दारू-शारू.... मुर्गा-शुर्गा...हा ..हा.. ही.. ही.. और ढेर सारी मस्ती.अमूमन जंगल जाने का मकसद भी यही हुआ करता है.और कुछ नहीं तो बकर ... का अनवरत दौर जो जहाँ चार यार मिल जाएँ वहां ... हुआ तो अल्सुब्बह तक चलता रहता है.लेकिन मुझे याद है एक बार मैं जब जंगल गया था वह भी पचमढ़ी की खूबसूरत वादियों में जमीन पर बिछी हरी घांस की चादर पर लेटा हुआ ऊपर आसमान की नीली छतरी को निहारते हुए ,कब आँख लगी पता ही न चला.और मेरे बाकी दोस्त ... वे सब वही कर रहे थे जिसका जिक्र मैं इस लेख की पहली लाइन में कर चुका हूँ.
बेहद निराश था में उस रोज.तय कर लिया था कि छुटकारा पा लूँगा.नौकरी छोड़ दूंगा... रिश्ते- नाते भगवान्-श्ग्वान ...यहाँ तक की ज़िन्दगी से भी ऊब हो चुकी थी.ठंडी हवा बह रही थी और मन सोच रहा था कि काश!धरती पर सच्ची-मुच्ची में अगर भगवान्- शगवान है तब उससे एक बात तो बातचीत हो जाती!इतने में वीणा की मधुर तान गूंजी-
नारायण...नारायण...नारायण...नारायण...
देखा तो देवर्षि नारद मेरे सामने खड़े हैं.आपने भी कहानी-किस्सों में सुना होगा कि उनकी महिमा अपरम्पार है.मन के भीतर की बातों को बिना बोले ही ताड़ जाते हैं." प्रणाम देवर्षि!" एकाएक उन्हें सामने पाकर भौचक स्थिति मैं मेरा मुंह खुला का खुला रह गया था.
"टनाटन रहो मेरे दोस्त !"देवर्षि की न्यू जनरेशन बोली ने मुझे कुछ और हैरत मैं ड़ाल दिया.सोच परिवर्तन सृष्टि का नियम है : हम सब लोग जब परिवर्तन के दौर से गुजर रहे हैं तब देवर्षि इससे बच जाये यह कैसे मुमकिन है?खैर चलते-चलते मैंने भी अपने मन के भीतर का भड़ास डाट काम खोलकर देवर्षि के सामने उसी तरह अपना जी हल्का कर लिया जैसे खांटी रोनहा टाईप लोग अपने बॉस के आने पर किया करते हैं.
वैसे भी देवर्षि नारद सभी तरह की विश्वसनीय सलाह देने का एकमात्र स्थान हैं.मैंने अपना दुखड़ा रोते हुए उनसे कहा था," देवर्षि! इतना सब सुनने के बाद आप क्या एक भी कारण बता सकते हैं कि मैं सब कुछ छोड़-छाड़ कर कहीं चल न जाऊं!"इस पर देवर्षी नारद ने मुझे जो गुरुमंत्र दिया वह(अपने कान मेरे पास लाइए) आपके कानों मैं भी फूंक देता हूँ-
" अखबार नवीस ! आसपास जरा गौर से देखो"-देवर्षि ने मुझसे कहा." यहाँ तो चारों ओर पर्णांग( फर्न)और बांस का जंगल हैं." मैंने चारों और नजरें दौड़ते हुए कहा ." तुम जानते हो जब पर्णांग और बांस के बीज लगाये गए थे धरती पर ,प्रकृति या ईश्वर ने उनकी पूरी तरह देखभाल की.सूरज( प्रतीक ईश्वर )ने उन्हें रोशनी दी.. पानी दिया.और फर्न के बीज तत्काल धरती का सीना चीरकर अंकुरित हो गए.वो देखो! फर्न की चमकीली हरी चटाई कैसे पसरी हुई है !लेकिन बांस के बीज से कुछ नहीं निकला .बांस के बीज से आशा नहीं छोड़ी थी प्रकृति ने.!"
दूसरे बरस फर्न काफी घना और जीवंत हो चुका था फिर भी बांस का बीज निरुत्तर था.ईश्वर या प्रकृति ने बांस के बीज से अब भी आशा नहीं छोड़ी थी.देवर्षि ने अपना कथन जारी रखा,"तीसरे बरस भी बांस का बीज पूरी तरह खामोश रहा.लेकिन आशा मन में कायम थी.चौथे बरस भी यही हाल रहा.अब भी बरकरार था आशा पर विशवास.
" पांचवे बरस धरती के भीतर से बांस के बीज ने अंकुर उभारा." देवर्षि का किस्सा रोचक मोड़ पर था. वे कहने लगे,"पर्णांग या फर्न की तुलना में यह अंकुर एकदम नन्हा और प्रभावहीन था.लेकिन छः महीने के बाद बांस का बीज जमीन से सत्तर फीट ऊंचाई पर खड़ा था.पांच बरस तक उसकी जड़ें जमीन में गहराती जा रही थीं.उन जड़ों ने बांस को मजबूती और लम्बे समय तक जीने की अंदरूनी ताकत दी.
नारायण ..नारायण..नारायण..नारायण..
देवर्षि नारद ने मेरे चेहरे पर भकुआया भाव देखकर अपने बोल-बचन फिर शुरू किये.,"कुछ समझे अखबार नवीस!प्रकृति या ईश्वर अपनी रचनाओं को कभी ऐसी चुनौतियों से जूझने को विवश नहीं करती जो वे संभल न सकें." तुम जानते हो,जब तक तुम अपनी जिंदगी मैं संघर्ष कर रहे होते हो ,दरअसल तुम्हारी जड़ें जमीन में गहराई तक धंसती चली जाती हैं जिस तरह बांस के बीज से आशा अंतिम समय तक रही तुमसे भी भरोसा कैसे छोड़ा जा सकता है?बाकी लोगों से अपनी तुलना करना छोड़ दो."
" मेरे कहने का मतलब यह है कि " देवर्षि ने बात को स्पष्ट करते हुए कहा "पर्णांग या फर्न का प्रयोजन अलग है और बांस की महत्ता अलहदा .फिर भी दोनों ही मिलकर जंगल को खूबसूरत बनाते हैं.
" लेकिन देवर्षि! मेरी समस्याएँ जो अपनी जगह पर हैं उनका क्या?" मैंने सारी समझाइश को अपनी परेशानियों के और करीब लाना चाहा." अखबार नवीस!बस यही तो मैं तुमसे कहना चाहता हूँ" देवर्षि नारद बोल-बचन के अंतिम दौर में थे." तुम्हारा भी समय जरूर आएगा.... ईश्वर ( सुप्रीम पावर) ने मुझसे कहा है ... तुम्हारे भी दिन बदलेंगे और नई ऊंचाइयां हासिल होंगी."
"देवर्षि ...किस ऊंचाई तक पहुँच सकूंगा में" मैंने पूछा." किस ऊंचाई तक पहुँचता है बांस!" देवर्षि ने प्रतिप्रश्न किया."जितनी मेहनत और लक्ष्य होगा."" हाँ! बिलकुल ठीक." ऊंचाई और सफलता हासिल कर तुम मुझे गर्व करने का अवसर देना" देवर्षि ने इतना कहा और वे अंतर्धान हो गए.हवा में गूंजने लगी वीणा की तान और देवर्षि के ये शब्द.-
नारायण...नारायण...नारायण...नारायण...
" अबे जल्दी उठ!!!साले... जल्दी घर लौटना है या नहीं?"मेरे बाकी दोस्त ढूंढते हुए पहुंचे और झकझोर कर जगाया.मुस्कुराते हुए में जंगल से घर की और लौटता हूँ अपने दोस्तों के साथ ..आज भी अक्सर मुझे दिखाई दे जाते हैं वही आसमान छूते बांस और फर्न की पसरी हुई हरी चटाई!!!
आज बस इतना ही.
अपना ख्याल रखिये
किशोर दिवसे
आज बस इतना ही.
अपना ख्याल रखिये
किशोर दिवसे
2:11 am
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