शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

गुंचा और गुल..

Posted by with No comments
जो बाग़ बहार में उजड़े उसे कौन खिलाए...
  
क्या मुसीबत है सच लिखना भी!लोग बर्दाश्त नहीं कर सकते और उनके "वहाँ" पर मिर्ची लग जाती है.मीठा -मीठा गप गप और कडवा -कडवा  आक थू!!!सच चाहे इंसान के अपने निजी हों या समाज के ,कमजोरियों पर आँख मिलकर बात करने का साहस जुटाना हर किसी के बूते की बात नहीं होती."  खैर... छोडो भी अखबार नवीस किस-किस को रोइएगा ...! दद्दू ने समझाइश देते हुए कहा " हर किसी को प्रशंसा सुनना अच्छा लगता है पर जो बिना अपने मन में  गांठ बांधे आलोचनाओं पर गौर करे वह अपनी कमजोरियों पर पार पा लेता है.
                " ठीक कहते हो दद्दू ! कबीर ने इसलिए कहा था " निंदक नियरे राखिए "...लेकिन चाटुकारिता का मीठा जहर आलोचनाओं की कुनैन पर भारी क्यों पड़ने लगता है!
" यही तो जिंदगी के सच्चे रंग हैं जिन्हें हम देखकर भी अनदेखा कर मुंह घुमाने लगते हैं!पर एक बात सच है कि हर जगह दोनों सच्चाइयाँ आप साथ-साथ महसूस करेंगे.गोया कि फूलों के सच क़ी रक्षा आलोचनाओं के कांटे ही करते हैं.भले ही चापलूस भँवरे कितना ही उन्हें ठगने क़ी कोशिश क्यूँ न करें.
                     फूल और कांटे क़ी बात के चलते ख्याल ही न रहा कि कब हम लोग कंपनी गार्डन के दरवाजे से
 होते हुए ढेर सारे फूलों की  झाड़ियों के सामने पहुँच चुके थे.वैसे भी खूबसूरत फूलों के चेहरे देखते हुए हरी दूब
 पर बैठकर गपियाने का सुकून और ही है.जेहन में गुंचा(कली),गुल(फूल),गुलशन(बगीचा )और बागबान अपने आप ही तैरने लग जाते हैं.
                         फूलों से भरी  झाड़ियों से कुछ दूर ठूंठ नुमा पेड़ को देखकर दद्दू बोले" दोस्त!कितनी बेबस होती है वो जिंदगी जिनके मुकद्दर नें खार का मौसम लिखा होता है.शायद इन्हीं के लिए कौसर ने खूब फ़रमाया है-
                लिखा हुआ था मुकद्दर में खार का मौसम 
                 बहार में भी न देखा बहार का मौसम 
 बहार का मौसम आता है तब कलियाँ और फूल खिलने लगते हैं.महकते गुलशन में जब कलियाँ मुस्कुराती हैं तब हंस के फूल कहते हैं ,"अपना करो  ख्याल,हमारी तो कट गई .  "उधर कोने में कुछ नौजवान जोड़े सभी निगाहों से बेखबर हैं उन्हें हाथों में हाथ लिए देखकर गुंचा और गुल तो क्या पत्ते और बूटे भी लहराकर ... झूमकर कहने लगे-
                                   पत्ता पत्ता,बूटा बूटा ,हाल हमारा जाने है 
                                  जाने न जाने गुल ही न जाने  बाग़ तो सारा जाने है 
सारी दुनिया ही एक गुलशन है .घर-बाहर तमाम बगीचों के अपने -अपने बागबान होते हैं.जितने अक्लमंद ,संवेदनशील बागबान होंगे गुलशन में कलियों और फूलों को उतना ही मुस्कुराता हुआ आप देखेंगे.यही जिंदगी का सच है.तपाक से दद्दू की निगाह ऍ शौक ने महकते हुए कहा  ,"मैं अपनी आँखों में हमेशा बागबान की नजर रखता हूँ.शायद इसलिए जिस ओर निगाह उठती है वह इलाका ही गुलशन हो जाता है."
                        " फूल और कली में क्या फर्क है?" दद्दू ने जब शैतानी के अंदाज में पूछा तब कुछ पल " निःशब्द" रहकर किसी कली का चेहरा देखकर  कहना पड़ा " सो सिम्पल! इक बात है कही हुई ,इक अनकही !"
                यूँ की फूलों को देखकर दद्दू रोमांटिक हो जाते हैं.अपने दिल की बात कानों में फुसफुसाकर कहने लगते हैं                    तुम ही बताओ महके हुए जिस्म के करीब 
                                   फूलों की समत कौन नजर उठाएगा ?
फिर भी जब दद्दू ने होके से किसी फूल को सहलाया तो एक कांटे ने तुरंत उनकी अंगुली से खून की एक बूँद रिसा दी.मैंने कहा " यह तो यही बात हुई की किसने फूलों की डाल करीब  लाकर रख दी और मैंने फूलों के शौक में काँटों पर जुबान रख दी."
                         खैर सपनी किस्मत लेकर आते हैं फूल!गुलदस्ते से लेकर देवघर में... अर्थी से लेकर किसी मरहूम की फोटो पर या किसी के जूडे में... किसी की कलाई में... रोज दे या वेलेंटाइन डे पर एक हाथ से दूसरे हाथ या फिर कापी-किताब के पन्नों के बीच सूखे से पर किसी की यादों को तरोताजा करता हुए!
       किस्सागोई के बीच घर से लेकर दुनिया के गुलशन में बागबान की बेहतरी के लिए भगवान से मंगल कामना करना कैसे भूल सकते हैं ? बगीचे से लौटते वक्त एक चौक पर नजर पड़ती है जहाँ चंदा करने वाले युवकों की टोली   किसी मोटर साइकल सवार से झंझट कर रही है. उन्होंने सारी सड़क को ही घेरकर रखा है.यातायात अव्यवस्थित हो गया है. प्रशासन ने आँख मूँद रखी है. .देवी माँ सोच रही है ,"चलो!उत्सव मनाना तो भूल गए भक्तों को पूजा करने की तो याद है!रात की आरती का समय हो चला है.अचानक पंडाल के भीतर तेजी  से गूंजने लगता है यह गीत -" मुन्नी बदनाम हुई... डार्लिंग तेरे लिए..."
   आज रात बस इतना ही... शुभ रात्रि,, शब्बा खैर.. अपना ख्याल रखिएगा..
                                                                                                       
                                                           किशोर दिवसे

0 comments:

एक टिप्पणी भेजें