बात अगर किसी आशिक की हो तो आरजू का अंदाज बड़ा रूमानी हो जाता है.देखते ही अपनी माशूका को वह कैसे तलबगार हो तो जाता है इसकी बानगी देखिये-
तुझसे मिले न थे तो कोई आरजू न थी
देखा तुझे तो तेरे तलबगार हो गए
ये तो हुई किसी की तलब के लिए छटपटाहट.किसी टूटे दिल की आरजू होती है कि उसकी माशूका या आशिक खुद साहिल पे होते और कश्ती भी वहीँ पर डूबती .यह भी एक तमन्ना है कि आरजू भी खामोश हो गई.लिखने से पहले ही ख़त का कागज भीग गया जिसे कलम गुमसुम होकर देखने लगी.
भला ख्वाहिश के बगैर दिल भी बना करते हैं?नेता का दिल हो तो कुर्सी की ख्वाहिश करेगा...कलाकार किसी फिल्म की...खिलाडी किसी जीत की...किसी का दिल अगर दागदार हो जाये तो वह धड़ककर हसरतों से बहादुर शाह जफ़र की जुबान में यूं कहने लगता है-
इन हसरतों से कह दो कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दागदार में
दिल के साथ दिमाग को भी दागदार बना दिया है भ्रष्टाचार ने.सवाल ये है कि जनता कब ख्वाहिश रखेगी ऐसों को जमींदोज करने की ?खैर... हसरतों और तमन्नाओं से भी कभी शिकायतें होने लगती हैं.ये शिकायतें उस समय और भी दहकने लगती हैं जब चाहने वाला वही मांगता है जो उसके मुकद्दर में नहीं होता.मुकद्दर की बात पर गौर करने से पहले एक बार जरूर गाँठ बाँध लीजिये तमन्ना या हसरत रखेंगे तो आग का दरिया फलांगना होगा.अच्छी नौकरी या करियर की ख्वाहिश है तब अंगारों पर चलना होगा.राह कठिन संघर्ष की होगी तब ये मत कहने कि पाँव जलते हैं ... आरजू लेकर घरसे निकलते ही क्यों हो?और हाँ!ख्वाहिश एक नहीं होती बल्कि एक के बाद एक कर सिलसिला बन जाती हैं.
हजारों ख्वाहिशें आकर घेर लेती हैं.खास तौर पर मिडिल क्लास के साथ तो ऐसा ही होता है.आरजुओं के समंदर में उठता सैलाब कभी रुकता भी है?इन्ही आरजुओं ने सैकड़ों हंगामों के बावजूद जिंदगी को तनहा बना रखा है .शायर इकबाल सफीपुरी ने कहा है-
आरजू भी हसरत भी दर्द भी मसर्रत भी
सैकड़ों हैं हंगामे ,जिन्दगी मगर तनहा
जिंदगी अगर तनहा है तो खूबसूरत बनाने की ख्वाहिश क्यों नहीं रखते?लेकिन इसके लिए खुद को कई मायनों में वफादार बनाना होगा.वफादारी अगर अपने मादरे वतन के लिए है तब देशप्रेमी सिपाही मौत के आखिरी पल में भी यही आरजू मन में बसाए रखता है ,"रख दे कोई जरा सी ख़ाक-ए -कफन में "
चुनाव के वक्त नेताओं को वोटों की आरजू तो सुविधाओं के अभाव में जनता को तकलीफें दूर होने की ख्वाहिश .अस्पताल में भर्ती मरीज को जिन्दा घर लौटने की हसरत ( यदि सरकारी अस्पताल हो तो और भी ज्यादा).मेहंदी रचे हाथों को उसके प्रियतम के दीदार की ख्वाहिश.कुछ ख्वाहिशें ऐसी भी होती हैं कि हर ख्वाहिश का दम निकल देती हैं.मिर्जा ग़ालिब का शेर है-
हजारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
अरमानों का शिखर ही कहीं महत्वाकांक्षा या उच्चाकांक्षा तो नहीं!अगर ऐसा है तो इस आकांक्षा का लक्ष्य फतह करने टुकड़ों -टुकड़ों में हासिल होती मंजिल के सामने भी कभी थककर मत बैठिये.हसरतों और मंजिलों के मुसाफिर अगर अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करना चाहते हैं तब लगातार चलते रहिये.बच्चे... नौजवान...बूढ़े... उम्र के हर मोड़ पर हसरतों और आरजुओं से लिपटे कई सपने होते हैं .और इन सपनों को साकार करने या ख्वाहिशों को हकीकत के आईने में उतारने चाहे कितनी भी मुसीबतों में गिरफ्तार हों तमन्ना और आरजू से भरे सपने देखिये और पूरा करने की कोशिश कीजिए.राह की कठिनाइयाँ खौफजदा करेंगी ... असफलता भूतिया चेहरों से डराएंगी,लेकिन अरमानो की आंच जलाये रखिये.कांटो पर चलकर ही पूरे होते हैं बहारों के सपने .हसरत.. आरजू..तमन्ना...और ख्वाहिश के सुनहरे सपने ,जो हम जागती आँखों से देखा करते हैं.
अपना ख्याल रखिये...प्यार सहित
किशोर दिवसे
3:20 am
नेक नसीहत.
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