गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

बारूद की फसल अब लहलहाने लगी है

Posted by with No comments
यूँ तो मजरे , टोले,  गाव , शहर और महानगर की अपनी  तासीर और जिंदगी होती है.बरास्ता इनके ,बाशिंदों के अक्स दिकाते शब्द भी गढ़ लिए गए है- ग्रामीण,शाहरिये,या मेट्रो सेक्सुअल.यकीनी तौर पर् मुहं  में चूसनी वाली  उम्र से , कब्र में पाँव लटकने तक खंदहरी हालत के मौजूदा वक्त के दरमियाँ ( और बरसों पहले भी ) आदिवासी शब्द में कितना फर्क महसूस  किया गया? इंशा अल्ला रौशनी कि चुन्धियाने वाली जगमग से छिटककर चंद लकीरें ही उनपर पहुँच सकी हैं.
                                      छोडिये भी... किस किस को कोसेंगे और किस किस का रोना रोइयेगा... उनकी हालत के लिए ! पर आईने का सच उस लम्हा चीखता है जब साथी शाकिर भाई कि कवितायेँ जमीनी सरोकार कि आतिश बनकर आदिवासियों से गहरा रिश्ता जोड़ लेती हैं
                                  नदी -नाले इन्द्रावती से होकर गोदावरी में / बचे हुए पेड़ पहाड़ बारहों मॉस तक हरे रहते हैं / गनीमत है अभी भी/ बारूद का असला पेड़ों पर नहीं / गोदामों में ही फलते फूलते हैं.
आहा सुन्दर बस्तर ....पर हालत कैसी है ! देखिये, दहशत का मंजर कैसे उभरता है जब कोई अपने पहचान पत्र को सीने से लगा कर रखता था.आशंका यही कि सर कटने का खौफ , पर धड तो पहचाना जायेगा?कब होगी आदिवासी जीवन की दहशत? बस्तर कि जिंदगी का एक लम्हा आशाओं के साथ जीती है यह कविता -ऊंची कूद, लम्बी कूद, लम्बी दौड़ में / सफल होने वाले  उम्मीदवार / चुन लिए गए थे/ उन सबमें अधिकाँश आदिवासी थे. ( सवाल यह है कि पीछा करती मौत उनके निकट है या गलबहियां करने को उतावली जिंदगी ?)
                                          बस्तर कि जिंदगी के केनवास पर कुछ चीथड़े धूसर रंगी हैं. सियासी इच्छा शक्ति और जन जाग्रति के आभाव में विकास के खुश नुमा रंगों के गहरे स्ट्रोक्स नहीं लग रहे हैं.शहरी हाथों का रेला आगे बाधक उन्हें " लुस्त फॉर लाइफ " का किरदार बना सकता है. तेंदूपत्ता तोड़ने जंगल में मत जाना/ अब जंगल में / बाघ भालू  नहीं / बारूदी गंध पीछा करेगी तुम्हारा. / उधर से नगा मारेंगे इधर से दगा!!हमसे दगा करने वालों होशियार. होशियार!!
बजरिये कविता , बस्तर में चेतावनी का खौफ , हालात और मुखबिरी के सर पर मंडराती मौत, वहां की जिंदगी के थर्राने वाले रंगों की ओर इशारा है.
                               विकास के अवसरों को कैसे नंगा कर देती है बस्तर में बदनीयत - बहुत पहले अखबार में छपी थी खबर/ कि बस्तर में यूरेनियम मिला है / लौह अयस्क तिन / और कोरंदम के बाद/ तब से गोपनीय यात्राएँ बढ़ गयी हैं.!!!
शासकीय योजनायें बेहतर मोनिटरिंग से फ्लॉप शो बनने से बच सकती हैं.सचमुच बस्तर कि जिंदगी  को फायरिंग के धमाके नहीं बल्कि वहां की  " सच्ची सफल कहानियों की आतिशबाजी की जरूरत है.यह राजनीतिक दावपेंच नहीं जन जेहाद से ही मुमकिन है. कितना सच है- " डेढ़ सौ बचे , बैगा जन जाती को बछाने के लिए/ डेढ़ सौ करोड़ स्वीकृत किये गए हैं/ और डेढ़ हजार करोड़ / इनकाउन्टर  के लिए रख दिए गए है.
                                     बस्तर  गोली कांड, बहस और स्कूल बंद है... स्थिति मानसिक हालात और स्कूल के माध्यम से बस्तरिया जिंदगी के जिस्म पर दहशत से खड़े रोंगटे दिखने पर मजबूर हैं ." गुरूजी खून से लथपथ गिर पड़े थे , तब से कोंगुद का स्कूल बंद है.!!"कोंटा जाने वाली बस में बैठा ओट्टी दरोगा का बेटा जब देखने जाता है- "पापा ठीक तो हैं ? पापा महीनों से घर नहीं आये हैं.बस्तर कि जिंदगी ( कर्मछारियों कि भी )का मार्मिक पहलू आपके पहलू में डालने कि पहल करता है.
बूझ - अबूझ सब कुछ है बस्तर में.पर नदी धरती और पहाड़ बनकर जीने की जिद किस्में है?बस्तर के हारते हरेपन का हाथ धरकर आगे ले जाना , सहमे जंगल का हौसला बढ़ाना , मौलिक संस्कृति के ह्रास कि दुहाई देकर जीवन स्तर ऊंचा उठाकर आत्मसम्मान के शिखा पर पहुंचाना शेष  समाज की जिम्मेदारी है." पोलिटिक्स आफ इंटर प्रिटशंस  " की भूल भुलैया में आदिवासियों को भटकाए रखने  कि साजिश को बेनकाब करना सोच के तडाग कि मौजू मेराथन होना चाहिए.
                                           साथी शाकिर भाई की कवितायेँ जन जिहाद को उकसाती हैं.हाशिये पर जाते या विलुप्त होती धडकनों को सहिजकर उनका दस्तावेजीकरण  चिर स्थायी तौर पर करने को प्रेरित करती है.वे कहती है - जिद तो करो ... जीतेगा जंगल का आदमी जीतेंगे पहाड़ , जीतेंगी नदियाँ... आँखे खुलेंगी तटस्थ  और लूट में शरीक लोगों की.
काश कवित में शरीक सारे शब्द इंसान बनकर बस्तरिया आदिवासियों से गल बहियाँ कर लें ... सचमुच शब्द भी चाहते हैं तरक्की , ख़ुशी ,उजले पहलुओं पर गौर करना. लेकिन खुशियाँ जब सहम जाती हैं दहशत  से तब,जिंदगी के केनवास पर बिखरे रंग  अल्फाज बनकर खुलने लगते हैं--
                                             कितना आसान खात्मा
                             आदिवासियों को मिटाना कितना आसन होता है
                             इन्हें एक दूसरे से लड़ा दो
                             वे खुद एक- दूसरे को मिटा देंगे
                             एक बाँध बना दो , इसमें वे डूब जायेंगे
                             इनका नामो- निशाँ न   बचेगा प्लांट लगा दो
                             मुआवजा पाने के बाद
                             पी- पीकर वे ख़त्म हो जायेंगे!
                                  

0 comments:

एक टिप्पणी भेजें