बुधवार, 29 जून 2011

अपनी ही साँसों का कैदी, रेशम का यह शायर

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शहतूत की शाख पे बैठा कोई                                                              
बुनता है रेशम के तागे 
लम्हा-लम्हा खोल रहा है, पत्ता-पत्ता बीन रहा है 
एक-एक सांस बजाकर सुनता है सौदाई
एक-एक सांस को खोल के ,अपने तन पे लिपटाता जाता है
अपनी ही साँसों का कैदी  रेशम का यह शायर एक दिन
अपने दी तागों में घुटकर मर जायेगा
                      शहतूत  की पत्तियों पर बैठे हरे रंग के कीड़े को रेशमी शायरी ओढाने की अद्भुत  कल्पना सिर्फ गुलजार के बस की ही बात  हो सकती है शायद किसी और की  नहीं.रेशम का एक हसीन शायर कहकर शाह्तूती कीड़े को जो इज्जत बक्षी है गुलजार ने उसका अंदाज रेशम विभाग के किसी अफसर ने सपने में भी  सोचा होगा ऐसा नहीं लगता.बिलकुल आसान  नहीं था रेशम बुनने वाले इस अदने से जीव की शब्दों के पवित्र फूलों से सारी जिन्दगी संवार देना.
                           यों तो जिन्दगी का फलसफा जड़-चेतन वस्तुएं ,भूख-प्यास ,प्रेम,ईर्ष्या,मौसम,नजर ,समंदर,रोजा,आग,इंसान,कासिद,तन्हाई,कलाम,हिचकी,जुर्म,अखबार   युद्ध,नेता,सियासत और ऐसे ही अनगिनत विषयों पर कवियों और शायरों ने खूब लिखा है .. लिखते ही रहते है.फिर भी कीड़े -मकोड़ों ,जानवरों या प्राणी जगत पर रचनाएं अपेक्षाकृत  कम ही देखने -पढने को मिलती हैं.हिंदी के कवियों ने जीव-जंतुओं पर काफी कलम चलाई है लेकिन अंग्रेजी के साहित्यकारों ने प्राणी जगत को पंखिल शब्दों  के जादू से जो करिश्माई और गगनचुम्बी ऊंचाई दी है वह सचमुच कमाल की है.
                  किसी भी जंतु अथवा प्राणी की आकृति और चरित्र को यथार्थ और फंतासी के दोहरे नजरिये से महसूस कर कवितायेँ रचना कमाल का हुनर  है.अंग्रेजी कविताओं के अनुवाद इस करिश्मे का साक्ष्य हैं.
                " मैंने नहीं देखी होती वह पगडण्डी                     
               सफ़ेद पतली और चमकीली
              कभी न कर पाता कल्पना मैं
               धीमी पर निश्चित प्रगति के लिए
                 घोंघे के उस मंथर उन्माद की
                हरी चादर पर रेंगता है एक घोंघा
    घोंघे पर थोमस गन की यह कविता जीवंत चित्रण करने में सक्षम है.एडवर्ड थोमस ने उल्लू पर  लिखा है -
                  

                      निस्तब्ध निशा का वह सन्नाटा 
                     जिसे चीरती  थी कर्कश चीख 
                      उलूक ध्वनी थी कितनी अवसाद भरी 
                     लम्बी चीख पहाड़ी पर गूंजती 
वाय.बी कीट्स ने शिशिर में वनों के राजहंस की कल्पना में प्रकृति का चित्रं करते समय लिखा है -
                 धवल पंखों की थिरकन/वह प्रणय नर्तन
                 हंस युगलों की जलक्रीडा 
               और उनका नया बसेरा
 टेड हग ने अपनी कविता हाक रूस्तिंग   में बाज के खौफ का जिस अंदाज में वर्णन किया है वह निम्न काव्यांश में स्पष्ट है-
                 " और उन्ही पंजों से जकड लिया है/
                   सृष्टि को मैंने
                  बांधे हैं मैंने मृत्यु दंड के आदेश
                  वृहत वर्तुलों के अपने यम् पाशों  से 
                  जब जिस पर चाहूँ देता हूँ फेंक
 रहस्यवाद  के आवरण में पीटर पोर्टर ने  बिल्ली पर कल्पना की है कि  वे पतनोंमुखी समाज में पूजित रहीं.वे बैठकर मूत्र विसर्जन करती है और जुगुप्सा भरी है उनकी प्रणय-आराधना.दी .एन. लारेंस ने भी पहाड़ी सिंह पर  लिखी कविता में मानव समाज की और से प्राणी जगत में होने वाले अतिक्रमण की पराकाष्ठा का चित्रण किया 
है.
                    इंसान अधिकारी है खुलेपन का
                     और हम सिमटे है घाटी के धुंधलके में!
घाटी के धुंधलके से लौटते हैं हम अपने घरों में जहाँ हम परेशां हैं मच्छरों से.डेविड हर्बर्ट लारेंस की कविता  में पारभासी पिशाच के   रक्त शोषी चरित्र  से आप  दंशित  हो चुके हैं.विस्तृत कविता  में उल्लिखित बिम्ब और प्रतिमान अद्भुत हैं.अल्फ्रेस लार्ड टेनिन्सन ने उकाब ( ईगल) का वर्णन करते हुए लिखा है-
                 तीक्ष्ण दृष्टि है उसकी शिकार के पीछे
                 झपटता है वह बिजली बनकर नीचे
अपने प्रेमगीतों के लिए मशहूर पर्सी बायसी शैली की लिखी कविता " टू द विडो बर्ड " के काव्यांश  देखिये-
                 बिछड़ी माशूका के गम में मायूस था 
                विरह से व्यथित एक विरही परिंदा
               बैठा था कांपती डाल के कोने पर 
                  गुमसुम यादों के हसीं हिंडोले पर 
हिंडोले से नीचे उतरकर कल्पना कीजिए विलियम कापर के उस खरगोश की जो चिर निद्रा में लीन है.कापर ने अपने शब्दों में दर्द इस तरह से उंडेला है-
                अब अखरोट की छाया तले है 
                 उसका बसेरा ,चिरनिद्रा में लीन
                 मानो  खामोश करता है प्रतीक्षा 
               मेरे पुचकारने की!!!!
पुचकारते हुए शब्दों को वितर बायनर ने सरपट दौड़ते हुए अश्व की अनावृत्त पीठ कहा है." हार्सेस "नामक कविता में शब्दों के लिए अश्व का अद्भुत प्रतीकात्मक उपयोग किया गया है.
               काव्यधारा में वनचरों की आकृति ,चारित्रिक एवं व्यवहारगत विशेषताएं रचना धर्मियों  के लिए प्रेरक हैं.वनचरों को दर्शन से जोड़ने की महारत एक तरह से नए रचनाकारों को उत्तेजित और उकसाती हुई लगनी चाहिए..हिंदी-अंग्रेजी कविताओं के अलावा शायरियों में भी कीट-पतंगे को परवाने की शक्ल में अक्सर याद किया गया है गौर कीजिए-
                    इक मुअम्मा है समझने का न समझाने का
                   जलती है शम्मा मगर नाम है परवाने का
परवाने की बात छोडिये सांप को प्रतीक बनाकर चंदन और दोस्त के साथ अनेकों बार वाहवाही लूटी गई है.कबूतर और जुगनू भी फिल्मी गीतकारों के अजीज रहे है .फिल्मी गीत कबूतर जा  जा  जा और राहत इन्दौरी की यह बात कभी-कभी आपके मन को भी जगमगाती होगी-
                 लाख सूरज से दोस्ताना  रखो 
                चंद जुगनू भी पाल रखा करो 
जुगनुओं की झिलमिल के बीच एक बार  फिर मुझे काव्यधारा में प्रकृति चित्रण के अद्भुत रचयिता विलियम वर्डस्वर्थ की एक कविता " टू द  कक्कू "की याद आ रही है .उनके कूकते हुए शब्दों ने अपनी भावनाएं  कुछ इस तरह से व्यक्त की हैं-
                   ओ ऋतुराज वसंत की प्रियतमा 
                   ओ वसंत दूत ,ओ ऋतू अंकशायिनी
                       अब भी मैं सुनता हूँ वह कूक
                         मदनिका कोयल का रति उन्माद
                    स्मृतियों की इन आम्र मंजरियों से 
                 झंकृत होते है हृदय वीणा के तार 
                                                                                        किशोर दिवसे
( अंग्रेजी से अनुदित कुछेक कविताओ के अंशों पर आधारित)
                     

                
                    
       
                
                            
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