लिए . और जिनकी पत्नी सिर्फ यादो में ही बसी है वे उनकी याद में कविता लिखें. जरा देखें तो सही आप भी कैसा लिखते हैं? मेरी कविता का शीर्षक है-

मेरी जीवन संगिनी

============

भोर के सूरज की गुदगुदाती किरन

कुलांचे भारती हिरनी के नयन

गोधूलि का पावस अरुणाभ

इन्द्रधनु का सतरंग हो तुम

जीवन रथ का अटूट चाक

समर्पित मदनिका का उद्दाम ताप

पूजा सी पवित्र तुलसीमाला का

एक अनवरत जाप हो तुम

मेरा जीवन खंडित लौह अंश

उसपर काल के अगणित दंश

कामनाओं के सर्जित होते वंश

इस कल्पतरु का मूल हो तुम

जीवनसंगिनी,सुखनंदिनी....

स्नेहिल संबंधों का मधुमास

अनथक, अमिट, अशेष प्यास

शीतल सूर्य और तप्त चन्द्र

जीवन की अनवरत आस

मेरे नेत्र दर्पण की छाया हो तुम

जानती हो मेरे लिए क्या हो तुम!

संतुष्टि और पंखिल कल्पना

हिम्मत, ऐलान, राह और चाह

सुर्ख गुलाब की कांटेदार टहनी

सुख दुखों की काव्य निर्झरिणी

जीवन की तुम अक्षय ऊर्जा

स्वेद ,ओस श्वास और रक्त

अटूट विश्वास,प्यार हो तुम

वह देखो घूमता काल चक्र

जब थम जाएँगे श्वास ताल

अवश अलौकिक जीवन -जाल

का रेशम तंतु बनोगी तुम

गोधूलि का पावस अरुणाभ

इन्द्रधनु का सतरंग हो तुम
                                            शुभ रात्रि शब्बा खैर... अपना ख्याल रखिए....
                                                               किशोर दिवसे 

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

सबसे खूबसूरत दिल वही जो बांटता है प्यार !

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सबसे खूबसूरत  दिल वही जो बांटता है प्यार !

"कुछ लोग ऊपर  से तो बड़ी चिकनी-चुपड़ी और मीठी -मीठी बातें करते है लेकिन उनके मन में जहर भरा होता है.ऐसे मिठलबरा इंसानों के पेट में दांत होते हैं."
"ठीक कह रहे हो ... कुछ तो नारियल की तरह होते हैं ,ऊपर से सख्त लेकिन भीतर से उतने ही नर्म और कोमल"
" सच कहा ,हरेक इंसान की सूरत और सीरत होती है.सूरत भले ही अच्छी न रहे पर सीरत अच्छी होनी चाहिए."
" बस.. वैसे ही जैसे भोला -भाला  चेहरा  और दिल बेईमान है.यानी  तन के उजले ,मन के काले!बातचीत के दौरान अक्सर यह कहते सुना जाता है कि अमुक बड़े प्यारे दिल का  इंसान है.वह हर दिल अजीज बन जाता है.वहीँ जिसके दिल में खोट है वह लाख छुपाने पर भी छुप नहीं सकता."
यूं ही समय काटने के लिए  दद्दू और मैं गपिया रहे थे.मसला अच्छे और बुरे दिल  का था.दद्दू बोले,"अखबारनवीस! ये दिल कैसी बला है मैं तो समझ ही नहीं पाता." मैंने कहा " दद्दू ! ये दिल की  सियासत भी बड़ा ही अबूझ तिलस्म है.बस इतना ही समझ लो -
                                    दुनिया की  बलाओं को जब जमा किया मैंने 
                                   धुंधली सी मुझे दिल की  तस्वीर नजर आई 
पर अखबारनवीस, अगर किसी के दिल की  तस्वीर धुंधली सी नजर आए तो समझना क्या मुश्किल नहीं होगा कि अमुक इंसान का दिल अच्छा है या बुरा! "दद्दू ने फिर सवाल किया.   " देखो दद्दू,किसी का दिल अच्छा है या बुरा यह पता  लगाने उसे गहराइयों तक समझना होता है.हालाँकि यह अनुभव की  बात है पर एक किस्सा सुनो... सारी बात आईने  की तरह साफ़ हो जाएगी.
                             " इस शहर में मेरा दिल  सबसे खूबसूरत है " एक नौजवान शहर के बीच चौराहे पर खड़े रहकर चुनौती भरा दावा कर रहा था .थोड़ी ही देर में वहां पर जबरदस्त भीड़ इकठ्ठा हो गई .सभी ने महसूस किया कि उसका दिल एकदम चंगा है.उसके दिल पर कहीं कोई जख्म नहीं था.न कहीं रिश्ता हुआ लहू, न कोई निशान.
"सचमुच यह सबसे खूबसूरत दिल  है" पहले ने कहा.
" मैंने तो इससे प्यारा दिल कहीं नहीं देखा" दूसरे ने हामी भरी. धीरे-धीरे सभी लोग एक-दूसरे से सहमत होने लगे..""फिर क्या हुआ अखबारनवीस !" दद्दू ने अधीर होकर पूछा .
"अरे सुनो तो यार! वह नौजवान बड़े घमंड से " खपती" की तरह अपने खूबसूरत दिल पर इतराने लगा.
अचानक ही भीड़ को चीरता हुआ एक बूढा बीचो-बीच आकर खड़ा हो गया.उसने नौजवान को चुनौती दी.," ओ नौजवान!आखिर तुम्हारा दिल मेरे दिल  की तरह खूबसूरत क्यों नहीं है?"  चौंक गया वह नौजवान.उसने बूढ़े के  दिल में झांककर देखा.उसका दिल मजबूती से धडक रहा था .लेकिन ओह! उसके दिल पर जख्मों के अनेक निशान थे.उस दिल में कई जगहों से मांस के टुकड़े गायब थे.अनेक जख्मों पर गोश्त के टुकड़े कहीं से बड़े ही बेतरतीब ढंग से चिपका दिए गए थे.उस नौजवान ने हैरत भरी आँखों से देखा... बूढ़े के दिल में कुछ स्थानों पर गहरे गड्ढे दिखाई दे रहे थे.वहां सिर्फ सूराख ही नजर आ रहा था.
 समूची भीड़ की आँखें एक ही सवाल कर रही थी ,"यह बूढा किस तरह दावा कर रहा है  kii उसका दिल सबसे खूबसूरत है" वे किंकर्तव्य विमूढ़ थे.उस बूढ़े के दिल की ऐसी हालत देखकर नौजवान ने उपेक्षा  भरा ठहाका लगाया और कहा ,"इस बुढापे  में ऐसा भद्दा मजाक करना  आपको शोभा नहीं देता.कहाँ मेरा दिल चुस्त-दुरुस्त और कहाँ आपका -सैकड़ों जख्मों से भरा और आन्सूनो के सैलाब में डूबा हुआ !"
                          अब उन बूढी आँखों ने नौजवान को गहराई से देखकर कहा ," अरे नौजवान!तुम्हारा दिल सिर्फ दिखने में अच्छा है पर उसे कसौटी पर नहीं परखा गया है तुम जानते हो?मेरे दिल पर बना हर एक निशान उस इंसान का प्रतीक है जिसे मैंने अपना प्यार दिया है.मैं अपने दिल का टुकड़ा उस इंसान को दे देता हूँ जिसने मेरा प्यार हासिल किया है.यह बात सच है कि कुछ लोग बदले में अपने दिल का टुकड़ा दे देते हैं.कई बार मेरे  दिल के जख्मों पर वे टुकड़े बेतरतीब  लगते है अपने दिल पर मौजूद पैबन्दों से भी मैं खुश हूँ क्योंकि वे मुझे प्यार बांटने का एहसास दिलाते रहते हैं.और इस दिल में सूराख बने हैं न वो इसलिए क्योंकि कुछ बेगैरत इंसानों ने मेरे प्यार के बदले अपने दिल का टुकड़ा नहीं लौटाया.
                              भीड़ में सन्नाटा छा गया.वह  नौजवान सम्मोहित सा उस बूढ़े की  और देखने लगा.," सुनो नौजवान!देख रहे हो मेरे दिल  के सूराखों को ? किसी को अपना प्यार देना "शतरंज की बाजी" खेलना है ये खुले जख्म काफी दर्द भरे हैं फिर भी ये हमेशा मुझे यही याद दिलाते हैं ,"मैंने कभी इन्हें अपना प्यार दिया था.मुझे उम्मीद है की  लोग कभी किसी रोज मेरा प्यार लौटाकर  इस दिल के खुले जख्मों को भर देंगे.
" अब तुम्हीं बताओ नौजवान! कौन सा दिल प्यार  के काबिल है? तुम्हारा जो कोरे कागज की तरह है या मेरा जिसने प्यार बांटकर जख्म हासिल किये हैं"-उस बूढ़े की दर्द भरी आँखों में सवाल था .नौजवान की आँखों से आंसूओं की धाराएं बह निकली.वह उस बूढ़े के पास गया और अपने खूबसूरत दिल का टुकड़ा निकालकर कांपते हुए हाथों से उसे सौप दिया.
                         तत्काल ही बूढ़े ने अपने जख्मी दिल का टुकड़ा निकालकर नौजवान के दिल में लगा दिया.नौजवान ने देखा उसका दिल दिखने में सही नहीं था लेकिन पहले से कहीं खूबसूरत बन गया था.भले ही बूढ़े के दिल का टुकड़ा बेतरतीब ढंग से लगा था.दरअसल बूढ़े के दिल से प्यार का सैलाब उस नौजवान के दिल में समा गया था.कुछ देर बाद वह भीड़ भीगी हुई आँखों से देख रही थी ... उस बूढ़े और नौजवान ने एक-दूसरे को गले लगा लिया.अब वे साथ -साथ चलने लगे थे.
                               साथ-साथ चलते हुए दद्दू ने पुछा ," अखबारनवीस ! खुले दिल के ... साफ़ दिल और अच्छे दिल के लोग सभी को पसंद आते हैं .यह तो बताओ की  आपके दिल में कौन है?" यार छोडो भी!उस वक्त तो दद्दू को मैंने टाल दिया था पर यही सवाल चूंके आपने भी पूछा है ,तब तो बताना ही  पड़ेगा न -
                             पूछते क्या हो कि दिल में कौन है 
                             लो यह आइना उठाकर देख लो!
                                                                                   अपना ख्याल रखिए...
                                                                                     किशोर दिवसे  

                                                                                                 


शनिवार, 9 अप्रैल 2011

जनविजय का ऐतिहासिक सफा

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जनता की जीत


नवभारत  के बिलासपुर एडिशन में  पहले पन्ने का बैनर था " जनसमर्थन की जीत". वाकई यह दो  टूक सच है.अन्ना के अनशन के सामने सरकार    झुकी और पाचों  बाते मानने पर मजबूर हो गई.फैसला होते ही जनता  जश्न में डूबी नजर आई. जन्तर-मंतर से  शुरू हुआ जादू  देश भर में बिजली की मानिंद पसर गया. यह तो होना ही था.राजपत्र में छपना दरअसल लोक विजय मानी जाएगी.अन्ना ने मीडिया और देश की युवा शक्ति को धन्यवाद दिया है.
                              भले ही अलहदा सोच के अनेक गर्द-ओ -गुबार का कोहराम मचता रहा ,आम तौर पर पेपर टाइगर्स और लाइम लाईट  की हवस न रखने वाले ही इस आन्दोलन की धुरी में थे.जनविजय का  पहला  सफा  यह बात भी साबित   करता   है कि नौजवान अगर रचनात्मक भागीदारी निभाए तब  देश के सड़े हुए सिस्टमों में आमूल-चूल परिवर्तन की जोरदार भूमिका बनती है. आन्दोलन स्थल  पर आए अनेक विदेशियों में से एक राधा माधव ने कहा,"मै यहाँ मोरल वेल्यूज की जीत देखने आया हूँ.यह मैसेज सारी दुनिया में जाएगा."
            अन्ना हजारे कह रहे है कि अब हमारी जिम्मेदारी और बढ़ गई है. दरअसल जनता अपनी शक्ति की सकारात्मकता को पहचान नहीं रही थी ,अन्ना ने सिर्फ आइना दिखाया है.साथ में नीति निर्धारको को यह भी समझाने की चेष्टा की है कि राजनेता जनता के नौकर है.
                             अन्ना नेता नहीं , बेहद सीधे इंसान है.  महाराष्ट्र का रालेगन सिद्धि गाँव ईमानदारी  और नैतिक मूल्यों का साक्षात् प्रतिबिम्ब है  जो उनकी प्रमुख कर्मस्थली रही है.अन्ना का व्यंग्य बाण ," काले अंग्रेजों की नींद का उड़ना " मौजूदा सियासत की गलीज पर तीक्ष्नतम प्रहार है.लोक विजय का यह पहला सफा है.पता नहीं " सूचना के अधिकार " जैसे कानूनी अस्त्र को अब तक उतनी तवज्जो क्यों नहीं मिल पाई जो हकीकत में मिलनी चाहिए थी. शायद इसे भी  " भ्रष्टाचार विरोधी" ऐसी ही मुखालफत या जन जिहाद की फौरी जरूरत है.
                                 फ़िलहाल आगे आगे देखिए होता है क्या?  देश के नागरिको खास तौर पर युवा शक्ति को पल-पल सियासत बाजो की  शतरंजी बिसात के सिलसिले में चौकस रहना होगा., न जाने ऐसे कितने जिहाद अभी लड़ने बाकी है क्योकि अभी तो ये अंगडाई है..... मुझे फैज के अल्फाज यहाँ पर मौजू लगते है- 
                                       जब अर्ज-ए-खुदा के कबाए से 
                                       सब बुत उतारे जाएँगे 
                                        हम अहल-ए- सफा ,मरदूद-ए-हरम 
                                        मनसद पे बिछाए जाएँगे 
                                       सब ताज उछाले जाएँगे,सब तख़्त गिराए जाएँगे...
                                                                                                   इन्शाल्ल्ह....आमीन....जागते रहो !!!!!!!!!!!
                                                                                              
                                                                               किशोर दिवसे 
                                                                                मोबाइल 9827471743
                                                                                                               
                                       
                                       
                     

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

सैर कर दुनिया की गाफिल ज़िन्दगी फिर कहाँ ,जिंदगानी फिर रही तो नौजवानी फिर कहाँ !!!

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सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहाँ  ,जिंदगानी फिर रही तो नौजवानी फिर कहाँ?
राहुल सांकृत्यायन
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महापंडित राहुल सांकृत्यायन
उपनाम: केदारनाथ पाण्डेय
जन्म: ९ अप्रैल, १८९३
ग्राम पंदहा, आजमगढ़, उत्तर प्रदेश, भारत
मृत्यु: १४ अप्रैल, १९६३
दार्जिलिंग, पश्चिम बंगाल, भारत
कार्यक्षेत्र: बहुभाषाविद्, अग्रणी विचारक, साम्यवादी चिन्तक, यात्राकार, इतिहासविद्, तत्वान्वेषी, युगपरिवर्तनकार साहित्यकार
राष्ट्रीयता: भारतीय
भाषा: हिन्दी
काल: आधुनिक काल
विधा: यात्रा वृतांत, कहानियाँ, आत्मकथा, जीवनियाँ
विषय: यात्रा वृतांत
प्रमुख कृति(याँ): वोल्गा से गंगा, मेरी जीवन यात्रा
इनसे प्रभावित: नागार्जुन, गुणाकर मुले (शिष्य), माधव कुमार नेपाल, विद्यानिवास मिश्र, हजारीप्रसाद द्विवेदी

राहुल सांकृत्यायन जिन्हें महापंडित की उपाधि दी जाती है हिन्दी के एक प्रमुख साहित्यकार थे । वे एक प्रतिष्ठित बहुभाषाविद् थे और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में उन्होंने यात्रा वृतांत/यात्रा साहित्य तथा विश्व-दर्शन के क्षेत्र में साहित्यिक योगदान किए । वह हिंदी यात्रासहित्य के पितामह कहे जाते हैं। बौद्ध धर्म पर उनका शोध हिन्दी साहित्य में युगान्तरकारी माना जाता है, जिसके लिए उन्होंने तिब्बत से लेकर श्रीलंका तक भ्रमण किया था । इसके अलावा उन्होंने मध्य-एशिया तथा कॉकेशस भ्रमण पर भी यात्रा वृतांत लिखे जो साहित्यिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं ।
२१वीं सदी के इस दौर में जब संचार-क्रान्ति के साधनों ने समग्र विश्व को एक ‘ग्लोबल विलेज’ में परिवर्तित कर दिया हो एवं इण्टरनेट द्वारा ज्ञान का समूचा संसार क्षण भर में एक क्लिक पर सामने उपलब्ध हो, ऐसे में यह अनुमान लगाना कि कोई व्यक्ति दुर्लभ ग्रन्थों की खोज में हजारों मील दूर पहाड़ों व नदियों के बीच भटकने के बाद, उन ग्रन्थों को खच्चरों पर लादकर अपने देश में लाए, रोमांचक लगता है। पर ऐसे ही थे भारतीय मनीषा के अग्रणी विचारक, साम्यवादी चिन्तक, सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत, सार्वदेशिक दृष्टि एवं घुमक्कड़ी प्रवृत्ति के महान् पुरूष राहुल सांकृत्यायन।
राहुल सांकृत्यायन के जीवन का मूलमंत्र ही घुमक्कड़ी यानी गतिशीलता रही है। घुमक्कड़ी उनके लिए वृत्ति नहीं वरन् धर्म था। आधुनिक हिन्दी साहित्य में राहुल सांकृत्यायन एक यात्राकार, इतिहासविद्, तत्वान्वेषी, युगपरिवर्तनकार साहित्यकार के रूप में जाने जाते है ।


राहुल सांकृत्यायन का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के पंदहा गाँव में ९ अप्रैल १८९३ को हुआ था। उनके बाल्यकाल का नाम केदारनाथ पाण्डेय था। उनके पिता गोवर्धन पाण्डेय एक धार्मिक विचारों वाले किसान थे। उनकी माता कुलवंती अपने माता-पिता की अकेली पुत्री थीं। दीप चंद पाठक कुलवंती के छोटे भाई थे। वह अपने माता-पिता के साथ रहती थीं। बचपन में ही इनकी माता का देहांत हो जाने के कारण इनका पालन-पोषण इनके नाना श्री राम शरण पाठक और नानी ने किया था। १८९८ में इन्हे प्राथमिक शिक्षा के लिए गाँव के ही एक मदरसे में भेजा गया। राहुल जी का विवाह बचपन में कर दिया गया। यह विवाह राहुल जी के जीवन की एक संक्रान्तिक घटना थी। जिसकी प्रतिक्रिया में राहुल जी ने किशोरावस्था में ही घर छोड़ दिया। घर से भाग कर ये एक मठ में साधु हो गए। लेकिन अपनी यायावरी स्वभाव के कारण ये वहा भी टिक नही पाये। चौदह वर्ष की अवस्था में ये कलकत्ता भाग आए। इनके मन में ज्ञान प्राप्त करने के लिए गहरा असंतोष था। इसीलिए यहाँ से वहा तक सारे भारत का भ्रमण करते रहे।
राहुल जी का समग्र जीवन ही रचनाधर्मिता की यात्रा थी। जहाँ भी वे गए वहाँ की भाषा व बोलियों को सीखा और इस तरह वहाँ के लोगों में घुलमिल कर वहाँ की संस्कृति, समाज व साहित्य का गूढ़ अध्ययन किया। राहुल सांकृत्यायन उस दौर की उपज थे जब ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत भारतीय समाज, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और राजनीति सभी संक्रमणकालीन दौर से गुजर रहे थे। वह दौर समाज सुधारकों का था एवं काग्रेस अभी शैशवावस्था में थी। इन सब से राहुल अप्रभावित न रह सके एवं अपनी जिज्ञासु व घुमक्कड़ प्रवृत्ति के चलते घर-बार त्याग कर साधु वेषधारी सन्यासी से लेकर वेदान्ती, आर्यसमाजी व किसान नेता एवं बौद्ध भिक्षु से लेकर साम्यवादी चिन्तक तक का लम्बा सफर तय किया। सन् १९३० में श्रीलंका जाकर वे बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गये एवं तभी से वे ‘रामोदर साधु’ से ‘राहुल’ हो गये और सांकृत्य गोत्र के कारण सांकृत्यायन कहलाये। उनकी अद्भुत तर्कशक्ति और अनुपम ज्ञान भण्डार को देखकर काशी के पंडितों ने उन्हें महापंडित की उपाधि दी एवं इस प्रकार वे केदारनाथ पाण्डे से महापंडित राहुल सांकृत्यायन हो गये। सन् १९३७ में रूस के लेनिनग्राद में एक स्कूल में उन्होंने संस्कृत अध्यापक की नौकरी कर ली और उसी दौरान ऐलेना नामक महिला से दूसरी शादी कर ली, जिससे उन्हें इगोर राहुलोविच नामक पुत्र-रत्न प्राप्त हुआ। छत्तीस भाषाओं के ज्ञाता राहुल ने उपन्यास, निबंध, कहानी, आत्मकथा, संस्मरण व जीवनी आदि विधाओं में साहित्य सृजन किया परन्तु अधिकांश साहित्य हिन्दी में ही रचा। राहुल तथ्यान्वेषी व जिज्ञासु प्रवृत्ति के थे सो उन्होंने हर धर्म के ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। अपनी दक्षिण भारत यात्रा के दौरान संस्कृत-ग्रन्थों, तिब्बत प्रवास के दौरान पालि-ग्रन्थों तो लाहौर यात्रा के दौरान अरबी भाषा सीखकर इस्लामी धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन किया। निश्चितत: राहुल सांकृत्यायन की मेधा को साहित्य, अध्यात्म, ज्योतिष, विज्ञान, इतिहास, समाज शास्त्र, राजनीति, भाषा, संस्कृति, धर्म एवं दर्शन के टुकड़ों में बाँटकर नहीं देखा जा सकता ]
बौद्ध -धर्म की ओर झुकाव

१९१६ तक आते-आते इनका झुकाव बौद्ध -धर्म की ओर होता गया। बौद्ध धर्म में दीक्षा लेकर , वे राहुल सांकृत्यायन बने । बौद्ध धर्म में लगाव के कारण ही ये पाली,प्राकृत ,अपभ्रंश ,आदि भाषाओ के सीखने की ओर झुके ।१९१७ की रुसी क्रांति ने राहुल जी के मन को गहरे में प्रभावित किया। वे अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव भी रहे। उन्होंने तिब्बत की चार बार यात्रा की और वहा से विपुल साहित्य ले कर आए। १९३२ को राहुल जी यूरोप की यात्रा पर गए। १९३५ में जापान, कोरिया, मंचूरिया की यात्रा की। १९३७ में मास्को में यात्रा के समय भारतीय-तिब्बत विभाग की सचिव लोला येलेना से इनका प्रेम हो गया। और वे वही विवाह कर के रूस में ही रहने लगे। लेकिन किसी कारण से वे १९४८ में भारत लौट आए।
राहुल जी को हिन्दी और हिमालय से बड़ा प्रेम था। वे १९५० में नैनीताल में अपना आवास बना कर रहने लगे। यहाँ पर उनका विवाह कमला सांकृत्यायन से हुआ। इसके कुछ बर्षो बाद वे दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल) में जाकर रहने लगे ,लेकिन बाद में उन्हें मधुमेह से पीड़ित होने के कारण रूस में इलाज कराने के लिए भेजा गया। १९६३ में सोवियत रूस में लगभग सात महीनो के इलाज के बाद भी उनका स्वास्थ्य ठीक नही हुआ. १४ अप्रैल १९६३ को उनका दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल) में देहांत हो गया।

साहित्यिक रुझान

राहुल जी वास्तव के ज्ञान के लिए गहरे असंतोष में थे, इसी असंतोष को पूरा करने के लिए वे हमेशा तत्पर रहे। उन्होंने हिन्दी साहित्य को विपुल भण्डार दिया। उन्होंने मात्र हिन्दी साहित्य के लिए ही नही बल्कि वे भारत के कई अन्य क्षेत्रों के लिए भी उन्होंने शोध कार्य किया । वे वास्तव में महापंडित थे। राहुल जी की प्रतिभा बहुमुखी थी और वे संपन्न विचारक थे। धर्म ,दर्शन ,लोकसाहित्य ,यात्रासहित्य ,इतिहास ,राजनीति, जीवनी, कोष, प्राचीन ग्रंथो का संपादन कर उन्होंने विविध क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कार्य किया। उनकी रचनाओ में प्राचीन के प्रति आस्था,इतिहास के प्रति गौरव और वर्तमान के प्रति सधी हुई दृष्टि का समन्वय देखने को मिलता है। यह केवल राहुल जी थे,जिन्होंने प्राचीन और वर्तमान भारतीय साहित्य चिंतन को पूर्ण रूप से आत्मसात् कर मौलिक दृष्टि देने का प्रयास किया। उनके उपन्यास और कहानियाँ बिल्कुल नए दृष्टिकोण को हमारे सामने रखते हैं। तिब्बत और चीन के यात्रा काल में उन्होंने हजारों ग्रंथों का उद्धार किया और उनके सम्पादन और प्रकाशन का मार्ग प्रशस्त किया, ये ग्रन्थ पटना संग्रहालय में है। यात्रा साहित्य में महत्वपूर्ण लेखक राहुल जी रहे है । उनके यात्रा वृतांत में यात्रा में आने वाली कठिनाइयों के साथ उस जगह की प्राकृतिक सम्पदा ,उसका आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन और इतिहास अन्वेषण का तत्व समाहित होता है। "किन्नर देश की ओर" ,"कुमाऊ" ,"दार्जिलिंग परिचय" तथा "यात्रा के पन्ने" उनके ऐसे ही ग्रन्थ है।
फोटो में बाएँ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, दायें महापंडित राहुल सांकृत्यायन।
राहुल सांकृत्यायन का मानना था कि घुमक्कड़ी मानव-मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है। उन्होंने कहा भी था कि- "कमर बाँध लो भावी घुमक्कड़ों, संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है।" राहुल ने अपनी यात्रा के अनुभवों को आत्मसात् करते हुए ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ भी रचा। वे एक ऐसे घुमक्कड़ थे जो सच्चे ज्ञान की तलाश में था और जब भी सच को दबाने की कोशिश की गई तो वह बागी हो गया। उनका सम्पूर्ण जीवन अन्तर्विरोधों से भरा पड़ा है। वेदान्त के अध्ययन के पश्चात जब उन्होंने मंदिरों में बलि चढ़ाने की परम्परा के विरूद्ध व्याख्यान दिया तो अयोध्या के सनातनी पुरोहित उन पर लाठी लेकर टूट पड़े। बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बावजूद वह इसके ‘पुनर्जन्मवाद’ को नहीं स्वीकार पाए। बाद में जब वे मार्क्सवाद की ओर उन्मुख हुए तो उन्होंने तत्कालीन सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी में घुसे सत्तालोलुप सुविधापरस्तों की तीखी आलोचना की और उन्हें आन्दोलन के नष्ट होने का कारण बताया। सन् १९४७ में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रूप में उन्होंने पहले से छपे भाषण को बोलने से मना कर दिया एवं जो भाषण दिया, वह अल्पसंख्यक संस्कृति एवं भाषाई सवाल पर कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों के विपरीत था। नतीजन पार्टी की सदस्यता से उन्हें वंचित होना पड़ा, पर उनके तेवर फिर भी नहीं बदले। इस कालावधि में वे किसी बंदिश से परे प्रगतिशील लेखन के सरोकारों और तत्कालीन प्रश्नों से लगातार जुड़े रहे। इस बीच मार्क्सवादी विचारधारा को उन्होंने भारतीय समाज की ठोस परिस्थितियों का आकलन करके ही लागू करने पर जोर दिया। अपनी पुस्तक ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ एवं ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ में इस सम्बन्ध में उन्होंने सम्यक् प्रकाश डाला। अन्तत: सन् १९५३-५४ के दौरान पुन: एक बार वे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बनाये गये।
एक कर्मयोगी योद्धा की तरह राहुल सांकृत्यायन ने बिहार के किसान-आन्दोलन में भी प्रमुख भूमिका निभाई। सन् १९४० के दौरान किसान-आन्दोलन के सिलसिले में उन्हें एक वर्ष की जेल हुई तो देवली कैम्प के इस जेल-प्रवास के दौरान उन्होंने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ ग्रन्थ की रचना कर डाली। १९४२ के भारत छोड़ो आन्दोलन के पश्चात् जेल से निकलने पर किसान आन्दोलन के उस समय के शीर्ष नेता स्वामी सहजानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक पत्र ‘हुंकार’ का उन्हें सम्पादक बनाया गया। ब्रिटिश सरकार ने फूट डालो और राज करो की नीति अपनाते हुए गैर कांग्रेसी पत्र-पत्रिकाओं में चार अंकों हेतु ‘गुण्डों से लड़िए’ शीर्षक से एक विज्ञापन जारी किया। इसमें एक व्यक्ति गाँधी टोपी व जवाहर बण्डी पहने आग लगाता हुआ दिखाया गया था। राहुल सांकृत्यायन ने इस विज्ञापन को छापने से इन्कार कर दिया पर विज्ञापन की मोटी धनराशि देखकर स्वामी सहजानन्द ने इसे छापने पर जोर दिया। अन्तत: राहुल ने अपने को पत्रिका के सम्पादन से ही अलग कर लिया। इसी प्रकार सन् १९४० में ‘बिहार प्रान्तीय किसान सभा’ के अध्यक्ष रूप में जमींदारों के आतंक की परवाह किए बिना वे किसान सत्याग्रहियों के साथ खेतों में उतर हँसिया लेकर गन्ना काटने लगे। प्रतिरोध स्वरूप जमींदार के लठैतों ने उनके सिर पर वार कर लहुलुहान कर दिया पर वे हिम्मत नहीं हारे। इसी तरह न जाने कितनी बार उन्होंने जनसंघर्षों का सक्रिय नेतृत्व किया और अपनी आवाज को मुखर अभिव्यक्ति दी।

घुमक्कड़ी स्वभाव

महापंडित राहुल सांकृत्यायन
ग्यारह वर्ष की उम्र में हुए अपने विवाह को नकारकर वे बता चुके थे कि उनके अंतःकरण में कहीं न कहीं विद्रोह के बीजों का वपन हुआ है। यायावरी और विद्रोह ये दोनों ही प्रवृत्तियाँ कालांतर में विकसित हो गईं, जिसके कारण पंदहा गाँव ,आजमगढ़ में जन्मा यह केदारनाथ पांडेय नामक बालक देशभर में महापंडित राहुल सांकृत्यायन के नाम से प्रख्यात हो गया।
राहुल सांकृत्यायन सदैव घुमक्कड़ ही रहे। सन्‌ १९२३ से उनकी विदेश यात्राओं का सिलसिला शुरू हुआ तो फिर इसका अंत उनके जीवन के साथ ही हुआ। ज्ञानार्जन के उद्देश्य से प्रेरित उनकी इन यात्राओं में श्रीलंका, तिब्बत, जापान और रूस की यात्राएँ विशेष उल्लेखनीय हैं। वे चार बार तिब्बत पहुँचे। वहाँ लम्बे समय तक रहे और भारत की उस विरासत का उद्धार किया, जो हमारे लिए अज्ञात, अलभ्य और विस्मृत हो चुकी थी।
अध्ययन-अनुसंधान की विभा के साथ वे वहाँ से प्रभूत सामग्री लेकर लौटे, जिसके कारण हिन्दी भाषा एवं साहित्य की इतिहास संबंधी कई पूर्व निर्धारित मान्यताओं एवं निष्कर्षों में परिवर्तन होना अनिवार्य हो गया। साथ ही शोध एवं अध्ययन के नए क्षितिज खुले।
भारत के संदर्भ में उनका यह काम किसी ह्वेनसांग से कम नहीं आँका जा सकता। बाह्य यात्राओं की तरह इन निबंधों में उनकी एक वैचारिक यात्रा की ओर भी संकेत किया गया है, जो पारिवारिक स्तर पर स्वीकृत वैष्णव मत से शुरू हो, आर्य समाज एवं बौद्ध मतवाद से गुजरती हुई मार्क्सवाद पर जाकर खत्म होती है। अनात्मवाद, बुद्ध का जनतंत्र में विश्वास तथा व्यक्तिगत संपत्ति का विरोध जैसी कुछेक ऐसी समान बातें हैं, जिनके कारण वे बौद्ध दर्शन एवं मार्क्सवाद दोनों को साथ लेकर चले थे।
राष्ट्र के लिए एक राष्ट्र भाषा के वे प्रबल हिमायती थे। बिना भाषा के राष्ट्र गूँगा है, ऐसा उनका मानना था। वे राष्ट्रभाषा तथा जनपदीय भाषाओं के विकास व उन्नति में किसी प्रकार का विरोध नहीं देखते थे।
समय का प्रताप कहें या 'मार्क्सवादी के रूप में उनके मरने की इच्छा' कहें, उन्होंने इस आयातित विचार को सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान 'परमब्रह्म' मान लिया और इस झोंक में वे भारतीय दर्शन, धर्म, संस्कृति, इतिहास आदि के बारे में कुछ ऐसी बातें कह बैठे या निष्कर्ष निकाल बैठे, जो उनकी आलोचना का कारण बने।
उनकी भारत की जातीय-संस्कृति संबंधी मान्यता, उर्दू को हिन्दी (खड़ी बोली हिन्दी) से अलग मानने का विचार तथा आर्यों से 'वोल्गा से गंगा' की ओर कराई गई यात्रा के पीछे रहने वाली उनकी धारणा का डॉक्टर रामविलास शर्मा ने तर्कसम्मत खंडन किया है। मत-मतांतर तो चलते रहते हैं, इससे राहुलजी का प्रदेय और महत्व कम नहीं हो जाता।
बौद्ध धर्म और मार्क्सवाद दोनों का मिलाजुला चिंतन उनके पास था, जिसके आधार पर उन्होंने नए भारत के निर्माण का 'मधुर स्वप्न' सँजोया था, जिसकी झलक हमें उनकी पुस्तक 'बाईसवीं सदी' में भी मिल जाती है। श्री राहुल ने अपने कर्तृत्व से हमें अपनी विरासत का दर्शन कराया तथा उसके प्रति हम सबमें गौरव का भाव जगाया।
उनके शब्दों में- ‘‘समदर्शिता घुमक्कड़ का एकमात्र दृष्टिकोण है और आत्मीयता उसके हरेक बर्ताव का सार।’’ यही कारण था कि सारे संसार को अपना घर समझने वाले राहुल सन् १९१० में घर छोड़ने के पश्चात पुन: सन् १९४३ में ही अपने ननिहाल पन्दहा पहुँचे। वस्तुत: बचपन में अपने घुमक्कड़ी स्वभाव के कारण पिताजी से मिली डाँट के पश्चात् उन्होंने प्रण लिया था कि वे अपनी उम्र के पचासवें वर्ष में ही घर में कदम रखेंगे। चूँकि उनका पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा ननिहाल में ही हुआ था सो ननिहाल के प्रति ज्यादा स्नेह स्वाभाविक था। बहरहाल जब वे पन्दहा पहुँचे तो कोई उन्हें पहचान न सका पर अन्तत: लोहार नामक एक वृद्ध व्यक्ति ने उन्हें पहचाना और स्नेहासक्ति रूधे कण्ठ से ‘कुलवन्ती के पूत केदार’ कहकर राहुल को अपनी बाँहों में भर लिया। अपनी जन्मभूमि पर एक बुजुर्ग की परिचित आवाज ने राहुल को भावविभोर कर दिया। उन्होंने अपनी डायरी में इसका उल्लेख भी किया है- ‘‘लाहौर नाना ने जब यह कहा कि ‘अरे ई जब भागत जाय त भगइया गिरत जाय’ तब मेरे सामने अपना बचपन नाचने लगा। उन दिनों गाँव के बच्चे छोटी पतली धोती भगई पहना करते थे। गाँववासी बड़े बुजुर्गों का यह भाव देखकर मुझे महसूस होने लगा कि तुलसी बाबा ने यह झूठ कहा है कि- "तुलसी तहाँ न जाइये, जहाँ जन्म को ठाँव, भाव भगति को मरम न जाने धरे पाछिलो नाँव।।’’
घुमक्कड़ी स्वभाव वाले राहुल सांकृत्यायन सार्वदेशिक दृष्टि की ऐसी प्रतिभा थे, जिनकी साहित्य, इतिहास, दर्शन संस्कृति सभी पर समान पकड़ थी। विलक्षण व्यक्तित्व के अद्भुत मनीषी, चिन्तक, दार्शनिक, साहित्यकार, लेखक, कर्मयोगी और सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत रूप में राहुल ने जिन्दगी के सभी पक्षों को जिया। यही कारण है कि उनकी रचनाधर्मिता शुद्ध कलावादी साहित्य नहीं है, वरन् वह समाज, सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, विज्ञान, धर्म, दर्शन इत्यादि से अनुप्राणित है जो रूढ़ धारणाओं पर कुठाराघात करती है तथा जीवन-सापेक्ष बनकर समाज की प्रगतिशील शक्तियों को संगठित कर संघर्ष एवं गतिशीलता की राह दिखाती है। ऐसे मनीषी को अपने जीवन के अंतिम दिनों में ‘स्मृति लोप’ जैसी अवस्था से गुजरना पड़ा एवं इलाज हेतु उन्हें मास्को भी ले जाया गया। पर घुमक्कड़ी को कौन बाँध पाया है, सो अप्रैल १९६३ में वे पुन: मास्को से दिल्ली आ गए और १४ अप्रैल, १९६३ को सत्तर वर्ष की आयु में दार्जिलिंग में सन्यास से साम्यवाद तक का उनका सफर पूरा हो गया पर उनका जीवन दर्शन और घुमक्कड़ी स्वभाव आज भी हमारे बीच जीवित है।
राहुल बाबा
राहुल जी घुमक्कड़ी के बारे मे कहते हैं:
मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु है घुमक्कड़ी। घुमक्कड़ से बढ़कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता। दुनिया दुख में हो चाहे सुख में, सभी समय यदि सहारा पाती है तो घुमक्कड़ों की ही ओर से। प्राकृतिक आदिम मनुष्य परम घुमक्कड़ था। आधुनिक काल में घुमक्कड़ों के काम की बात कहने की आवश्यकता है, क्योंकि लोगों ने घुमक्कड़ों की कृतियों को चुरा के उन्हें गला फाड़–फाड़कर अपने नाम से प्रकाशित किया। जिससे दुनिया जानने लगी कि वस्तुत: तेली के कोल्हू के बैल ही दुनिया में सब कुछ करते हैं। आधुनिक विज्ञान में चार्ल्स डारविन का स्थान बहुत ऊँचा है। उसने प्राणियों की उत्पत्ति और मानव–वंश के विकास पर ही अद्वितीय खोज नहीं की, बल्कि कहना चाहिए कि सभी विज्ञानों को डारविन के प्रकाश में दिशा बदलनी पड़ी। लेकिन, क्या डारविन अपने महान आविष्कारों को कर सकता था, यदि उसने घुमक्कड़ी का व्रत न लिया होता। आदमी की घुमक्कड़ी ने बहुत बार खून की नदियाँ बहायी है, इसमें संदेह नहीं, और घुमक्कड़ों से हम हरगिज नहीं चाहेंगे कि वे खून के रास्ते को पकड़ें। किन्तु घुमक्कड़ों के काफले न आते जाते, तो सुस्त मानव जातियाँ सो जाती और पशु से ऊपर नहीं उठ पाती। अमेरिका अधिकतर निर्जन सा पड़ा था। एशिया के कूपमंडूक को घुमक्कड़ धर्म की महिमा भूल गयी, इसलिए उन्होंने अमेरिका पर अपनी झंडी नहीं गाड़ी। दो शताब्दियों पहले तक आस्ट्रेलिया खाली पड़ा था। चीन, भारत को सभ्यता का बड़ा गर्व है, लेकिन इनको इतनी अक्ल नहीं आयी कि जाकर वहाँ अपना झंडा गाड़ आते।

व्यक्तित्व के आयाम

राहुल सांकृत्यायन उन विशिष्ट साहित्य सर्जकों में हैं जिन्होंने जीवन और साहित्य दोनों को एक तरह से जिया। उनके जीवन के जितने मोड आये, वे उनकी तर्क बुद्धि के कारण आये। बचपन की परिस्थिति व अन्य सीमाओं को छोडकर उन्होंने अपने जीवन में जितनी राहों का अनुकरण किया वे सब उनके अंतर्मन की छटपटाहट के द्वारा तलाशी गई थी। जिस राह को राहुलजी ने अपनाया उसे निर्भय होकर अपनाया। वहाँ न द्विविधा थी न ही अनिश्चय का कुहासा। ज्ञान और मन की भीतरी पर्तों के स्पंदन से प्रेरित होकर उन्होंने जीवन को एक विशाल परिधि दी। उनके व्यक्तित्व के अनेक आयाम हैं। उनकी रचनात्मक प्रतिभा का विस्तार भी राहुलजी के गतिशील जीवन का ही प्रमाण है। उनके नाम के साथ जुडे हुए अनेक विशेषण हैं। शायद ही उनका नाम कभी बिना विशेषण के लिया गया हो। उनके नाम के साथ जुडे हुए कुछ शब्द हैं महापंडित, शब्द-शास्त्री, त्रिपिटकाचार्य, अन्वेषक, यायावर, कथाकार, निबंध-लेखक, आलोचक, कोशकार, अथक यात्री..... और भी जाने क्या-क्या। जो यात्रा उन्होंने अपने जीवन में की, वही यात्रा उनकी रचनाधार्मिता की भी यात्रा थी। राहुलजी को कृतियों की सूची बहुत लंबी है। उनके साहित्य को कई वर्गों में बाँटा जा सकता है। कथा साहित्य, जीवनी, पर्यटन, इतिहास दर्शन, भाषा-ज्ञान, भाषाविज्ञान, व्याकरण, कोश-निर्माण, लोकसाहित्य, पुरातत्व आदि। बहिर्जगत् की यात्राएँ और अंतर्मन के आंदोलनों का समन्वित रूप है राहुलजी का रचना-संसार। घुमक्कडी उनके बाल-जीवन से ही प्रारंभ हो गई और जिन काव्य-पंक्तियों से उन्होंने प्रेरणा ली, वे है ’’सैर कर दुनिया की गाफिल, जिंदगानी फिर कहाँ, जंदगानी गर रही तो, नौजवानी फिर कहाँ ?‘‘
राहुलजी जीवन-पर्यन्त दुनियाँ की सैर करते रहे। इस सैर में सुविधा-असुविधा का कोई प्रश्न ही नहीं था। जहाँ जो साधन उपलब्ध हुए उन्हें स्वीकार किया। वे अपने अनुभव और अध्ययन का दायरा बढाते रहे। ज्ञान के अगाध भण्डार थे राहुलजी। राहुलजी का कहना था कि ’उन्होंने ज्ञान को सफर में नाव की तरह लिया है। बोझ की तरह नहीं।‘ उन्हें विश्व पर्यटक का विशेषण भी दिया गया। उनकी घुमक्कडी प्रवृत्ति ने कहा ’’घुमक्कडों संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है।‘‘ अनेक ग्रंथों की रचना में उनके यात्रा-अनुभव प्रेरणा के बिंदु रहे हैं। न केवल देश में वरन् विदेशों में भी उन्होंने यात्राएँ की, दुर्गम पथ पार किए। इस वर्ग की कृतियों में कुछेक के नाम हैं- लद्दाख यात्रा, लंका यात्रा, तिब्बत में सवा वर्ष, एशिया के दुर्गम भूखण्डों में, मेरी यूरोप-यात्रा, दार्जिलिंग परिचय, नेपाल, कुमाऊँ जौनसार, देहरादून आदि। जहाँ भी वे गये वहाँ की भाषा और वहाँ की संस्कृति और साहित्य का गहराई से अध्ययन किया। अध्ययन से घुलमिल कर वहाँ की संस्कृति और साहित्य का गहराई से अध्ययन किया। अध्ययन की विस्तृति, अनेक भाषाओं का ज्ञान, घूमने की अद्भुत ललक, पुराने साहित्य की खोज, शोध-परक पैनी दृष्टि, समाजशास्त्र की अपनी अवधारणाएँ, प्राकृत-इतिहास की परख आदि वे बिंदु हैं जो राहुलजी की सोच में यायावरी में, विचारणा में और लेखन में गतिशीलता देते रहे। उनकी यात्राएँ केवल भूगोल की यात्रा नहीं है। यात्रा मन की है, अवचेतन की भी है चेतना के स्थानांतरण की है। व्यक्तिगत जीवन में भी कितने नाम रूप बदले इस रचनाधर्मी ने। बचपन में नाम मिला केदारनाथ पाण्डे, फिर वही बने दामोदर स्वामी, कहीं राहुल सांकृत्यायन, कहीं त्रिपिटकाचार्य..... आदि नामों के बीच से गुजरना उनके चिंतक का प्रमाण था। राहुल बाह्य यात्रा और अंतर्यात्रा के विरले प्रतीक हैं।
राहुल सांकृत्यायन का चित्र आरेखन।
ज्ञान की खोज में घूमते रहना राहुलजी की जीवनचर्या थी। उनकी दृष्टि सदैव विकास को खोजती थी। भाषा और साहित्य के संबंध में राहुलजी कहते हैं- ’’भाषा और साहित्य, धारा के रूप में चलता है फर्क इतना ही है कि नदी को हम देश की पृष्ठभूमि में देखते हैं जबकि भाषा देश और भूमि दोनों की पृष्ठभूमि को लिए आगे बढती है।..... कालक्रम के अनुसार देखने पर ही हमें उसका विकास अधिक सुस्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। ऋग्वेद से लेकर १९वीं सदी के अंत तक की गद्य धारा और काव्य धारा के संग्रहों की आवश्यकता है।‘‘
राहुलजी का पूरा जीवन साहित्य को समर्पित था। साहित्य-रचना के मार्ग को उन्होंने बहुत पहले से चुन लिया था। सत्यव्रत सिन्हा के शब्दों में - ’’वास्तविक बात तो यह है कि राहुलजी ने किशोरावस्था पार करने के बाद ही लिखना शुरू कर दिया था। जिस प्रकार उनके पाँव नहीं रुके उसी प्रकार उनके हाथ की लेखनी भी नहीं रुकी। उनकी लेखनी की अजस्रधारा से विभिन्न विषयों के प्रायः एक सौ पचास से अधिक ग्रंथ प्रणीत हुए।‘‘
राहुलजी के व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण पक्ष है-स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भागीदारी। भारत को आजादी मिले यह उनका सपना था और इस सपने को साकार करने के लिए वे असहयोग आंदोलन में निर्भय कूद पडे। शहीदों का बलिदान उन्हें भीतर तक झकझोरता था। उन्होंने अपने एक भाषण में कहा था- ’’चौरी-चौरा कांड में शहीद होने वालों का खून देश-माता का चंदन होगा।‘‘
राहुलजी के व्यक्तित्व में परहेज जैसी कोई संकीर्णता नहीं थी। विगत को जानना ओर उसमें पैठना, वर्तमान की चुनौती को समझना और समस्याओं से संघर्ष करना, भविष्य का स्वप्न सँवारना-यह राहुलजी की जीवन पद्धति थी। अतीत का अर्थ उनके लिए महज इतिहास को जानना नहीं था, वरन् प्रकृत इतिहास को भी समझना और जानना था। इतिहास का उन्होंने नये अर्थ में उपयोग किया। उनके शब्दों में, -’’जल्दी ही मुझे मालूम हो गया कि ऐतिहासिक उपन्यासों का लिखना मुझे हाथ में लेना चाहिए..... कारण यह कि अतीत के प्रगतिशील प्रयत्नों को सामने लाकर पाठकों के हृदय में आदर्शों के प्रति प्रेरणा पैदा की जा सकती है।‘‘ उनकी अनेक कृतियाँ जैसे, सतमी के बच्चे, जोंक, बोल्गा से गंगा, जययौधेय, सिंह सेनापति आदि इस बात के परिचायक हैं कि राहुलजी इतिहास, पुरातत्व, परंपरा, व्यतीत और अतीत को अपनी निजी विवेचना दे रहे थे। राहुलजी की इतिहास-दृष्टि विलक्षण थी। वे उसमें वर्तमान और भविष्य की कडयाँ जोडते थे। इतिहास उनके लिए केवल ’घटित‘ का विवरण नहीं था। उसमें से वे दार्शनिक चिंतन का आधार ढूँढते थे।
पूरे विश्व साहित्य के प्रति राहुलजी के मन में अपार श्रद्धा थी। वह साहित्य चाहे इतिहास से संबंधित हो, या संस्कृति से, अध्यात्म से संबंधित हो या यथार्थ से-सबको वे शोधार्थी की तरह परखते थे। उनकी प्रगतिशीलता में अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य को देखने का आग्रह था ओढी हुई विदेशी सभ्यता उनकी दृष्टि में हेय थी। वे अपनी भाषा, अपने साहित्य के पुजारी थे। वह साहित्य चाहे संस्कृत का हो, चाहे हिन्दी का, चाहे उर्दू का, चाहे भोजपुरी का। राष्ट्रीय चेतना के संदर्भ में वे कहते थे कि ’’यदि कोई ’’गंगा मइया‘‘ की जय बोलने के स्थान पर ’बोल्गा‘ की जय बोलने के लिए कहे, तो मैं इसे पागल का प्रलाप ही कहूँगा।‘‘
बोलियों और जनपदीय भाषा का सम्मान करना राहुलजी की स्वभावगत विशेषता थी। भोजपुरी उन्हें प्रिय थी। क्योंकि वह उनकी माटी की भाषा थी। लोक-नाट्य परंपरा को वे संस्कृति का वाहक मानते थे। लोकनाटक और लोकमंच किसी भी जनआंदोलन में अपनी सशक्त भूमिका निभाते हैं, यह दृष्टि राहुलजी की थी। इसीलिए उन्होंने भोजपुरी नाटकों की रचना की। इसमें उन्होंने अपना नाम ’’राहुल बाबा‘‘ दिया। सामाजिक विषमता के विरोध में इन नाटकों में और गीतों में अनेक स्थलों पर मार्मिक उक्तियाँ कही गई हैं। बेटा और बेटी के भेदभाव पर कही गई ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं- ’’एके माई बापता से एक ही उदवा में दूनों में जनमवाँ भइल रे पुरखवा, पूत के जनमवाँ में नाच और सोहर होला बैटी जनम धरे सोग रे पुरखवा।‘‘ भोजपुरी के इन नाटकों को वे वैचारिक धरातल पर लाए और जन-भाषा में सामाजिक बदलाव के स्वर को मुखरित किया। ज्ञान की इतनी तीव्र पिपासा और जन-चेतना के प्रति निष्ठा ने राहुलजी के व्यक्तित्व को इतना प्रभा-मंडल दिया कि उसे मापना किसी आलोचक की सामर्थ्य के परे है। इसके अलावा जो सबसे बडी विशेषता थी-की वह यह थी कि यश और प्रशंसा के ऊँचे शिखर पर पहुँचकर भी वे सहृदय मानव थे राहुलजी भाषात्मक एकता के पोषक थे। वह सांप्रदायिक सद्भाव के समर्थक थे। अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। वे हर भाषा और उसके साहित्य को महत्व ही नहीं देते थे, वरन् उसे अपनाने की बात कहते थे। हिन्दी के अनन्य प्रेमी होने के बावजूद वे उर्दू और फारसी के साहित्यकारों की कद्र करते थे, वे कहते हैं, ’’सौदा और आतिश हमारे हैं। गालिब और दाग हमारे हैं। निश्चय ही यदि हम उन्हें अस्वीकृत कर देते हैं तो संसार में कहीं और उन्हें अपना कहने वाला नहीं मिलेगा।‘‘
राहुलजी अद्भुत वक्ता थे। उनका भाषण प्रवाहपूर्ण और स्थायी प्रभाव डालने वाला होता था। एक बार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने राहुलजी की भाषण शक्ति की प्रशंसा करते हुए कहा था, ’’मैं गोष्ठियों, समारोहों, सम्मेलनों, में वैसे तो बेधडक बोलता हूँ लेकिन जिस सभा, सम्मेलन या गोष्ठी में महापंडत राहुल सांकृत्यायन होते हैं, वहाँ बोलने में सहमता हूँ। उनके व्यक्तित्व एवं अगाध विद्वत्ता के समक्ष अपने को बौना महसूस करता हूँ।‘‘ द्विवेदीजी का यह प्रशस्तिभाव इसलिए और भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि द्विवेदीजी स्वयं हिन्दी के असाधारण वक्ता और असाधारण विद्वान् थे। राहुलजी की कृतज्ञ भावना उनकी पुस्तक ’जिनका मैं कृतज्ञ‘ में देखने को मिलती है। इसके प्राक्कथन में उन्होंने लिखा है, ’’जिनका मैं कृतज्ञ‘‘ लिखकर उस ऋण से उऋण होना चाहता हूँ, जो इन बुजुर्गों और मित्रों का मेरे ऊपर है। उनमें से कितने ही इस संसार में नहीं हैं। वे इन पंक्तियों को नहीं देख सकते। इनमें सिर्फ वही नहीं हैं जिनसे मैंने मार्गदर्शन पाया था। बल्कि ऐसे भी पुरुष हैं जिनका संफ मानसिक संबल के रूप में जीवन यात्रा के रूप में हुआ। कितनो से बिना उनकी जानकारी, उनके व्यवहार और बर्ताव से मैंने बहुत कुछ सीखा। मनुष्य को कृतज्ञ होना चाहिए।‘‘
राहुलजी का व्यक्तित्व इतना बहुआयामी था कि उसको शब्दों की परिधि में बाँधना दुःसाध्य है। उनका अध्ययन और लेखन इतना विशाल है कि कई-कई शोधार्थी भी मिलकर कार्य करें तो भी श्रम और समय की कोई एक सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती। प्रवाहपूर्ण लेखनी और पैनी दृष्टि से वे ऐसे रचनाधर्मी थे, जिसने अपने जीवनकाल में ही यश के ऊँचे शिखर छू लिए थे। राहुलजी शब्द-सामर्थ्य और सार्थक-अभिव्यक्ति के मूर्तिमान रूप थे।

हिन्दी प्रेम

राहुल सांकृत्यायन द्वारा हिन्दी की बात उनकी अपनी कलम से।
हिन्दी को राहुलजी ने बहुत प्यार दिया। उन्हीं के अपने शब्द है, ’’मैंने नाम बदला, वेशभूषा बदली, खान-पान बदला, संप्रदाय बदला लेकिन हिन्दी के संबंध में मैंने विचारों में कोई परिवर्तन नहीं किया।‘‘ राहुलजी के विचार आज बेहद प्रासंगिक हैं। उनकी उक्तियाँ सूत्र-रूप में हमारा मार्गदर्शन करती हैं। हिन्दी को खड़ी बोली का नाम भी राहुल जी ने ही दिया था।
हिन्दी के प्रसंग में वह कहते हैं:
हिंदी, अंग्रेजी के बाद दुनिया के अधिक संख्यावाले लोगों की भाषा है । इसका साहित्य ७५० इसवी से शुरू होता है, और सरहपा, कन्हापा, गोरखनाथ, चन्द्र, कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, बिहारी, हरिश्चंद्र, जैसे कवि और लल्लूलाल, प्रेमचंद जैसे प्रलेखक दिए हैं इसका भविष्य अत्यंत उज्जवल, भूत से भी अधिक प्रशस्त है। हिंदी भाषी लोग भूत से ही नहीं आज भी सब से अधिक प्रवास निरत जाति हैं । गायना (दक्षिण अमेरिका ), फिजी, मर्शेस, दक्षिण अफ्रीका, तक लाखों की संख्या में आज भी हिंदी भाषा भाषी फैले हुए हैं ।

[संपादित करें] पुरस्कार व सम्मान

राहुल सांकृत्यायन पर जारी डाक टिकट।
राहुल सांकृत्यायन की स्मृति में भारतीय डाकतार विभाग की ओर से १९९३ में उनकी जन्मशती के अवसर पर १०० पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया गया। पटना में राहुल सांकृत्यायन साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है। यहाँ उनसे संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय भी है। उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के पंदहा गाँव में राहुल सांकृत्यायन साहित्य संग्रहालय की स्थापना की गई है, जहाँ उनका जन्म हुआ था। वहाँ उनकी एक वक्षप्रतिमा भी है। साहित्यकार प्रभाकर मावचे ने राहुलजी की जीवनी लिखी है और उनके व्यक्तित्व के उस हिस्से को उजागर किया है, जिससे लोग अनभिज्ञ थे। यह पुस्तक १९७८ में पहली बार प्रकाशित हुई थी। इसका अनुवाद अँग्रेज़ी, रूसी आदि अनेक विदेशी भाषाओं में भी प्रकाशित हुआ। राहुलजी की कई पुस्तकों के अंग्रेज़ी रूपांतर तो हुए ही हैं, चीनी, रूसी आदि अनेक विदेशी भाषाओं में भी उनकी कृतियां लोकप्रिय हुई हैं। उन्हें १९५८ में साहित्य अकादमी पुरस्कार, तथा १९६३ में भारत सरकार के पद्मभूषण अलंकरण से विभूषित किया गया।

राहुल का संघर्ष (पुस्तक)

महापंडित राहुल सांकृत्यायन को लेकर समय-समय पर काफी लिखा जाता रहा है। फलस्वरूप पढ़ने की दृष्टि से उन पर पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है, किंतु श्रीनिवास शर्मा की पुस्तक 'राहुल का संघर्ष' एक पृथक कोण पर केंद्रित है। यह कोण है राहुलजी के जीवन एवं कार्यों में अविच्छिन्न संघर्ष की धारा का प्रवाहमान रहना।
पुस्तक में लेखक के अठारह (उपसंहार सहित) निबंध संकलित हैं। इनमें प्रथम चार का संबंध राहुलजी की कुल परंपरा, उनके माता-पिता, उनके प्रथम विवाह एवं उनके किशोर मन में मौजूद अस्वीकार एवं विद्रोह की मुद्रा से है। आगे आने वाले निबंधों में उनके घुमक्कड़ स्वभाव, भाषा, साहित्य तथा ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में उनकी खोजों एवं उपलब्धियों, बौद्ध धर्म तथा दर्शन के प्रति उनके झुकाव तथा दीक्षा, मार्क्सवाद, किसान आंदोलन आदि को लेकर व्यापक चर्चा हुई है।
निबंध क्रमांक चौदह-पंद्रह में राष्ट्रभाषा एवं जनपदीय भाषाओं के बारे में उनके विचार हैं। अंत के निबंधों में उनकी इतिहास दृष्टि तथा रचनाओं की संक्षिप्त रूपरेखा को विषयवस्तु बनाया गया है। पुस्तक रोचक बन पड़ी है। निबंधों में राहुलजी से संबंधित अनेक अनछुए पहलू भी सामने आए हैं।

[संपादित करें] साहित्यिक कृतियां

कहानियाँ

  • सतमी के बच्चे
  • वोल्गा से गंगा
  • बहुरंगी मधुपुरी
  • कनैला की कथा

उपन्यास

  • बाईसवीं सदी
  • जीने के लिए
  • सिंह सेनापति
  • जय यौधेय
  • भागो नहीं, दुनिया को बदलो
  • मधुर स्वप्न
  • राजस्थान निवास
  • विस्मृत यात्री
  • दिवोदास

आत्मकथा

  • मेरी जीवन यात्रा

जीवनियाँ

  • सरदार पृथ्वीसिंह
  • नए भारत के नए नेता
  • बचपन की स्मृतियाँ
  • अतीत से वर्तमान
  • स्तालिन
  • लेनिन
  • कार्ल मार्क्स
  • माओ-त्से-तुंग
  • घुमक्कड़ स्वामी
  • मेरे असहयोग के साथी
  • जिनका मैं कृतज्ञ
  • वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली
  • सिंहल घुमक्कड़ जयवर्धन
  • कप्तान लाल
  • सिंहल के वीर पुरुष
  • महामानव बुद्ध

यात्रा साहित्य

  • लंका
  • जापान
  • इरान
  • किन्नर देश की ओर
  • चीन में क्या देखा
  • मेरी लद्दाख यात्रा
  • मेरी तिब्बत यात्रा
  • तिब्बत में सवा बर्ष
  • रूस में पच्चीस मास

बाहरी कड़ियां