नारायण... नारायण...
नारायण.... नारायण....
चौंककर नारद जी ने देखा और उनसे रहा न गया.उनहोंने पल भर काबू रहने के बाद पूछ ही लिया " यह क्या त्राटक सीख रहे हो जो जलते दीये कि लौ को एकाग्र होकर घूरे जा रहे हो!किसी के आने का आभास भी नहीं?"
"नहीं देवर्षि ....दीये को जलता हुआ देखकर यों ही मन में विचार आया कि क्या हम भी इस दीये कि तरह नहीं हैं!ऊपर चुंधियाती रौशनी से जगमगाता और तले घुप्प अँधेरा.कथनी और करनी में कितना फर्क हो गया है आज -मन का कल्मष धूर्तता कि चाशनी में लिपटा मायाजाल बुनने में कितना सक्षम है!महानगर की अट्टालिकाओं के नीचे झुग्गियों का अभिशप्त जीवन ,अमीरी के विष दंतों में पिसते गरीब,बाजारवाद की सूली पर लटकते नैतिक मूल्यों के परखच्चे ," वर्तमान "के चरम भौतिकतावादी दर्शन पर क्रूरतम घात - प्रतिघात करती अतीत और मध्ययुग की सड़ी - गली व्यवस्था .... दीये कि रोशनी को देखकर में फिर सोचने लगता हूँ- उजाले के अट्टहास और अँधेरे के अवसाद के बीच की खाई कभी पटेगी या नहीं?
आइये मन में दीप जलाएं ,कर्तृत्व के प्रति आस्था का
रौशनी भी है, अँधेरा भी... सवाल है कि आप किसे देख रहे हैं? जगमगाहट या स्याह! अमीरी-गरीबी ,वर्ण व्यवस्था के उबाऊ मकडजाल पर जबरिया पन्ने रंगना मूर्खता है.कर्तृत्व ही प्रथम व् अंतिम सत्य है.- लाओ अपने मन का दीया,उडेलो संकल्प का तेल और प्रज्ज्वलित करो लक्ष्य की बाती - उजियारी राह आपकी प्रतीक्षा कर रही है.पर जरा ठहरो -
दर से निकले तो हो,सोचा भी किधर जाओगे?
हर तरफ तेज हवाएं हैं बिखर जाओगे
मगर घबराइए शायर निदा फाजली की इस धमकी से! उनहोंने ताकीद की है राह पर निकलने से पहले सोचने की.लक्ष्य का दीया अंतस में जलता रहेगा तब आपके साथ होगा स्वविवेक और स्व कर्तृत्व ; पाखंड वाद तथा अतिवादिता की पिशाच्लीला से आप अछूते ही रहेंगे.
नारायण... नारायण... नारायण... नारायण...
वीना की झंकार से विचार प्रवाह खंडित हुआ." देखो देखो... शेर और बकरी- देवर्षी ने मुझे टोका. दीये के अंजोर में एक दृश्य स्फटिक की मानिंद उभरता हेई ,सिर्फ मेरे ही नहीं अमूमन हर किसी के सामने- " शेर झपट्टा मरकर बकरी को उदरस्थ कर गया .यह शेर पर निर्भर करता है वह किस तरह अपना पेट भरे.जीने का हक़ बकरी को भी है, उसे इतनी चालाकी बरतनी होगी की शेर के आक्रमण से बच सके.
जंगल का कानून,मेंडेल का नियम -"स्ट्रगल फार एग्जिस्टेंस ,सर्वाइवल आफ डी फिटेस्ट " और अमीबा से लेकर होमो सेपियंस तक सारा विकासवाद विज्ञानं की पुस्तकों के जरिये पल भर में हमारे मस्तिष्क में तरंगित होता है.अचानक दीये की लौ कांपकर फिर स्थिर हो जाती है-इस बार दृश्य बदलता है.आलोक में इस बार मै खुद को पता हूँ.-मेरे दोनों हाथों में मुखोटा है, एक हाथ में शेर का और दूसरे हाथ में बकरी का.जैसे-जैसे घडी कि सूइयां आगे बढती हैं कभी शेर तो कभी बकरी का मुखोटा मेरे चेहरे पर चिपकने लगता है.जरा देखिये... आपका चेहरा पहचानकर भी झूठ मत बोलना!
मैं खुद दिया बन गया हूँ.माथे पर उभरे स्वेद बिन्दुओं की क़तर देखकर नारद जी मुस्कुराने लग जाते हैं-" वह देखो ल कलमकार!... दीये के आलोक पटल पर सिर्फ तुम ही नहीं सारा समाज ही एक मिनिएचर के रूप में दिखाई दे रहा है." चारों ओर मुखौटों क़ी दुकानों में चल रही छीना-झपटी से कोहराम मचा हुआ है.
नारायण... नारायण... नारायण... नारायण...
वीना के तंतुओं के झंकृत होते ही देवर्षि अचानक अंतर्धान हो जाते हैं.चौंकता हूँ मैं फिर कुछ सोचकर उस दीये क़ी अग्निशिखा पर केन्द्रित हो जाता हूँ- मोतीचूर का लड्डू है यह समाज ... एक एक दाना यानि " व्यक्ति " हुआ समाज का घटक .मानवता के वैश्विक द्रिस्तिकों पर सोचना ही चाहिए .फ़िलहाल अगर भारत के सन्दर्भ में ही सोचें जातीय ही नहीं भारत में बसा मानव समाज इस दीये क़ी लौ में झांककर देखें क्या ऐसे मूल्यों व् राष्ट्रिय चरित्र का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है ?काश इस दीये क़ी लौ हमारे ठन्डे खून में उबल लाये और जगती आँखों से भी भारत का हर बन्दा पूरी शिद्दत के साथ दिवा स्वप्न साकार करने क़ी दिशा में कुछ इस तरह से सिंह गर्जना कर
सके- देखा है मैंने जागती आँखों से एक ख्वाब ,वतन हो अपना सारे जहाँ का आफ़ताब
दीये क़ी रौशनी में भारत को विश्व का आफ़ताब क़ी मानिंद देखने के मेरे "विचार-त्राटक "पर अचानक जोरों का ब्रेक लग गया जब देवर्षि बदहवासी क़ी हालत में मेरे समक्ष प्रकट हू
नारायण... नारायण... नारायण... नारायण...
" मैं जान गया हूँ ... धरती का मानव समुदाय इतना जटिल और खुदगर्ज क्यों हो गया है... सब कुछ इन सियासत बाजों क़ी मक्कारी है जो अवाम का आत्म सम्मान जागने ही नहीं देती.इस दलदल में भी कुछ चेहरे बेहतर सोच क़ी शक्ल वाले " अच्छे चने"हैं लेकिन वे गंदगी से लथपथ सियासी भाड़ को फोड़ने में सक्षम नहीं.सारे सिस्टम ही इतने सड गए है कि आम आदमी के मन में राष्ट्रिय चरित्र का उजियारा क्या खाक लायेंगे जो बालूई बुनियाद कि वजह से खंड-खंड खंडित हो चुके हैं."अवाम को वे बिना रीढ़ का लिजलिजा मांसपिंड बनाये रखना चाहते हैं.
अचंभित मैं,देवर्षि के चेहरे में आर्क मिदीज के उन हाव-भाव को पढ़ रहा था जो सापेक्षता के सिद्धांत कि तह तक पहुंचकर दिखाई दिए थे. यूरेका... यूरेका... ... नहीं मै अपने आप में लौटा.... मुनि श्रेष्ठ कह रहे थे -"समाज कि अधोगति का एकमात्र हल सामाजिक चेतना ही है" यह अधोगति मुझसे देखी नहीं जाती.... कहकर देवर्षि अंतर्धान हो गए.
पर मुझे अच्छी तरह ध्यान है अपने अंतस में प्रज्ज्वलित होते दीये का. आइये... दीप पर्व कि इस बेला में मेरे हाथों में रखे इस दीये को आप भी स्पर्श करें ताकि आपके अंतस का दीया भी दीप-दीप मिलकर दीप मलिका बन जाए और सार्थक कर दे यह दीप पर्व....
अपना ख्याल रखिये
किशोर दिवसे
मोबाईल 9827471743
3:10 am
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