शनिवार, 4 जून 2011

स्वयंभू युगपुरुष

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मेरी स्वरचित कविता

स्वयंभू युगपुरुष
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थर्मोकोल सी बस्तियों में
था जिन्दा लाशों का मरघट
विलाप करती वीणावादिनी के
श्वेत रंग पुते कुछ काले कपूत

कई रंगे सियारों की हुआ-हुआ
चीखते रहे वे स्तब्ध साधक
देख गुलाबों के भेस में केक्ट्स
रक्तिम शब्द और भावनाएं याचक

तभी बेखबर रेत में सर धंसाये
बीच अचानक उन शतुरमुर्गों के
कुकुरमुत्ते की तरह उग आया
एक स्वयंभू महापुरुष

तारसप्तक में गूंजने लगा
स्वनामधन्यों का श्वान विलाप
अभिशप्त सर्जकों पर होने लगा
स्वयंभू युगपुरुष का अट्टहास

नहीं पर अभी बाकी रहा था
वीणा वादिनी का एक अभिशाप
बढ़ने लगा अक्षरों का कोलाहल जब
आँखें तरेरी वैचारिक क्रांति ने तब

अभ्शाप की कोख ने जना आन्दोलन
हुआ ज्ञान तंतुओं का समुद्रमंथन
मिटटी बन गए सारे युगपुरुष
और खिलने लगे सत्यसर्जक पुष्प



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1 टिप्पणी:

  1. कई रंगे सियारों की हुआ-हुआ
    चीखते रहे वे स्तब्ध साधक
    देख गुलाबों के भेस में केक्ट्स
    रक्तिम शब्द और भावनाएं याचक

    आद . किशोर जी आपकी कलम में में शब्दों को पिरोने का अद्भुत सामर्थ है ...
    लाजवाब .....
    एक सशक्त कविता ....

    जवाब देंहटाएं