सोमवार, 18 अक्टूबर 2010

दशहरे की रात..

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पापा रावण तो जल गया ...

पापा....रावण देखने चलो न...आ गए रावण मारकर... सीमोल्लंघन हो गया! रुको जरा आरती कर लेने दो. बरसों से परंपरा निभाते आ रहे हैं हम सब लोग.मानसिकता के केंद्र में रावण लेकिन राम चिंतन कौन करे?हाई प्रोफाइल बना दिया है रावण को लेकिन राम हाशिए पर! कर्म कान्दियों  की साजिश ने महापंडित रावण के चरित्र की अधमता को नमक-मिर्चें लगाकर बुरे का कालजयी प्रतीक बना दिया लेकिन राम की मर्यादाओं को किसी भी पीढ़ी में प्रतिस्थापित करने की कोई तैयारी नहीं की.
                        विजयादशमी पर सड़कों से गुजरता रहा रेला उन सभी मैदानों की ओर जहाँ रावण के पुतले बने थे.रेलवे, एस ई सी एल, मुहल्लों के मैदानों और अपार्टमेन्ट के सामने जगह बनाकर रावण बनाये गए. कहीं बड़ो ने तो कहीं  बच्चो ने बहुत मेहनत की.बेचारा पुलिस मैदान वाला रावण खुद राजनीती का शिकार हो गया था. काफी देर तो पहले उसे मैदान से बाहर लावारिस हालत में रहना पड़ा. फिर विवाद सलटने पर एंट्री हुई. खैर राजनीति का शिकार कलजुग में होना रावण की नियति  बन गई है इसलिए तो वह भी बदला लेने के लिए हर इंसान के मन में सेंध लगाकर बैठ गया है.
रावण दहन से पहले ऐसे ही एक पुतले पर जब निगाहें पड़ी तब देखा रावण अपनी मूंछो पर ताव देकर गरजा,"बच्चू! सैकड़ों बरस बीत गए आज  भी बात रावण दहन की होती है .मेरे चरित्र की इक्का-दुक्का बुराइयों को इतना फोकस किया की नई पीढ़ी के बच्चों को यह भी नहीं मालूम होने दिया की मेरे चरित्र में अच्छाइयां  भी हो सकती हैं.और राम के आदर्श भी तो आज तक तुम्हारा समाज अपने भीतर नहीं समेट सका है!
                            रावण का एक पुतला मरियल और सुकड़ा सा था." यार, मुझे बताओ कि   मुझमें और तुममें क्या फर्क बच गया है?मेरे पूर्वज के कुछ दुर्गुण आम आदमी ने ले लिए लेकिन अपने भीतर के रावण (अहंकार )को नहीं  मार  सके. मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था की धरती पर इस हद तक रावण राज छा जाएगा."मेघनाद का पुतला भी अट्टहास कर उठा ,"बेवकूफ!पुतला जलाने  की परंपरा भर निभा देने से क्या बुराइयां मिट  जाएंगी?अहंकार और अधमता के ध्रुव प्रतीक की एक दिन याद करोगे फिर बैठ जाओगे आँखें मूंदकर.!"
                      माइक पर  उदघोषणा के बीच आगमन होता है नेताजी का."दस बार" सोचने के बाद भी रावण का पुतला यह समझ नहीं पाया की आखिर कब तक "बड़ा रावण"इस पुतले को फूंकने का मूक गवाह बना रहेगा.वैसे रावण राज के सही .वारिसों को फलते-फूलते देखकर मेघनाद का प्रसन्न होना स्वाभाविक ही था.
                          कुछ देर तक दहन पूर्व की रस्में चलती हैं फिर धांय...धांय ...फटाक.....धमाके और लपटों में रावण का पुतला एक बार फिर पहले मुड़े -तुड़े  ढांचे फिर राख  के ढेर में बदल जाता है.एकाएक गूंजता है रावण की चिता से अट्टहास ."अपराध ,भ्रष्टाचार ,पाखंड,घोटाले ... यह सब मेरी शाश्वत सत्ता की गवाह हैं.ध्यान से देखो!गन्दगी से लथपथ कमल और कीचड़ से सने पंजों की कतारें ."
                               "लेकिन यह भी तो सच है की राम के नाम पर वोटों की राजनीति करने वालों की सत्ता का राम नाम सत्य करना जनमत सीख गया है." विभीषण का स्वर साफ़ सुने  दिया ."घर का भेदी  लंका ढाए! विभीषण जी... आप तो घर -घर  में बदनाम हैं.बात फिर परिवार की हो या राजनीति की.विभीषण ने अपना तर्क रखा ,"मैंने तो सत्य का साथ दिया  था,घर का भेदी कहना मेरी चरित्र हत्या का षड्यंत्र है."
                              रावण ने राम को हाइजेक कर लिया है... यह सत्य पौराणिक नहीं वरन आपके-हमारे मन के भीतर का है.राम की मर्यादाएं पूजा घर की लक्ष्मण रेखाओं में सिमट कर राह  गई हैं.पूजा घरों में या मंदिरों से जिस रोज ये मर्यादाएं बच्चों को संस्कारों में व्यावहारिक तौर पर मिलेंगी तब होगा नैतिक उत्थान
                               काफी धोखाधड़ी हुई है,पर ईमारत खड़ी हुई है
                               राम तुम्हारी मर्यादा ,बस पूजाघर में पड़ी हुई है 
राम कसम खाकर  राक्षसी कृत्य करने वालों के मुखौटे जब चेहरों से नुचेंगे तब होगी अंतर्मन में राम की प्राण प्रतिष्ठा.रावण प्रतीक   पुतले की शव-भस्म से फिर गूंजती है गर्जना -"त्रेता का रावण मरा नहीं है वह कलजुग के असंख्य मानव मन में छिपा बैठा है.अच्छाइयां  भी है पर सहमी-सहमी सी...मन का रावण लंका के रावण से भी अधिक चतुर सुजान है.वह डंके की चोट पर कहता है कि कलजुगी  मानव में इतनी कालिमा भरी है की मुझे खोज निकलने की शक्ति किसी में नहीं."
                    भारी  भीड़ है रावण दहन स्थल पर.खोमचे ,ठेले,खाने-पीने की चीजें,फैशन,चकल्लस ताकाझांकी,छेड़छाड़, मनोरंजन और मस्ती का बालीवुड मसाला दिख रहा है. जो धुंधली  सी  है वह -श्रद्धा और सत्य की खोज!सारा जीवन ही रामलीला का मंच बन गया है.उडती हुई नजर भीड़ में मौजूद चेहरों पर डालता हूँ-राम,लक्ष्मण,हनुमान ,दशरथ,रावण ,सीता,कौशल्या, कैकेयी,शूर्पनखा और विभीषण... और भी अनेक चरित्र पूर्ण अथवा खंडित रूप में मुखौटे बनकर चेहरों पर चिपके हुए हैं.पर बाहर .... आम आदमी!
                     अरे! यह क्या...यहाँ तो महाभारत के भीष्म,  पांडव ,अर्जुन शकुनी और दीगर किरदार भी हैं.सभी समाज में अपने-अपने रोल अदा कर रहे है.सच कहें तो दुर्योधन,द्रोपदी,गांधारी शिखंडी और चरित्र  तो अनेक मिल जाएँगे लेकिन राम और कृष्ण के किरदार के करीब  कौन पहुँचता है?पता तो लगाइए समाज में कौन कैसा किरदार निभा रहा है?
                           मैदान  से रावण दहन का विजय पर्व मनाकर भीड़ लौटने  लगी है ."जय राम जी की !अब समय आ गया है की धर्मशास्त्रों को धार्मिक साहित्य की तरह पढ़ा जाए.आज के समय में जो बातें समाज  सुधारक  बन सकती हैं उसे कायम रखकर बाकी कूड़ेदान  के हवाले कर देनी चाहिए."सोन पत्ती देते हुए दद्दू अपनी राय देने से नहीं चूकते.खैर!दशहरा मना  लिया... हाथ खोलो !सोनपत्ति के साथ आपको भी  शुभ् कामनाएं ... और हाँ.इसी हथेली पर हम जगमगाता  दीप रखकर साथ-साथ चलेंगे.लेकिन अभी सोचिएगा ज्जरूर क्योंकि  महापंडित रावण ने दशानन होकर भी एक बार भी नहीं सोचा पर हमें अपने इकलौते सर से ही दस बार सोचकर काम करना है.एक आवाज सुनकर अपने-आप में लौटता हूँ-पापा... अब तो चलो ना!....रावण तो कब का जल गया है....
                                                  शुभकामनायें.....किशोर दिवसे.

                             
                                      
                            
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