शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2010

ठिठुरती रात की बात

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जब चली सर्द हवा मैंने तुझे याद किया 

ये सर्द रात ,ये आवारगी,ये नींद का बोझ 
हम अपने शहर में होते तो घर चले जाते


बढ़ते शहर में मौसम को जीने का अंदाज भी चुगली कर जाता है.या फिर यूँ कहिये के बदलते वक्त में मौसम को जीने की स्टाइल भी "अपनी अपनी उम्र" की तर्ज पर करवटें बदलने लगती हैं.सर्दियों का मौसम अपना अहसास दिलाने लगा है यह भी सच है की शहर के बन्दे अब मौसम का मजा लेने लगे हैं.और उसका अंदाज भी खुलकर व्यक्त करते है सब लोग.
       यूँ ही काम ख़त्म कर चाय पीने के बहाने ,दिमाग पर पड़ते हथौड़ों को परे हटाकर उसे कपास बनाने की नीयत से लोग स्टेशन या बस स्टेंड के चौक पर इकठ्ठा हो जाया करते हैं.करियर की चिंता के तनाव को चाय की चुस्कियों में हलक से नीचे उतारती नौजवान पीढ़ी के चेहरे सर्वाधिक होते हैं.बाकी तो सर्विस क्लास और दो पल रूककर अपनी चाहत  बुझाने को रुकते हैं लोग.
प्लेटफार्म पर इन्तेजार में बैठे उस शख्स को ठोड़ी पर हाथ रखे देर रात तक सोचने की मुद्रा में देखने पर ऐसा लगा मानो वह मन में कह रहा हो... हम अपने शहर में होते तो ....! खैर अपनी -अपनी मजबूरी!
                       ठण्ड काले में सूरज भी सरकारी अफसर हो जाता है 
                      सुबह देर से आता है और शाम को जल्दी जाता है 
दिन छोटे हो गए.नीली छतरी सांझ को जल्दी ही मुंह काला कर लेती है.यह अलग बात है की सफ़ेद-पीले बिजली से रोशन"सीन्स के देवदूत"अँधेरे को उसी तरह मुंह चिढाते हैं मानो शैतान बच्चों की कतार लम्बी जीभ निकलकर कह रही हो...ऍ ssssss !  
चौक चौराहों पर ... सड़क किनारे आबाद खोमचों -ठेलों पर पहली दस्तक मकई के भुट्टों ने दी थी.पीछे-पीछे मेराथान्रेस में दौड़ते आ गए बीही ,गजक ,गर्मागर्म मूंगफली के दाने और गुड पापड़ी.
                     घरों और शादी के रिसेप्शन में गाजर का हलवा और लजीज व्यंजनों के साथ मौसम को जीना सीखते शहर के बन्दों को देखकर बदलते मिजाज को भांपने में दिक्कत नहीं होती.
 खाते-पीते " घर के लोगों की खुशकिस्मती है पर " पीते -खाते "लोगों को देखकर ख़ास तौर पर मन उस वक्त कचोटता है जब सरी राह चलते चलते किसी कोने में दिखाई दे जाता है -
                        मुफलिस को ठण्ड में चादर नहीं नसीब 
                        कुत्ते    अमीरों के हैं लपेटे  हुए लिहाफ 
आने वाले दिनों में सर्दियाँ तेज होंगी तब अपनी तबीयत बूझकर मौसम से जूझना और उसका लुत्फ़ उठाना दोनों ही करना होगा.क्या सर्दियों में यह बेहतर नहीं होगा की समाज सेवी संगठन मानसिक आरोग्य केंद्र ,मातृछाया ,वृद्धाश्रम या  अनाथाश्रमों की पड़ताल कर उन्हें यथा  संभव मदद करने की पहल करें?वैसे सच तो यह है की यह मौसम सबसे आरोग्यकारी है. सुबह-सुबह लोगों को तफरीह करते और गार्डन-मैदान में बैड मिन्टन खेलते देखा जा सकता है.
                       सर्दियों में जो अकेले हैं वे सोचेंगे "सर्द रातों में भला किसको जगाने जाते"दिल बहलाने को तो ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है के यादों का कफन ओढने वालों को ठण्ड का एहसास नहीं होता लेकिन ग़रीबों और बेसहारों की मदद करना भी हमारे कर्तव्य का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए.अब यह भी क्या सोचने की बात है के दूल्हा  अपनी दुल्हन के मेहंदी से रचे हाथों को देखकर क्या कह रहा होगा, यही ना कि-
                        दिल मेरा धडकता है इन ठण्ड भरी रातों से 
                       तकदीर मेरी लिख दो मेहंदी भरे हाथों से 
बहरहाल ,मुद्दे कि बात यह है कि ख़ुशी या गम में पीने वाले संयम में रहें.अपनी और खास तौर पर बुजुर्गों कि तबीयत का विशेष ध्यान रखें.एक बात मेरे नौजवान दोस्तों के लिए जो अपने -अपने प्यार क़ी मीठी यादों में खोकर यही कहते हैं=
                      इस ठिठुरती ठण्ड में तेरी यादों का गुलाब 
                     इस तरह महका के सारा घर गुलिस्तान हो गया 
                                                                     प्यार सहित... अपना ख्याल रखिएगा---
                                                                           किशोर दिवसे 
                                                        kishore_diwase@yahoo.com

                              

गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010

और मजमा फिट हुआ...

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मक्खन... मिर्च और मठा... दुखवा मैं कासे कहूं?
" बहुत दिनों बाद मजमा फिट किया है उस्ताद !" -जम्हूरे ने पूछा .हाँ जम्हूरे! एक ठो फार्मूला सोचने में भिड़ा था... मिल गया तो अपुन का मजमा फिर तैयार -उस्ताद ने अपनी बच्चनिया दाढ़ी  खुजाते हुए कहा.
"लेकिन उस्ताद ,सामने जो तीन डिब्बे रखे हैं उनमें क्या है?बात कुछ हजम नहीं हुई कहकर जम्हूरे ने उस्ताद से फिर पूछा.बीडू....चल.तू अपुन का खास आदमी है इसलिए पहले बता देता  हूँ.बाकी अक्खा मजमा फिट होने के बाद.
ढक्कन खुला ......पहले डिब्बे में मक्खन
                        दूसरे डिब्बे में मिर्च 
                        तीसरे डिब्बे में मठा 
पहले दुग्दुगी बजा फिर सबको एक साथ बताऊँगा मक्खन ,मिर्च और मठा का रहस्य ... और दुग्सुगी बज उठाई..डुग  डुग ..डुग... डुग.. मेहरबानों... साहबानों ... कदरदानों ....
                                     *******************
भीड़ में ठल्हा टाइम पास करते श्यामलाल ने बाजु में खड़े बीडी सप्चाते बिसाहू से बीडी  का जुगाड़ कर लिया और अपनी चोंच खोली-उस्ताद जल्दी समझाओ पहले डिब्बे का मतलब .उस्ताद ने मक्खन भरा डिब्बा उठाया और ऊंगली पर लगाकर इशारा कर दिया सरकारी दफ्तरों क़ी ओर.साहबानों.. कदरदानों ....श्यामलाल को मक्खन क़ी महिमा नहीं मालूम.अपना काम कराने सरकारी दफ्तर पहुंचा आदमी बाबुओं को क्या लगाता है?बाबू आपने साहब और वह साहब आपने बड़े साहब को क्या लीपता है?संस्थानों,सेक्रेतेरिएत मंत्रालयों में ऊंगली तो क्या कईयों के हाथ और " उस पर "  क्या लगा होता है?मक्खन ही ना! लगाने वाले को मजा बाद में पहले तो मक्खन चुपड़वाकर अगला तो निहाल हो ही जाता है.
                             उस्ताद ! कुछ मिठलबरा कर्मचारी अपने  बॉस को ... स्टुडेंट  अपने टीचर   को टीचर अपने प्रिंसिपल को ... दरी उठाऊ नेता रायपुरी और दिल्ली लेवल के नेताओं को वो क्या कहते हैं " पोलसन " नहीं लगाते? सो ,फार्मूला नंबर वन -मक्खन शरणम गच्छामी ...खाओ मत... लगाओ ज्यादा....
          जम्हूरे और उस्ताद क़ी बात चल ही रही थी क़ी भीड़ चीरकर एक बदहवास पागल गोल घेरे के बीच आ गया.मैले-कुचैले तार-तार कपडे पहने हाथों में मैगजीन ,कुछ सर्टिफिकेट और अखबारी कतरनों का पुलिंदा लेकर वह नौजवान अचानक आकाश क़ी ओर मुहं उठाकर चिल्लाने लगा-------मक्खन हो तो काम बने ,सुन मक्खन क़ी धुन
                                                      कब, किसको कैसे लगे,इसी बात को गुन
उस विक्षिप्त नौजवान क़ी जिंदगी का यह खरा-खरा रंग था .उस्ताद क़ी आँखे बरबस सजल हो गईं.हाशिए पर खड़ा मैं सोचने लगा ,"काश !जिंदगी देने वाले विधाता को इसने " वो " लगाया होता ...पेट से सीखकर आता वो मक्खनिया अदा सफ़ेद अदृश्य मक्खन में छिपे काले चेहरों को समझ लेता ... नौक्र्री छूटने से वह पागल तो नहीं हो गया होता ? 
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मेहरबानों.....साहबानों...... कदरदानों .....
मामला सेंटीमेंटल होते देख जम्हूरे ने दूसरा डिब्बा उठा लिया .उस्ताद ! अब समझाओ इन मिर्चों का मतलब !जम्हूरे ने ढक्कन खोलने के बाद उसमें भरी मिर्चों को घूरकर कहा.
"देख जम्हूरे!इन दिनों मिर्च खाने का काम लगाने का काम ज्यादा कर रहे हैं लोग.फार्मूला नंबर २.-मिर्च लगाओ... या तो खुद जान जाओ क़ी कब किसे कितनी लगनी है.या फिर है कमान से पूछकर ... मेरा मतलब है बॉस के कहने पर किसे साथी को भी लगाई जा सकती है.अब उन मिर्चों का किस पर कितना असर हुआ यह तो पिछवाड़े पर हाथ धरे उस भुक्त भोगी के उछल-कूद करने के अंदाज से पाता चल जायेगा जो बरास्ता मुहं अपनी भड़ास निकल रहा हो.
                      शायद इसलिए मिर्च खाने क़ी क्म"लगाने का चर्चा ज्यादा होता है.जम्हूरे ने सी...सी... करते हुए उस्ताद क़ी ओर देखा ... भीड़ में पेलमपाल करते लोग कुछ सतर्क हो गए थे ... बगलें झाँकने लगे ... क्या पता कब कौन किसे किस तरह " मिर्चाइटिस"का शिकार बना दे.उधर नगर निगम के दफ्तर के बाहर पान ठेले पर रखे ट्रांजिस्टर में अचानक गोविंदा क़ी किसी फिल्म का गाना गूंजने लगा था- _तुझको मिर्ची लगी तो मैं क्या करूँ !!!!
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मेहरबानों.......साहबानों.....कदरदानों.....उस्ताद ने मिर्ची वाले गाने में लिपटे अपने कान झाडे और फिर मुखातिब हो गया अपने मजमे क़ी ओर -अब तीसरे डिब्बे क़ी बारी थी .जम्हूरे के हाथो क़ी खुजली असहनीय हो गई थी .झट जाकर उसने ढक्कन खोल दिया.भीड़ उचककर झाँकने क़ी कोशिश करने लगी....आखिर क्या है उस डिब्बे में.!!!अपने हाथों में उठाकर उस्ताद ने उस डिब्बे में रखा सफ़ेद तरल पदार्थ पास ही उगी किसी पौधे क़ी जड़ में डाल दिया .खाली डिब्बा उठाकर तमाशबीनों के सामने उस्ताद शैतानी मुस्कान के साथ भाषण नुमा इस्टाइल में कहने लगा -" भाइयों! और बहनों ..मैंने इस पौधे क़ी जड़ में "मठा डाल दिया है अब देखना इस का अंजाम क्या होता है!सजन सिंग ,रंजीत योगी ,विधाता चरण शुक्ल ,बाल कृष्ण   झाड्वानी सभी  इस "मठावाद" के महा पंडित हैं .दोनों ही बाते होती हैं .या तो इनकी जड़ों में कोई मठा डालने क़ी जुगत में होते हैं या फिर....(आप समझ गए होंगे)
                       गर्मियों में मठा पीने का मजा ही निराला है -भीड़ में मुंडी उचकाकर एक बत रसिया ने कहा.बाजू  वाले  चुहलबाज ने पलटकर वार किया -" पर भैये!यह पीने क़ी चीज रह कहाँ गई है  ,चर्चा तो सिर्फ किसी क़ी जड़ में मठा डालने का ही होता है.महापंडित चाणक्य सैकड़ों बरस पहले इतिहास क़ी कहानी दर्ज कर गए हैं वह भी मठा डालने से शुरू होकर ख़त्म होती है.उन्ही क़ी परंपरा को समाज का हर तबका आगे बढा रहा है.मठा पुराण क़ी इन बातों के दरम्यान ही भीड़ में खड़ा शोह्देनुमा छात्र कोन्टे में सहमे से लेक्चरार क़ी ओर देखकर विलेनी अंदाज में अपने आप में मुस्कुराया.मानो  मनही मन उस लेक्चरार से कह रहा हो ,"बेटा! उस समय कैसे ठीक कर दिया था तुझा जब नक़ल करते वक्त पकड़ लिया था मुझे!एजुकेशन सोसाइटी के अध्यक्ष से कहकर इन्क्रीमेंट रुकवा दिया था .
                      इधर  कलेक्टोरेट के सामने से गुजरते जुलूस में नेता भी दांत निपोरकर जानता के सामने हाथ जोड़ते हुए यही सोच रहा था -जानता के लिए चुनाव में कौन सा नया "मठा -पेकेट"लेकर आंऊ?मेनेजर, बॉस, नेता ,अधिकारी,प्रिंसिपल,संपादक ,उद्योगपति,सबकी टेबल पर रखा पानी से भरा गिलास मुझे न जाने क्यों मठे से भरा नजर आया.
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यकायक किसी पुलिस अफसर क़ी गाड़ी मजमे के सामने आकर रुकी.डंडा लहराते हुए जवान ने उस्ताद का  कालर पकड़ा और चीखा , अबे ! भीड़ लगाकर हल्ला करवा  रहा है!मजमा बंद कर वर्ना!!!!!फार्मूला -१ के तहत मक्खन लगाने उस्ताद उस्ताद कि कोशिश विफल हो गई."दबंग पुलिसिया साहब के रौब के सामने "मिर्च वाला कोई आइटम ट्राई करने का सोच ही नहीं सकता था वह.मजमा खलास... उस्ताद भी पतली गली से खसक लिया .मक्खन... मिर्च...और मठा पुराण की महिमा यहीं पर ख़त्म नहीं  हुई.यह तो सिर्फ प्रथमो ध्याय समाप्तः है .पर जजमान...अगली बार दक्षिणा का मक्खन लेकर आना तभी बताऊँगा मक्खन... मिर्च और मठा पुराण में जिंदगी के कितने रंगों का समंदर छिपा हुआ है!!!!!!!!!!
                                                                      

मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

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सर जी , आपने भी  दिल के तहखाने में  यादों के कुछ लम्हे छिपाकर रखे होंगे ....जब ऊपरी होठो पर मूछों की लकीर उभरी होगी ... किसी को देखकर नींद गायब  हुई होगी  और बिस्तर की सलवटो ने आपसे ही चुगली कर दी होगी उनींदा उठने पर. ये अलग बात है कि अब नींद उड़ने के लिए जिम्मेदारिया भी असरदार होती है . फिर भी हम वक्त गुजरने के साथ साथ  नींद लेना सीख जाते है.पर सच बताइए कि क्या आपने उन लम्हों को कभी जिया ही नहीं???जिसका जिक्र मैंने किया है?मजनू, खेतिहर या यु कहिये सभी का यह एक कहा- अनकहा अफसाना है ...

सोमवार, 18 अक्टूबर 2010

तेरे बगैर नींद न आई....

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तेरे बगैर नींद न आई तमाम रात ....

"यार नींद नहीं आती आजकल " दद्दू उस रोज शिकायत कर रहे थे ,"कभी तनाव ज्यादा रहता है तब  नींद नहीं  आती और कभी तो समझ में ही नहीं आता के नींद क्यों नहीं आती.बस सारी रात करवटें बदलते हुए गुजर जाती है."नींद और ख्वाब पर छिड़ी बहस के दौरान अपनी दलील रखते हुए प्रोफ़ेसर प्यारेलाल ने कहा ,"अच्छी नींद के लिए जितने भी प्रयोजन हैं वे अब किसी को समझाने की आवश्यकता भी नहीं बच गई है."
                            वैसे नींद और ख्वाब का अपना  विज्ञानं,मनोविज्ञान और फलसफा है.कुछ लोगों को नींद में ख्वाब आते हैं,कईयों को नहीं आते और वे घोड़े बेचकर सोते रहते हैं.और, इसी बात पर शहरयार हर शब् (रात)कि बात कुछ इस अंदाज में करते हैं -
                              जागती आँखों से भी देखो दुनिया को
                              ख्वाबों का क्या है,वे हर शब् आते हैं 
शब् हो या सुबह ,प्रोफ़ेसर प्यारेलाल नींद को शोहरत से जोड़ लेते हैं.उनकी राय में अनचीन्हा होना शोहरतमंद होने की बनिस्बत अधिक सुकून भरा होता है.हाई प्रोफाइल लोगों के बिस्तर की सलवटें चुगली करने लगती हैं कि सहज नींद के लिए कई बार उन्हें ड्रग्स या दीगर तरीकों का सहारा लेना पड़ता है.योग और ध्यान में बेहतर नींद का विकल्प तलाश किया गया है.लेकिन एकबारगी शोहरत या सम्पन्नता तनाव बढाती है जो नींद न आने का कारण बन जाता है.इसलिए कहा गया है-
                               शोहरत मिली तो नींद भी अपनी नहीं रही
                               गुमनाम जिंदगी थी तो कितना सुकून था.
सुकून से कागज ओढ़कर पत्थर कि फर्श पर सोते देखा है मेहनतकश इंसानों को.इसके ठीक विपरीत अपने सीने पर लेटने वाले उन अभागों को देखकर वे बिस्तर खुद को न जाने कितना कोसते होंगे जो उन्हें सुलाते-सुलाते खुद ही सो जाते हैं.तन्हाइयों में जीने वाले ,मजदूर,बेसहारा व् आकेलेपन को जीने वालों के अपने अपने दर्द हैं जिनका  हल उन्हें ढूंढना होता है.वैसे तो एक सचाई यह भी है कि-           न मरते हैं न नींद आती ,न तो सूरत बिखरती है 
                                     ये जीते जागते हम पर क़यामत सब गुजरती है 
नींद कई बार खास मौकों पर भी गधे के सर से सींग कि तरह गायब हो जाती है.परीक्षाओं में विद्यार्थियों की,नतीजों की पहली रात और चुनाव से पहले प्रत्याशियों की.लिहाजा नींद का समय प्रबंधन हर किसी को अपने रोजगार या जीवन शैली के अनुरूप ही करना होता है.
                            रात्रि पाली में काम करने वालों की नींद अक्सर अल्सुब्बह की खटर-पटर से टूट जाया करती है .वे दिन में नींद पूरी करते हैं.पर यूँ कहा जाता है के नींद जो रात की है वह प्राकृतिक है.कहीं न कहीं पर खामियाजा भुगतना पड़ता है .दिन की नींद तो सिर्फ आपदा प्रबंधन है.
                              " नींद न आने की एक और वजह है " एकाएक दद्दू ने सोच के पहलू को नया मोड़ दिया ," गुलाबी ठण्ड के मौसम में जब दिल रूमानी होने लगता है कब्र में सोने वाले भी चौंककर नींद से उठ जाते हैं, यह कहकर,"ये क़यामत भी किसी शोख की अंगड़ाई ".अपनी मजबूरियां होती हैं जवान दिलों की .एक-दूजे के लिए नींदों का सिलसिला कोसों दूर हो जाता है.प्रेमी दिलों की धडकनें सिर्फ यही गुनगुनाती हैं-
                             नींदों का सिलसिला मेरी आँखों से है दूर 
                             हर रात रतजगा है तुझे देखने के बाद 
आ री आ जा निंदिया तू ले चल कहीं....लल्ला लल्ला लोरी...जैसी फ़िल्मी लोरियां देखी सुनी हैं पर माँ-दादी की लोरियों का स्थान सी-ड़ी और एम् पी थ्री ने भी ले जिया है.अब ये बीते ज़माने की बातें लगती हैं.काश इन लोरियों को कोई संकलित कर पाता.        Early to bed and early to rise ,Is the way to be healthy ,wealthy and wise.
नर्सरी की किसी अंग्रेजी राइम का अंश अब तक याद है.इसके मुताबिक जल्द सोना और जल्द उठाना स्वस्थ, संपन्न और बुद्धिमान होने के लिए जरूरी है.सोलह आना खरी बात है लेकिन आज की जीवन शैली - टी वी ,लेट नाईट शो ,डिस्क,कालसेंटर की नौकरियां ,रात की दूती आदि के चलते कहाँ मुमकिन है? खैर...समाधान हम समस्याओं की कोख से ही ढूंढ निकलते हैं.
                      शेख सादी ने नींद पर बड़ी अच्छी बात कही है ,"खुदा ने बुरे लोगों को भी नींद इसलिए दी है ताकि अच्छे लोग परेशां न हों " .पता नहीं यह आज के ज़माने में कितना सच है पर फील्डिंग का यह कथन हमें सोचने पर विवश करता है जब वे यह कहते हैं,'मध्यरात्रि के एक घंटा पहले की नींद मध्यरात्रि के दो घंटा बाद की नींद से अधिक श्रेयस्कर है."
                         "छः से आठ घंटे की नींद अच्छी तबीयत के लिए जरूरी मनी जाती है" प्रोफ़ेसर प्यारेलाल एक बार फिर अपनी पर उतर आते हैं ,"राजा और रंक सभी को नींद एक जैसा बना सेती है.जिसने नींद को सबसे पहचाना था... उसे महसूस किया था उसे ढेर सारी दुआएं .नींद सारे इंसान को पूरी तरह ढक लेती है.सिर्फ एक ही बुरे है इसमें वह यही की इसकी शक्ल मौत से मिलती-जुलती है."
                            आखरी  अल्फाजों .के साथ जब प्रोफ़ेसर मेरी ओर मुखातिब होकर कहते हैं," यार अखबार नवीस !चुप क्यों हो... कुछ तो कहो!" मैं जवाब में उन महबूब आँखों के लिए इतना ही कह पाता हूँ -
                              मालूम थी मुझे तेरी मजबूरियां मगर
                               तेरे बगैर नींद न आई तमाम रात 
                  अपना ख्याल रखिए..शब्बा खैर.. शुभ रात्रि ...
                                                                                    किशोर दिवसे 
                          
                        

दशहरे की रात..

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पापा रावण तो जल गया ...

पापा....रावण देखने चलो न...आ गए रावण मारकर... सीमोल्लंघन हो गया! रुको जरा आरती कर लेने दो. बरसों से परंपरा निभाते आ रहे हैं हम सब लोग.मानसिकता के केंद्र में रावण लेकिन राम चिंतन कौन करे?हाई प्रोफाइल बना दिया है रावण को लेकिन राम हाशिए पर! कर्म कान्दियों  की साजिश ने महापंडित रावण के चरित्र की अधमता को नमक-मिर्चें लगाकर बुरे का कालजयी प्रतीक बना दिया लेकिन राम की मर्यादाओं को किसी भी पीढ़ी में प्रतिस्थापित करने की कोई तैयारी नहीं की.
                        विजयादशमी पर सड़कों से गुजरता रहा रेला उन सभी मैदानों की ओर जहाँ रावण के पुतले बने थे.रेलवे, एस ई सी एल, मुहल्लों के मैदानों और अपार्टमेन्ट के सामने जगह बनाकर रावण बनाये गए. कहीं बड़ो ने तो कहीं  बच्चो ने बहुत मेहनत की.बेचारा पुलिस मैदान वाला रावण खुद राजनीती का शिकार हो गया था. काफी देर तो पहले उसे मैदान से बाहर लावारिस हालत में रहना पड़ा. फिर विवाद सलटने पर एंट्री हुई. खैर राजनीति का शिकार कलजुग में होना रावण की नियति  बन गई है इसलिए तो वह भी बदला लेने के लिए हर इंसान के मन में सेंध लगाकर बैठ गया है.
रावण दहन से पहले ऐसे ही एक पुतले पर जब निगाहें पड़ी तब देखा रावण अपनी मूंछो पर ताव देकर गरजा,"बच्चू! सैकड़ों बरस बीत गए आज  भी बात रावण दहन की होती है .मेरे चरित्र की इक्का-दुक्का बुराइयों को इतना फोकस किया की नई पीढ़ी के बच्चों को यह भी नहीं मालूम होने दिया की मेरे चरित्र में अच्छाइयां  भी हो सकती हैं.और राम के आदर्श भी तो आज तक तुम्हारा समाज अपने भीतर नहीं समेट सका है!
                            रावण का एक पुतला मरियल और सुकड़ा सा था." यार, मुझे बताओ कि   मुझमें और तुममें क्या फर्क बच गया है?मेरे पूर्वज के कुछ दुर्गुण आम आदमी ने ले लिए लेकिन अपने भीतर के रावण (अहंकार )को नहीं  मार  सके. मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था की धरती पर इस हद तक रावण राज छा जाएगा."मेघनाद का पुतला भी अट्टहास कर उठा ,"बेवकूफ!पुतला जलाने  की परंपरा भर निभा देने से क्या बुराइयां मिट  जाएंगी?अहंकार और अधमता के ध्रुव प्रतीक की एक दिन याद करोगे फिर बैठ जाओगे आँखें मूंदकर.!"
                      माइक पर  उदघोषणा के बीच आगमन होता है नेताजी का."दस बार" सोचने के बाद भी रावण का पुतला यह समझ नहीं पाया की आखिर कब तक "बड़ा रावण"इस पुतले को फूंकने का मूक गवाह बना रहेगा.वैसे रावण राज के सही .वारिसों को फलते-फूलते देखकर मेघनाद का प्रसन्न होना स्वाभाविक ही था.
                          कुछ देर तक दहन पूर्व की रस्में चलती हैं फिर धांय...धांय ...फटाक.....धमाके और लपटों में रावण का पुतला एक बार फिर पहले मुड़े -तुड़े  ढांचे फिर राख  के ढेर में बदल जाता है.एकाएक गूंजता है रावण की चिता से अट्टहास ."अपराध ,भ्रष्टाचार ,पाखंड,घोटाले ... यह सब मेरी शाश्वत सत्ता की गवाह हैं.ध्यान से देखो!गन्दगी से लथपथ कमल और कीचड़ से सने पंजों की कतारें ."
                               "लेकिन यह भी तो सच है की राम के नाम पर वोटों की राजनीति करने वालों की सत्ता का राम नाम सत्य करना जनमत सीख गया है." विभीषण का स्वर साफ़ सुने  दिया ."घर का भेदी  लंका ढाए! विभीषण जी... आप तो घर -घर  में बदनाम हैं.बात फिर परिवार की हो या राजनीति की.विभीषण ने अपना तर्क रखा ,"मैंने तो सत्य का साथ दिया  था,घर का भेदी कहना मेरी चरित्र हत्या का षड्यंत्र है."
                              रावण ने राम को हाइजेक कर लिया है... यह सत्य पौराणिक नहीं वरन आपके-हमारे मन के भीतर का है.राम की मर्यादाएं पूजा घर की लक्ष्मण रेखाओं में सिमट कर राह  गई हैं.पूजा घरों में या मंदिरों से जिस रोज ये मर्यादाएं बच्चों को संस्कारों में व्यावहारिक तौर पर मिलेंगी तब होगा नैतिक उत्थान
                               काफी धोखाधड़ी हुई है,पर ईमारत खड़ी हुई है
                               राम तुम्हारी मर्यादा ,बस पूजाघर में पड़ी हुई है 
राम कसम खाकर  राक्षसी कृत्य करने वालों के मुखौटे जब चेहरों से नुचेंगे तब होगी अंतर्मन में राम की प्राण प्रतिष्ठा.रावण प्रतीक   पुतले की शव-भस्म से फिर गूंजती है गर्जना -"त्रेता का रावण मरा नहीं है वह कलजुग के असंख्य मानव मन में छिपा बैठा है.अच्छाइयां  भी है पर सहमी-सहमी सी...मन का रावण लंका के रावण से भी अधिक चतुर सुजान है.वह डंके की चोट पर कहता है कि कलजुगी  मानव में इतनी कालिमा भरी है की मुझे खोज निकलने की शक्ति किसी में नहीं."
                    भारी  भीड़ है रावण दहन स्थल पर.खोमचे ,ठेले,खाने-पीने की चीजें,फैशन,चकल्लस ताकाझांकी,छेड़छाड़, मनोरंजन और मस्ती का बालीवुड मसाला दिख रहा है. जो धुंधली  सी  है वह -श्रद्धा और सत्य की खोज!सारा जीवन ही रामलीला का मंच बन गया है.उडती हुई नजर भीड़ में मौजूद चेहरों पर डालता हूँ-राम,लक्ष्मण,हनुमान ,दशरथ,रावण ,सीता,कौशल्या, कैकेयी,शूर्पनखा और विभीषण... और भी अनेक चरित्र पूर्ण अथवा खंडित रूप में मुखौटे बनकर चेहरों पर चिपके हुए हैं.पर बाहर .... आम आदमी!
                     अरे! यह क्या...यहाँ तो महाभारत के भीष्म,  पांडव ,अर्जुन शकुनी और दीगर किरदार भी हैं.सभी समाज में अपने-अपने रोल अदा कर रहे है.सच कहें तो दुर्योधन,द्रोपदी,गांधारी शिखंडी और चरित्र  तो अनेक मिल जाएँगे लेकिन राम और कृष्ण के किरदार के करीब  कौन पहुँचता है?पता तो लगाइए समाज में कौन कैसा किरदार निभा रहा है?
                           मैदान  से रावण दहन का विजय पर्व मनाकर भीड़ लौटने  लगी है ."जय राम जी की !अब समय आ गया है की धर्मशास्त्रों को धार्मिक साहित्य की तरह पढ़ा जाए.आज के समय में जो बातें समाज  सुधारक  बन सकती हैं उसे कायम रखकर बाकी कूड़ेदान  के हवाले कर देनी चाहिए."सोन पत्ती देते हुए दद्दू अपनी राय देने से नहीं चूकते.खैर!दशहरा मना  लिया... हाथ खोलो !सोनपत्ति के साथ आपको भी  शुभ् कामनाएं ... और हाँ.इसी हथेली पर हम जगमगाता  दीप रखकर साथ-साथ चलेंगे.लेकिन अभी सोचिएगा ज्जरूर क्योंकि  महापंडित रावण ने दशानन होकर भी एक बार भी नहीं सोचा पर हमें अपने इकलौते सर से ही दस बार सोचकर काम करना है.एक आवाज सुनकर अपने-आप में लौटता हूँ-पापा... अब तो चलो ना!....रावण तो कब का जल गया है....
                                                  शुभकामनायें.....किशोर दिवसे.

                             
                                      
                            
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शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010

गुंचा और गुल..

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जो बाग़ बहार में उजड़े उसे कौन खिलाए...
  
क्या मुसीबत है सच लिखना भी!लोग बर्दाश्त नहीं कर सकते और उनके "वहाँ" पर मिर्ची लग जाती है.मीठा -मीठा गप गप और कडवा -कडवा  आक थू!!!सच चाहे इंसान के अपने निजी हों या समाज के ,कमजोरियों पर आँख मिलकर बात करने का साहस जुटाना हर किसी के बूते की बात नहीं होती."  खैर... छोडो भी अखबार नवीस किस-किस को रोइएगा ...! दद्दू ने समझाइश देते हुए कहा " हर किसी को प्रशंसा सुनना अच्छा लगता है पर जो बिना अपने मन में  गांठ बांधे आलोचनाओं पर गौर करे वह अपनी कमजोरियों पर पार पा लेता है.
                " ठीक कहते हो दद्दू ! कबीर ने इसलिए कहा था " निंदक नियरे राखिए "...लेकिन चाटुकारिता का मीठा जहर आलोचनाओं की कुनैन पर भारी क्यों पड़ने लगता है!
" यही तो जिंदगी के सच्चे रंग हैं जिन्हें हम देखकर भी अनदेखा कर मुंह घुमाने लगते हैं!पर एक बात सच है कि हर जगह दोनों सच्चाइयाँ आप साथ-साथ महसूस करेंगे.गोया कि फूलों के सच क़ी रक्षा आलोचनाओं के कांटे ही करते हैं.भले ही चापलूस भँवरे कितना ही उन्हें ठगने क़ी कोशिश क्यूँ न करें.
                     फूल और कांटे क़ी बात के चलते ख्याल ही न रहा कि कब हम लोग कंपनी गार्डन के दरवाजे से
 होते हुए ढेर सारे फूलों की  झाड़ियों के सामने पहुँच चुके थे.वैसे भी खूबसूरत फूलों के चेहरे देखते हुए हरी दूब
 पर बैठकर गपियाने का सुकून और ही है.जेहन में गुंचा(कली),गुल(फूल),गुलशन(बगीचा )और बागबान अपने आप ही तैरने लग जाते हैं.
                         फूलों से भरी  झाड़ियों से कुछ दूर ठूंठ नुमा पेड़ को देखकर दद्दू बोले" दोस्त!कितनी बेबस होती है वो जिंदगी जिनके मुकद्दर नें खार का मौसम लिखा होता है.शायद इन्हीं के लिए कौसर ने खूब फ़रमाया है-
                लिखा हुआ था मुकद्दर में खार का मौसम 
                 बहार में भी न देखा बहार का मौसम 
 बहार का मौसम आता है तब कलियाँ और फूल खिलने लगते हैं.महकते गुलशन में जब कलियाँ मुस्कुराती हैं तब हंस के फूल कहते हैं ,"अपना करो  ख्याल,हमारी तो कट गई .  "उधर कोने में कुछ नौजवान जोड़े सभी निगाहों से बेखबर हैं उन्हें हाथों में हाथ लिए देखकर गुंचा और गुल तो क्या पत्ते और बूटे भी लहराकर ... झूमकर कहने लगे-
                                   पत्ता पत्ता,बूटा बूटा ,हाल हमारा जाने है 
                                  जाने न जाने गुल ही न जाने  बाग़ तो सारा जाने है 
सारी दुनिया ही एक गुलशन है .घर-बाहर तमाम बगीचों के अपने -अपने बागबान होते हैं.जितने अक्लमंद ,संवेदनशील बागबान होंगे गुलशन में कलियों और फूलों को उतना ही मुस्कुराता हुआ आप देखेंगे.यही जिंदगी का सच है.तपाक से दद्दू की निगाह ऍ शौक ने महकते हुए कहा  ,"मैं अपनी आँखों में हमेशा बागबान की नजर रखता हूँ.शायद इसलिए जिस ओर निगाह उठती है वह इलाका ही गुलशन हो जाता है."
                        " फूल और कली में क्या फर्क है?" दद्दू ने जब शैतानी के अंदाज में पूछा तब कुछ पल " निःशब्द" रहकर किसी कली का चेहरा देखकर  कहना पड़ा " सो सिम्पल! इक बात है कही हुई ,इक अनकही !"
                यूँ की फूलों को देखकर दद्दू रोमांटिक हो जाते हैं.अपने दिल की बात कानों में फुसफुसाकर कहने लगते हैं                    तुम ही बताओ महके हुए जिस्म के करीब 
                                   फूलों की समत कौन नजर उठाएगा ?
फिर भी जब दद्दू ने होके से किसी फूल को सहलाया तो एक कांटे ने तुरंत उनकी अंगुली से खून की एक बूँद रिसा दी.मैंने कहा " यह तो यही बात हुई की किसने फूलों की डाल करीब  लाकर रख दी और मैंने फूलों के शौक में काँटों पर जुबान रख दी."
                         खैर सपनी किस्मत लेकर आते हैं फूल!गुलदस्ते से लेकर देवघर में... अर्थी से लेकर किसी मरहूम की फोटो पर या किसी के जूडे में... किसी की कलाई में... रोज दे या वेलेंटाइन डे पर एक हाथ से दूसरे हाथ या फिर कापी-किताब के पन्नों के बीच सूखे से पर किसी की यादों को तरोताजा करता हुए!
       किस्सागोई के बीच घर से लेकर दुनिया के गुलशन में बागबान की बेहतरी के लिए भगवान से मंगल कामना करना कैसे भूल सकते हैं ? बगीचे से लौटते वक्त एक चौक पर नजर पड़ती है जहाँ चंदा करने वाले युवकों की टोली   किसी मोटर साइकल सवार से झंझट कर रही है. उन्होंने सारी सड़क को ही घेरकर रखा है.यातायात अव्यवस्थित हो गया है. प्रशासन ने आँख मूँद रखी है. .देवी माँ सोच रही है ,"चलो!उत्सव मनाना तो भूल गए भक्तों को पूजा करने की तो याद है!रात की आरती का समय हो चला है.अचानक पंडाल के भीतर तेजी  से गूंजने लगता है यह गीत -" मुन्नी बदनाम हुई... डार्लिंग तेरे लिए..."
   आज रात बस इतना ही... शुभ रात्रि,, शब्बा खैर.. अपना ख्याल रखिएगा..
                                                                                                       
                                                           किशोर दिवसे

ममता का आँचल

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सच्ची पापा ... मैंने आप में देवदूत को देखा था.... ईश्वर का रूप भी आपसे अलग नहीं समझा था मैंने.... फिर   क्यूँ आपने मुझे नहीं बताया के मैं गोद ली हुई बेटी हूँ! क्या आपकी बेटी इतनी कमजोर थी कि वह इस बात को बर्दाश्त नहीं कर सकती थी या आपके ही मन में कहीं यह डर था मुझे खो देने का? पापा... आपने तो मुझे अपने आंसुओं से सींचा है.इतने सालों बाद भी मेरे मन में कभी यह सवाल नहीं उठा क़ि, मेरे असली पापा कौन होंगे... भले ही मुझे मेरी सहेलियों से पता चल चुका था."
                       स्नेह की डायरी के पन्नों पर लिखी इबारत त्रिलोचन बाबू के आंसुओं से धुंधली हो गई.कांपते हांथों से वह डायरी वहीँ पर गिरी जहाँ दुल्हन के सिंगार में बिदा होती स्नेह की आँखों से आंसुओं के फूल जमीन पर गिरे थे.त्रिलोचन ने आंसुओं से भीगी माटी को पोरों से उठाकर उसी डायरी के पन्नो में सहेज लिया.गोद ली बेटी बिदा हो गई ससुराल पर इस सवाल ने त्रिलोचन के मन में हूक उठा दी थी, " मैंने शादी होते तक स्नेह को यह बताया ही नहीं कि वह मेरी गोद ली हुई बेटी है.मेरा फैसला सही था या गलत..... सचमुच अपनी बेटी को मै अगर खो देता तब!अपनी बेटी को मैंने इतना कमजोर क्यों समझा!क्या वह मेरे स्नेह बंधन में छिपे पश्मीने भाव को नहीं समझ पाती?
                       " त्रिलोचन ,तुमने स्नेह को न बताकर ठीक नहीं किया."   "नहीं...नहीं...मैं बिलकुल गलत नहीं हूँ..." मेज पर रखे आईने में त्रिलोचन को अपनी ही दो शक्लें दिखाई दीं.एक दूसरे से जिरह करती हुईं .और उनसे जवाब मांगता वह सवाल विचारों के खंजर लिए हुए लहूलुहान करता ही रहा त्रिलोचन को.
                                  ****************
तीन से सोलह बरस का सफर ... ट्रेन पूरी रफ़्तार से दौड़ रही है अपने  गंतव्य की ओर.फेयरी क़ी जिंदगी किशोर वेय में ही इतनी " अनफेयर " क्यों हो गई थी?गोद लिए होने का मतलब यह तो नहीं क़ी वर्जनाओं के परबत लाद दिए जाएँ!मम्मी... पापा... भैया....सब मिलकर मुझपर कितनी सख्ती बरतते  हैं!मुझे... मेरे मन को भीतर से समझने क़ी कोशिश कोई क्यों नहीं करता? तीन एजर मन कच्चा लोहा होता है.किसी के भी प्यार का चुम्बक उसे आकर्षित कर लेता है ." खुद को न समझे जाने और अति वर्जनाओं से उपजी अपोजिट रिएक्शन ने फेयरी को गलत रास्ते पर डाल दिया.? साईंकियाट्रिस्ट के कहने पर जब गलती का एहसास हुआ काफी देर हो चुकी थी.
                                   अँधेरी सुरंग से दूर करने फेयरी को " बड़े शहर " भेजा जा रहा है .... बहाना पढने का.काश ! मुझे समझने क़ी कोशिश क़ी गई होती.  माँ... माँ ...फेयरी क़ी आँखों से आंसू उसकी नावेल पर गिरे.मेक्सिम गोर्की  के उस उपन्यास का शीर्षक था " मदर ".ट्रेन क़ी रफ़्तार के साथ ही फेयरी कि माँ भी दौड़ रही  थी पूरे आवेग से .... धक् धक् धक् धक् !
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" निपूती बाँझ कहीं क़ी... अब तो अपने बेटे क़ी शादी किसी दूसरी लड़की से कर दूँगी..."इस तरह के कलेजा छलनी कर देने वाले फिकरे बदलते समय और शिक्षा के प्रभाव से शहरों में तो काम पर गाँव में अब भी सुनने को मिल जाते हैं. समय पर बच्चा गोद लिए जाने क़ी आवश्यकता ,लाभ और सहूलियतों क़ी समाज के भीतर गहराई तक समझाइश दिया जाना आज भी जरूरी है.हकीकत यह है क़ी शहर -गाँव दोनों जगह खुली मानसिकता देखने नहीं मिल रही. लिहाजा इस दिशा में जन जिहाद अमल में लाना होगा.भ्रम और अंतर्द्वंद का घटाटोप बच्चा गोद देने वाली संस्थाओं के रहने पर भी छटता  नहीं है.
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अखबार नवीस!कई विदेशी  ,भारत आकर यहाँ के बच्चों को गोद ले रहे हैं,क्या तकदीर है उनकी! दद्दू के इस हैरत भरे सवाल क़ी तृष्णा को मैंने शांत किया ," विदेशी परिवारों में बच्चे काम रहते हैं.अतृप्त मातृत्व क़ी प्यास वे महिलाऐं बच्चे गोद लेकर और कुत्ते पालकर भी पूरी करती   है.अपने देश में साक्षरता के अभाव में एक तो बच्चे पैदा करना ही  कई जगह " मनोरंजन उद्योग समझने की मजबूरी है .दूसरा जिन नेताओं के ही ८-१० बच्चे हों वे क्या खाक शिक्षा देंगे अवाम को?तीसरा इंसानों के बच्चे कुत्तों क़ी तरह लावारिस और बेसहारा घूमते दिख जाते हैं लेकिन इलीट क्लास के लोग उन बच्चों का भविष्य बनाना सोचने के बजाय कुत्तों को राजकुमार क़ी तरह पालते हैं.सबसे बड़ी विडंबना यह है क़ि निःसंतान दंपत्ति मनोवैज्ञानिक रूप से इतने कमजोर हैं क़ि वे ख़ुदकुशी कर लेते है मगर बच्चा गोद नहीं लेते.. क्यों!!!!
                                  दद्दू कुछ विचार मग्न प्रतीत हो रहे थे क़ि मैंने उन्हें याद दिलाया के मिस  यूनिवर्स  सुष्मिता सेन, अंजेलिना जोली और अनेक अभिनेत्रियों ने खुद कुंवारी रहकर भी बच्चे गोद लिए हैं.उनके बदन उघदूपन के आलोचक इस जज्बे की प्रशंसा क्यों नहीं करते? नव धनाढ्य वर्ग इनदिनों जगराता  और बाबावाद के जरिये अध्यात्म क़ि  जीतोड़ मार्केटिंग कर सकता है. धार्मिक कार्यक्रमों से आपत्ति नहीं पर सामाजिक सरोकार के प्रति वे शतुरमुर्ग बनकर  आँखे क्यों मूँद लेते हैं? लायंस , रोटरी तथा जेसीज जैसी संस्थाएं भी लावारिस बच्चों तथा दीगर बच्चों को गोद लेने जनजागरण कर सकती हैं.
                                  मेरे एक पत्रकार मित्र एक परिवार में सिर्फ यह देखने गए थे क़ि गोद ली हुई बच्ची वयस्क होने के बाद परिवार में कितना मानसिक तौर पर एडजस्टमेंट   कर पाती है .वात्सल्य की  पराकाष्ठ  देखिए महिला की  आँखों  से आंसू झरने लगे थे .उसने यह भी कहा " भगवान के लिए....कोई स्टोरी  नहीं देनी है अख़बार में... उसे पता भी नहीं चलना चाहिए क़ि वह गोद ली हुई है.
                              दद्दू बता रहे थे ," अखबार नवीस ! मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जो जिसने  बच्चा गोद लिया पर जिम्मेदारी नहीं समझी." मैंने जब बीच में टोका तब उतावले होकर दद्दू बोले,"पूरी बात तो सुनो ,उसने गैर जिम्मेदारी की  हद कर दी.दारू पीना नहीं छोड़ा और असमय ही खर्च हो गया.?
                              गोद ली हुई एक बच्ची माया आज मेडिकल कालिज में पढ़ रही है.सभी के चेहरे पर हर्षातिरेक... पर यह तभी संभव हुआ जब माता-पिता ने पूरी जिम्मेदारी से माया क़ि परवरिश की.डाक्टर पटेल के गोद लिए बच्चे ने जब सान फ्रांसिस्को से अपने बूढ़े माता- पिता को ख़त लिखा और वाहन आने के लिए हवाई टिकट भेजे उनकी आँखे भर आई.मैं उनसे इतना भर कह पाया," यह तो ऋणानुबंध है डाक्टर साहब!क्या फर्क पड़ा अमित गोद लिया बेटा है!आज जब बच्चे अपने बूढ़े माँ बाप को सहारा देने में कतराते हैं तब गोद लिए बच्चे अनमोल वरदान नहीं तो और क्या हैं?
                                  " लेकिन अखबार नवीस!लोग गोद लिए बच्चों की परवरिश के मामले में भी साईंकियाट्रिस्ट से सलाह लेने में झिझकते क्यों हैं?दद्दू के इस सवाल का जवाब आप भी सोचकर दीजिएगा.और हाँ...बेशक लोग भले ही यह मानने लगे हैं कि गोद लेना अच्छी बात है लेकिन सामाजिक संस्थाएं इस महायग्य के प्रति उदासीन क्यों हैं?गोद लिए बच्चों के परिवार हों या समाज इन यक्ष प्रश्नों का जवाब उनके पास भी नहीं क़ि-गोद लिए बच्चों को क्या बताया जाए क़ि वे "अडाप्ट" किए हुए हैं!बताया जाए तो कब?नहीं बताया जाए तो क्यों नहीं?                        सोचिए  और बताइए...                             
                                                                        किशोर दिवसे 
                                             e-mail             kishore_diwase@yahoo.com

गुरुवार, 14 अक्टूबर 2010

दीपाक्षर -3

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किसी के घर में अँधेरा न हो ख्याल रहे... !

धन लक्ष्मी का वाहन तैयार है सुसज्जित होकर वैभव की देवी को हम सबके घर लाने के लिए.   .बिजली के बल्बों की झालरें कुछ घरों में सेहरा बनकर  जगमगाने लगी हैं तो कई जगह अब-तब में लग जाएँगी.मिटटी के दीये अपने गोद में तेल का तालाब बनाकर अग्निशिखा से रौशनी बिखेरने कसमसा रहे हैं.करेंसी के रिंग मास्टर बाज़ार के हाथों में किसम -किसम के चाबुक हैं.इसके मायावी सम्मोहन जाल के सामने सारे तर्क और दलीलें फेल! वाह रे बाजार... तेरा जादू चल गया ....और एक बार फिर आप और हम सब अपने दिल-दिमाग को परम्पराओं के वशीकरण में बांधे दीये लेकर स्वागत के लिए तैयार हो रहे हैं कि  कब आएगी -धन लक्ष्मी!
                 कभी फानून में जलता हुआ चिराग हूँ मैं
                 कभी दीया हूँ जो कुटियों में टिमटिमाता हूँ.
फानूस में जलते चिराग या कुटियों में टिमटिमाते दीये यानी अमीर या गरीब में  फर्क नहीं करती  धनलक्ष्मी .हर किसी की देहरी प् भीतर की ओर आते पदचिन्ह बनेंगे लक्ष्मी पूजा के रोज .इन पदान्कनों में छिपी अदृश्य इबारत को हम समझना नहीं चाहते जो यही कहती है " यूँ ही अमीर नहीं बना जाता..कड़ी मेहनत कर आहिस्ता-आहिस्ता बनो अमीर;उनसे सौतिया डाह क्यों करते हो?" ग़रीबों के लिए भी ये पद चिन्ह समझाइश देते हैं ,"तकदीर को कोसने से कुछ नहीं होता.भाग्यलक्ष्मी को भी प्रसन्न करने का ब्रह्मास्त्र श्रम ही है."
                           " अरे! यह क्या... मेरा वाहन कहीं दिखाई नहीं दे रहा...धरती लोंक पर जाने का समय आ गया है ,मैं जाऊं तो कैसे?" महालक्ष्मी ने चौंककर इधर-उधर देखा और कुछ चिंतित हो गईं .इतने में ही वीणा की झंकार के साथ देवर्षि  नारद प्रकट हुए-            नारायण...नारायण... नारायण...नारायण...
"देवर्षि ! इस समय आप यहाँ? आपने मेरा वहां को कहीं देखा है?" महालक्ष्मी का प्रश्न था.किंचित अर्थपूर्ण मुस्कराहट के साथ देवर्षि  ने जवाब दिया-" लगता है देवी, बाज़ार युग की चकाचौंध से सम्मोहित आपका वहां उलूक राज भी सपरिवार आपसे पहले धरती पर ही उन्मुक्त विचरण कर रहा है.देवी... एक बात तो मैंने भी महसूस की वो यह की बाजार की ताकत के इशारे पर दुनिया और समाज तो क्या अध्यात्म और तीज-त्यौहार भी चलने लगे हैं." नकेल बाजार के हाथ और धार्मिकता हाशिए तक सीमित .
                               देवी-नारद संवाद के चलते दूर से गूंजती उलूक ध्वनि से देवी समझ गई की उनके वहानोब का काफिला पहुँच रहा है.आते ही उलूक राज ने शिकायत की ," देवी मुझे आपति है ,एक तो इंसान एक-दूसरे को बेवकूफ बनाकर उस पर मेरा ब्रांड-नेम चिपका देता है .दूसरा ,लोग यह क्यूँ कहते हैं के लक्ष्मी की साधना सही तरीके से नहीं करने पर व्यक्ति उसका वाहन बन जाता है ?
                           " आखिर रह गए ना उल्लू के उल्लू !"-देवी ने मन ही मन सोचकर कहा," उलूकराज ,तुम्हारे इन प्रश्नों का उत्तर देवर्षि देंगे.अभी तो चलो,धरती लोंक पर  ,दीप पर्व की तैयारियां देखने का मन कर रहा है ."
देवी और देवर्षि ,उलूकराज के साथ धरती की चकाचौंध देखने कूच कर जाते हैं पर धरती पर उतरने की शुरुआत में पड़ती है एक बस्ती .दीये की लौ को टकटकी लगाकर देख रहे हैं लोग .एक ओर उजियारा है ... जगमग और चकाचौंध- स्टेटस वाले और स्टेटस दिखाने की अंधी दौड़ में शामिल लोग.दीया तले अँधेरे में उलूक राज  को दिखाई दे रहे हैं समाज के सड़े-गले सिस्टम , बैड-गवर्नेंस ,अध्यात्म में छिपी पाखंड की अफीम और लिजलिजे नैतिक मूल्य.!
                            " वत्स ! छोडो भी... यह चिंतन की बेला नहीं.दीपावली आ गई.तेते पांव पसारिए जेती चादर होए .अभी खुशियाँ मनाओ.यह लो अपने मन का दीया,उडेलो संकल्प का तेल और प्रज्ज्वलित करो लक्ष्य  की बाती .समाज के अंधियारे को चीरने उजियारी राह आपकी  प्रतीक्षा कर रही है." देवी ने समझाइश दी.
                                  हर एक घर के भीतर बने पद चिन्हों से देवी ,उनका वाहन और देवर्षि आयेंगे.वे तो शहर के बाजारों में बाद में घूमेंगे पर तब तक आप और हम सब अपनी फूली हुई जेबों के भीतर का माल " खरीदी -यग्य " के चलते बाजारी  स्वाहा कर चुके होंगे .हम सब सुखों के चंद कतरे महसूस करेंगे और लक्ष्मी वहीँ पहुंचेगी जहाँ उसे होना चाहिए.वैसे देखा जाए तो बाजार  की वजह से "फ्लो ऑफ़ मनी" और रोजगार  भी है  जो समाज के लिए बेहद जरूरी है.इस दीपावली की याद के बतौर हर घर में होंगे कुछ नए सामान और खुशियों भरी यादें .वैसे भी महंगाई की लगातार रुलाई के बीच हमें खुशियाँ मनाते रहने की आदत सी पड़ चुकी है.इसीलिए चलिए दीप पर्व पर धनलक्ष्मी के स्वागत में जुट जाएँ. बाज़ार और खरीददारों को शुभकामना देने का वक्त अभी आने को है . फिलहाल एक गुल दस्ता  आपके नाम इस कामना के साथ -
                                      चिराग ऐसा जलाओ कि बेमिसाल रहे
                                      किसी के घरमें अँधेरा न हो ख्याल रहे
                        अपना ख्याल रखिए ... शुभ रात्रि .. शब्बा खैर...
                                                                  किशोर दिवसे
                                                                  मोबाईल;9827471743
                                  

बुधवार, 13 अक्टूबर 2010

दृष्टि दिवस पर विशेष ....

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तुमने देखा एक नजर और दिल तुम्हारा हो गया....

" बुरी नजर वाले तेरा मुहं काला" - किसी ट्रक के पिछवाड़े में लिखी यह इबारत क्या पढ़ी की अपने दद्दू शुरू हो गए .वैसे भी अपने दद्दू की खोपडिया में फिट राडार कब किस बात पर सिग्नल  देना शुरू कर दे भगवान मालिक है.क्या यह जरूरी है कि बुरी नजर वाले का मुहं काला ही हो, गोरा भी हो सकता है क्योंकि हमारे फ़िल्मी गाने तो यही कहते हैं, " गोरों की ना कालों की, ये दुनिया है दिलवालों की ". खैर ...दद्दू के लिए मुद्दा था नजर यानी  निगाह का और बहस के कई दौर में वे बचपन से बुढ़ापे तक की हर नजर का पोस्ट मार्टम  करने लगते है.
                                         रह गए लाखों कलेजा थामकर
                                        आँख जिस जानिब तुम्हारी उठ गई
मस्का लगाने जब अपने दद्दू यह शेर ढीलते हैं तब मयारू भौजी समझ जाती है के अंटी ढीली करना है .... हरा नोट हाथ में आया नहीं कि दद्दू हो जाते हैं  फुर्र अपने दोस्तों के साथ. पर इससे पहले ही  भौजी ,दद्दू के हाथ में सब्जी के लिए झोला पकडाती है और दद्दू अपने  चेहरे की खिसियाहट छिपाकर गप्पिस्तान की ओर कूच करने से पहले एक और शेर पेल देते हैं-
                                           दुनिया में वो काम के काबिल नहीं रहा
                                          जिस दिल को तुमने देख लिया ,दिल नहीं रहा
बात देखने की ही तो है.हम मुद्दतों से पालते हैं जिस दिल को अपने पहलू में , हम कुछ भी नहीं? तुम्हारी एक मस्त निगाह क्या पड़ी कि दिल तुम्हारा हो गया! क्या नौजवान, क्या उम्रदराज बात तो सच है लेकिन पड़ोस की चिकनी चाची जब" बुरी नजर "
लगी है कहकर नन्हे मासूम की किसम-किसम से नजर उतारती है .... काला  टीका लगाती है तब दद्दू सर के बचे खुचे बाल नोंचने का असफल प्रयास करने लगते है.डाक्टर के पास ले जाना छोड़कर नजरें   उतारने की कवायद उन्हें बकवास लगती है और रही चिकनी चाची की बात , महरी , बेऔलाद विधवा और सड़क बुहारती जमादारन को चिकनी चाची की खूंख्वार निगाहों की लेजर बीम से गुजरना पड़ता है सो अलग!
                                          हर किसी को एक नजर से देखो  अक्सर यही कहा जाता है.पर " कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना"रखने वालों की बात ही निराली है .मेडिकल  साइंस में इसका तो इलाज है वह एक नजर से देख लेगा .लेकिन रूढ़ियों को महिमामंडित करने वाले झंडा बरदारों का क्या जो निहित स्वार्थों के तईं अगड़ा  -पिछड़ा की सियासत करने बुरी निगाह वाले बन जाते हैं .यही वजह है की नेताओं की नजर कुर्सी से नहीं हटती और चाटुकारों की निगाहें किसी के रहम -ओ - करम से!
                                    लेकिन तल्खियों की कडवी कुनैन से दूर मीठी मुहब्बत में डूबी ... दो जोड़ी निगाहें, कनखियों की मस्ती के बाद जब मिलती हैं... तब झुकी हुई पलकें हौले से कह देती हैं कि दीवार से कुनकुनी धूप नीचे उतर रही है.और नीची निगाहें बयां करने लगती हैं कि सब कुछ है और कुछ भी नहीं ... नीची निगाह में.कभी-कभी नजरें उम्मीदों को बांध लेती हैं और उम्मीद भरे  दिल आपस में गुदगुदाकर गुनगुनाने लगते हैं -
                                            सौ-सौ उम्मीदें बंधती हैं एक-एक निगाह पर
                                            मुझको न ऐसे प्यार से देखा करे कोई
"निगाहें मिलाने को जी चाहता है" अचानक हरफनमौला अंदाज में प्रोफ़ेसर प्यारेलाल ने निगाहें मिलाने  की  बात की और अपनी  यादों को ताज़ा करते हुए कहा कि कई बार नजरें भटकने लगती हैं महज इसलिए कि क्या पता  किस भेस में तू मिल जाए!यह तो हुई प्रोफ़ेसर प्यारेलाल की  बात लेकिन बनती और बबली क़ी उम्र के नौजवान ( अब उम्र का बंधन नहीं रहा) नजरों के इन्तेजार में उनकी नजरें ही कहने लगती हैं-
                                                     कभी तो हमसे मिलाओगे  प्यार से नजरें
                                                    इस उम्मीद पे हम जख्म खाए जाते हैं
जख्म खाकर नजरें चुराने का एक सबब यह भी बयां करता है कोई टूटा हुआ दिल के " तू तो मेरे काबिल है लेकिन मैं तेरे काबिल नहीं."लेकिन सच यही है कि काबिल बनाना है  अगर अपने बच्चों को तो उनपर सतर्क निगाहें रखनी होंगी.इंसान क़ी नजरें जितनी तेज होंगी उसके फैसले उतने ही मजबूत होंगे और काम होगी हादसों क़ी गुंजाईश .अपनी इसी पैनी नजर क़ी वजह से धनुर्धारी अर्जुन को उस वृक्ष क़ी टहनियां नहीं  बल्कि उस पर बैठी चिड़िया क़ी आँख ही नजर आ रही थी.
                                          प्रोफ़ेसर !कहाँ पौराणिक युग में घसीट रहे हो,आज क़ी बात करो .आज हर जगह ,घर-घर हर कोई ब्राड विजन और दूर दृष्टि क़ी बात करता है." दद्दू ने अपना दखल देते हुए कहा ," प्रोफ़ेसर और अख़बार नवीस ! बात जब नजरों क़ी हो रही है तब बार-बार आइना देखने वालों को यह जरूर कह देना-
                                    आपको मैंने निगाहों में बसा रक्खा है
                                     आइना छोडी, आईने में क्या रक्खा है
आईने में ही सब कुछ है ... उस वक्त जब निगाहें आँखों को आइना बना देती हैं.जरा गहराई से झांकिए उन आँखों में -सब कुछ तो है ना उनमें.....मुहब्बत...वफ़ा... जफा...गुस्सा ...शर्म -ओ-हया ...वो नशे का सुरूर .... तबस्सुम...दर्द का रिश्ता....मायूसी...मासूमियत...और खून के डोरों के साथ निगाहें बयां करती हैं आत्मविश्वास क़ी बुलंदी .लेकिन आज भी जब निगाहों या नजरों के बीयाबान में पल भर के लिए ही सही भटक जाते हैं तब हर किसी के दिल का दुष्यंत प्यार  से कहता है -
                               एक जंगल है तेरी आँखों में
                                मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ...
                                      
                                                    अपना  ख्याल रखिए......                                                  
                                                                                             किशोर दिवसे
                                                                    मोबाईल ;९८२७४७१७४३
                                                                     email    kishore_diwase@yahoo.com
                                      

                         

    

दीपाक्षर -2

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....और मैं ही बन गया दीप पर्व का दीप 
  




नारायण... नारायण...
नारायण.... नारायण....
चौंककर नारद जी ने देखा और उनसे रहा न गया.उनहोंने पल भर काबू रहने के बाद पूछ ही लिया " यह क्या त्राटक सीख रहे हो जो जलते दीये कि लौ को एकाग्र होकर घूरे जा रहे हो!किसी के आने का आभास भी नहीं?"
"नहीं देवर्षि ....दीये को जलता हुआ देखकर यों ही मन में विचार आया कि क्या हम भी इस दीये कि तरह नहीं हैं!ऊपर चुंधियाती रौशनी से जगमगाता और तले घुप्प अँधेरा.कथनी और करनी में कितना फर्क हो गया है आज -मन का कल्मष धूर्तता कि चाशनी में लिपटा  मायाजाल बुनने में कितना सक्षम है!महानगर की अट्टालिकाओं के नीचे झुग्गियों का अभिशप्त जीवन ,अमीरी के विष दंतों में पिसते गरीब,बाजारवाद की सूली पर लटकते नैतिक मूल्यों के परखच्चे ," वर्तमान "के चरम भौतिकतावादी दर्शन पर क्रूरतम घात - प्रतिघात करती अतीत और मध्ययुग की सड़ी - गली व्यवस्था .... दीये कि रोशनी को देखकर में फिर सोचने लगता हूँ- उजाले के अट्टहास और अँधेरे के अवसाद के बीच की खाई कभी पटेगी या नहीं?
                               आइये मन में दीप जलाएं ,कर्तृत्व के प्रति आस्था का
रौशनी भी है, अँधेरा भी... सवाल है कि आप किसे देख रहे हैं? जगमगाहट या स्याह! अमीरी-गरीबी ,वर्ण व्यवस्था के उबाऊ मकडजाल पर जबरिया पन्ने रंगना मूर्खता है.कर्तृत्व ही प्रथम व् अंतिम सत्य है.- लाओ अपने मन का दीया,उडेलो  संकल्प का तेल और प्रज्ज्वलित करो लक्ष्य की बाती - उजियारी राह आपकी प्रतीक्षा कर रही है.पर जरा ठहरो -
                                    दर से निकले तो हो,सोचा भी किधर जाओगे?
                                      हर तरफ तेज हवाएं हैं बिखर जाओगे
मगर  घबराइए शायर निदा फाजली की इस धमकी से! उनहोंने ताकीद की है राह पर निकलने से पहले सोचने की.लक्ष्य का दीया अंतस में जलता रहेगा तब आपके साथ होगा स्वविवेक और स्व कर्तृत्व ; पाखंड वाद  तथा अतिवादिता की पिशाच्लीला से आप अछूते ही रहेंगे.
                                      नारायण... नारायण... नारायण... नारायण...
वीना की झंकार से विचार प्रवाह खंडित हुआ." देखो  देखो... शेर और बकरी- देवर्षी ने मुझे टोका. दीये के अंजोर में एक दृश्य स्फटिक की मानिंद उभरता हेई ,सिर्फ मेरे ही नहीं अमूमन हर किसी के सामने- " शेर झपट्टा मरकर बकरी को उदरस्थ कर गया .यह शेर पर निर्भर करता है वह किस तरह अपना पेट भरे.जीने का हक़ बकरी को भी है, उसे इतनी चालाकी बरतनी होगी की शेर के आक्रमण से बच सके.
जंगल का कानून,मेंडेल का नियम -"स्ट्रगल फार एग्जिस्टेंस ,सर्वाइवल आफ डी फिटेस्ट " और अमीबा से लेकर होमो सेपियंस तक सारा विकासवाद विज्ञानं की पुस्तकों के जरिये पल भर में हमारे मस्तिष्क में तरंगित होता है.अचानक दीये की लौ कांपकर फिर स्थिर हो जाती है-इस बार दृश्य बदलता है.आलोक में इस बार मै खुद को पता हूँ.-मेरे दोनों हाथों में मुखोटा है, एक हाथ में शेर का और दूसरे हाथ में बकरी का.जैसे-जैसे घडी कि सूइयां आगे बढती हैं कभी शेर तो कभी बकरी का मुखोटा मेरे चेहरे पर चिपकने लगता है.जरा देखिये... आपका चेहरा पहचानकर भी झूठ मत बोलना!
मैं  खुद दिया बन गया हूँ.माथे पर उभरे स्वेद बिन्दुओं की क़तर देखकर नारद जी मुस्कुराने लग जाते हैं-" वह देखो ल कलमकार!... दीये के आलोक पटल पर सिर्फ तुम ही नहीं सारा समाज ही एक मिनिएचर के रूप में दिखाई दे रहा है." चारों ओर मुखौटों क़ी दुकानों में चल रही छीना-झपटी से कोहराम मचा हुआ है.
        नारायण... नारायण... नारायण... नारायण...
वीना के तंतुओं के झंकृत होते ही देवर्षि अचानक अंतर्धान हो जाते हैं.चौंकता हूँ मैं फिर कुछ सोचकर उस दीये क़ी अग्निशिखा पर केन्द्रित हो जाता हूँ- मोतीचूर का लड्डू है यह समाज ... एक एक दाना यानि " व्यक्ति " हुआ समाज का घटक .मानवता के वैश्विक द्रिस्तिकों पर सोचना ही चाहिए .फ़िलहाल अगर भारत के सन्दर्भ में ही सोचें जातीय ही नहीं भारत में बसा मानव समाज इस दीये क़ी लौ में झांककर देखें क्या ऐसे मूल्यों व् राष्ट्रिय चरित्र का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है ?काश इस दीये क़ी लौ हमारे ठन्डे खून में उबल लाये और जगती आँखों से भी भारत का हर बन्दा पूरी शिद्दत के साथ दिवा स्वप्न साकार करने क़ी दिशा में कुछ इस तरह से सिंह गर्जना कर
सके-         देखा है मैंने जागती आँखों से एक ख्वाब ,वतन हो अपना सारे जहाँ का आफ़ताब
दीये क़ी रौशनी में भारत को विश्व का आफ़ताब क़ी मानिंद देखने के मेरे "विचार-त्राटक "पर अचानक जोरों का ब्रेक लग गया जब देवर्षि बदहवासी क़ी हालत में मेरे समक्ष प्रकट हू
         नारायण... नारायण... नारायण... नारायण...
" मैं जान गया हूँ ... धरती का मानव समुदाय इतना जटिल और खुदगर्ज क्यों हो गया है... सब कुछ इन सियासत बाजों क़ी मक्कारी है जो अवाम का आत्म सम्मान जागने ही नहीं देती.इस दलदल में भी कुछ चेहरे बेहतर सोच क़ी शक्ल वाले " अच्छे चने"हैं लेकिन वे गंदगी से लथपथ सियासी भाड़ को फोड़ने में सक्षम नहीं.सारे सिस्टम ही इतने सड गए है कि आम आदमी के मन में राष्ट्रिय चरित्र का उजियारा क्या खाक लायेंगे जो बालूई बुनियाद कि वजह से खंड-खंड खंडित हो चुके हैं."अवाम को वे बिना रीढ़ का लिजलिजा मांसपिंड बनाये रखना चाहते हैं.
                      अचंभित मैं,देवर्षि के चेहरे में आर्क मिदीज के उन हाव-भाव को पढ़ रहा था जो सापेक्षता के सिद्धांत कि तह तक पहुंचकर दिखाई दिए थे. यूरेका... यूरेका... ... नहीं मै अपने आप में लौटा.... मुनि श्रेष्ठ कह रहे थे -"समाज कि अधोगति का एकमात्र हल सामाजिक चेतना ही है" यह अधोगति मुझसे देखी नहीं जाती.... कहकर देवर्षि अंतर्धान हो गए.
                            पर मुझे अच्छी तरह  ध्यान है अपने अंतस में प्रज्ज्वलित होते दीये का. आइये... दीप पर्व कि इस बेला में मेरे हाथों में रखे इस दीये को आप भी स्पर्श करें ताकि आपके अंतस का दीया भी दीप-दीप मिलकर दीप मलिका बन जाए और सार्थक कर दे यह दीप पर्व....
             अपना ख्याल रखिये    
                                                           किशोर दिवसे 
                                                                            मोबाईल 9827471743
                                           

सोमवार, 11 अक्टूबर 2010

आईला .....! हॉट सीट पर गणपति बाप्पा ....!

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आईला .....! हॉट सीट पर गणपति बाप्पा ....!
चकाचौंध  भरे  “ कौन  बनेगा  करोडपति  के  फ्लोर  पर  एकबारगी  सुखकर्ता  – दुःख हरता   भगवन  श्रीगणेश  को  देखकर  कार्यक्रम  के  प्रस्तुतकर्ता  महानायक  अमिताभ  बच्चन  खुद  भौचक  थे .बुद्धि    के देवता  को  अपने  आगे  पाकर  उन्हें  अंतर्मन   से  प्रणाम  किया  और  पल  भर  में  फैसला  लेकर  दर्शको  की  ओर  मुखातिब  हो  गए .आम  तौर  पर  स्पर्धा  में  शामिल  लोगो  को  पसीना  छूटता  था  पर  इस  बार  बात  कुछ  अलग  थी .
“ आइये  आप  और  हम  मिलकर  खेलते  है  कौन  बनेगा  करोडपति  …..” रौबदार  खनकती  आवाज़  गूंजी  बिग  बी   की  और  हॉट  सीट  पर  विराजमान  हो  गए  भगवान .महानायक  से  जब  रहा  ना  गया  तब  अपनी  चुम्बकीय   आँखों  की  गहराई   से  झांककर  पूछ  ही  लिया  “ सिद्धि  विनायक ! आप  तो  माया  मोह  से  परे  है , इस  धन  राशि  का  क्या  करेंगे ?” लम्बोदर  बोले ,”मुझे  आवश्यकता  पैसो  की  सारे दुखी   जनों  की  चैरिटी  के  लिए  होगी .”
“तो  भगवन  … बीस  हज़ार  की  राशि  के  लिए  पहला  सवाल  ये  रहा  आपके  सामने … और  शुरू  हो  गया  सवालो  का  सिलसिला .आखिर  हॉट  सीट  पर  भगवन  थे  .. यानी  वी  आई  पी  उम्मीदवार , सो  सवालो  की  शुरुआत  बीस  हज़ार  के  पहले  प्रश्न  से  होनी  तय  थी आडियेंस     की  तालिया  … भाव  विभोर  दर्शको  के  उतावलेपन  के  बीच  ही  बिग  बी  बताते  रहे  की  “ कुली   “ की  शूटिंग  के  दौरान  जब  वे  ज़िन्दगी  और   मौत  से जूझ   रहे  थे  तब  उन्होंने  कितना  याद  किया  था  भगवन  को ! खैर … सवाल  होते  रहे - बेरोजगारी , नैतिक  मूल्यों  के  पतन  , आबादी  विस्फोट  ,इंसानी  दुनिया  के  दुखो  का  हल , आस्तिक - नास्तिक , पाखंड  और  बाबावाद  , छद्म धर्म -  निरपेक्षता  , और  भी  कई  सवाल . बुद्धि  के  देवता  ने  सारे  सवालो  के  जवाब  तपाक - तपाक  से  दिए.
( अन्तर्यामी  जो  ठहरे )!
चेक  जमा  होते  गए  और  फिर  गूंजी  बिग  बी  की सम्मोहक  आवाज़ ” आखिरी  सवाल … भगवन , जो  आपको  दिलाएगा  एक  करोड़  की  राशि … हम  चाहते  है . यह  राशि  पीड़ित  मानवता  की  सेवा  में  काम  आए .दर्शक  हर्षातिरेक  से  गदगद  होकर  श्री  गणेशाय  नमः  और  कुछ  तो  आरती  करने  के  मूड  में  आ  गए  थे .एक  नौजवान  जोरो  से  जयघोष  कर  उठा ,” गणपति  बाप्पा   मोरया !”
कंप्यूटर   स्क्रीन  पर  भगवन  ! सवाल  ये  रहा  आपके  सामने   - “ दुखी  इंसानों  का  उद्धार  करने  सबसे सही रास्ता इन चारो  में से कौन                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                          सा  है - ए  .नेताओ  को  ईमानदार  बनाए       बी . स्वर्ग  से  देवताओ  को  बुलाया  जाए  सी . इंसानों  के  लिए  मोरल  सैंस  का  कम्पलसरी   कोर्स  और  डी. पार्लियामेंट  के  जरिये  मानव  समुदाय  को  सबक  सिखाये .आपका  समय   शुरू  होता  है  अब ….!
घडी  की  सुइयों  की  टिक  टिक  के                                                                                                                             साथ  ही  बिग  बी  सोच  रहे  थे  “ सुनामी ,कटरीना  ,भूकंप , बाढ़  ज्वालामुखी   … ये  सब  क्या  मिनी  प्रलय  नहीं  है ?! और  भी  प्रलय  की  जरूरत  है  क्या ?भगवान्  गणेश  को  सूंड  खुजाते  विचारमग्न  देखकर  बिग  बी  में  छिपा  एंकर  शातिराना  अंदाज़  में  बोल  उठा  ,”आप  चाहे  तो  लाइफ  लाइन  इस्तेमाल  कर  सकते  है … फिफ्टी  फिफ्टी , आडियेंस   पोल . फ्लिप  ऑर  फोन  ए  फ्रेंड .
“अमिताभ  मै  सृष्टिकर्ता  ब्रह्मा  से  बात  करना  चाहूँगा ”भगवान्  श्रीगणेश  ने  फोन  इ  फ्रेंड  का  आप्शन  इस्तेमाल  करना  चाहा .” ब्रह्मा  जी ,कौन  बनेगा  करोडपति  प्रोग्राम  से  मै  अमिताभ  बच्चन  बोल  रहा  हू .ब्रह्मा  जी   ने  तत्काल  आशीर्वाद  दिया  “ आयुष्यमान  भव”” सृष्टिकर्ता  !आज  हॉट  सीट  पर  स्वयं  मंगलमूर्ति  विराजमान  है .वे  एक  सवाल  का  जवाब  जानना  चाहते  है  आपसे .आपका  सही  जवाब  उन्हें  दिलाएगा  दो  करोड़  रुपये  जो  दुखी  जनों  का  उद्धार  करने  वे  चैरिटी  में  प्रदान  करेंगे .जवाब  के  लिए   आपको  मिलेंगे  सिर्फ  तीस  सेकण्ड .अगली  आवाज  होगी  भगवन  श्री  गणेश  की  और  आपका  समय  शुरू  होता  है  अब …
भगवन  से  पूरा सवाल  सुनकर  ब्रह्मा  जी  ने  दूरभाष   पर  ही  विघ्नहर्ता  के  कान  फूके  “पार्वती  सुत  ! आप  भी  कहा  फस  गए  इन  इंसानो  के  मायाजाल  में  ? अच्छे  बहले  भगवन  के  ग्रेड  में  हो  ,सुहाता  नहीं  क्या  ? भूल   गए … देवताओ  को  जब  श्राप  दिया    जाता  है  तब  उन्हें  मानव  योनी  में  रहने  का  दंड  पृथ्वी  लोक  पर  भुगतना  पड़ता  है ?तत्काल  ही  बुद्धिदाता  का  माथा  ठनका ,” बाप  रे  !!!! घोर  कलियुग   में  इंसान  की  जिंदगी  जीने  का  प्रारब्ध !  देखते  नहीं मनोकामनाओ  की  तेज  आंच  से  देवता  भी  कैसे  भागे  भागे  फिर  रहे  है ? लोगो  ने  यही  समझ   रखा  है  कि  पाप  करो , फिर  दान  पुण्य  के  बहाने  चढ़ावा  डालकर  धर्मात्मा  होने  का  सर्टिफिकेट  ले  लो .
अमिताभ  की  कंप्यूटर   स्क्रीन  पर  भगवन  श्री  गणेश  का  जवाब  उभर  चुका   था  जिसे  देखकर  वे  दो  करोड़  का  चेक  साइन   करने  लगे  थे. .ब्रह्मा  जी  का  गुरुमंत्र  पाते  ही  एकाएक  भगवन  श्रीगणेश  अंतर्धान   हो  गए .सर  उठाकर  बिग  बी  ने  जब  देखा  हॉट  सीट  खाली  थी .इसी  बीच  फास्टेस्ट  फिंगर   फर्स्ट  स्पर्धा  के  प्रतिभागियों  का  फैसला  भी  हो  चुका   था .सवाल  का  जवाब  सबसे  पहले  बजर  बजाकर  देने  वाला  जब  उठकर  आया  तब  बिग  बी  ने  देखा  वीणा     की  झंकार     के  साथ  ही  आवाज  गूंजने  लगती  है .. नारायण … नारायण …!.इससे  पहले कि दो लाख का ईनाम जीतने वाले हॉट सीट के अगले प्रतिस्पर्धी का परिचय वे कराते बजर बज गया  यानिशो का समय समाप्त.और नारायण... नारायण कि आवाज वाले प्रतिभागी दो लाख कि राशि लेकर अनजान गंतव्य   की  ओर  कूच    कर  गए .
आडियेंस   में  बैठे  बैठे  अखबारनवीस  ने  साफ़  महसूस  किया  मुंबई  की  बाढ़  से  महँगी  मूर्तिया  देखकर  भगवन  श्रीगणेश  का  मुख  कमल  आम   आदमी  की  तरह  मुरझा  गया  है .यहाँ  तक  कि  उनका  वाहन  मूषक  राज  भी  बेशर्मी  से  ड़ोंनेशन   कि  मांग  करते  फलते  फूलते  कोचिंग  संतरे  और  विद्यार्थियों  पर  चूहे  की तरह  प्रयोग  किये  जाने  से  दुखी  था .बिग  बी  केबीसी  के  एपिसोड  की  अंतिम  औपचारिकताये  पूरी  कर  रहे  थे  और  अखबारनवीस  सोच  रहा  था   “ अगर  बुध्हिदाता  से  कहा  जाता  की  सारी  दुनिया  का  चक्कर  लगा  आओ  जैसी   की  पुराण  कथाओ  में  हम  सबने  पढ़ा  है   , क्या  भगवन  श्रीगणेश  कम्पूटर  का  गोल  चक्कर  नहीं  लगा  लेते ?
खैर …दो  करोड़  का  चेक  बिग  बी  ने  कंपनी   वालो  से  बात  कर  मंदिर  ट्रस्ट  को  सौप  दिया . दो  दिन  बाद  ही  सुर्खिया  अखबारों  में  बनी  की  मंदिर  के   एक  तरसती  ने  ले  लिया  दो  करोड़  के  चेक  का  फर्जी  भुगतान .दरअसल   उस  मंदिर  में  कुछ  बरस  पहले  आभूषणों    की  भी  चोरी  हो  गयी  थी  और  चोरो  का  पता भी  आखिर  तक  नहीं  लग  पाया  था .फर्जी   भुगतान  लेकर  उस  ट्रस्टी  ने  कुछ  लोगो  के  साथ  मिलकर  आभूषणों   का  गुप्तदान  मंदिर  में  कर  दिया  था .
और  हाँ … भगवन  श्रीगणेश  जी  ने  जो  दो  करोड़  की  राशी  के  लिए  पूछे  गए  बिग  बी  के  सवाल  का  जो  जवाब  दिया  वह  एंकर  के  कम्पूटर  में  इस  तरह  लाक   हो  गया  की  स्क्रीन  पर  लाना  मुश्किल  है .इसी  स्तिथि  में  अगर  जवाब  आपके  दिमाग   की  कम्पूटर  स्क्रीन  पर  कभी  उभरे  तो  बताइयेगा  जरूर  …
draft
  1:15:

खौफ जदा रहा जब तक जिंदगी से मुहब्बत ना हुई ....

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किसी भी इंसान का मन सागर की तरह होता है .कभी शांत -अबूझ तो कभी भावनाओं का ज्वार - भाटा  उद्दाम लहरों के रूप में जिंदगी की चुनौतियाँ बनकर जूझने पर मजबूर कर देता है.चक्रवात, तूफ़ान,बवंडर .भूडोल और भावनाओं के अनगिनत सुनामी और कटरीना के साथ ही खुशियों की ता- ता-  थैया के अवसर हम सबका मानसिक धरातल सुनिश्चित करते हैं.यही होता है हमारा मेंटल मेक- अप जिसके किसी कोने में छिपे रहते हैं अपने -अपने डर .उहापोह से उपजी झिझक डर बनकर हमारी सोच पर अक्सर हावी होती है.परिवर्तन की चुनौतियों से डरकर खुद को यथा स्थिति में बनाए रखना ही दद्दू और उनके मित्र बुद्धिजीवी के बीच हुई बातचीत का सार है.प्रस्तुत है रिकार्ड की गई उनकी बातों का सारांश .-
 दद्दू:                हर समय भीड़ के बावजूद मेरे मन में अकेलेपन का डर तब तक बना रहा जब तक मैंने स्वयं को पहचानना  
                        नहीं सीख लिया .
बुद्धिजीवी:          मुझे भी हमेशा किसी काम में असफल होने का डर रहता था.लेकिन यह डर उस समय दूर हो गया जब यह एहसास हुआ की मै विफल तभी होता हूँ जब सही कोशिश नहीं करता.
दद्दू:                  लोग मेरे बारे में क्या सोचते होंगे इस बात का डर मेरे मान में बना रहता था .यह सोच उस वक्त समाप्त हो गई जब मैंने स्वयं तय किया कि लोग तो अपना-अपना नजरिया रखेंगे ही ,मुझे भी तो आगे बढ़ना ही है.फिर क्या था, लोगों के सोचने का डर ख़त्म!
बुद्धिजीवी:            पहले मुझे इस बात का डर था कि कहीं मैं ठुकरा न दिया जून.जब मेरे मान में आत्मविश्वास बाधा अपने " रिजेक्शन  का डर काफूर हो गया.
ददू:                   कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है.इस लोकोक्ति पर मुझे तब भरोसा हो गया जब मैंने सबसे पहले अपने आप पर ही भरोसा करना  सीखा .आत्मविश्वास से उपजा डर तब मिट गया जब यह सोच बनी " विकास करने के लिए किसी न किसी स्तर पर दर्द या तकलीफें बर्दाश्त करनी पड़ती हैं.
बुद्धिजीवी:              आज के ज़माने कि अनेक सच्चाइयों से मैं पहले तो डरता रहा झूठ के मुखौटे  के भीतर छिपी  बदसूरती का जब अनुभव हुआ मेरे मन में दो-टूक सच कहने का डर जाता रहा.
दद्दू:                       जानते हो बुद्धिजीवी!जिंदगी के रंग अनगिनत हैं.कभी समाप्त नहीं होंगे.चुनौतियों से डरकर में जिंदगी से ही घबराने लगा था.मैंने सखा कि अपने आसपास ही ढेर सारे लोग ऐसे हैं जिन्होंने कड़ी मेहनत से चैलेन्ज  स्वीकारे और उनकी जिंदगी में सुख- सम्पन्नता कि खूबसूरती छा गई है.बस! उसी पास जिंदगी से घबराना छोड़ दिया.
बुद्धिजीवी:                दद्दू ! यूँ ही एक बार मेरे मन में मौत कि अन्जान दहशत समां गई थी.कहीं मैं मर गया तब? लेकिन कुछ पुस्तकें पढने और कुछ अनुभवों से सीखकर यह जान गया कि मौत,जीवन की समाप्ति नहीं यह तो नै जिंदगी की शुरुवात है.अब मेरे मन में यह विचार नहीं आता " मैं अचानक मर गया तब"?   
दद्दू :                         मरने की बात कायर लोग करते हैं.पुराने ज़माने में बुजुर्ग कहा करते थे " पाता नहीं मेरे भाग्य में क्या  लिखा है? कम्युनिकेशन स्किल और व्यक्तित्व विकास के जरिए मैंने कुछ बातें समझीं हैं.अब नई जनरेशन से यही कह सकता हूँ          " अपने भाग्य का विधाता इंसान खुद होता है." मैंने तो भाग्य से डरना  कब से छोड़ दिया है.अपनी जिंदगी बदलने की क्षमता इन्सान में बुनियादी रूप से होती है.आवश्यकता मात्र उसे पहचानने की  है.
बुद्धिजीवी:                   दद्दू!   मैं जवान था तब " प्यार" शब्द से  पहले - पहले घबराता था." उसके  प्यार ने " मेरे दिल में वो रेशमी एहसास जगाया की मेरे भीतर का अँधेरा दूर हो गया और जिंदगी प्यार से तर- ब-तर हो गई.
दद्दू;                         जब मैं छोटा था मुझे लोगों के उपहास का डर था- सोचता था, " कहीं लोग मुझ पर हसेंगे तो नहीं? " यह डर ख़त्म हो गया जब मैंने अपने आप पर हँसना सीख लिया.
बुद्धिजीवी;                अपने अतीत से डरता था में जब भरोसा हो गया के मेरे वर्तमान को वह नुकसान नहीं पहुँचाएगा ,वह आखिरी डर भी समाप्त हो गया.झिलमिलाते सितारों की रौशनी का सौन्दर्य ,चाँद की मौजूदगी में निहारने के बाद ही अब मुझे अँधेरे से जरा भी डर नहीं लगता.अब आप ही बताइए कि अपने बारे में क्या ख्याल है आपका?
                                          अपना ख्याल रखिए           
                                                                                  किशोर दिवसे  
                                                                                  मोबाईल; 9827471743             
                                                     
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