गुरुवार, 30 जून 2011

डाक्टर्स डे पर सभी डाक्टरों को बधाई

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डाक्टर्स डे आज जुलाई की पहली तारीख को है. सभी डाक्टरों को बधाई .साथ ही यह आव्हान भी की वे यह सोचें की मरीजों के साथ उनके भावनात्मक  सम्बन्ध कितने रह गए है. मेडीकल ज्यूरिसप्रूडेंस  में Doctor -Patient bonding  का विस्तृत उल्लेख किया गया है. फिल्म मुन्ना भाई एमबीबी एस  में डीन का यह कहना " मैं मरीज से कभी प्यार नहीं करता. -आखिर क्या दर्शाता है? 
                  अस्पतालों की क्या हालत है? सरकारी डाक्टर और निजी प्रेक्टिस का विवाद जारी है.शासकीय अस्पताल अभी तक सुविधाओं के आभाव से जूझ  रहे है. क्या डाक्टरों की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं? प्रोफेशनल होने का क्या यह मतलब होता है की इंसानियत को ताक़ पर रख दिया जाये? इन्डियन मेडिकल एसोसियेशन पूरी तरह निष्क्रिय है? झोला छाप डाक्टरों के विज्ञापन अखबारों में छप रहे है. चिकित्सकीय सुविधाएँ पर्याप्त हैं या नहीं इसे कोई भी नहीं देख रहा है.
                               Medical representative  और डाक्टरों के बिजनेस रिश्ते मरीजों की जेब पर डाका डाल रहे है.दवाइयों की कीमतें अनाप-शनाप वसूली जा रही हैं .जेनेरिक दवाइयों और मल्टीनेशनल कंपनियों की दवाओं में कुश्तियां जारी हैं .मार्जिन २००-३०० फीसदी खींच रही हैं  कम्पनियाँ. कोई  देखनेवाला नहीं.
                 छत्तीसगढ़ का हाल  देखिये. रायपुर ,बिलासपुर, जगदलपुर मेडिकल कालेज और अस्पतालों में पिछले तीन महीनों से दवाइयाँ नहीं हैं. करोड़ों का बजट है पर दवा नहीं खरीदी जा रही है. मरीज परेशान है,वे भाड़ में जाएँ किसी को क्या फरक पड़ता है? स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल कहते हैं की हम पता लगाते है... बहरहाल डाक्टरों को अपने पेशे में पारदर्शिता बरतनी चाहिए. पैसा तो जरूर कमायें पर कुछ नैतिकता बचाकर रखें. डाक्टर्स डे पर उन्हें हार्दिक बधाइयाँ....
                                                               किशोर दिवसे 

बुधवार, 29 जून 2011

अपनी ही साँसों का कैदी, रेशम का यह शायर

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शहतूत की शाख पे बैठा कोई                                                              
बुनता है रेशम के तागे 
लम्हा-लम्हा खोल रहा है, पत्ता-पत्ता बीन रहा है 
एक-एक सांस बजाकर सुनता है सौदाई
एक-एक सांस को खोल के ,अपने तन पे लिपटाता जाता है
अपनी ही साँसों का कैदी  रेशम का यह शायर एक दिन
अपने दी तागों में घुटकर मर जायेगा
                      शहतूत  की पत्तियों पर बैठे हरे रंग के कीड़े को रेशमी शायरी ओढाने की अद्भुत  कल्पना सिर्फ गुलजार के बस की ही बात  हो सकती है शायद किसी और की  नहीं.रेशम का एक हसीन शायर कहकर शाह्तूती कीड़े को जो इज्जत बक्षी है गुलजार ने उसका अंदाज रेशम विभाग के किसी अफसर ने सपने में भी  सोचा होगा ऐसा नहीं लगता.बिलकुल आसान  नहीं था रेशम बुनने वाले इस अदने से जीव की शब्दों के पवित्र फूलों से सारी जिन्दगी संवार देना.
                           यों तो जिन्दगी का फलसफा जड़-चेतन वस्तुएं ,भूख-प्यास ,प्रेम,ईर्ष्या,मौसम,नजर ,समंदर,रोजा,आग,इंसान,कासिद,तन्हाई,कलाम,हिचकी,जुर्म,अखबार   युद्ध,नेता,सियासत और ऐसे ही अनगिनत विषयों पर कवियों और शायरों ने खूब लिखा है .. लिखते ही रहते है.फिर भी कीड़े -मकोड़ों ,जानवरों या प्राणी जगत पर रचनाएं अपेक्षाकृत  कम ही देखने -पढने को मिलती हैं.हिंदी के कवियों ने जीव-जंतुओं पर काफी कलम चलाई है लेकिन अंग्रेजी के साहित्यकारों ने प्राणी जगत को पंखिल शब्दों  के जादू से जो करिश्माई और गगनचुम्बी ऊंचाई दी है वह सचमुच कमाल की है.
                  किसी भी जंतु अथवा प्राणी की आकृति और चरित्र को यथार्थ और फंतासी के दोहरे नजरिये से महसूस कर कवितायेँ रचना कमाल का हुनर  है.अंग्रेजी कविताओं के अनुवाद इस करिश्मे का साक्ष्य हैं.
                " मैंने नहीं देखी होती वह पगडण्डी                     
               सफ़ेद पतली और चमकीली
              कभी न कर पाता कल्पना मैं
               धीमी पर निश्चित प्रगति के लिए
                 घोंघे के उस मंथर उन्माद की
                हरी चादर पर रेंगता है एक घोंघा
    घोंघे पर थोमस गन की यह कविता जीवंत चित्रण करने में सक्षम है.एडवर्ड थोमस ने उल्लू पर  लिखा है -
                  

                      निस्तब्ध निशा का वह सन्नाटा 
                     जिसे चीरती  थी कर्कश चीख 
                      उलूक ध्वनी थी कितनी अवसाद भरी 
                     लम्बी चीख पहाड़ी पर गूंजती 
वाय.बी कीट्स ने शिशिर में वनों के राजहंस की कल्पना में प्रकृति का चित्रं करते समय लिखा है -
                 धवल पंखों की थिरकन/वह प्रणय नर्तन
                 हंस युगलों की जलक्रीडा 
               और उनका नया बसेरा
 टेड हग ने अपनी कविता हाक रूस्तिंग   में बाज के खौफ का जिस अंदाज में वर्णन किया है वह निम्न काव्यांश में स्पष्ट है-
                 " और उन्ही पंजों से जकड लिया है/
                   सृष्टि को मैंने
                  बांधे हैं मैंने मृत्यु दंड के आदेश
                  वृहत वर्तुलों के अपने यम् पाशों  से 
                  जब जिस पर चाहूँ देता हूँ फेंक
 रहस्यवाद  के आवरण में पीटर पोर्टर ने  बिल्ली पर कल्पना की है कि  वे पतनोंमुखी समाज में पूजित रहीं.वे बैठकर मूत्र विसर्जन करती है और जुगुप्सा भरी है उनकी प्रणय-आराधना.दी .एन. लारेंस ने भी पहाड़ी सिंह पर  लिखी कविता में मानव समाज की और से प्राणी जगत में होने वाले अतिक्रमण की पराकाष्ठा का चित्रण किया 
है.
                    इंसान अधिकारी है खुलेपन का
                     और हम सिमटे है घाटी के धुंधलके में!
घाटी के धुंधलके से लौटते हैं हम अपने घरों में जहाँ हम परेशां हैं मच्छरों से.डेविड हर्बर्ट लारेंस की कविता  में पारभासी पिशाच के   रक्त शोषी चरित्र  से आप  दंशित  हो चुके हैं.विस्तृत कविता  में उल्लिखित बिम्ब और प्रतिमान अद्भुत हैं.अल्फ्रेस लार्ड टेनिन्सन ने उकाब ( ईगल) का वर्णन करते हुए लिखा है-
                 तीक्ष्ण दृष्टि है उसकी शिकार के पीछे
                 झपटता है वह बिजली बनकर नीचे
अपने प्रेमगीतों के लिए मशहूर पर्सी बायसी शैली की लिखी कविता " टू द विडो बर्ड " के काव्यांश  देखिये-
                 बिछड़ी माशूका के गम में मायूस था 
                विरह से व्यथित एक विरही परिंदा
               बैठा था कांपती डाल के कोने पर 
                  गुमसुम यादों के हसीं हिंडोले पर 
हिंडोले से नीचे उतरकर कल्पना कीजिए विलियम कापर के उस खरगोश की जो चिर निद्रा में लीन है.कापर ने अपने शब्दों में दर्द इस तरह से उंडेला है-
                अब अखरोट की छाया तले है 
                 उसका बसेरा ,चिरनिद्रा में लीन
                 मानो  खामोश करता है प्रतीक्षा 
               मेरे पुचकारने की!!!!
पुचकारते हुए शब्दों को वितर बायनर ने सरपट दौड़ते हुए अश्व की अनावृत्त पीठ कहा है." हार्सेस "नामक कविता में शब्दों के लिए अश्व का अद्भुत प्रतीकात्मक उपयोग किया गया है.
               काव्यधारा में वनचरों की आकृति ,चारित्रिक एवं व्यवहारगत विशेषताएं रचना धर्मियों  के लिए प्रेरक हैं.वनचरों को दर्शन से जोड़ने की महारत एक तरह से नए रचनाकारों को उत्तेजित और उकसाती हुई लगनी चाहिए..हिंदी-अंग्रेजी कविताओं के अलावा शायरियों में भी कीट-पतंगे को परवाने की शक्ल में अक्सर याद किया गया है गौर कीजिए-
                    इक मुअम्मा है समझने का न समझाने का
                   जलती है शम्मा मगर नाम है परवाने का
परवाने की बात छोडिये सांप को प्रतीक बनाकर चंदन और दोस्त के साथ अनेकों बार वाहवाही लूटी गई है.कबूतर और जुगनू भी फिल्मी गीतकारों के अजीज रहे है .फिल्मी गीत कबूतर जा  जा  जा और राहत इन्दौरी की यह बात कभी-कभी आपके मन को भी जगमगाती होगी-
                 लाख सूरज से दोस्ताना  रखो 
                चंद जुगनू भी पाल रखा करो 
जुगनुओं की झिलमिल के बीच एक बार  फिर मुझे काव्यधारा में प्रकृति चित्रण के अद्भुत रचयिता विलियम वर्डस्वर्थ की एक कविता " टू द  कक्कू "की याद आ रही है .उनके कूकते हुए शब्दों ने अपनी भावनाएं  कुछ इस तरह से व्यक्त की हैं-
                   ओ ऋतुराज वसंत की प्रियतमा 
                   ओ वसंत दूत ,ओ ऋतू अंकशायिनी
                       अब भी मैं सुनता हूँ वह कूक
                         मदनिका कोयल का रति उन्माद
                    स्मृतियों की इन आम्र मंजरियों से 
                 झंकृत होते है हृदय वीणा के तार 
                                                                                        किशोर दिवसे
( अंग्रेजी से अनुदित कुछेक कविताओ के अंशों पर आधारित)
                     

                
                    
       
                
                            
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मंगलवार, 28 जून 2011

ख़ुशी का पैगाम कहीं . कहीं दर्दे जाम लाया .

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शायद इस बूढ़े बाप को मनी आर्डर भेजा हो बेटे ने..मेरा इंटरव्यू काल लेटर होना चाहिए...पप्पू  ने सोचा ... बलम परदेसिया को दुखियारी बिरहन की याद आई हो... उस भाभी का मन कह रहा था जिसके साजन नौकरी -धंधे की जुगत में दूर शहर में रहते हैं... और नजरें चुराकर चांदनी भी देखती है कहीं उसके चकोर ने गुलाबी खत भेजा हो! इधर  निपट देहातन बुढिया की सूनी नजरें भी तक रही है उसी को ...जी आकर चिट्ठी भी बांच देगा.और कोई नहीं वह शख्स जिसे हम कहते हैं पोस्टमैन या डाकिया.
                        अब तो शहर और गाँव के हाल-चाल  भी काफी बदल गए है. फिर भी कई गाँव-शहरों में कम ही सही वह दीखता है अक्सर.याद है पहले कितनी चिट्ठियां लिखा करते थे आप और हम!ख़ुशी और गम के कडवे -मीठे घूँट चिट्ठियां बांचते ही पीने पड़ते थे.मुस्कान और आंसू देने वाली ये इबारतें कभी लिफाफे के भीतर तो कभी अंतर्देशीय  और पोस्ट कार्ड पर.ज़माने की रफ़्तार ने ढेर सारे नए जरिये पैदा कर दिए . डाकिये भी हैं और उनका विकल्प भी हाई टेक युग में आना ही था.मोबाइल.. ए टी एम्  कूरियर से काम हो रहा है .फिर भी कभी -कभार कानों में गूँज जाती है एक आवाज जो बढा देती है हर किसी की धड़कन.
                          डाकिया डाक लाया,...डाकिया डाक लाया 
                          ख़ुशी का पैगाम  कहीं कहीं दर्दे जाम लाया 
याद है आपने पहली बार चिट्ठी कब लिखी थी?वही  डाकिया जो दरवाजे की सांकल या कालबेल बजाकर आवाज लगाता था -पोस्टमैन अब कितनी बार घर आता है?चिट्ठिया लिखना ही काम हो गया है तो मिलेंगी कहाँ से?अब तो चिट्ठी लिखने की आदत भी नहीं रही. लिखने को बैठो तो क्या लिखो  समझ में ही नहीं आता..  मोबाइल से सीधे बात  कर लो. 
                       सारे परिवार का हाल-चाल सुख-दुःख की बातें मान-मनुहार यानी भानमती का पिटारा हुआ करती थी चिट्ठियां.बच्चों को तो अब चिट्ठी लिखना भी नहीं आता. अपने ज़माने में लिखी चिट्ठियां  बच्चों को दिखाई थी उनका मुंह खुला का खुला रह गया था.स्कूल में छुट्टी की अप्लिकेशन लिखना भर आता है उन्हें.गाँव के लड़के लड़कियां तो गंवैया शायरियां लिखा करते थे.शहरी नौजवान तो मैसेज से काम चला लेते है  वो भी रूमानी और बिंदास टाइप के... और खुद को नहीं आता तो नेट पर जुगाड़ कर लीजिये.
                         खैर.. आप में से बहुतों को मालूम है चिट्ठियां लेने  -ले जाने वाला कासिद हुआ करता है.राजा-महाराजाओं के ज़माने में कबूतर भी कासिद हुआ करते थे.जो प्यार  के पैगाम ले जाते रहे..ऐसे ही आशिक राजकुमार के दीदार को तरसती माशूका ने एक ख़त लिखा और तड़पकर कासिद से कहा-
                            नामाबर,ख़त में मेरी आँख भी रखकर ले जा
                           क्या गया ख़त जो देखने वाली न गई!
खतों में गीत ,गजलें शायरियां लिखने का रिवाज भी खूब  चला था.दिल को छू लेने वाली चिट्ठियां लिखना भी एक कला है.पंडित नेहरू,महात्मा गाँधी,अब्राहम लिंकन ,अमृता प्रीतम के  लिखे ख़त ऐतिहासिक दस्तावेज हैं.चित्रकार  विन्सेंट वान गाग ,और उनके भाई थियो के पत्रों पर आधारित उपन्यास लस्ट फार लाइफ अद्भुत रचना है.पत्रों का अनोखा संसार है क्योंकि चिट्ठियां ऐसी पंखदार कासिद हैं जो पूरब से पश्चिम, तक प्यार की राजदूत बनकर जा सकती हैं.ऐसी ही एक चिट्ठी मोर्चे पर डटे जवान को मिलती है और खंदक में ही वह अपने दोस्तों के साथ एक गीत गाता है( फिल्म बार्डर)
                             संदेशे आते हैं,वो पूछे जाते हैकि तुम कब आओगे
                             कि घर कब आओगे,ये घर तुम बिन सूना  है....
  फिल्म पलकों की छांव में डाकिये की भूमिका में राजेश खन्ना ने पर्दे पर दिल  छू लेने वाला गीत गया था -डाकिया डाक लाया.. डाकिया लाया ...फिर ये मेरा प्रेम पात्र पढ़ के ...और ख़त लिख दे सांवरिया के  नाम बाबू....और चिट्ठी आई है आई है चिट्ठी आई है ..
                         और एक बात है मेरे नौजवान  दोस्तों के लिए-साहित्यकार जीन जैकिस रूसो ने कहा है सबसे अच्छा प्रेम पत्र लिखने, बगैर यह जाने लिखना शुरू कीजिये की आप क्या चाहते हैं और यह जाने बिना ख़त्म कीजिए कि आपने क्या लिखा है.पर जरा गौर तो कीजिए इस  नौजवान    ने एक रुक्के  पर हाले- दिल जिस तरह बयान किया है -
                        मेरे कासिद जब तू पहुंचे मेरे दिलदार के आगे 
                       अदब से सर झुकाना हुस्न की सरकार के आगे 
डाकिये की जिंदगी रील लाइफ जितनी अलहदा है रियल लाइफ में उतनी ही कहीं और संघर्ष पूर्ण.उसकी सायकल के कैरियर पर और झोले में बिल, व्यावसायिक पात्र,अखबार,मैगजीनें या रजिस्टर्ड पार्सल होंगे . पर जज्बातों में डूबी चिट्ठिया अब नहीं होतीं.
          एक  बात जरूर समझ में आ गई कि बदलते वक्त के साथ लोगों के मिजाज भी बदल गए हैं.दद्दू के घर टीवी चैनल पर  एक फ़िल्मी गीत चल रहा है-
                             कबूतर  जा जा जा ... कबूतर जा जा जा 
                             पहले प्यार की पहली चिट्ठी साजन को दे आ
 नन्ही इबारतों वाले ख़त आज का सच हैं जो मोबाइल नाम के कासिद ले जाते है. उसकी भी क्या जरूरत... अब तो सीधे डायलाग दिए जाते है. पर एक बात का यकीन मानिये अच्छी और प्यारी  खूबसूरत चिट्ठियां  लिखने वाला इंसान ही संजीदा ,संवेदनशील और मुहब्बत भरे दिल का मालिक होता है.चिट्ठी लिखकर अपने भीतर खुद की तलाश  कीजिए.सिर्फ चिट्ठियों के जरिये पूरी तरह अजनबी से किया जाने वाला प्यार प्लेटोनिक लव कहलाता है.
                          एक बार फिर चिट्ठियों ,खतों कासिद और नामाबर की दुनिया के करीब से गुजरकर देखिये .. खुद को तलाशने का एक आइना यह भी  है. एक मिनट...रुकना जरा ...देखूं तो मेरा कासिद " इलेक्ट्रोनिक डाकिया यानि मेरा मोबाइल कौन  सा पैगाम  लेकर आया है?-
                          अगर जिंदगी में जुदाई न होती
                        ,तो कभी किसी की याद न आई होती
                        साथ ही अगर गुजरते हर लम्हे 
                        तो शायद रिश्तों  में ये गहराई न होती 
                                                                                      पुरानी चिट्ठियां  देखिये... दिखाइए.. लिखते रहिये                                                                                                                                  
       
                                                                                                                                          किशोर दिवसे 

                            
                                 

सोमवार, 27 जून 2011

तुम शीशे का प्याला नहीं झील बन जाओ...

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अब तो दादा -दादी या नाना -नानी के मुह से कहानियां सुनने का फैशन ख़त्म ही हो गया है.आज कल के बच्चों  के पास इसके लिए वक्त ही नहीं होता. न वे इसमें रुचि ही लेते हैं.कम्प्यूटर तो बस बहाना है .इन्ही कहानी-किस्सों के जरिये बच्चों के मन में संस्कार डाले जाते थे. फिर भी पढने वाले लोग या तो किताबें लेकर बैठते है  या हाईटेक  पीढ़ी की तरह डिजिटल हो गए हैं..यदा-कदा हम सब किसी बचपन को देखकर लौटते हैं अपने बचपन में तब अनायास ही वे कहानियां याद आने लगती हैं जो कभी हमारे बुजुर्ग सुनाया करते थे  . वे कहानियां कभी-कभार किताबों में भी मिल जाया करती हैं.
                     मुझे याद है की  यह किस्सा सोने के वक्त जिद कर पलकें मूंदते तक सुनने वाला नहीं था.बचपन में ही सही नानी ने मुझसे कहा,"जाओ...शीशे का प्याला लेकर आओ".नानी ने प्याले में पानी डाला और मुझसे कहा ," डाल दो इसमें मुट्ठी भर नमक". मैंने वैसा ही किया.फिर नानी ने मुझसे कहा," बेटा जरा इसका स्वाद बताना"."छी !!!!! कितना नमकीन!.. मैंने मुहं बनाकर थूक दिया.. पिच्च...!
                   नानी ने मुझसे कहा ," चलो बेटा ...जरा झील तक घूम आते हैं".मैं  हाथ पकड़कर उसे झील तक ले गया.फिर उसने कहा,' बेटा !सामने वाली दुकान से मुट्ठी भर नमक ले आना" मैं दौड़कर ले आया.नानी ने मुझसे वह नमक ले लिया और झील में डाल दिया."अब तुम इस झील का पानी पीकर बताओ." नानी ने मुझसे कहा.




                     जैसे ही अंजुली भर तालाब का पानी मैंने पीया नानी ने मुझसे पूछा,बेटा पानी का स्वाद बताना."" अच्छा लग रहा है नानी." मैंने कहा." नमकीन तो नहीं लग रहा है न?" नानी ने पूछा.मैंने जवाब दिया,"बिल्कल नहीं नानी."
                     मैं और नानी झील के किनारे बने मंदिर के चबूतरे पर बैठे थे.नानी ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में लिए और कहा,"" बेटा! जिन्दगी में जो तकलीफें हैं वे भी इसी नमक की तरह हैं.न ज्यादा न कम.परेशानियाँ अपने जीवन में वही रहती हैं लेकिन उन तकलीफों का अहसास इस पर निर्भर करता है की हमने उन्हें किस नजरिये से देखा है."
                   इसलिए बेटा ... " जब भी जीवन में तुम्हें परेशानियाँ हों तुम सिर्फ  इतना ही करना की जीवन  को समझने का नजरिया व्यापक बना लेना." आसान शब्दों में समझना है तब मैं एक ही बात कहती हूँ,' तुम शीशे का प्याला नहीं झील बन जाओ.!हालाकि उस बात का मतलब मैं उतनी गहराई से नहीं समझ पाया  था क्योंकि उस समय मैं मात्र नौवी का छात्र था.आज इस किस्से को याद कर जिन्दगी के अक्स हकीकत के आईने में दिखाई देते है और ताजा हो जाती है नानी की यादें.

                          ***********
गर्मियों की छुट्टियों में नानी और मैं फुटपाथ से होकर गुजर रहे थे.सड़क पर भीड़ थी.तेज रफ़्तार दौडती गाड़ियों , बाइक और उनके हार्न तथा साइरन  का कानफाडू शोर गूँज रहा था.अचानक नानी ने मुझसे कहा," बेटा!मुझे झींगुर की आवाज सुनाई दे रही है."
                       मैंने कहा," आप भी सठिया गई हो नानी.आप इतने शोर-गुल के बीच झींगुर की आवाज कैसे सुन सकती हो:" नहीं मैं सच कह रही हूँ..नानी ने कहा,"मैंने झींगुर की आवाज सुनी है." " सचमुच.. आपका दिमाग  चल गया है नानी." मैंने मजाक उड़ाया.अचानक मैंने अपने कानों पर जोर दिया और फुटपाथ के कोने में उगी झाड़ी देखी.मैं उसके नजदीक गया तब पता चला की झाड़ी के भीतर एक टहनी पर झींगुर बैठा था." यह तो बड़े कमाल की बात है नानी." मैंने नजरे झुकाकर कहा," लगता है आपके कानों में कोई अलौकिक शक्ति है"
                        " बिलकुल गलत बेटा,यह कोई अलौकिक-वलौकिक शक्ति नहीं है.मेरे कान भी तुम्हारे जैसे ही हैं.मैंने झींगुर की किर्र-किर्र सुन ली.यह तो तुमपर निर्भर करता है की तुम क्या सुनना चाहते  हो.?
                       " लेकिन यह कैसे  हो सकता है नानी!" मैंने हैरत से पूछा," आखिर इतने कानफाडू शोर  में  मैं छोटे से झींगुर की आवाज सुन ही नहीं सकता." " हाँ! ठीक कह रहे हो बेटा." नानी ने मुझे समझाया,"सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है की तुम्हारे लिए क्या महत्वपूर्ण है.देखो...में तुम्हे इसे सच साबित करके बताती हूँ."
                     नानी ने अपनी कमर में खोंसकर रखा नन्हा सा बटुआ निकला.उसमें से कुछ सिक्के निकाले और चुपचाप सड़क के किनारे बगैर किसी के ध्यान में आये डाल दिए." चलो.अब कोने में खड़े रहकर तमाशा देखते हैं." नानी मुझे एक कोने में ले गई.  

                                        

                    सड़क पर गुजरती गाड़ियों का कोलाहल अब भी उतना ही था.हम दोनों ने देखा की जो  भी धीमी रफ़्तार से गुजरता उनके अलावा अधिकांश राहगीर अमूमन बीस फीट दूरी से मुड़कर यह देखते की नीचे पड़े चमकने वाले सिक्के कहीं उनकी जेब से तो नहीं गिरे हैं!" क्यों बेटा!बात तुम्हारी समझ में आई?
                   " हाँ नानी ! आप  सच कहती थी.... सब कुछ इस बात पर निर्भर  करता है की सभी बातों के बीच आपकी बुद्धि किस बात को महत्त्व देती है.आपको क्या जरूरी लगता है."नानी की वह बात आज ही मुझे याद है.अरे... वह देखो!!!!सड़क पर गिरे सिक्कों को देखकर न जाने कितने लोगों के हाथ अचानक अपनी जेब छूने लगे हैं!                                            आज बस इतना ही .. शब्बा खैर ... शुभ रात्रि... अपना ख्याल रखिये...
                                                                                   किशोर दिवसे.

हम सब इस रंगमंच की कठपुतलियां हैं...

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धू-धू कर जलती चिता... शोक संतप्त  जनों को ढाढस बंधाते शब्द और मृत्यु को प्राप्त इंसान के जीवन की यादों से जुड़े पहलुओं के बीच ही कहीं से जन्म लेता है शमशान वैराग्य.सच कहें तो मौत के एहसास से चोली-दामन का साथ है जिंदगी का.शायद जीवन के होने का अभिप्राय बोध भी करा जाता है -"मौत " इन  दो शब्दों के भीतर छिपा गूढार्थ .हर अच्छे और बुरे व्यक्ति की सिर्फ अच्छाइयों को याद कर शमशान वैराग्य का प्रवाह हमसे कहलवा जाता है -"बाबू मोशाय.. हम सब इस रंगमंच की कठपुतलियां हैं जिसकी डोर  ऊपर वाले हाथों में है.कब कौन किस वक्त....
                और यह श्मशान  वैराग्य भी देखिये किस हाई  -टेक हो गया है इन दिनों!बातें शुरू होती है .. मौत तो सिर्फ एक बहाना है भैया.. जिसका समय आ गया उसका खेल ख़त्म .फिर घर परिवार की बात... अचानक मोबाइल घनघनाते है और कोई बिजनेस की बाते करते  है तो कोई अपने धंधे  की.हंसी- मजाक और मसखरी से बोझिल वातावरण हल्का-फुल्का होने लगता है.अच्छा है... यह जरूरी भी है.
                  झूले से लेकर काठी तक ज्यादा देर नहीं लगती ,क्या आप जानते हैं की   कितना फासला है जिंदगी और मौत के बीच! कोई नहीं जनता .पर तय होता है हरेक के लिए की उसे इस नाटक में  कितना अभिनय कहाँ और कैसे करना है.कोई कहता है," जिंदगी प्यार की दो-चार घडी होती  है"किसी दार्शनिक ने यह भी कहा है,LIFE IS TOO LONG  TO LIVE BUT  TOO SHORT TO LOVE"   लेकिन इसे मानने या समझने की कोशिश कौन करता है.जीवन और मृत्यु के बीच चल रहे इस प्रहसन के दौरान अंधी सुरंग में दौड़ रहे हैं हम सब.धन-पिपासा ,उच्चा कांक्षा ,बच्चों के बीच संपत्ति के विवाद  ... गलाकाट रंजिश,सुखों के अनंत  आकाश को समेट लेने की छीना-झपटी के बीच हम सबने कहीं न कहीं पर महसूस किया होगा अपनों को दुत्कारने का सायास षड्यंत्र.लहू लुहान रिश्तों की चीख -पुकार के बीच कभी यह भी हुआ की आम इंसान सोचता रह गया की कोई भरोसा नहीं जिंदगी का क्यों न हम प्यार से रहें और अनायास ही ऊपर वाले ने डोर खींची और कठपुतली लुढ़क गई.         जिंदगी का सफ़र है ये किस सफ़र
               कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं     
जब यह सच मालूम है तब क्यों हम सब गलतियों पर गलतियाँ किये जाते हैं?धन पिपासा  की होड़ में भागते वक्त पल भर रुककर  क्या यह सोचा  होगा की सुख बटोरने की हवस में हम उन सुखों का उपभोग करने के लिए अनफिट तो नहीं हो गए है?इस शहर  में कई लोग ऐसे है जिनके पास बेपनाह दौलत है प़र न चैन से खा -पी सकते हैं न सो सकते हैं बीमारियों ने जकड़ लिया और किसी काम के लायक नहीं रहे-हीरे, मोती, सिक्के और करेंसी चबाकर पेट नहीं भरा जा सकता.एकाएक सुबहअखबारों में पता चलता है दौलतराम चल बसे.न तो उनहोंने सुखों का उपभोग किया .उलटे प्रापर्टी के नाम से परिवार में हो गई कुत्ता घसीटी शुरू!इस पर हम सब सोचते क्यों नहीं'
                   क्या यह कम आश्चर्य की बात है की लोगों को लगातार दुनिया से जाते हुए सीखकर भी यह मन संसार की  मोह-माया छोड़ नहीं पाता!-संस्कृत सूक्ति
                  मरने पर छः फुट जमीन हमें काफी हो जाती है लेकिन जीते-जी हम सारी दुनिया को पा लेना चाहते हैं-फिलिप 
                 सभी ने यह मृत्यु दर्शन पढ़ा और सुना है लेकिन शायद समझकर नासमझ बने रहने  का नाम ही जिंदगी है.जिंदगी और मौत के दर्शन पर सारे लोग बातें कर रहे हैं तरह-तरह की.अलविदाई के मौके पर भी मौत के सामने जिंदगी के अनेक रंग बातचीत की शक्ल में उभर रहे हैं .जितने मुहं उतनी बातें पर श्मशान वैराग्य का भाव कहीं न कहीं पर हावी है.यह बात भी उतनी है सच है की छोटे शहरों की सोच अभी तक कर्मकांडों के मामले में उतनी प्रगतिशील नहीं हो पाई है.फिर भी कुछ समाजों ने व्यवहारिक आवश्यकतानुसार इन्हें सीमित करने का प्रशंसनीय कार्य किया है.कुछ परम्पराओं को आज के परिप्रेक्ष में औचित्य की कसौटी पर अपडेट किया जाना  ही चाहिए.बाकी पुरातनपंथी समाजो को सीखना चाहिए उनसे  जो आज के सच को समझ कर चल रहे हैं.
                  हर किसी  को एक न एक दिन जाना ही है.... हम सब क्या लेकर इस दुनिया में आये और क्या लेकर जायेंगे?गीता ,कुरान बाइबल और गुरु ग्रंथ साहिब में जीवन -मृत्यु पर अच्छी बातें लिखी हैं पर इन सबके बीच कडवा सच एक ही है-
                      हंस रहा था अभी वो ,अभी मर गया
                    जीस्त और मौत का फासला देखिये!
  मेरा मानना है की लाख शिकायतें हों जिन्दगी से पर मौत का सच सामने रखकर जिंदगी को यह सोचकर जियो की " जियो और जीने दो"और " जीवन चलने का नाम ,चलते रहो सुबह  शाम" यही नहीं ," कल क्या होगा किसको पता ,अभी जिन्दगी का ले लो मजा". पर मजे लेते वक्त कोई यह न भूले की अनजाने में हम किसी को दुःख  तो नहीं पहुंचा रहे है ? क्योंकि जिंदगी और मौत के बीच का फासला इस कदर अबूझ है की कहीं ऐसा न हो दुःख पहुँचाने  के बाद सुख देने के लिए प्रायश्चित्त करने का मौका भी हाथ से निकल जाये और हाथ मलने के सिवाय कुछ न बचे.
                 अफ़सोस भरे शब्दों में सिर्फ  यही कहना नसीब  में रह जायेगा की काश!हम अपने माता -पिता को प्यार और सम्मान दे पाते....क्यूं भोंक दिया अपने दोस्त की पीठ पर छुरा?...रिश्तों के साथ बेईमानी और बेइंसाफी क्यों की?. मौत की अदृश्य -दृश्य शक्लें देखने के बाद हम सबको कहीं न कहीं यह जरूर लगना चाहिए की जीवन और मौत के बीच हमने क्या किया.समाज और परिवार ही नहीं देश के ऋणानुबंध से क्या हम मुक्त हो पाए?दोस्ती और इंसानियत के सारे फर्ज हमने अपनी जिन्दगी के दौरान पूरे किये या नहीं?क्योंकि मृत्यु शाश्वत है इसलिए -
                      जिंदगी ऐसे जियो जैसे सब तुम्हारा है
                     मरो तो ऐसे  की तुम्हारा कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं और सब कुछ के बीच श्मशान वैराग्य का आखिरी पड़ाव.कर्मकांड पूरे होते है. परम्पराओं और उत्तर आधुनिकता  के बीच दो पीढ़ियों  के द्वंद्व सामने  होते है. रस्म अदायगियां  और " . राम नाम सत्य..ओम शांति . "के बाद जीवन पर मृत्यु का रेड सिग्नल  हरी झंडी में बदल जाता है.ठहरा सा विचार प्रवाह फिर गतिमान होता है हरेक की अपनी जिंदगी के ताने-बाने होते हैं .जीवन -मृत्यु के शाश्वत चक्र के बीच एक ही बात याद रहती है -वक्त हरेक जख्म पर मरहम है.समय ही सारी गुत्थियों का सुलझाव.... जीवन चलने का ही नाम है...चरैवेति... चरैवेति .मैं अपनी आँखों की छल छलाह्त को छिपाकर अपनी भावनाओं  का मन ही मन इजहार कुछ इस तरह से करता हूं.-
                   उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
                    न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाये
                                                                                                 खुश रहें और खुश रखें ...
                                                                                                        किशोर दिवसे 
                           

                     

शनिवार, 25 जून 2011

बरगद की बातें करते है गमलों में उगे हुए लोग!!!!

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सारी जिंदगी एक ऐसी  में तब्दील हो चुकी है जिसमें कई लोग अपनी बोली लगाने हद दर्जे तक समझौते कर रहे है in!क्रिकेटरों  की मंडी में सबसे बड़ी बोली लगी थी  और बिक गए सितारा क्रिकेटर.जिसको देखो वही बिकने पर उतारू है.फ़िल्मी सितारे., अफसर, नेता, मीडिया,कर्मचारी ... अमूमन जिंदगी के सभी क्षेत्रों    में बिकाऊपन ठाठें  मार रहा है.यूं कहिये की जिंदगी के आईने में बाजार का सच इस तरह आतिशबाजी बन गया की  उसकी चुन्धियाह्त   से आँखें मुंदती हुई सी लगी.यकीनन इस आतिशबाजी से गहरा धुंआ निकल रहा है .इसके जहर ने  सिद्धांत ,संस्कार और ईमानदारी ( आज के दौर में वाहियात बनती किताबी बाते)की साँसों को  धौंकनी की तरह चलने पर भी मजबूर कर दिया है .
                          फिर भी आज के सच का सामना करने स्वीकारने या   नकारने  की अपनी  -अपनी   पसंद   के अलावा  और कोई  विकल्प  ही नहीं .हाँ इस बात पर जरूर बहस की जानी चाहिए की बाजार जिंदगी का हिस्सा है या जिंदगी ही बाजार बन गई है.और इस बाजार में -
                        क़त्ल इंसा हो रहा है चंद सिक्कों के लिए
                           इस कद्र दौलत का भूखा पहले आदमी न था
यह भी आज का सच है.आँखों की सफेदी पर छाते सुर्ख डोरों ने  पहले ही इशारा  कर  दिया था की अपने दद्दू के अंदाज-ए- बयान में तल्खी आ चुकी है'बाजार के सच पर हैरत जताने वालों के लिए दद्दू कहते है  ," सच है ,पहले किसी को बिकाऊ कह देने पर कोई भी भडक उठता था.आज की जिन्दगी में बिकाऊपन, मार्केट वेल्यू जैसे शब्द स्टेटस सिम्बल बन चुके   है.यह मान लिया जाता है की बिकाऊ ही खरा सिक्का है. चीखते रहने वाला या तो लल्लू  है या फिर उसे बाजार रेट पर बिकने का मौका ही नहीं मिला या उसके लायक ही नहीं!"
                    दरअसल बाजार  युग के  जो लायक है उसने अपनी कीमत तेज कर ली.जिन्होंने मौकों का फायदा नहीं  उठाया या इस सोच को नहीं अपना पाए वे अपनी सोच के आत्मदाह में झुलसकर विधवा विलाप करते रह गए.. रेस से बाहर हो गए, या हो जाते हैं.मौजूदा वक्त की नब्ज पहचान कर संतुलित  तरीके से चलने वाले ही सफल हो रहे हैं.प्रोफेशनलिज्म की फर्राटा रेस में हादसों  की आशंका  के बावजूद ढीले-ढाले भकुवाये बूढ़े घोड़ों को ख़ास जलसों और आयोजनों  की बारात में आवश्यकताओं की धुन पर नाचने की काबिलियत साबित करनी होगी.
                      ये दुनिया है, यहाँ जरदार ही सब कुछनहीं होते
                      किसी का नाम चलता है किसी का दाम चलता है
मीडिया  को भी सेलेबल आइटम की तलाश है.इन संस्थानों में दिखावे या चापलूसी  की छद्म संस्कृति इतनी हावी है की सभी पद नीलामी के चक्रव्यूह में पॅकेज के लिए अपना जमीर बेचने की कवायद चकलाघरों की तरह करने लगे हैं.खुले आम बाजारू होने का नंगा सच ये नहीं  कबूलते.  बजाये जब ये " चुडैलो की सौन्दर्य स्पर्धा के दलाल "ईमानदारी का मुखौटा ओढ़कर नैतिकता के प्रवचन देने  लगते है तब पेशानी पर बल पड  जाते  है क्योंके-
                           मुद्रा पर बिके हुए लोग ,सुविधा पर टिके हुए लोग
                            बरगद की बातें करते है गमलों में उगे हुए लोग






                     
शादी की मंडी में दूल्हा बिकता है.भूख और गरीबी से बच्चे बिकते है.जिस्म और जमीर की बिकवाली के बाजार में हो रहे सीरियल ब्लास्ट से संस्कारों  और सिद्धांतों की धज्जिया उड़ते देखी जा रही हैं. वर्तमान दौर  समाज के लिए नपुंसक तटस्थता का नहीं बल्कि मस्तिष्क में विचारों का जीवित ज्वालामुखी बनाने वाला होना चाहिए.निहित स्वार्थों के लिए औरतो के जीवन मूल्य भी बिकते  देखे जा रहे हैं." गोयबल्स के अवैध संतानों "की हरकतों पर बाजार का एक नजारा यह भी है-
                        कुछ लोग ज़माने को नजर  बेच रहे हैं
                                       अफवाह को कुछ कह के खबर बेच रहे हैं
                                   बीमार को बस अब हवाओं पे छोडिये
                       कुछ लोग दवाओं में जहर बेचते है
सोना अगर  मिटटी के मोल हो तो बदकिस्मती और मिटटी को सोने के मोल बेचना बाजार की चालाकी है.लेकिन जिंदगी के कैनवास पर मसलों का फौरी हल निकलने की झुंझलाहट विचारों  की मुख्य धारा का केंद  क्यों नहीं बनती?सवाल यह है की हम मसलों  के हल या विकल्पों की तलाश किस जिद से करते हैं.यकीनन बाजारवाद ने कुछ बेहतरी भी दी है .फिर भी  उहापोह, असमंजस  ,कन्फ्यूजन और सवालों का बीहड़ घना है.जिंदगी विसंगतियों का नरक न बने इसका फैसला करने वाले आप खुद है क्योंके-
                                          ये जिंदगी भी सवालों का एक जंगल है
                                           हर शख्स भटकता हुआ जवाब लगे है 
                                                                          फिर मिलेंगे.. अगली पोस्ट 
                                                                           पढने के वक्त....
                                                                                        किशोर दिवसे                                                   

                                                                                                                 
                       



शुक्रवार, 24 जून 2011

गुरुदेव ने बनाया "उन तीनों को" अपना गुरु

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एक बार किसी गुरु की मृत्यु हो रही थी .उनके शिष्य ने पूछा,"गुरुजी, यह तो बताइये आपके गुरु कौन थे?"उन्होंने कहा,"बेटा! मेरे एक हजार गुरु थे.अगर मैं नाम गिनाना चाहूं तब कई महीने लग जायेंगेऔर काफी देर हो जाएगी."शिष्य के चेहरे पर सवालिया निशान देखकर गुरु समझ गए.उन्होंने स्वत  ही जिज्ञासा शांत करते हुए कहा,"बेटा! मैं अपने तीन गुरुओं के नाम जरूर बताना चाहूँगा.
          " मेरा पहला गुरु था एक चोर"


शिष्य के भौचक हो जाने पर गुरु ने कहना जारी रखा,"एक बार रेगिस्तान में मैं कहीं पर खो गया था.भटकते-भटकते जब एक गाँव में पहुंचा तब काफी देर हो चुकी थी.सारा शहर खामोश हो चुका था.एक ही आदमी मिला जो किसी घर की दीवार में सेंध लगाकर छेद कर रहा रहा.मैंने उससे पूछा,"भैया .. मेरे रुकने के लिए कोई जगह हो सकती हैं क्या?उसने जवाब दिया,"रात को इस वक्त तलाश करना मुश्किल है.चाहो तो तुम मेरे साथ रुक सकते हो.वह  इंसान बड़ा नेक था.मैं वहां पर एक महीने तक रुक गया.हर रोज रात को वह चोर मुझसे कहता ,' अब मैं अपने काम पर जा रहा हूँ तुम  आराम कर प्रार्थना करो." जब वह वापस लौटता ,मै कहता,"क्या कुछ हासिल हुआ?"वह कहता आज रात कुछ भी नहीं,कल मैं फिर कोशिश करूंगा... आगे भगवान की मर्जी!"
                   आश्चर्य की बात यह थी की  वह चोर कभी निराश नहीं था.वह हमेशा आशान्वित और खुश रहा.फिर  मैं बरसों तक ध्यान करता रहा कुछ हासिल नहीं हुआ.कई बार ऐसे पल आये जब मैं पूरी तरह निराश था.मैंने यह बेवकूफी समाप्त करने की सोची.अचानक मुझे याद आई उस चोर की जो हर रात कहता था ," ईश्वर अच्छा करेगा.कल अवश्य बेहतर होगा."
                 " आपके दुसरे गुरु कौन थे गुरुदेव?" शिष्य की उत्सुकता बढ़ने लगी   ." मेरा दूसरा गुरु एक कुत्ता था"    



  गुरुदेव ने रहस्योद्घाटन किया, एक  रोज मैं नदी पर जा रहा था .मैं बेहद प्यासा था .अचानक एक कुत्ता वहां आया प्यास से जिसकी जीभ  बाहर लटक रही थी.कुत्ते ने नदी में देखा ," उसे पानी के भीतर एक कुत्ता नजर आया.अपनी खुद की परछाई देखकर वह डर गया.भौंककर वह भाग ही जाने वाला था लेकिन तेज प्यास उसे वापस लौटने पर मजबूर कर रही थी.आखिरकार उसने डर पर काबू पाया और वह पानी में कूद पड़ा.पलक झपकते वह छाया गायब हो गई." गुरुदेव ने कहा,"तब मुझे यह एहसास हुआ की भगवान् ने मुझे कोई सन्देश दिया है.वह सन्देश यही था,"चुनौती या डर चाहे जितने हों बावजूद इसके कूद पड़ो...."
                 गुरुदेव! अब आपका तीसरा गुरु!"-शिष्य ने अधीर होकर पूछा ." मेरा तीसरा गुरु है एक बच्चा ." 

             


गुरुदेव ने शिष्य को समझाइश देते हुए स्पष्ट किया," मैं जब शहर में दाखिल हुआ तब देखा की एक बच्चा जलती हुई मोमबत्ती मस्जिद में रखने के लिए ले जा रहा था.मैंने बच्चे से पूछा ,"क्या तुमने मोमबत्ती खुद जलाई है?: उसने जवाब दिया  ," हाँ" मैंने बच्चे से फिर पूछा ," पहले तो मोमबत्ती नहीं जल रही थी बाद में वह जलने लगी.तुम बता सकते हो वह स्रोत जहाँ से रौशनी आई है?"
                 वह बच्चा खिलखिलाकर हंसने लगा.फिर एकाएक उसने मोमबत्ती बुझा दी.अब बच्चे ने मुझसे सवाल किया," दादाजी!आपने देखा रौशनी चली गई"आप मुझे यह बताइये की रौशनी कहाँ गई!"  गुरूजी बोले ," बच्चे की बात सुनकर मेरा सारा अहंकार जाता रहा.और, उसी पल मुझे अपनी मूर्खता का एहसास हुआ.अपनी बुद्धिमत्ता पर मुझे तरस आने लगा.यह सच है की  मेरा कोई गुरु नहीं था .फिर भी इसका यह मतलब नहीं होता की मैं शिष्य नहीं था.!" 
              सारा किस्सा सुनकर प्रोफ़ेसर प्यारेलाल  के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी थीं.उन्हें समझ में नहीं आया             की बगैर गुरु के गुरुदेव शिष्य कैसे हुए?उनहोंने दद्दू से पूछा ," आप ही बताइये दद्दू यह कैसे संभव है?"
                    दद्दू ने पहेली सुलझाते हुए कहा,"" ऐसा  है प्रोफ़ेसर !गुरुदेव ने सारी कायनात या सृष्टि को ही अपना गुरु माना,उन्होंने  भरोसा किया बादलों पर...हवा,पानी,आग... इंसानों पर .मेरा कोई गुरु नहीं था क्योंकि कुदरत के हर पहलू से मैंने कुछ न कुछ सीखा है.जिन्दगी में भी शिष्य बनना जरूरी  है लेकिन शिष्य बनने का मतलब होता है सीखने की चाह.
                प्रोफ़ेसर के दिमाग की ट्यूब लाईट जली." मतलब यह की TO BE AVAILABLE TO LEARN AND TO BE VULNERABLE TO EXISTANCE"   या दूसरे शब्दों में कहा जाये तो ," गुरु एक स्वीमिंग पूल होता है जहाँ तुम तैरना सीख सकते हो.एक बार सीख गए तब  सारे महासागर तुम्हारे हैं. मैं भी आपसे यह जानना चाहूँगा की आपने भी क्या कोई गुरु बनाया है या कुदरत और जिंदगी के अनुभव ही हैं आपका सच्चा गुरु!!!!                                                                अपना ख्याल रखिये..
                                                                                            किशोर दिवसे 


गुरुवार, 23 जून 2011

वो कागज की कश्ती ...वो बारिश का पानी!

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लहरों में बहती गई वह कागज की छोटी सी नाव . मेरी नन्ही अँगुलियों ने ढेर सारी लहरें बनाकर उन्हें बहने दिया आगे और आगे....टप टप बारिश की बूँदें उस नाव को हिचकोले देती पर अलमस्त लहरों ने उसे मेरी आँखों से ओझल कर दिया.कागज़ की उस कश्ती से जुडी बचपन की यादे.मुझे ताजा हो आईं.ऐसा  क्यूं होता है की  जब-जब यादों के दरीचे परत-दर -परत खुलते हैं कई रिश्ते हमारे सामने तेजी से उभरने -मिटने लगते हैं.इसका सिलसिला बन जाता है.ऐसा  लगता है ना ... की  हम कभी रिश्तों पर क्यूं बात नहीं करते!
                     " वो कागज की कश्ती,वो बारिश का पानी " मुझे अक्सर याद आते हैं.बरास्ता उस कश्ती  के  मैं बचपन के रिश्ते को कई बार जी लेता हूँ.क्या आप भी?इस रिश्ते को क्या हम महसूस करते हैं जो कश्ती और बचपन में .. बचपन और जवानी.. जवानी और बुढ़ापे के बीच है?गोया रिश्ते ही तो हैं जो यादों  के अलावा मौजूं बनकर आपको जिंदगी के तमाम रंगों से प्यार करना सिखाते हैं.चलिए , आप और हम मिलकर आज यही सोचते हैं की रिश्ता क्या है!-
                     कलियों से भँवरे का,सूरज से किरणों का
                     झुकी पलकों से हया का ,कनखियों से शोखी का 
                     नवजात से लोरियों का,पतंग से आसमान का
                      धूप से छाव , आपसे परछाई का 
                    कोयल से बसंत का,आशिक से माशूक का
                     कोख से अजन्मे का,प्रकृति से इंसान का
                     हिचकी से यादों  का,जिस्म से साँसों का
                      ख़ुशी से गम का,हार से जीत का 
                    घंटियों से पूजाघर का ,ईश्वर से भक्त का
पलटिये अपनी यादों के दरीचे और खो जाइये उन रिश्तों में जो जिंदगी के कैनवास पर कभी रंगीन तो कभी बदरंग बनकर बनते-बिगड़ते रहते हैं.माँ-बाप,भाई-बहन,चाचा-चची ,फूफा-फूफी,,अंकल-आंटी,,मामा-मामी,साला-साली-जीजा ,बेटा-बेटी,पति-पत्नी  ,ये सब नामवर रिश्ते हैं जिनके  बीच आप और हम जिम्मेदारियों का ताना-बाना अक्सर सुलझाते व उलझाते रहते हैं.इससे भी परे एक दुनिया है अनाम रिश्तों की जिनका कोई नाम नहीं होता.फिर भी उनकी अहमियत उतनी ही समझी जाती है जितनी दुनियावी रिश्तों की.
                 खून के रिश्तों की अक्सर बात किया करते हैं हम लोग.सुना होगा "खून के रिश्ते ही काम अआते हैं".पर इन रिश्तों को भी बेमानी होते देखा है .तब उन दरकते हुए रिश्तों को बचाने की छटपटाह्त महसूस करे हम लोग.क्या कभी सोचा है आपने की  जिस जरूरतमंद को आपने बचने के लिए खून दिया है उससे अनायास कैसा अनाम रिश्ता जुड़ गया है?हालाकि यह भी सच है की कुछ लोग इसे महज चंद पैसों की जरूरत के लिए भी करते रहे हैं.वहीँ दूसरी और खून के प्यासे होने का रिश्ता ही जो खुद्कशीं  और क़त्ल में तब्दील होता दिखाई देता है.अनाम रिश्तों के कैनवास पर कभी यह देखने की भी फुर्सत निकालिए की क्या रिश्ता है-
                       चाँद से चकोर का,कसमों से वायदों का
                        मुहब्बत से वफ़ा का,आदम से हव्वा का 
                      नींद से ख्वाब का,राख से अंगारों का
                       आँख से आंसू का,रुखसार से तिल का
                       सांप से चन्दन का,जुर्म से अपराधी का 
                      दर्द  से दवा का,रेल से मुसाफिर का
                          मिठास से कडवाहट,दोस्ती से दुश्मनी  का  
रेशम की डोर और  फौलाद की जंजीर हैं सभी रिश्ते.  सारी दुनिया रिश्तों का गुलिस्तान है जिसमें तरह -तरह के  फूल खिले हैं.पर क्या आप सफल बागबान हैं?टटोलिये नामदार, अनाम या " प्लेटोनिक रिश्तों की जड़ें और चूने दीजिये उस बेल को आसमान की ऊंचाइयां.बार-बार उलटिए यादों के दरीचे और समझिये की कितने रिश्ते जिन्दा हैं ... कितने मुर्दा और कितने अधमरे!सवाल यह भी है की सोशल नेट्वर्किंग साईट पर बने संबंधों को क्या रिश्तों के आशियाने के दरवाजे पर दस्तक समझा जाय!
                       उस पल और लम्हे की गहराई को क्या हमने समझा है जब सब कुछ होने के बीच हम कुछ भी नहीं होते और रिश्ते की कोई न कोई शक्ल कल्पना या हकीकत के धरातल पर हमें मोहताज कर देती है की  हम अतीत और वर्तमान दोनों की आँखों में बसे सपनों को देखकर अहसास करें की आखिर क्या रिश्ता है-
                            फूलों से खुशबू का,अमीरी से गरीबी का 
                              पहली नजर से पहले-पहले प्यार का
                             अपनों से बेगानों का,कागज से कलम का 
                                   प्रेमिका की ना ...ना... से  हाँ ..हाँ.. का 
                             मंजिल से जूनून का, शमा से परवाने का 
                              हक़ से कर्तव्य का,वतन से फर्ज का
                              फन से फनकार का ,शबनम से कोंपल का  
काश हम अपने अंतर्मन को छूकर देखें की हमारे नाम-अनाम रिश्ते दरकते तो नहीं जारहे हैं .सहलाइए... संवारिये और सायास तरोताजा रखिये उन सभी रिश्तों को जो आपके हमसफ़र बनकर चल रहे हैं साथ-साथ.चाहे दूर हों या पास रिश्तों की ऊष्मा अपने मन में बनाये रखिये .समय चुराकर रिश्तों को समझना और जीना सीखना होगा तभी हम समझ पाएंगे की क्या रिश्ता है-
                             मांझी से नैया का,सागर से साहिल का
                             जिन्दगी से रंग और रंग से जिन्दगी का
                             अँधेरे  कोने से टिमटिमाते जुगनुओं का
                               बुलबुल की तडप से सैयाद के पिघलने का 
                               जमीं से आसमान , इंसान से इंसान का
                               सफ़ेद धागे से मोम के बदन का /और 
                              बोलते पत्थरों से सात सुरों का!!!!  
ख़ूब प्यार कीजिए नाम-अनाम रिश्तों को पर मत भूलिए " वो कागज़ की कश्ती... वो बारिश का पानी ".कागजों से अक्षरों का रिश्ता तो अटूट है अब कम्प्यूटर स्क्रीन से हमारी आँखों का रिश्ता इतना गहरा गया है की पूछिए मत!इसलिए क्या आप इस रिश्ते को भूल सकते हैं जो बरास्ता मेरे इन अल्फाजों की बारिश से आपके दिल को भिगोता जा रहा है... आहिस्ता आहिस्ता !!!!
                                                                                                                                                                           मेरे और आपके बीच जो है ,उसकी तलाश  आप भी                                                                                              कीजिए पर अपना ख्याल रखिये...
                                                                                          किशोर दिवसे 
                             
                             
                            



                         




                        

शुक्रवार, 17 जून 2011

देखा तुझे तो तेरे तलबगार हो गए!!!!

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हसरत.. आरजू...तमन्ना...और ख्वाहिश .कहें तो चार अलहदा शब्द लेकिन अर्थ अमूमन एक ही निकलता है.हरेक इंसान के लिए सन्दर्भ भले ही अलग-अलग हों लेकिन मायने कहीं न कहीं पर लक्ष्य से सीधा रिश्ता बना ही लेते हैं.कोई शब्द रेशमी अहसास लिए होता है तो कोई जिन्दगी की तल्ख सच्चाई.रूहानी मतलब भी कोई शब्द अपने भीतर समेट लेता है.
          बात अगर किसी आशिक की हो तो आरजू का अंदाज बड़ा रूमानी हो जाता है.देखते ही अपनी माशूका को वह कैसे तलबगार हो तो जाता है इसकी बानगी देखिये-
                तुझसे मिले न थे तो कोई आरजू न थी 
                देखा तुझे तो तेरे तलबगार हो गए
ये तो हुई किसी की तलब के लिए छटपटाहट.किसी टूटे दिल की आरजू होती है कि उसकी माशूका या आशिक  खुद साहिल पे होते और कश्ती भी वहीँ पर डूबती .यह भी एक तमन्ना है कि आरजू भी खामोश हो गई.लिखने से पहले ही ख़त का कागज भीग गया जिसे कलम गुमसुम होकर देखने लगी.
          भला ख्वाहिश के बगैर दिल भी बना करते हैं?नेता का दिल हो तो कुर्सी की ख्वाहिश करेगा...कलाकार  किसी फिल्म की...खिलाडी किसी जीत की...किसी का दिल अगर दागदार हो जाये तो वह धड़ककर हसरतों से बहादुर शाह जफ़र की जुबान में यूं कहने लगता है-
                इन हसरतों से कह दो कहीं और जा बसें
               इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दागदार में
दिल के साथ दिमाग को भी दागदार बना दिया है भ्रष्टाचार ने.सवाल ये है कि जनता कब ख्वाहिश रखेगी ऐसों को जमींदोज करने की ?खैर... हसरतों और तमन्नाओं  से भी कभी शिकायतें होने लगती हैं.ये शिकायतें उस समय और भी दहकने लगती हैं जब चाहने वाला वही मांगता है जो उसके मुकद्दर में नहीं होता.मुकद्दर की बात पर गौर करने से पहले एक बार जरूर गाँठ बाँध लीजिये तमन्ना या हसरत रखेंगे तो आग का दरिया फलांगना होगा.अच्छी नौकरी या करियर की ख्वाहिश है तब अंगारों पर चलना होगा.राह कठिन संघर्ष की होगी तब ये मत कहने कि पाँव जलते हैं ... आरजू लेकर घरसे निकलते ही क्यों हो?और हाँ!ख्वाहिश एक नहीं होती बल्कि एक के बाद एक कर सिलसिला बन जाती हैं.
                हजारों ख्वाहिशें आकर घेर लेती हैं.खास तौर पर मिडिल क्लास के साथ तो ऐसा  ही होता है.आरजुओं के समंदर में उठता सैलाब कभी रुकता भी है?इन्ही आरजुओं ने सैकड़ों हंगामों के बावजूद जिंदगी को तनहा बना रखा है .शायर इकबाल सफीपुरी ने कहा  है-
            आरजू भी हसरत भी दर्द भी मसर्रत भी
           सैकड़ों हैं हंगामे ,जिन्दगी मगर तनहा 

जिंदगी अगर तनहा है तो खूबसूरत बनाने की ख्वाहिश क्यों नहीं रखते?लेकिन इसके लिए खुद को कई मायनों में वफादार बनाना होगा.वफादारी अगर अपने मादरे वतन के लिए है तब देशप्रेमी सिपाही मौत के आखिरी पल में भी यही आरजू मन में बसाए रखता है ,"रख दे कोई जरा सी ख़ाक-ए -कफन में "
                 चुनाव  के वक्त नेताओं को वोटों की आरजू तो सुविधाओं के अभाव में जनता को तकलीफें दूर होने की ख्वाहिश .अस्पताल में भर्ती मरीज को जिन्दा घर लौटने की हसरत ( यदि सरकारी अस्पताल हो तो और भी ज्यादा).मेहंदी रचे हाथों को उसके प्रियतम के दीदार की ख्वाहिश.कुछ ख्वाहिशें ऐसी भी होती  हैं कि हर  ख्वाहिश का दम निकल देती हैं.मिर्जा ग़ालिब का शेर है-
                        हजारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वहिश पे दम निकले 
                       बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
अरमानों का शिखर ही कहीं महत्वाकांक्षा या उच्चाकांक्षा तो नहीं!अगर ऐसा  है तो इस आकांक्षा का लक्ष्य फतह करने टुकड़ों -टुकड़ों में हासिल होती मंजिल के सामने भी कभी थककर  मत बैठिये.हसरतों और मंजिलों के मुसाफिर अगर अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करना  चाहते हैं तब लगातार  चलते रहिये.बच्चे... नौजवान...बूढ़े... उम्र के हर मोड़ पर हसरतों और आरजुओं से लिपटे कई सपने होते हैं .और इन सपनों को साकार करने या ख्वाहिशों को हकीकत के आईने में  उतारने चाहे कितनी भी मुसीबतों में गिरफ्तार हों तमन्ना और आरजू से भरे सपने देखिये और पूरा करने की कोशिश कीजिए.राह की कठिनाइयाँ खौफजदा करेंगी ... असफलता भूतिया चेहरों से डराएंगी,लेकिन अरमानो की आंच जलाये रखिये.कांटो पर  चलकर ही पूरे होते   हैं बहारों के सपने .हसरत.. आरजू..तमन्ना...और ख्वाहिश के सुनहरे सपने ,जो हम जागती आँखों से देखा करते हैं.
                                                        अपना ख्याल रखिये...प्यार सहित
                                                                     किशोर दिवसे 


               

                

गुरुवार, 16 जून 2011

किस्सों में छिपे हैं जिंदगी के कहे-अनकहे सच!

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किस्सों में छिपे हैं जिंदगी के कहे-अनकहे सच!




मैनेजमेंट के किस्से और उनकी फेहरिस्त बड़ी लम्बी है.उसे हर कर्मचारी  या बॉस अपने-अपने अजेंडा  के मुताबिक समय-समय पर फिट क़र देता है.बड़ा ही रोचक है यह मायाजाल.अब ये तमाम फंडे ऐसे अनारदाने हैं जिनसे छूटी आतिशबाजियां किस्सों की शक्ल में सारे संस्थानों के जरिये समाज में नजीरें बन चुकी हैं.ऐसे अनेक किस्से आपकी हमारी जुबान प़र रच-बस गए हैं जो हम लोग सुनते -सुनाते रहते है.
                    एक  सेल्समेन उस दफ्तर की महिला क्लर्क तथा मैनेजर दोपहर का भोजन करने एक साथ जा रहे थे.रास्ते में उन्हें एक चिराग पड़ा  मिला.उनमें से सबसे पहले लपककर महिला क्लर्क ने उठा लिया.कौतूहल वश उसे जैसे ही घिसा उसमें से एक अप्सरा निकली." तुम तीनों की एक-एक इच्छा मैं पूरी करूंगी." उसने खिलखिलाते हुए कहा." पहले मैं... पहले मैं..." क्लर्क युवती ने अप्सरा से कहा,"मैं  दार्जीलिंग जाऊंगी... मोटर बोट में झील का आनंद और पहाड़ी वादियों में रोमांस" ऐसा ही होगा.... अप्सरा ने कहा और वह युवती लुप्त हो चुकी थी.
                           " अब पहले मैं.. पहले मैं..."इस बार मैनेजर से पहले ही सेल्समेन ने अपनी इच्छा जताई.," मैं गोवा जाना चाहता हूँ.मसाज गर्ल्स .. शराब और समुद्र तट की धूप" अप्सरा ने वेद किया और वह सेल्समेन वहां से गायब हो चुका था.
                 " मैनेजर साहब ! अब आपकी बारी है ,अपनी इच्छा बताएं "अप्सरा ने मैनेजर से पूछा.फ़ौरन ही मैनेजर ने अप्सरा से कहा,"मैं  चाहता हूँ कि वे दोनों लंच करें और अपने अपने दफ्तर का कामकाज सम्हालने से मुझे ऊटी में हालीडे मनाने रिलीव करें."दद्दू ने यह किस्सा  सुनकर समझाइश दी ," हमेशा अपने बॉस को पहले अपनी बात कहने दें.अगर आपने पहले अपनी राय रखी तब कुछ भी हो सकता है."
 अबकी बारी थी प्रोफ़ेसर प्यारेलाल की.वे बता रहे थे एक बाज के बारे में .वह बाज किसी वृक्ष की ऊंची शाख पर बिना कुछ काम किये आराम से बैठा था.एक छोटे से खरगोश ने उसे देखकर पूछा,"क्या में ही आपकी तरह बिना मेहनत किये बैठा रह सकता हूँ? बाज ने जवाब दिया,"बिलकुल... क्यों नहीं!" वह खरगोश मैदान  पर नीचे बैठकर सुस्ताने लगा.अचानक एक लोमड़ी आई और झपट्टा  मरकर उसे खा गई..प्रोफ़ेसर ने समझाया,"मुझे लगता है अगर बिना खास मेहनत किये आराम से बैठना है तब आपको ऊँचाई या शिखर पर ही बैठना होगा वर्ना आपकी भी हालत उस खरगोश की तरह हो जाएगी."
                       मुर्गे और बैल का किस्सा सुनाया होशियार चंद ने.कहानी कुछ इस तरह की थी-एक मुर्गा  और बैल आपस में बातचीत कर रहे थे." मुझे इस वृक्ष की फुनगी पर पहुंचकर बड़ी ख़ुशी होगी." मायूस मुर्गे ने ठंडी सांस भरकर कहा," क्या करूं मित्र बैल!मेरे शरीर में उतनी ताकत ही नहीं है."" ऐसी बात है!तब तुम एक काम करो.... मेरे गोबर से कुछ दाने चबा लो. उससे तुम्हारे शरीर में ताकत आ जाएगी ."मुर्गे ने ऐसा  ही किया तथा उसके शरीर में इतनी ताकत आ चुकी थी की वह वृक्ष की निचली शाख तक पहुँच गया.चार रात तक लगातार मुर्गे ने यही किया और वृक्ष की फुनगी पर पहुँचकर बड़ी अकड़ से इधर-उधर देखने लगा.
            एकाएक किसी शिकारी ने उसे देख लिया.फौरन ही अपनी एयर गन से निशाना साधा और चन्द मिनटों में वह मुर्गा जमीन पर  गिरकर दम तोड़ चुका था.होशियारचंद ने मतलब समझाया,"चालाकी या मक्कारी अथवा बेवकूफ बनाकर आप शिखर पर पहुँच सकते हैं लेकिन टिक नहीं सकते.उसके लिए मेहनत ही एकमात्र रास्ता है."
                      अब की बारी मेरी बारी थी .  मुझे मालूम था पर चाय का  प्याला  मेज पर रख्का दद्दू बोले," हाँ अखबारनवीस,अब तुम्हारी बारी है."एक छोटा  सा परिंदा  सर्दियों  के मौसम की तलाश में कहीं उड़कर जा रहा था." मैंने किस्सा बयानी शुरू की.दरअसल मौसम में इतनी ठंडक बढ़ गई की ठिठुरकर वह खेत में नीचे जा गिरा.इससे पहले की वह उठकर उड़ जाता एक गाय ने आकर उसपर गोबर कर दिया.गर्म गोबर के नीचे ठिठुरकर  गिरे परिंदे को ऊब महसूस होने लगी.
                      शीघ्र ही वह मूर्ख परिंदा  ख़ुशी  से गाना गाने लगा.नजदीक से ही गुजरती बिल्ली ने परिंदे की आवाज सुनी और गोबर के इर्द-गिर्द घूमकर तफ्तीश करने लगी.जैसे ही परिंदे का सर उसे बाहर दिखाई दिया अपने पैने पंजों से उसने परिंदे को निकाला और हजम कर गई. 
                  पता  नहीं आप इस कहानी में छिपे" मारल आफ द स्टोरी " को समझे या नहीं हमारे दद्दू ,प्रोफ़ेसर प्यारेलाल और होशियार चन्द तत्काल समझ चुके थे.मेरे पूछने से पहले ही उन तीनों ने अपने निष्कर्ष सुना दिए.   !.यह जरूरी नहीं कि आपकी बुराई या आलोचना करने वाला आपका दुश्मन ही हो.२.यह भी जरूरी नहीं की आपको गन्दगी ( आलोचना )से बाहर निकालने वाला आपका शुभचिंतक ही हो.३.जब भी आप गन्दगी आलोचना या बुरे वक्त में फंस गए हों बेहतर यही है की खामोश रहें!!!!!
                                                         अपना ख्याल रखिये... आपका अपना 
                                                                     किशोर दिवसे.

                         
                   

हम क्यों बने रहते हैं कछुए!!!!

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हम क्यों बने रहते  हैं कछुए!!!!



एक बार एक कछुआ परिवार पिकनिक मनाने गया.अब कछुओं के बारे में नौ दिन चले अढाई कोस वाली कहावत तो आपने  सुनी होगी.तैयारी  करने में ही उन्हें सात बरस का समय लग गया.आखिरकार वह कछुआ परिवार कोई अच्छी जगह तलाशने घर से निकल पड़ा.अपने सफ़र के दूसरे साल उन्हें एक अच्छा ठिकाना मिल गया.अमूमन छमाही तक कछुआ परिवार जगह की साफ़-सफाई करता रहा.उन्होंने अपनी पिकनिक वाली टोकरी खोली और तैयारी करने लगे.
                      एकाएक उन्हें याद आया," अरे हम लोग नमक लाना तो भूल गए.नमक के बगैर खाने के स्वाद का कोई मतलब ही नहीं." सब लोग इस बात पर सहमत हो गए.लम्बी बहस के बाद सबसे छोटे कछुए को घर जाकर नमक लाने के लिए चुना गया.हालाकि छोटा कछुआ धीमे चलने वाले सभी छोटे कछुओं में सबसे तेज था फिर भी वह ना-नुकुर कर रोते हुए अपनी खोल में बैठकर जी चुराने लगा.वह किसी पेड़ के पीछे बैठ कर यही देखता रहा कि परिवार के बाकी सदस्य  क्या करते हैं.
         एक शर्त पर छोटा कछुआ नमक लाने घर जाने को तैयार हुआ.उसने शर्त रखी,"देखिये,, मैं  घर जाकर नमक लाने को तैयार हूँ.लेकिन मेरे घर से लौटने तक कोई खाना नहीं खायेगा."पूरा परिवार इस बात पर राजी हो गया और कुछ ही  देर में छोटा कछुआ घर के रास्ते पर  था....एस परिवार के सभी सदस्य सोचने लगे.
                     एक-एक कर तीन बरस बीत गए पर छोटा कछुआ नहीं लौटा .फिर पांच और छः बरस भी.सातवें बरस जब वह नहीं पहुंचा तब बूढा कछुआ अपनी भूख बर्दाश्त करने में खुद को असमर्थ महसूस करने लगा.उसने यह ऐलान किया,"अब वह भूख सहन  नहीं कर पा रहा है इसलिए वह खाना शुरू करेगा." इतना कहकर बूढ़े कछुए ने खाने का डिब्बा खोल लिया.अचानक छोटा कछुआ किसी वृक्ष के पीछे से निकला और छिपकर  कहने लगा," देखा ! ...देखा!मैं जानता था कि आप मेरे लौटने का इन्तजार नहीं करोगे.अब मैं नमक लाने घर जाऊंगा ही नहीं.
                      "क्यों दद्दू!कछुए के किस्से  का कोई मतलब समझे" मैंने उनसे चुहलबाजी करनी चाही." दरअसल अखबार नवीस!" दद्दू ने अपना बोल-बचन शुरू किया,"हममें से भी कई लोग कछुए की तरह हैं.कुछ लोग अपना समय यही जानने और समझने में बिता देते हैं कि अमुक क्या कर रहा है ...या फलाना ने ऐसा क्यूं  किया!( अमूमन सभी दफ्तरों  में यही हाल हुआ करता है.)
               हम अपनी अपेक्षाओं के मुताबिक लोगों से रहने की उम्मीद में वक्त जाया करने लगते हैं.लोग क्या कर रहे हैं .. या कौन क्या कर रहा है यह जानने की पंचाईत में इतना डूब जाते हैं की हमें क्या करना है ...हमें क्या करना चाहिए...इसका तक होश नहीं रहता . और हम खुद कुछ भी नहीं करते.!
                                                                     किशोर दिवसे.
         

मंगलवार, 14 जून 2011

फर्न की हरी चटाई और आसमान छूते बांस

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फर्न की हरी  चटाई और  आसमान छूते बांस 

दारू-शारू.... मुर्गा-शुर्गा...हा ..हा.. ही.. ही.. और ढेर सारी मस्ती.अमूमन जंगल जाने का मकसद भी यही हुआ करता है.और कुछ नहीं तो बकर ... का अनवरत दौर जो जहाँ चार यार मिल जाएँ  वहां ... हुआ तो अल्सुब्बह तक चलता रहता है.लेकिन मुझे याद है एक बार मैं जब जंगल गया था वह भी पचमढ़ी की खूबसूरत वादियों में जमीन पर बिछी हरी घांस की चादर पर लेटा हुआ ऊपर आसमान की नीली छतरी को निहारते हुए ,कब आँख लगी पता ही न चला.और मेरे बाकी दोस्त ... वे सब वही कर रहे थे जिसका जिक्र मैं इस लेख की पहली लाइन में कर चुका हूँ.
          बेहद निराश था में उस रोज.तय  कर लिया था कि छुटकारा पा लूँगा.नौकरी छोड़ दूंगा... रिश्ते- नाते भगवान्-श्ग्वान ...यहाँ तक की ज़िन्दगी से भी ऊब हो चुकी थी.ठंडी हवा बह रही थी और मन सोच रहा था कि काश!धरती पर सच्ची-मुच्ची में अगर भगवान्- शगवान है तब उससे एक बात तो बातचीत हो जाती!इतने में वीणा की मधुर तान गूंजी-
               नारायण...नारायण...नारायण...नारायण...
देखा तो देवर्षि नारद मेरे सामने खड़े हैं.आपने भी कहानी-किस्सों में सुना होगा कि उनकी महिमा अपरम्पार है.मन के भीतर की बातों को बिना बोले ही ताड़ जाते हैं." प्रणाम देवर्षि!" एकाएक उन्हें  सामने पाकर भौचक स्थिति  मैं मेरा  मुंह खुला का खुला रह गया था.
                   "टनाटन रहो मेरे दोस्त !"देवर्षि की न्यू जनरेशन बोली ने मुझे कुछ और हैरत मैं ड़ाल दिया.सोच परिवर्तन सृष्टि का नियम है : हम सब लोग जब परिवर्तन के दौर से गुजर रहे हैं तब देवर्षि इससे बच जाये यह कैसे मुमकिन है?खैर चलते-चलते मैंने  भी अपने मन के भीतर का भड़ास डाट काम खोलकर देवर्षि के सामने उसी तरह अपना जी हल्का  कर लिया जैसे खांटी रोनहा टाईप लोग अपने बॉस के आने पर किया करते हैं.
                                       वैसे भी देवर्षि नारद सभी तरह की विश्वसनीय सलाह देने का एकमात्र स्थान हैं.मैंने अपना दुखड़ा रोते हुए उनसे कहा था," देवर्षि! इतना सब सुनने के बाद आप क्या एक भी कारण बता सकते हैं कि मैं  सब कुछ छोड़-छाड़ कर कहीं चल न जाऊं!"इस पर देवर्षी नारद ने मुझे जो गुरुमंत्र दिया वह(अपने कान मेरे पास लाइए) आपके कानों मैं भी फूंक देता हूँ-
                    " अखबार नवीस ! आसपास जरा गौर से देखो"-देवर्षि ने मुझसे कहा." यहाँ तो चारों ओर पर्णांग( फर्न)और बांस का जंगल हैं." मैंने चारों और नजरें दौड़ते हुए कहा ." तुम जानते हो जब पर्णांग और बांस के बीज लगाये गए थे धरती पर ,प्रकृति या ईश्वर ने उनकी पूरी तरह देखभाल की.सूरज( प्रतीक  ईश्वर )ने उन्हें रोशनी दी.. पानी दिया.और फर्न के बीज  तत्काल धरती का सीना चीरकर अंकुरित हो गए.वो देखो! फर्न की चमकीली हरी चटाई कैसे  पसरी हुई है !लेकिन बांस के बीज से कुछ नहीं निकला .बांस के बीज से आशा नहीं छोड़ी थी प्रकृति ने.!"
               दूसरे बरस फर्न काफी घना और जीवंत हो चुका था फिर भी बांस का बीज निरुत्तर था.ईश्वर या प्रकृति ने बांस के बीज से अब भी आशा नहीं छोड़ी थी.देवर्षि ने अपना कथन जारी रखा,"तीसरे बरस भी बांस का बीज पूरी तरह खामोश रहा.लेकिन आशा मन में कायम थी.चौथे बरस भी यही हाल रहा.अब भी बरकरार था आशा पर विशवास.
                      " पांचवे बरस धरती के भीतर से बांस के बीज ने अंकुर उभारा." देवर्षि का किस्सा रोचक मोड़ पर था. वे कहने  लगे,"पर्णांग या फर्न की तुलना में यह अंकुर एकदम नन्हा और प्रभावहीन था.लेकिन छः महीने के बाद बांस का बीज जमीन से सत्तर फीट ऊंचाई पर खड़ा था.पांच बरस तक उसकी जड़ें जमीन में गहराती जा रही थीं.उन जड़ों ने बांस को मजबूती और लम्बे समय तक जीने की अंदरूनी ताकत दी.
                       नारायण ..नारायण..नारायण..नारायण..
देवर्षि नारद ने मेरे चेहरे पर भकुआया भाव देखकर अपने बोल-बचन फिर शुरू किये.,"कुछ समझे अखबार नवीस!प्रकृति या ईश्वर अपनी रचनाओं को कभी ऐसी चुनौतियों से जूझने को विवश नहीं करती जो वे संभल न सकें." तुम जानते हो,जब तक तुम अपनी जिंदगी मैं संघर्ष कर रहे होते हो ,दरअसल तुम्हारी जड़ें जमीन में गहराई तक धंसती चली जाती हैं जिस तरह बांस के बीज से आशा अंतिम समय तक रही तुमसे भी   भरोसा  कैसे छोड़ा जा सकता है?बाकी लोगों से अपनी तुलना करना छोड़ दो."
                                  

                       " मेरे कहने का मतलब यह है कि  " देवर्षि ने बात को स्पष्ट करते हुए कहा "पर्णांग या फर्न का प्रयोजन अलग है और बांस की महत्ता अलहदा .फिर भी दोनों ही मिलकर जंगल को खूबसूरत बनाते हैं.
" लेकिन देवर्षि! मेरी समस्याएँ जो अपनी जगह पर हैं उनका क्या?" मैंने सारी समझाइश को अपनी परेशानियों  के और करीब लाना चाहा." अखबार नवीस!बस यही तो मैं तुमसे कहना चाहता हूँ" देवर्षि नारद बोल-बचन के अंतिम दौर में थे." तुम्हारा भी समय जरूर आएगा.... ईश्वर ( सुप्रीम पावर) ने मुझसे कहा है ... तुम्हारे भी दिन बदलेंगे और नई ऊंचाइयां हासिल  होंगी."
                      "देवर्षि ...किस ऊंचाई तक पहुँच सकूंगा में" मैंने पूछा." किस ऊंचाई तक पहुँचता है बांस!" देवर्षि ने प्रतिप्रश्न किया."जितनी मेहनत और लक्ष्य होगा."" हाँ! बिलकुल ठीक." ऊंचाई और सफलता हासिल कर तुम मुझे गर्व करने का अवसर देना" देवर्षि  ने इतना कहा और वे अंतर्धान हो गए.हवा में गूंजने लगी वीणा की तान और देवर्षि के ये शब्द.-
             नारायण...नारायण...नारायण...नारायण...
" अबे जल्दी उठ!!!साले... जल्दी घर लौटना है या नहीं?"मेरे बाकी दोस्त ढूंढते हुए पहुंचे और झकझोर कर जगाया.मुस्कुराते हुए में जंगल से घर की और लौटता हूँ अपने दोस्तों के साथ ..आज भी अक्सर मुझे दिखाई दे जाते हैं वही  आसमान छूते बांस और फर्न की पसरी हुई हरी चटाई!!!
           आज बस इतना ही.
                                                     अपना ख्याल रखिये
                                                                                       किशोर दिवसे