शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

परिवर्तन है नए वर्ष का सन्देश

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तारीख -३१ दिसंबर
वक्त  दोपहर   ( शाम के बाद समय नहीं मिलेगा इसलिए)
ह़र किसी का अपना अलहदा अंदाज होता है बीते बरस को अलविदा कहने का.वर्ष २०१० की विदाई और २०११ का  स्वागत करने प्लानिंग अमूमन पहले से ही हो जाया करती है.कईयों ने सोचा की आउटिंग कर ऐश करे और रात दारू-शारू के साथ मजे लें. नव- धनाढ्यों  का कुनबा बड़ी होटलों में साल की विदाई पार्टी के साथ "रात रंगीन " करने शराब -शबाब के पॅकेज डील कर चुका होता है.बीते बरस भी ३१ की रात को सुरूर में पहले तो तेज रफ़्तार सडको पर कुछ नौजवान घूमे फिर उनमें से कुछ अस्पताल में भी नजर आए.
                        वर्ष २००९ की रात को भी बारह बजे शहर जवान हो कर मस्ती में बल्ले-बल्ले कर रहा था. अपनी- अपनी सोच और नसीब के चक्कर में बीते साल की विदाई का अंदाज भी मजदूरों, मिडिल क्लास और रईसों की तकदीर- तदबीर के पारदर्शी अक्स दिखा जाता है.कहीं खुशी .. कहीं गम ...कहीं जोश-ऍ- जूनून तो कहीं झुंझलाहट नजर आती है.रात में टीवी के सामने " हात एंड मसाला कार्यक्रमों को देखने वालों का तबका भी होता है.युवा होस्टलों में जश्न का अलग अंदाज तो जिनकी एग्जाम चल रही है वे थोडा  सा एन्जॉय कर ज्यादा टाइम खोटी नहीं करना चाहते.
                               आज रात भी यही सब होगा . पिछले बरस अपने दद्दू ने टिप्पणी कीथी ,"दोस्त! बाजार और नई हवा के इशारे पर ही सही लोग अब अवसरों को बिंदास तरीके से जीने की जीवनशैली अपना चुके हैं.यह बात अलग है ki जिंदगी में मिली सौगातें अपने-अपने पुरुषार्थ और नसीब का मिला-जुला फलादेश है.कुछ लोग नए वर्ष पर जश्न के साथ कोई रिसोलुशन भी लेते हैं . हाँ! कौन निभाता है कौन नहीं यह अपनी जिद की बात है.
                           " संकल्प के लिए नए बरस की शुरुआत की मोह्ताज्गी क्यों ? क्या हम साल भर उत्सव की तरह नए  संकल्पों के साथ नहीं मना सकते? "क्यूँ नहीं!नए वर्ष का सन्देश है परिवर्तन.हमसे जुडी  व्यवस्थाओं के प्रति जाग्रति,सच्चे ज्ञान ,प्रेम और खुशियाँ बाटने का संकल्प  कर हम साल भर उसपर अमल कर सकते हैं.रात गई, बात गई कहकर एक दिनी हुल्लड़ और अय्याशी से कुछ नहीं होने का.फिर भी टेंशन भरी जिंदगी में हम लोग फुल -टू मनोरंजन का कोई भी मौका नहीं चूकते..चूकना भी नहीं चाहिए.
       बीते बरस की विदाई और नए वर्ष के स्वागत को एक दिनी जश्न मानने वालों के अलावा बच्चे से बूढ़े तक के लिए नए वर्ष का समूचा अजेंडा  गुरुदेव रवीन्द्र नाथ  टेगोर की " गीतांजलि" में इन पंक्तियों से प्रतिध्वनित होता है-
                                जहाँ पर मस्तिष्क हो निर्भय,
                                  और भाल सदा गर्वोन्मत्त
                                  जहां  हो ज्ञान का मुक्त भंडार,
                                 जहाँ न हो विश्व विभाजित
                                  संकीर्ण सरहदी दीवारों से
                                    जहाँ सदा जन्म लें अक्षर
                                  ध्रुव सत्य की कोख से
                                 जहाँ अनथक  परिश्रम आतुर हो
                                  उत्कर्ष का आलिंगन करने
                                    जहाँ निरंतर प्रयोजन के स्रोत
                                   स्वार्थ मरू में न हो गए हो लुप्त
                                     जहाँ मेधा इन सत्य पुष्पों से
                                    सदैव हो परिचालित,विचारवान
                                     मेरे पिता!जागने दो मेरे देश  को!
चलिए छोड़िए.... बीते बरस की विदाई में जुट जाएँ  अपने- अपने तरीके से.कल सुबह कोई मंदिर जाएगा  भगवान से आशीर्वाद लेने ... आराध्य  से नया वर्ष सुखद होने की कामना करेंगे.कोई देर सुबह तक उनींदा सा होगा. आप सभी मेरे अपने है. सो .अपनी प्रिय मित्र संज्ञा टंडन का मेरे मोबाइल पर आया यह सन्देश आपतक पहुंचाकर नया वर्ष खूब प्यार और खुशहाली भरा होने की कामना इन शब्दों में करता हूँ
                             क़ल जब किस्मत बटेगी तब ४ इक्के आप के हाथ लगेंगे ----1111  आगत वर्ष की तारीख़ - 1-1-1-1
                                     खुश रहिए ... खुश रखिए...और अपना ख्याल रखिएगा...
                                                                             किशोर दिवसे
                                                                               मोबाईल -09827471743                              
                                      
                                    

                              
                          

                                                            

रविवार, 19 दिसंबर 2010

दुम मरोड़ने का शुक्रिया

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राहुल भाई ,वर्तनी में भद्दी चूक ब्लॉग के ट्रांसलेटर से  रोमन स्क्रिप्ट के जरिए कम्पोज करते वक्त हड़बड़ी में हो जाती हैं. आइन्दा ख्याल  रखूंगा.  ब्रज किशोर सर जी, आपने ठीक कहा,कुछ जगहों पर कुछ चीजें बची हैं अभी. सवाल यह है कि उन्हें सहेजने पर कब कौन कैसे सोचता है. वैसे सर जी,ऐसी परम्पराओं का आवेग कर्नाटक में ही नहीं दीगर कई राज्यों में भी नजर आ  रहा है. छत्तीसगढ़ में भी व्याप्त कुछ कुप्रथाओ पर प्रिंट मीडिया ने बाखबर करने का काम किया है.चैनल वाले यहाँ अभी कुछ लो प्रोफाइल  पर है.हाँ...कब कौन से टीवी चैनल वाले किस मोमेंट को सनसनी के नाम पर अपना हिडन एजेंडा बना लें क्या भरोसा?

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

उनके नाम पर छी... उनके नाम पर थू.!!!!!!!!!!

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     १३ दिसंबर के हिन्दुस्तान टाइम्स में एक रिपोर्ट पढ़ी थी.शनिवार को कोई चैनल भी इसे जोर-शोर से दिखा रहा था. इस रिपोर्ट के मजमून ने रोंगटे खड़े कर दिए.हालाकी हमारे यहाँ कुछ परम्पराएं अच्छी है पर कुछ इतनी हद दर्जे की वाहियात है की उन्हें समूल ख़त्म करने पर समाज जब सोचने की भी जहमत मोल नहीं लेता तब जबरदस्त कोफ़्त  होती है.
                    दक्षिण कर्णाटक के कुक्के सुब्रमनियम मंदिर का नजारा दिखाया जा रहा था चैनल पर.४०० बरस से यह परंपरा जारी है.केले की पत्तियों पर ब्राह्मणों की जूठन पर दलित समाज के गरीब लोट रहे थे.आम मान्यता यह है कि ऐसा करने से उनके शरीर से चर्म रोग दूर हो जाएँगे..हालाकी कुछ संगठनों ने इसका विरोध किया लेकिन बात नहीं बनी.कहना है क़ि इस कुकर्म में सभी समाज के लोग शामिल होते है.मायावती इस कुप्रथा पर प्रतिबन्ध चाहती है लेकिन मंदिर प्रबंधन का दावा है कि वे दबाव नहीं डाल सकते.यह मंदिर यूं पी सरकार के मुजराई विभाग के अंतर्गत है.विभाग के मंत्री वी एस आचार्य के मुताबिक यह आस्था का मामला है, हम कुछ नहीं कर सकते.सुब्रमनियम मंदिर बंगलूरू से सिर्फ ३० की मी दूर है , जो शिक्षा का एक महत्वपूर्ण हब है.
                       कुपराम्पारा से जुदा एक कथानक- सुब्रमनियम ने सर्प देव वासुकी को शरण दी जो कुक्के की गुफामें गरुड़ के आतंक से बचने जा छिपे थे.रोचक तथ्य यह है की सर्प दोष दूर करने यह पर सर्प संस्कार किया जाता है.अनेक ही प्रोफाइल लोग यह आ हुके है जिनमें अमिताभ बच्चन और शिल्पा शेट्टी भी शामिल हैं.शुक्रवार को जब रस्म अद्द्य्गी हो रही थी तब विरोध के स्वर बुलंद भी हुए थे. अब आस्था को हौवा बनाकर आखिर कब तक यह शर्मनाक तमाशा चलता रहेगा और समाज कब तब इसे बर्दाश्त करेगा - परंपराओ के नाम पर , यह सोचने का दारोमदार भी समाज के धार्मिक मठाधीशों और शिक्षित  युवा फ़ोर्स पर है, ऐसा मुझे लगता है. इस बारे में आप क्या सोचते है, बताइयेगा. आज बस इतना ही.
                                                         अपना ख्याल रखिए...
                                                                                   किशोर दिवसे.

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

मैं नाना बन गया...

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    .मेरे प्यारे दोस्तों ,
काफी वक्त बाद आपसे रू-ब-रू हो रहा हूँ.दरअसल मैं नाना बन गया हूँ.बेटी सपना ने बेटे को जन्म दिया हैपिछ्ली  ३ तारीख़ को. व्यस्त था सो आपसे बात नहीं कर पाया. नन्ही जिंदगी के साथ वक्त बिताना अपने और अपने बच्चे के भी बचपन की तमाम यादों के दरीचे को पलटना सा लगता है. नाना बनने का रोमांच अपने साथ न जाने कितनी जिम्मेदारियों का एहसास करा जाता है. याद आ जाती है अपने नाना -नानी के दौर की बाते जो हमने जी थीं . आज जब खुद नाना बन गया हूँ तब लगता है जिंदगी न जाने कितनी करवटें ले चुकी है. खैर , यह तो नियति है ... जन्म चक्र इसी तरह चला करता है.कुल मिलाकर एक ट्रांस महसूस कर रहा हूँ इन दिनों. फिर भी जल्द ही बातचीत शुरू करूंगा.
                                                                      आपका
                                                                                किशोर दिवसे

सोमवार, 29 नवंबर 2010

दिल में मेरे है दर्दे डिस्को... दर्दे डिस्को...दर्दे डिस्को.

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दर्दे दिल दर्दे जिगर दिल में जगाया आपने
पहले तो मैं शायर था आशिक बनाया आपने
कुछ इधर की कुछ उधर की.. पर चर्चा के दौरान विविध भारती में बज रहे इस रोमांटिक गीत पर एकाएक हम दोनों का ध्यान एक साथ गया.सुनहरा मौका ताड़कर दद्दू तपाक से बोले, " यार अखबार नवीस !ये मुहावरों की दुनिया भी कितनी निराली होती है?"
"हाँ...बात तो पते की है और मुहावरे भी जिंदगी के रंगों की ओर इशारा करते हैं .क्या तुम इस वक्त मुहावरों को किसी खास नजरिए से देखना छह रहे हो ?  "इशारा समझकर  भी मुद्दे की बात मैं दद्दू के मुहं से सुनना चाह रहा था." मैं सोच रहा था फ़िल्मी और गैर फ़िल्मी गीतों की तरह दिल के कितने करीब हैं ये मुहावरे ?दद्दू ने बात कुछ और साफ की.
          दिल का मामला .. दिल से दूर...दिल में चोर...दिल हिला देना...पत्थर दिल...आदि-आदि.फेहरिस्त का पहला पन्ना मैंने दद्दू के सामने खोलकर कुछ इबारतें पढ़ीं." हाँ ssss   अख़बार नवीस किसी का दर्द महसूस कर दिल रो पड़ना ...दिल तोडना ...शेर दिल.. बुझ दिल...दिल भर कर रोना भी दिल से जुड़े बेहतरीन मुहावरें है." दद्दू ने दिल से जुड़े मुहावरों की फेहरिस्त से कुछ और इबारतें पढ़ीं.
                   " अंकल...दिल से जुडी फिल्मों के नाम बताऊँ ? पप्पू अचानक बीच में टपक पड़ा.जैसे ही उसने नाम गिनाना शुरू किया -दिल वाले दुल्हनिया ... दिल से ... दिल में मेरे है दर्दे डिस्को..मैंने उसको टोककर कहा ,"" ओये .. चुप कर यार !तुम लोग आपस में जब दोस्तों के साथ बैठोगे तब इस दिल के मामले पर बतिया लेना.हम लोगों की बातचीत सुन रही बबली भी कहाँ खामोश रहने वाली थी? बोली ," अंकल आज हम सब सहेलियां मिलकर एक ऐसी कम्पीटीशन करेंगे जिसमें सभी गाने "दिल" से शुरू होंगे..इतना कहकर वह फुर्र हो गई.इसी बीच एक नए गीत के बोल गूंजने लगे थे.
             दिल है के मानता नहीं...
दिल की बात जुबान पर ... लाने के बाद कोई किसी को दिल दे बैठता है.अगर दो दिल मिल रहे हैं ... तब तो ठीक है वर्ना दिल छोटा करना मजबूरी बनकर सामने आ जाता है.
 दिल की ये आरजू थी कोई दिलरूबा मिले.  ..         ...
भटको मत... लौट आओ दद्दू,हम लोग दिल से जुड़े मुहावरों की बात कर रहे हैं.दद्दू अपनी दुनिया में लौट आए और कहने लगे "अंग्रेजी में दिल यानी heart  से जुड़े मुहावरें कई हैं.Bleeding heart   ...Be at heart ... Bare your heart  और भी कई हैं लेकिन अपने दद्दू ह़र  किसी को यही सलाह देते हैं   Never break anybody's heart  .
                           दिल की बात सुने दिलवाला...
ओल्ड इज गोल्ड- पुराना फ़िल्मी गीत याद करते हुए नौजवान दोस्तों की चकल्लस का ख्याल हो आता है.बंटी अपने फ्रेंड से कह रहा था," Be a lion hearted yaar!!!!"   दो सहेलियां आपस में एक-दूसरे की प्रशंसा कर रही थी,"  You have a heart of gold dear!... You too....!
                मेरे कालेज की डायरी के पन्नों में दबा हुआ है एक सुर्ख गुलाब का फूल.नीचे एक इबारत लिखी है," दिल क्या चीज है आप मेरी जान लीजिए ..." दद्दू के हाथों में जब एक रोज डायरी लगी थी तब मुस्कुराकर बिना कुछ पूछे बहुत कुछ समझ गए थे ...
                           खैर ... दद्दू एक बार फिर समझाइश देने के मूड में आते है." अख़बार नवीस ! मुझे लगता है इंसान का साफ दिल और रहम दिल होना जरूरी है.वो शख्स इन्सान ही नहीं जो पत्थर दिल हो.बचपन में माँ का का दिल वाली कहानी सुनी थी, याद है?रूठे दिलों को कैसे भी कर मना लीजिए.आपके शब्द ऐसे हों जो किसी के भी दिल पर लगे जख्मों पर मरहम का काम करें.बेंजामिन फ्रेंकलिन ने कहा है," The heart of a fool is in his mouth but the mouth  of wise man is in his heart."
                        अब आप अपने दिल पर हाथ रखकर कही के कभी कोई काम अधूरे दिल से नहीं करेंगे.ह़र काम होगा पूरे दिल से....!सिर्फ सिल से जुड़े मुहव्रेपधने और समझने से कुछ नहीं होगा.एक बात चलते-चलते आपके यानी मेरे अपनों के लिए कह रहा हूँ -- छोडी ज़माने की बात... दिल की बात समझी वर्ना हम तो आपके लिए यही कहेंगे -
                                  तुम ज़माने की रह से आए
                                 वर्ना सीट था रास्ता दिल का
                                                                                                    किशोर   दिवसे                                                                   
                      
          
                          

 .

रविवार, 28 नवंबर 2010

मेरे घर आई एक नन्ही परी....

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कुलच्छनी  ... फिर उसने एक बेटी जन दी.....मर क्यूँ नहीं गई ... अच्छा होता कि बाँझ ही रह जाती....बूढी सास हम उम्र महिला के पास अपनी भड़ास निकल रही थी.
अरे...तेरी लुगाई ने तो नाक कटा दी खानदान की...करमजली ने फिर बेटी पैदा की.तेरा खानदान चलाने  मैं तो तेरा दूसरा ब्याह कराने की सोच रही हूँ...!
कालचक्र को पूरी रफ़्तार से घूमना था ,सो घूमता रहा और आज ... पहली बेटी ,दूध रोटी... बधाई हो.... घर में लक्ष्मी आई है-बेटी जन्मते ही दाई ने अहाते में टहलते शुक्ल जी को बधाई दी और अपनी आँखों के भीगे कोरों पर पल भर के लिए अपना तहबन्द रूमाल रखकर वे जरूरी कामकाज में लग गए थे.
                       मुस्कुराती कली से आहिस्ता -आहिस्ता बनता फूल...खेतों में लहराती बालियाँ ...कुलांचे भरती हिरनी...तपती धूप में मंदानिल...मंदिर या गिरिजा की घंटियों के स्वर और मस्जिद की अजान या गुरूद्वारे के शब्द कीर्तन की शुचिता इन सभी भावनाओं को अगर किसी शरीर में बंद कर आपके सामने रख दिया जाए तो यकीन मानिए एक बेटी ही होगी आपके सामने.यादों के दरीचे खुलकर आपके कानों में आवाज गूंजेगी ...पापा ...पापा....लोरी सुनाओ ना...लल्ला.. लल्ला  ..लोरी ...दूध की कटोरी...दूध में बताशा...!!!
                                             मेरे घर आई एक नन्ही परी ....रेशमी बालों के नीचे काला टीका छुपाकर माथे पर थप्पी देकर सुलाते हुए मां के उन शब्दों में दिन को कतरा-कतरा पिघलते देखा है.दूज के चाँद और पूर्णमासी की चमकती-दमकती थाली तक पल-पल बढती चंद्रकलाओं में कभी अपनी बेटी का चेहरा देखना .... अद्भुत सम्मोहन है इसमें.
                                  "क्यों जी... !सासूजी कह रही थीं घर में सिर्फ बेटियां हैं .बेटे  के बगैर अपना खानदान कैसे चलेगा?
"देखो!आज के ज़माने में बेटे-बेटी में कोई फर्क नहीं है.अख़बारों में पढती नहीं तुम,बेटियां शोहरत की बुलंदी पर है..जानती नहीं तुम...अब तो बेटियां भी बाप की अर्थी को अपना कन्धा देकर मुखाग्नि तक देने लगी हैं..बंद कमरे का यह संवाद अब खुला सच है.    "पर ...कभी आपके मन में ऐसा तो नहीं लगता की काश अपना कोई बेटा होता!
"पगली !...बेवकूफ हैं जो इस बात पर कुढ़ते रहते हैं .आखिर छोटे भाई  क्या बेटे जैसे  नहीं होते?दुबे जी की बेटी नहीं है.वह पड़ोसन पण्डे भाभी  की बेटी को देखकर खुश हो जाती है.दूबाइन के बेटे कहाँ घर के कामकाज में हाथ बताने वाले,लेकिन पण्डे भाभी की बेटी को घर का सारा कामकाज संभलकर पढाई और खेलकूद में अव्वल देखते हुए मन भर जाता है.
                                बेटी के न होने का दुःख उनसे पूछिए जिनकी बेटी को क्रूर काल ने छीन लिया हो.ऐसे माता-पिता की आँखों में झांककर देखिए .उनकी सूनी पुतलियों में अब भी उस खो गई बेटी का आंसुओं से भरा चेहरा दिखाई देगा.अंगुलियाँ पलकों तक पहुंचे बगैर नहीं रह सकेंगी.
                                     "चलो नर्सिंग होम में चलकर जांच करवा लेते हैं,यदि लड़का है तो ठीक वर्ना ...!सोनोग्राफी क्लिनिक में परीक्षण करवाने पहुंचे युवा दम्पत्तियों की देह भाषा को ताड़ने में जरा भी वक्त नहीं लगता.यही वजह हैं की स्त्री-पुरुष अनुपात बिगड़ गया है..इसका खामियाजा सामाजिक समस्या के रूप में हम सबके सामने है.आपरेशन थिएटर में रक्त रंजित मांस का लोथड़ा देखकर अजन्मे नारी भ्रूण का करुण क्रंदन मेरे मन को छलनी कर देता है.मानो चीखकर वह कह रहा हो,"नहीं मत मरो मुझे..मैं निर्दोष हूँ... अपने पापों की सजा मुझ बेगुनाह को क्यूँ दे रहे हो??
          कन्यादान का सुख बूढ़े मां -बाप के लिए अनिर्वचनीय है.अपने ज़माने का एक पुराना गीत दिमाग के किसी कोने में उभरता है..बाबुल की दुआएं लेती जा ,जा तुझको सुखी संसार मिले.."बेटी पराया धन है... हम तो बेटी के घर का पानी तक नहीं पीते ... पुरानी मान्यताएं बदल चुकी हैं अब.विदाई की मार्मिक बेला में आंसुओं की बरसात का सच शाश्वत है.खूँटी पर टंगे उस कुरते पर अनायास ही नजर पड़ती है और आंसुओं के उस सैलाब को तलाश करने लगता हूँ जब दद्दू अपनी बेटी को बिदा करने के बाद मेरे सीने से लगकर फफक-फफक कर रोए थे.
                             बेटी को संस्कारित करना एक पूरे परिवार को संस्कारवान बनाना है.क्योंकि बेटी ही एक पृथक परिवार की बुनियाद है. MEENENDAR    ने कहा है,"बेटी पिता के लिए आकुल्कारी एवं जटिल वैभव है."यूरिपीदिस  भी दुहिता के वात्सल्य से अभिभूत है."बूढ़े होते माता पिता के लिए बेटी से प्रिय कुछ भी नहीं." बेटे जोश का ज्वालामुखी होते हैं परन्तु मिठास भरे प्रीतिकर अनुराग का दूसरा नाम है बेटी."
                        अंग्रेजी की पुस्तक पढ़ते पढ़ते अनायास ही दर्पण में अपने ही चेहरे पर दृष्टि पड़ती है.यह क्या..मेरे चेहरे पर यीट्स का मुखौटा!अँगुलियों के स्पर्श भी बेंमानी हो जाते हैं जब विलियम बटलर यीट्स की कविता के सम्मोहन में कोई भी पिता खुद को यीट्स समझ बैठता है.२६ फरवरी १९१९   को अपनी बेटी के जन्म पा पिता यीट्स की कविता " A PRAYER FOR MY DAUGHTER"     के भाव कुछ इस प्रकार हैं -
                                     " पालने में सोई है बेटी और बाहर चल रही है तूफानी हवाएं .बाहरी तूफ़ान मेरे  मन के भीतर है.कैसे बचाऊँगा   तूफानी हवाओं से उसे....जीवन के तूफानों का किस तरह करेगी वह सामना?मेरी बेटी इतनी खूबसूरत न हो की शिष्टाचार भूल जाए.वह हरा -भरा फलों से लदा पेड़ हो.ऐसा वृक्ष हो जिसकी जड़ें भी गहरी हों और वह जमीनी सचाइयों को पहचाने.वह अति सौन्दर्य वती हेलेन  आफ ट्राय की तरह नहीं हो जिसकी वजह से युद्ध हुआ और जिसने एक लंगड़े से शादी  की.वह सही-गलत की पहचान कर सके और बुद्धि जीवियों की नफरत उसके मन में न समाये.अमीरी की अकड और मिथ्या
 वैभव से मेरी बेटी दूर रहे.वह उस लेनेट पक्षी (चटक )की तरह बने जो तूफानों में भी गीत गाता है.और...जब उसका ब्याह हो उसे ऐसा जीवन साथी मिले जो उसे मकान  नहीं ऐसा आशियाना डे जहाँ पर संस्कार और परम्पराओं का खजाना हो.
                                         अचानक ही तेज हवा का एक झोंका आता है और मेरे गले से दो बाहें आकर लिपट जाती हैं.-"पापा मैं कालेज जा रही हूँ...बाय  ..ठीक है ...टेक केयर ... कहकर मैं खामोश हो जाता हूँ.पड़ोस में क्लास फिफ्थ में पढने वाली बिटिया आकर कहती  है ," अंकल जी... अंकल जी...देखिए न ..अच्छी बेटी दूध रोटी पर मैंने एक कविता  लिखी है." पप्पू  टीवी का स्विच आन करता है और गूंजने लगता है सोनू निगम का गया एक मीठा -मीठा गीत-
                     चंदा सी डोली में ... परियों की झोली में शहजादी आई मेरी.....
                                             शुभ रात्रि ...शब्बा खैर ...  अपना ख्याल रखिए...
                                                                          किशोर दिवसे
                                                                           MOB.०९८२७४७१७४३

                                                                        
                                  

बुधवार, 24 नवंबर 2010

इश्क कीजै फिर समझिए जिंदगी क्या चीज है ....

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न जाने क्यों अपने देश में सहज प्यार पर सेक्स की दहशत सवार होती है!सौन्दर्य की उपासना या आसान से दोस्ताना रिश्ते या तो सहमे हुए होते हैं या फिर उस प्रेम के भीतर "आदिम भूख "चोरी छिपे सेंध लगाने लगती है.दरअसल शुरुआत ही गलत होती है.प्यार और सेक्स को अलग रखकर सोचा  ही नहीं जा रहा है.इसलिए घरेलू रिश्ते तो घबराहट की सीमा में नहीं आ पाते लेकिन बतौर प्रशंसा दर्शाया गया प्यार भी रिश्ते की तलाश करने की हड़बड़ी पैदा कर देता है.आसन सा जुमला है इन दिनों कहने के लिए ,"बड़ा ख़राब समय है "लेकिन कुछ हद तक भरोसे के संकट के इस दौर में स्त्री-पुरुष का हर आयु वर्ग असुरक्षितता की भावना के जबरदस्त चक्रवात में उलझा हुआ है.
            चलते-चलते यूँ ही किसी कार्ड गैलरी में रखे वेलेंटाइन डे के रंगीन कासिदों पर  अपने दद्दू की नजर पड़ते ही उनका दिमाग हरकत में आने लगता है,"यार अखबार नवीस !क्यूँ इतना हौवा बनाकर रखा है ...इतना असह्जपन क्यूँ है?"
                          हम लबों से कह न पाए हाल-ऍ-दिल कभी 
                           और वो समझे नहीं ख़ामोशी क्या चीज है 
जगजीत सिंह के बोल का सम्मोहन तोड़कर मैं बाहर आता हूँ,"दरअसल प्यार के प्रदर्शन को समझने की शुरुआत ही गलत तरीके से करते हैं..... सो स्वीट आफ यु ... आई लव यु...या आई लव यु आल ... चुम्बन या फ़्लाइंग किस भी अपनापन दर्शाने का नव-आधुनिक अंदाज है.यह मात्र किसी की अच्छाई,खासियत के प्रति सराहना का रिश्ते की गहराई के आधार पर व्यक्त किया जाने वाला छुआ या अनछुआ प्रदर्शन है.किसी भी लिहाज से इसे शारीरिक अंतरंगता की हद तक जाकर सोचना मूर्खता होगी."
                           प्यार एक इबादत है..पूजा... एहसास...समर्पण...जूनून... सेन्स आफ अप्रीसिएशन तथा तहे दिल प्रशंसा की अभिव्यक्ति है.यह नामदार रिश्तों से शुरू होकर अनाम रिश्तों को छूती है....ईश्वर की आराधना  कर प्रकृति के अंग -प्रत्यंग को सहलाकर सूफी समर्पण के साथ -साथ समूची मानवता को बाहुपाश में लेता है यही प्यार.तब प्यार का चरम ,सेक्स की दिशा में जाने की बात समझना या ले जाना दिमागी दिवालियापन है.प्यार का सेक्स संबंधों में रूपांतरण विवाह के जायज रिश्ते की जरूरत बन सकता है लेकिन बुनियाद कभी नहीं.
                          बे इश्क जरा आदमी की शान ही नहीं 
                          जिसको न होवे इश्क वो इंसान ही नहीं
यक़ीनन वो इन्सान ही नहीं जिसने इश्क के रंगों को ... उसके अलहदा चेहरों को पहचाना ही नहीं  और न ही एहसास किया."हे री मैं तो प्रेम दीवानी" कहने वाली मीरा का कृष्ण के प्रति समर्पण इश्क का सूफियाना अंदाज है.बुल्लेशाह,ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ,बाबा फरीद,निजामुद्दीन औलिया और कई सूफी संत हैं जिन्होंने कहा,"ईश्वर के प्रति इश्क समर्पण की परकाष्ठा है और कुछ भी नहीं पीड़ित मानवता के दुःख-दर्द का निवारक है यह इश्क.!"
                             इश्क ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया 
                               वर्ना हम भी आदमी थे काम के 
गलत है....प्रेम पहले अँधा होता था ,अब नहीं."डोंट फाल इन लव "  बात यूँ होनी चाहिए कि प्रेम कि भावना आपको बेहतर इंसान बनाए,"राइजिंग इन लव".हाँ,वेलेंटाइन डे को अपने दद्दू बिलकुल बुरा नहीं मानते.उनका सिर्फ इतना ही कहना है नौजवान दोस्तों से के "यारों!किसी का दिल मत दुखाना....प्यार का इजहार दिलों को जीतने के लिए होना चाहिए ,दिलों को ठेस पहुँचाने के लिए नहीं.यह तो किसी के प्रति प्यार दिखाने का महज प्रतीक है इसे शालीनता और अक्सेपटेंस चाहिए ... फूहड़ता या वाहियातपन  या जबरदस्ती नहीं.जरा सोचें कि मिठास भरी यादें मिली या कसैलेपन का अहसास!वेलेंटाइन डे को सिर्फ रूमानी इश्क समझने वालों को यह ख्याल रहे कि,"  It's beautiful necessity of our nature is to love something ".   सच्चा प्यार उन भूतों क़ी तरह होता है जिसके बारे में बातें तो ह़र कोई करता है पर बहुत कम लोग उसे देख ,महसूस और समझ पाते है.
                     मैं भी अपने मन में कभी-कभी यही सोचने लगता हूँ ,"नहीं है मुझे संपत्ति क़ी हवस ... न मैं भूखा हूँ सम्मान का....न खुशियों  में ही हमेशा डूबता रहूँ....मैं तो बस इतनी ही ख्वाहिश रखता हूँ... यही गुजारिश है कि मेरे दिल में इतना प्यार हो कि मैं लोगों को और लोग मुझे हमेशा प्यार करते रहें ... हमेशा... हमेशा...हमेशा...
                             शुभ रात्रि... शब्बा खैर... प्यार सहित...
                                                                                          किशोर दिवसे 
                                                                                         Mob;09827471743    
                                       

शनिवार, 20 नवंबर 2010

मेरी अनूदित तीन पुस्तकें

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१.महान विप्लव-१८५७:    १८५७ के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का घटना क्षेत्र और फलक अत्यंत व्यापक था.आज भी इतिहास का वह दौर पूरी तरह सामने नहीं आ सका है.साम्राज्यवाद के खिलाफ यह दुनिया भर में पहला बड़ा संघर्ष था.--भले इसमें शामिल लोग इसे इस रूप में नहीं समझते  थे.भारतीय इतिहास के उन उथल-पुथल भरे दिनों को ब्रिटिश इतिहास लेखक क्रिस्टोफर हिबर्ट की यह पुस्तक प्रमाणिक व् रोचक  ढंग से सामने लती है.दुर्लभ साक्ष्यों और दस्तावेजों के कारण यह पुस्तक न सिर्फ विशिष्ट है बल्कि १८५७ को जानने के लिए विश्वसनीय स्रोत भी.विराट  घटनाक्रम की रोचक ,पठनीय और महाकाव्यात्मक प्रस्तुति.लेखक:क्रिस्टोफर हिबर्ट .अनुवाद किशोर दिवसे (पृष्ठ -472 ) ISBN :978-81-89868-38-3.मूल्य हार्ड बाउंड -550  /-पेपर बैक -250/-
२.विज्ञानं का इतिहास  ISBN :978-81-89868-37-6.मूल्य हार्ड बाउंड -450  /-पेपर बैक -250/ : मनुष्य  की सोच सकने की क्षमता उसे चिंतन तक ले गई.उसने अपने परिवेश को जानना शुरू किया.प्रकृति और ब्रह्माण्ड के बारे में पारी कल्पनाएँ किन.उसका श्रम उसके भौतिक परिवेश को बदल रहा था.बदला हुआ भौतिक परिवेश उसके चिंतन को अमूर्त परिकल्पनाओं से मूर्त विचारों ,परी वेक्षण ,आकलन और सृष्टि व प्रकृति सम्बन्धी ज्ञान में रूपांतरित कर रहा था.यहीं से शुरू हुई विज्ञानं की कहानी.यह यात्रा समय के अनेक पड़ावों से गुजरती जहाँ पहुंची है --वह उपलब्धियों का एक आश्चर्य लोंक है.विज्ञानं का यह सफ़र सिर्फ कुछ प्रतिभाओं के सिद्धांत और अविष्कार भर नहीं हैं .इसमें सभ्यताओं के द्वंद्व ,संस्कृतियों की विरासत और पीढ़ियों की द्वंद्व और मूल्यों -मान्यताओं का तुमुल है.धर्म-संस्थानों और सत्ता के सियाह गलियारे और बलिदान हैं.यह कहानी उतनी ही रोचक है ,जितनी कोई कहानी हो सकती है..लेखक;पी.एन.जोशी .अनुवाद किशोर दिवसे.(.पृष्ठ 368)   ISBN :978-81-89868-37-6.मूल्य हार्ड बाउंड -450  /-पेपर बैक -250/-

 3..देवदासी -देवताओं की  दासी यानी देवदासी.मंदिरों में प्राण प्रतिष्ठित देवी-देवताओं की आजीवन  सेवा करना ही उसका कर्तव्य है.देवदासी प्रथा के विषय में अनेकानेक बातें कही जाती हैं लेकिन मूलतः इस कुप्रथा की जड़ें धर्म तथा अंध श्रद्धा में धंसी हुई है.मंदिर और देवदासी के बीच में अटूट रिश्ता है इसलिए प्राचीन काल में देवालयों के देवी-देवताओं की सेवा करने महिलाऐं  आम तौर पर रहती थीं.प्रत्येक देवदासी को देवालय में नाचना -गाना पड़ता था.मंदिरों में बाहर से आने वाले खास मेहमानों के साथ शयन करना पड़ता था.इसके एवज में उसे अनाज या धनराशी,प्राप्त होती थी.इस अमानवीय प्रथा के इतिहास और समाज शस्त्र से मुठभेड़ करती यह पुस्तक इस समस्या के निवारण के लिए कई कारगर पहलुओं को सामने रखती है.लेखक :उत्तम काम्बले.अनुवाद किशोर दिवसे. (पृष्ठ -९६)   .ISBN :978-81-89868-32-1.मूल्य हार्ड बाउंड -150  /
 प्रकाशक :संवाद प्रकाशन ,आई-499,शास्त्री नगर ,मेरठ -250004

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

गाजर अंडा या काफी..आप किस तासीर के हैं

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"मांssssss   जिंदगी में मुझे हर काम इतना कठिन क्यों लगता है ? जो चाहती हूँ उसे हासिल नहीं कर पाती",परेशां होकर संज्ञा ने अपना दुःख मां के सामने रखते  हुए कहा,"माँ  ssss जिंदगी से संघर्ष करते-करते थक चुकी हूँ.ऐसा लगता है के समस्याएँ मेरे लिए ही बनी है इसलिए  ही एक मसला हल होता है दूसरा तैयार हो जाता है."
                  संज्ञा अपनी जिंदगी के झंझावातों से हार मानने  की स्थिति में थी..लेकिन उसे पूरा भरोसा था उसकी मां कोई न कोई राह जरूर दिखाएगी.और हुआ भी यही.... माँ ,संज्ञा को किचन में ले गई.उसने तीन प्यालियाँ लेकर उन्हें पानी से भर दिया.फिर उन तीनों प्यालियों को तेज आंच पर रख दिया .जल्द ही तीनों प्यालियों का पानी खौलने लगा.संज्ञा ने पहली प्याली  में गाजर ,दूसरी में अंडे और तीसरी में काफी के पिसे हुए बीज रखे.जब तक उन प्यालियों का पानी उबल रहा था संज्ञा की मां ने कोई बात नहीं की.
 अमूमन बीस मिनट तक उबलने के बाद स्टोव बंद कर दिया गया.पहली प्याली से गाजर  बाहर निकाले और एक  बाऊल में रख दिए.दूसरी प्याली से अंडे निकालकर उन्हें भी अलग प्याली में रखा .काफी तीसरी प्याली से निकालकर उसे भी अलग रकाबी में रख दी .अब संज्ञा की ओर मुड़कर मां ने पूछा ,"संज्ञा बेटी ! अब तुम ही  बताओ   कि तुम्हे क्या दिखाई दे रहा है"
                 " गाजर , अंडे और काफी" तपाक से संज्ञा ने जवाब दिया.संज्ञा की  मां ने उससे कहा ,"बेटी!जरा नजदीक आकर इन गाजरों को छू कर देखो.उसने ऐसा ही किया.उसे महसूस हुआ कि गाजर अत्यंत नर्म हो चुके थे.फिर माँ ने कहा ,संज्ञा बेटी! यह  अंडा लेकर उसे तोड़कर देखो."अंडे का छिलका निकालने के बाद संज्ञा ने देखा के वह उबलने के बाद सख्त हो चुका था.अंत में मां ने संज्ञा से कहा,"संज्ञा बेटी! , जरा एक घूँट काफी पीकर देखो."मां!कितनी खुशबू और स्वाद है इस काफी में "संज्ञा ने फ़ौरन अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की.
                      " मां    sssss  इन सब का मतलब समझ में नहीं आया  "  संज्ञा ने मंतव्य न समझकर उसे समझने मां के गले में अपनी बाहें डाल दी..  .जिंदगी के अनुभवों की धूप ने संज्ञा की  माँ के सर के केशों में चांदी की रंगत घोल दी थी.मां ने अपने अनुभव की बात कहनी शुरू की, "संज्ञा .... तुम जानती हो तीनों प्यालियों ने एक जैसी विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष किया.यह चुनौती थी खौलने की.फिर भी प्रत्येक ने अपनी रिएक्शन अलहदा तरीके से व्यक्त की.गाजर मजबूत ,सख्त और लिजलिजेपन से मुक्त था.लेकिन गरम पानी में उबलकर वह नर्म और कमजोर हो गया.उबलने से पहले अंडा कभी भी टूटने की स्थिति में था.बाद में इसके बाहरी खोल ने भीतर में मौजूद सब कुछ सुरक्षित बचा लिया.लेकिन उबलते पानी ने इसे अन्दर से एकदम सख्त बना दिया था.वैसे काफी के पिसे हुए बीज चौंकाने वाले रहे.उबलते पानी में रहने के बाद उन्होंने पानी का रंग ही बदल डाला.
                           "तुम कौन हो" मां ने संज्ञा से जब एकाएक पूछा तब वह भौचक थी.संज्ञा को अवाक् देखकर मनन ने उससे पूछा ,संज्ञा!जब विप्रीप परिस्थितियां या जिंदगी की चुनौतियों ने तुम्हारे दरवाजे पर दस्तक दी तब तुमने किस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त की?गाजर, अंडे या  काफी... किस चीज की तरह तुम्हारी तासीर दिखाई दी?
                             संज्ञा तुम्हें ही नहीं हम सब को इस बारे में सोचना  चाहिए कि इनमें से मैं क्या हूँ!क्या मैं गाजर की तरह हूँ जो बाहर से मजबूत दिखाई देते है लेकिन संघर्ष और विपरीत  परिस्थितियों (गरम पानी )के सामने क्या में लिजलिजा और नर्म होकर अपनी ताकत और मजबूती खो बैठता हूँ?
                             क्या मैं अंडे की तरह हूँ जो सामान्य स्थिति मैं जरा से भी धक्के  से टूट सकता है लेकिन गरम पानी में खौलकर जिंदगी के संघर्ष से जूझकर  सख्त हो जाता हूँ.? क्या मेरी आत्मा द्रव रूप में थी लेकिन किसी की मौत ,दिल पर कोई जख्म लगने पर या आर्थिक परेशानियों अथवा दीगे चुनौतियों का सामना कर अधिक दमदार और मजबूत इच्छा शक्ति का प्रतीक हो गई?
                            इसी बीच मां-बेटी की बातों को गौर से सुनते पर अब तक खामोश बैठे दद्दू बोले,'अरे संज्ञा!आपकी मां ठीक कह रही हैं .हम सबको यह महसूस करना होगा की क्या मेरा बाहरी सोच कुछ और है लेकिन भीतर से मैं कडवा और सख्त हूँ?क्या मेरे विचार कठोर और मन के समय के अनुरूप परिवर्तनशील नहीं हैं? या क्या मैं काफी के उन पिसे हुए बीजों की तरह हूँ ?दरअसल काफी का पाउडर गरम पानी का रंग ही बदल देता है.यानी दूसरे शब्दों में अगर कहा जाए तब जिंदगी में दर्द ,परेशानियाँ और चुनौतियाँ पैदा करने वाली परिस्थितियां .जब पानी खुलता है मेरा आत्मा ,जमीर या सोच से वह महक ,सचाई ,ईमानदारी और मेहनत की खुशबुएँ उडती हैं .
                           " संज्ञा बेटी!,दद्दू ने उसे समझाया ," अगर तुम काफी की तरह हो तब जिंदगी की कठिन चुनौतियों और विषम परिस्थितियों के बावजूद तुम भीतर से श्रेष्ठतम हो जाते हो और अपने इर्द-गिर्द मौजूद सारी परिस्थितियां अपनी क्षमता से बदलने में कामयाब रहते हो."
                           "हाँ बेटी "... सच कह रहे है तुम्हारे दद्दू चाचा,,"जब कभी समस्याओं या चुनौतियों का घुप्प अँधेरा छाया हो और चुनौतियाँ शिखर छूने लगे क्या तुममें यह क्षमता है की अपने श्रेष्ठतम स्तर पर तुम स्वतः को स्थापित कर सकते हो?
आखिर जिंदगी के संघर्ष को किस तरह की रणनीति बनाकर काबू में कर लोगे?बस....एक ही शब्द में अब आप सभी लोग अपने परिवार केछोटे -बड़े सभी सदस्यों से  पूछिए कि ," आप  की शख्सियत कैसी है-    गाजर, अंडा या काफी........  ??????????


                                                             किशोर  दिवसे 

जिंदगी थी कोई अनारकली.......वक्त बेरहम मुगले आजम था...

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..अब बूढी हो गई हूँ बेटा...क्या पता कब ऊपर से बुलावा आ जाए !बस... एक ही इच्छा रह गई है मन में .बहू की गोद भर जाए और नन्हा मुन्ना आँगन में खेलने लग जाए.ख़ुशी-ख़ुशी आँखे मूँद लूंगी अपनी.ब्याह के बाद बेटे और बहू के सामने अक्सर चुकती उम्र की माताएं कहा करती है.किलकारियों की ख्वाहिश होती हैं हर बुजुर्ग माँ की.
                 शब्द अलग होते हैं पर बातचीत का एक अहम् बिंदु पति-पत्नी के बीच "दो से तीन "होने का ही रहता है.
"देखो जी!अभी-अभी शादी हुई है एकाध दो बरस घूम-फिर लेते हैं.बच्चे की जिम्मेदारी बढ़ने के बाद फिर कहाँ?मान-मनुहार,ना
नुकुर और आपसी मशविरे के बाद "बच्चे का मुद्दा नितांत निजी फैसला बनकर रह जाता है.लेकिन किसी भी वजह से पति-पत्नी के दो से तीन होने की गुंजाईश न रहे तब!
                 "बाँझ कहीं की... करमजली ... निपूती...मेरे बेटे की किस्मत फूटी थी जो तुझ जैसी अभागन गले पड़ी."सास सारा जहर उगलती है अपनी बहू पर .और एक बार नहीं बार -बार .तिल-तिल कर मरने लगते हैं ... नोंच-खसोटकर मर्म को लहू-लूहान कर देते हैं कुनैन में डूबे व्यंग्य बाण. निष्पाप, निरपराध  बहू को न जीने देते हैं न मरने.एक बात है -बंजर जमीन या बाँझ कोख.करुण क्रंदन एक सा है.बीज को गर्भ में रखकर अंकुर न दे सकने वाली भूमि और किसी अभागन की सूनी कोख का..
       बर्ट्रेंड रसल ने कहा है , Marriage is not for the pro-creation of a child but it is to prevent the sin of fornications ."
 कई तरह की व्याख्याएँ हो सकती हैं इसकी गहराई में जाना बेकार है.क्यों न यथार्थ पर सोचें!
        सूनी कोख वाली अधूरी औरत का पति पूर्ण-पुरुष का दंभ भरता है .ऐसे    Male Chauvinist pigs    घोर पर-पीडक भूमिका में आकर छलावा करने लगते है.पहले से ही ऐसी  मानसिकता में जीती औरत के साथ  कई शिखंडियों को मैंने देखा है छद्म-मर्दानगी की जोर आजमाइश करते हुए.औरत के आंसू तो अपने भीतर छिपे सवालों से ही गरम  होकर उबलते हैं.घुटती तमन्नाओं के बारे में पूछने-बताने का गिला-शिकवा भी जिंदगी का एक सच्चा रंग है.गोया--
                      जो तमन्ना थी दिल ही दिल में घुटकर रह गई
                      उसने पूछा भी नहीं ,हमने बताया भी नहीं
नहीं पर यह तो बुरी बात है.पति-पत्नी के पूछने -बताने का सिलसिला चलेगा तभी तो किलकारियां सुनने की उनके क्षणों की आस पूरी होगी!तेजी से बदलता वक्त, विज्ञानं के पंखों पर नए समाधानों के विकल्प लेकर आता है.नहीं, आया भी है.-निःसंतान लोग बच्चे गोद नहीं ले सकते हैं!सवाल सोच और नीयत का है.
                  मैंने देखा है एक ऐसा इंसान....दिन रात शराब के नशे में चूर .निःसंतान होने के दुःख से उबरने का यह कौन सा सोल्यूशन है ? हद दर्जे की काम-अकली है यह.ऐसे लोग बच्चे गोद क्यों नहीं लेते?जिम्मेदारी सम्हालने तथा वाहियात परम्पराओं का  दुर्गन्ध भरा लबादा चीरने की औकात बनाने में पति-पत्नी तालमेल क्यों नहीं बना पाते?औरतों की अधूरी कोख भी उन्हें झिंझोडती नहीं क्या ?अरे!बच्चा तो बच्चा होता है.अपना कोख जना हो या गोद लिया.हाड़-मांस का वह भी और यह भी.मेडिकल साइंस कहता है ... सच भी है " जींस "से माता -पिता और बच्चे में कई शारीरिक या मानसिक गुन  मिल जाते हैं .पर आज की जिंदगी का यह भी एक सच है कि  गोद लिए बच्चे पर भी पालक मां-बाप के अक्स उभरकर अमिट हो जाते हैं.
                        एक लैटिन मुहावरा  है  Nesessitas nohabet legen    यानी आवश्यकता के लिए कोई नियम नहीं.स्त्री-पुरुष को पूर्णता का एहसास दिलाने के साथ जिम्मेदारियों के बंधन में बांधता है बच्चा .ऐसी स्थितियों में संतान प्राप्ति का अंतिम विकल्प गोद लेना क्यों नहीं होना चाहिए?विशेषग्य चिकिसकों से भी विमर्श के लिए प्रेरक लोग या संगठनों की  या शिक्षित करने की आवश्यकता है.
                           अजीब और घटिया किस्म के विरोधाभासों से अटा-पटा है  हमारा देश.किसी घर में बच्चों की कतारें.भगवान का आशीर्वाद है बच्चे.. यही कहते है लोग.हलाकि इस सोच में कुछ सुधर आया है फिर भी हद  हो गई बेशर्मी की.करतूत इंसान की और ठीकरा भगवान के सर पर काहे फोडोगे?सड़कों पर भीख मांगते ... जूठन पर पलते ... वासना कांड  और नशे की लत का शिकार होते बच्चे....पर समाज का दिल पत्थर और र्दिमाग फौलाद है.तभी तो कुत्तों के पिल्लै ऐशो-आराम से अमीरों के घर पलते हैं और मासूम अभिशप्त बच्चे कुत्तों से बदतर जिंदगी घिसट -घिसट कर जीते है....गन्दी नाली के कीड़ों की तरह बिलबिलाते . समाज में पाखंड की स्थिति करेले पर नीम चढ़े जैसी है तभी तो संपन्न  धन-पिशाच   धर्म स्थलियाँ बनाने के नाम पर पैसा पानी की तरह बहते है लेकिन समाज के इस नासूर को समाप्त करने के नाम पर बेशर्मी से अपना पिछवाडा दिखाने लग जाते है..समाज की छाती फट क्यों नहीं जाती?क्या समाज के ही "आंखों वाले अंधे "बन  गए लोग अपने लिए भी एब बच्चे को गोद नहीं ले सकते?
                                       काश इन बच्चों को गोद मिलती.सूनी कोख क्या इनके स्नेह से हरी-भरी नहीं हो जाती?एक मासूम की जिंदगी के स्याह रंग घुलकर उसपर हमेशा के लिए सुरक्षा के इन्द्र धनुषी रंगों की मेहराब नही बन जाती?आखिर क्या कर रहे हैं हमारे सामाजिक संगठन?इन बच्चों को गोद लेने के लिए जनचेतना की अलख जगाने वाले कार्यक्रम क्यों नहीं करते?दांत निपोरकर फोटो खिंचवाने और अख़बारों में वाहवाही लूटने वाले "कास्मेटिक संगठनों के लिए किटी पार्टी और फैशन शो अधिक जरूरी है.भाड़ में जाएँ बेसहारा बच्चे.. उन्हें गोद मिले न मिले क्या फर्क पड़ता है!
                           दद्दू इस मसले पर काफी सोचते है.उनका कहना है,"कानून हैं पर इतने जटिल कि लोग परेशां हो जाते हैं प्रक्रिया पूरी करने में.इसे सरल बनाया जाना चाहिए."गोद लिए बच्चो की परवरिश भी अहम् मसला है.किसी बच्चे के मुंह से ये शब्द,"मुझे गोद लिया है न ... मेरी किस्मत में कहाँ  इतना प्यार मिलेगा ... पालक माता  -पिता के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य नहीं हो सकता.फिर भी यह कोई ऐसा मसला नहीं जो हल न किया जा सके.गोद लेने के मामले में समाज  में व्याप्त भ्रांतियां  भी मिटनी चाहिए.अपने ही समाज में आपने और हमने देखा है रक्त सम्बन्ध से पैदा हुए बेटे को पितृ या मातृ  हन्ता बनते.और यह भी देखा है कि  कोई मासूम श्रवण कुमार बनकर माता-पिता के बुढ़ापे को अपने विश्वास की कांवड़ से पार करा रहा है.
                          वैसे तो पति -पत्नी  की जिंदगी अनारकली की मानिंद होती है.लेकिन अगर प्रारब्ध ने आँचल सूना रखकर कोख को रुलाया है तब उस आँचल को थमने वाले पुरुष का यह कर्तव्य हो जाता है की वह संतान गोद ले.जब बच्चा गोद लेकर जिन्दगी को संवारने का विकल्प मौजूद है तब यह शिकायत और कोसते रहना पूरी तरह बेमानी हो जाता है कि -
        जिंदगी थी कोई अनारकली और वक्त बेरहम मुगल-ऍ- आजम था ....
                                                                             मुस्कुराते रहिए... अपना ख्याल रखिए...
                                                                            किशोर दिवसे
                    .
                 .
                    

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

चलो उड़ चलें...

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ऍ मसक्कली मसक्कली ...उड़ मटक्कली ..मटक्कली.....
 कुँए के मेंढक और समंदर की शार्क में फर्क होता है जमीन -आसमान का.बरास्ता जिद, जूनून और जिहाद कोई इंसान अपना किरदार ... तकदीर और तदबीर कुँए के मेंढक की बजाए समंदर की शार्क जैसा बना सकता है.उसे बस सही वक्त पर सही सोच के जरिए सही फैसले  करने होते हैं.निश्चित रूप से अपनी गलतियाँ...अपनी मजबूरियां ... चुनौतियाँ रास्ते में कांटे बनकर बिछते रहेंगे लेकिन यदि आपने अनचाही सोच को भी "तेरा इमोशनल अत्याचार "के बावजूद सर पर लादे रखा तब बेडा गर्क समझो .सो, वक्त की नजाकत को समझकर खुद को बदलने की जिद करो वर्ना  मटक्कली तरह पछताते रहोगे और मसक्कली उड़ने लगेगी आसमान में फुर्र...फुर्र...फुर्र...और लोग गाने लगेंगे मसक्कली....मसक्कली...
                                 दरअसल मसक्कली और मटक्कली जंगली कबूतरियों के झुण्ड में शामिल थी .यह झुण्ड  V  फ़ॉर्मेशन बनाकर आसमान में उड़ रहा था .जिन्होनें भी अपनी निगाहें उठाकर देखा बस देखते ही रह गए.यूँ ही उड़ते-उड़ते मटक्कली ने जमीन पर कुछ देखा और नजदीक पहुँचने पर पता चला   कि यह पालतू कबूतरों का दडबा किसी कोठार का हिस्सा था .दडबे वाले कबूतरों का झुण्ड गुटरगूं करते हुए रोज उन्हें दिए जाने वाले मकई के दाने चुग रहा था.लालची मटक्कली सोचने लगी ,"कितने सुन्दर मकई के दाने हैं .वैसे भी लगातार उड़कर मैं थक चुकी हूँ इसलिए कुछ देर यहीं इठलाने और मटकने में मजा आएगा.मसक्कली को छोड़कर मटक्कली कोठार में दाना चुगते कबूतरों के पास उतर गई.दाने चुगते हुए उसने ऊपर चोंच उठाकर देखा मसक्कली और जंगली कबूतरों का V   फ़ॉर्मेशन फ़ना हो चुका था.
                               वह दक्षिण दिशा में जा रहा था लेकिन मटक्कली बेखबर थी."मैं अभी तो कुछ महीने तक कोठार में रहूंगी.मसक्कली और बाकी साथी जब वापस उत्तर की ओर लौटेंगे फिर उनके साथ शामिल हो जाऊंगी."
                                 यूँ ही कुछ महीने गुजर गए.मटक्कली ने देखा कबूतरों का झुण्ड वापस लौट रहा है.मसक्कली की तरह पूरा  V     फार्मेशन बेहद सुन्दर था.मटक्कली अब कोठार और वहाँ के पालतू कबूतरों से ऊब चुकी थी.कोठार का माहौल भी गन्दा और कीचड़ भरा हो चुका था.वहाँ पर बेहूदगी ... साजिशें और दूसरों का अपमान करने की विकृत सोच थी.मटक्कली ने सोचा," अब यहाँ  से मुझे उड़ जाना चाहिए."
                                    मटक्कली ने अपने पंख फडफडाकर उड़ना चाहा.खूब खाकर उसका वजन इतना बढ़ चुका था की वह उड़ नहीं सकी और नीची उडान की वजह से कोठार की दीवार से टकराकर गिर पड़ी.ठंडी साँस लेकर उसने कहा ,"मसक्कली और उसका कबूतर झुण्ड जब कुछ महीनों बाद फिर दक्षिण की ओर उड़ेगा में उनके साथ हो लूंगी."कुछ महीनों बाद मटक्कली ने फिर उड़ना चाहा पर उड़ नहीं सकी.मसक्कली अपने साथियों के साथ जिंदगी के आसमान में उडती चली गई करप्ट टेंडेंसी और बेईमानी ने मटक्कली की रूहानी ताकत भी ख़त्म कर दी थी.कई सर्दियों में मटक्कली देखती रही की आसमान में बनता  V   फार्मेशन कैसे आँखों से ओझल होता है. धीरे-धीरे वह "कोठार का पालतू कबूतर"बन चुकी थी.
                                  दद्दू समझ गए कि मसक्कली ईमानदारी और मटक्कली बेईमानी का सिम्बल है.मटक्कली ने सोचा कि आँख मूंदकर दूध पीने वाली बिल्ली कि तरह रहूंगी किसी को कहाँ पता चलेगा ? जिंदगी में किसी बेगुनाह का नुकसान सोचे या किए बगैर मेहनत और ईमानदारी ही आपके चरित्र को और शुभ्र बनाती है
                                                मटक्कली अपने गुनाहों के दलदल में फंस चुकी थी.हम इंसानों क़ी अच्छाइयां  और कमजोरियां भी मसक्कली और मटक्कली क़ी तरह हैं .मटक्कली आखिर उड़  ही नहीं सकी और मसक्कली और V   फार्मेशन 
वाले  कबूतरों से उसका रिश्ता टूट गया.मटक्कली"गंदे कोठार " का हिस्सा बनकर रह गई .
                                           प्रोफ़ेसर प्यारेलाल कहते हैं कि बात सिर्फ मसक्कली या  मटक्कली कि नहीं है.वह कबूतर नहीं किर्सर या चरित्र हैं जो जिंदगी के हर क्षेत्र में हमारे सामने होते हैं.सवाल यह है कि आईने में अपना चेहरा मटक्कली की तरह लगता है या उस प्यार खूबसूरत सी मसक्कली कि तरह जो उड़कर सीधे मुंबई , पूने या बेंगलोर  या विदेश पहुँच गई.कबूतरों का वह समूचा झुण्ड थिएटर के बाहर बालकनी की रेलिंग पर कतार लगाकर बैठा है मसक्कली उनके बीच है और सभी के कदम थिरकने लगे हैं.उनके गुटरगूं में कोरस की मीठी धुन गूँज रही है-
                  ऍ मसक्कली... मसक्कली... उड़ मटक्कली.....मटक्कली......

रविवार, 14 नवंबर 2010

"बाल" दिवस पर

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"उजड़े चमन बनाम तेरी जुल्फों की याद आई...

उन्होंने अपनी गंजी चाँद पर हाथ फेरा और दसों अँगुलियों के नाखूनों को रगड़ते हुए दीवार पर लगे फ्रेम की ओर देखकर लगे थे कुछ सोचने."क्या बात है दद्दू!बाबा रामदेव का फार्मूला अपना रहे हो क्या?"ड्राइंग रूम में एंट्री मारते हुए मैंने उन्हें छेड़ा.अपनी गंजी चाँद की कसम अखबार नवीस ,इन नामुराद जुल्फों ने छोटी सी  नहीं ...बहुत बड़ी बेवफाई की है मुझसे .तब मुझे लगा क्यों न यही फार्मूला ट्राई करें.मैंने भी सोचा चलो आज "बाल दिवस पर गंजत्व पर चकल्लस कर ली जाए.
                       दद्दू...तकदीर वाले हो .... बालों को संवारने में समय बर्बाद नहीं होता वर्ना हमें तो आईने के सामने देर तक खड़ा      देखकर श्रीमती जी की त्योरियां चढ़ जाती हैं.,"इस उम्र में इतनी देर मेक अप ....आपके कानों पर जून क्यों नहीं रेंगती!"अचानक यह डायलाग याद आया और हमारी निगाह पड़ी दद्दू कि चाँद पर ....भला सर पर बाल हों तो जून रेंगने की हिमाकत करे ना!पर अखबार नवीस,पुरुष अगर बेबाल हो तब उसे "गंजा " कहते है लेकिन ऐसी महिला को "गंजी" कहते हैं या नहीं?मैंने कहा किसी खल्वाट साहित्यकार से पूछकर बताऊँगा.
                                             स्कूल जाने वाली दद्दू की नातिन बबली अचानक अपने पापा के पास आकर कहने लगी,"पापा  आपके सर पर  तो बाल ही नहीं हैं फिर आप जेब में हमेशा कंघी क्यों रखते हैं?दद्दू हमारी ओर देखकर मुस्कुराए और और झेंपकर कहा,"    जा बिटिया ,अंकल के लिए पानी लेकर आना.और सुनाओ दद्दू.. क्या खबर है...खबर नहीं मजेदार बात सुनो अख़बार नवीस .चहकते हुए उन्होंने बताया  आज गया था कटिंग कराने .मेरे बैठे हुए शरीर पर सफ़ेद कपडा लपेटकर नाई कैंची बजाते हुए दो मिनट इर्द-गिर्द प्रदक्षिणा करता रहातब मैंने झुंझलाकर कहा ,"यार क्यूँ बोर कर रहे हो?फटाफट बाल काटो ,कई काम पड़े हैं अभी करने के."साहब ... आपकी चाँद को देखकर सोच रहा हूँ किधर से शुरू करूँ,गिने चुने बाल ही तो हैं." मैंने (दद्दू ने )मन में सोचा कि लगता है किसी झुल्पहानौजवान के बाल  काटने के बाद थका हुआ यह ड्रेसर मुझ जैसे उजड़े चमन के जरिए अपना "लास " संतुलित करने कि सोच रहा है.इसी बीच बंटी ने टीवी का स्विच आन किया और एक हसीं खूबसूरत शायरा की खनकती आवाज गूंजने लगी    
              "घिर के काली घटा जो छाई है ,तेरी जुल्फों की याद आई है."
जुल्फों की याद से मैंने दद्दू को बाहर खींचते हुए कहा ," यार दद्दू !खोपड़ी अगर गंजी है तब अफ़सोस क्यूं करते हो,आजकल तो यह फैशन में भी शुमार हो गया है.भूल गए क्या फिरोज खान को नहीं देखा ... कई विदेशी खिलाडी मैदान पर गंजे होकर खेलते हैं.रेखा ने भी सर घुटा लिया था. शबाना आजमी के सर घुटाने पर बवाल खड़ा हो गया था. हमारी बातों से दद्दू की कुछ हौसला अफजाई हुई और उनकी घुटी चाँद ख़ुशी से फोर्टी के बजाए हंड्रेड वाट के बल्ब की तरह जोरों से चमकने लगी.यकायक दद्दू और मेरी निगाह टीवी स्क्रीन पर पड़ी."पड़ोसन " फिल्म के किशोर कुमार वाली अदा से एक शायर ने अपनी जुल्फों को झटका दिया और आशिक मिजाजी के फूल बिखेर दिए-
                       तेरे हुस्न से जो संवर गई  वो फिजाएं मुझको अजीज हैं
                        तेरी जुल्फ से जो लिपट गई मुझे उन हवाओं से प्यार है
मेरे एक ज्योतिषी मित्र के अलावा दफ्तर  के कुछ साथी और रिश्तेदार भी उजड़े चमन हैं. सर के बचे हुए दस परसेंट बालों के लिए उन्होंने कंघियों की बटालियन रख छोड़ी है.नहाते वक्त शेम्पू लगाकर बिग बी इस्टाइल में पोलिओ ड्राप्स वाले विज्ञापन को नए अंदाज में पेश करते हैं,"सिर्फ दो बूँद जिंदगी की बस!" मेरे ज्योतिषी मित्र का बेटा भी उस दिन कह रहा था ," अंकल जी ! इस बार पापा को घर के सब लोग मिलकर अच्छी सी विग  गिफ्ट में देंगे."
                         विग की बात होनी थी की दद्दू उछल  पड़े.मुझे पूरा यकीन था की दद्दू को फिर कोई किस्सा याद आ गया .मेरे कुछ कहने से पहले ही उन्होंने चोंच खोली ,"अखबारनवीस !मेरे एक मित्र सीनियर कलाकार हैं जो विग लगाते है.बता रहे थे एक रोज बेहद भन्नाई श्रीमती जी ने मारे गुस्से के बाल पकड लिए.यह तो किस्मत अच्छी है की अपनी गंजी चाँद पर हमने विग लगाई थी . मुई... विग उनके हाथ में रह गई और हमने अपनी खोपडिया खुजाते हुए वाहन से नौ-दो-ग्यारह होने में ही अपनी भलाई समझी .
                            इसी बीच ददू के दोनों शरारती नाती-नातिन,बंटी और बबली ने मेरे दोनों कानों में अलग -अलग फूस फुसाकर कहा ,"अंकल जी !,कल एक सेल्समेन आया था .वह दादाजी को बीस रूपये में तीन कंघियाँ बेचकर चला गया.जाने से पहले वह कह रहा था ,"यह तो हमारी सेल्समेन शिप का कमल है ,हम तो गंजों को भी कंघी बेच लेते हैं."बातों ही बातों में मुशाइरा कुछ और आगे बढ़ चुका था .इस बार टीवी पर एंकर ने माहौल  बनाने मिर्जा ग़ालिब का शेर दागा.-
                          आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
                         कौन जीता है तेरी जुल्फ के सर होने तक
चाय की प्याली के साथ ही गंजत्व और पर चर्चा के साथ ही गंजा पुराण के कई और पन्ने पलटने लगते हैं .विदेशों में कुछ अभिनेत्रियों को गंजे मर्द बड़े सेक्सी लगते हैं.कास्मेतोलोजी में गंजेपन की इंजीनियरिंग और कृत्रिम केश रोपण  पर रिसर्च का पूरा ब्यौरा दिया गया है.इस बार ने साल से पहले कई संगठन गंजश्री, गंज विभूषण और गंजवाद प्रवर्तक की उपाधियाँ देने की तैयारियां कर रहे है.गंजों के जिला और राज्य स्तरीय संगठन भी बनने को बेताब हैं.
                      मै दद्दू से बातें कर ही रहा था किबंटी ने दद्दू को झिंझोड़ते हुए पूछा ,"दादाजी !गंजों को नाखून क्यों नहीं होते?"बबली कि नजरें दद्दू के नाखूनों कि ओर ही थीं.बहरहाल उजड़े चमन होने का नफा नुकसान और अनुभव अपने पूरे सेन्स आफ ह्यूमर के साथ अपने परिवार और सोस्तों में गप-सडाके  के दौरान बांटिएगा .अपने मोबाईल पर इन्तेजार कीजिएगा सम्मेलन की तिथि तय होते ही मेसेज आपको मिल जाएगा. लेकिन फ़िलहाल सुनिए शायर क्या कह रहे हैं-
                                इस शहर के बादल तेरी जुल्फों की  तरह हैं
                                 जो आग तो लगाते हैं पर बुझाने नहीं आते
                                                  शुभ रात्रि ... शब्बा खैर .. अपना ख्याल रखिएगा.
                                                               किशोर दिवसे
                                                               मोबाईल -09827471743

                      
                            

घूंघट के पट

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औरत के अक्स से क्यूँ चटखता है आइना

अपनी श्रीमती जी की झिडकी का चार सौ चालीस वोल्ट करंट लगते ही दद्दू भकुआ गए थे .झोला उठाया और बृहस्पति बाज़ार का सब्जी मार्केट जाने से पहले आदतन काफी हॉउस की झड़ी लेने टपक पड़े.बतर्ज अंधे को क्या चाहिए ,दो आँखे!दद्दू को देखते ही हम हो गए बल्ले-बल्ले और शुरू हो गया बतरसिया दौर .
"यार अखबार नवीस !नारी पहले अबला समझी गई फिर सबला बनी और आज !"बला... मैंने दद्दू को टोककर फुसफुसाते हुए कहा,"भाई...काहे ओखली में मेरा सर डालने वाली बात करने को उकसा रहे हो?
                   "खैर छोडो...अखबारनवीस ! पुणे में पिछले साल और इस साल भी "रेव पार्टी " से गिरफ्तार किए गए नशेद्ची नौजवान युवक-युवतियों के  अभिभावकों के होश फाख्ता हो गए थे उस वक्त."देखो दद्दू!दो तीन बातें इस घटना से जुडी हुई हैं.पहले तो पुणे और बेंगलोर इन दिनों नई जनरेशन के सबसे पसंदीदा भाग्य विधाता शहर बने हुए हैं दूसरी बात ,बहाना भले ही इन्टरनेट की दुनिया ने ,"क्रेजी किया रे" का बताया है लेकिन अभिभावक खास तौर पर माँ (जिसे प्रथम संस्कार दात्री कहा गया है )की क्या अहम् जिम्मेदारी नहीं की वह बच्चों के मन को इतना संस्कारित करे की वह पश्चिमी बवंडर की  बुराइयों से खुद को बचा सकें!नारी तुम श्रद्धा .... तुम देवी रूप जैसे घिसे-पिटे जुमलों को हाशिए पर रखकर अब ग्लोबलाइजेशन के दौर में पुरुष के समकक्ष अपसंस्कृति की रक्षा का परचम बरदार नारी को बनाना होगा, यूँ कही यह जिम्मेदारी उसे भी समझनी होगी.
                       तिजारत में ये क्या जोर आजमाइश हो रही है
                       सरे बाज़ार औरत की नुमाइश हो रही है 
ऐसे फलसफे को आज के अल्ट्रा-माडर्न युग में दकियानूसी कहकर कुछ लोग ख़ारिज कर सकते हैं.अंतर राष्ट्रिय महिला दिवस  मनाने  की रस्म अदायगी के मौके पर किटी पार्टियों की नकचढ़ी बकवास के कोहराम में जिन्दा मुद्दों की छटपटाहट  को नक्कारखाने में तूती की आवाज बनते देखना आज की नारी को झिंझोड़ता क्यूँ नहीं?
                       धर्म की आड़ में देवदासियां बनाकर कन्याओं को देवार्पित करने का दुश्चक्र अब ख़त्म हो गया है .हो सकता है चोरी छिपे चलता भी होगा. फिर भी उच्चा कान्क्षाओं और धन की हवस मिटाने काली लक्ष्मी की आराधना करने जिस्म.,जमीर या आबरू के सौदागर और खरीददार और समर्पिता  भी अगर नारी ही बन्ने लगे तब भी नारी समाज के लिए जनचेतना का इससे बड़ा सुनहरा अवसर और कौन  सा होगा?
                            "लेकिन अखबार नवीस उत्तर आधुनिक समाज के आईने में नारी की छवि का एक उजला पहलू भी है.नारी सशक्तिकरण ,पुरुष के समकक्ष और कई क्षेत्रों में उससे भी आगे निकल जाने के रचनात्मक रिकार्डों की सूची ने यह भी साबित कर दिया है क़ि युवा ही नहीं किसी भी उम्र क़ी महिला  नई नजीर पेश कर खुद बेनजीर बन गई है.
                          दद्दू!बावजूद इस उजली छवि के आज भी हमारे  समाज में अनेक समस्याओं के यक्ष प्रश्नों ने नींद हरम कर रही हैजैसे-नारी भ्रूण हत्या ,स्त्री-पुरुष अनुपात ,जच्चा -बच्चा मौतें ,साक्षरता ,स्वास्थ्य शिक्षा ,नशा व् शराब खोरी ,दरकते रिश्ते और टूटते परिवार ,सामाजिक कुरीतियाँ और हद दर्जे का अंध विश्वास आदि -आदि .हालाँकि इनपर सोचा जा रहा है पर भागीदारी बेहद कमजोर है जिसके लिए नई पीढ़ी क़ी युवतियों को भी आगे आना होगा ताकि दलित वर्ग ही नहीं वरन समग्र नारी समाज क़ी आर्थिक रीढ़ मजबूत बने
                     तेरे माथे का आँचल तो बहुत खूब है लेकिन
                     इसे परचम बना लेती तो अच्छा था
"अखबार नवीस !महंगाई का जमाना है - पति-पत्नी दोनों को कामकाजी होना जरूरी है.ऐसे में होम मेनेजमेंट कितना  कठिन हो जाता है""दद्दू... पहले नारी अपढ़ थी पर आप जानते हो दादी-नानी कितनी कुशल थी घर का बजट बनाने में .हालाँकि नए दौर क़ी नई समस्याओं का समाधान भी मिल-जुलकर आसानी से हो जाता है पर यह दो- टूक सत्य है क़ी पुरुष क़ी बनिस्बत स्त्री अधिक संवेदनशील है.कतई कमजोर नहीं.."
"कमजोर!बल्कि पुरुष से कई मायने में उन्नीस नहीं बीस है.चाणक्य नीति में कहा गया है क़ी (पता नहीं आप सहमत हैं या नहीं )                      स्त्रीनाम द्विगुण आहारो बुद्धिस्तासाम चतुर्गुना
                             साहसं षड्गुणं चैव कामोश्त्गुन उच्यते
(पुरुषों क़ी अपेक्षा स्त्रियों  का आहार दोगुना होता है.बुद्धि चौगुनी,साहस छः गुना और काम वासना आठगुना होती है.)
"छोडी ... नए युग में मान्यताएं भी समय -सापेक्ष हो जाती हैं.पर एक बात सच है कि महिलाओं के ढेर सारे  संगठन गाँव और शहर तथा महा नगर के स्तर पर बने हैं .फिर भी सूचने क्रांति कि आंधी के दौर में नारियां अपने ही समाज के प्रति उदासीन हैं या यूँ कहिए उन्हें (खास तौर पर युवा पीढ़ी को )सकारात्मक आंधी बनाने कि फौरी जरूरत है .अब पुरुष समाज के सर पर यह कहकर ठीकरा फोड़ने से काम नहीं चलेगा कि-
                         लोग औरत को फकत जिस्म समझ लेते हैं
                        रूह भी होती है उसमें ये कहाँ सोचते हैं?
                                                                                       अपना ख्याल रखिए.....
                                                                                        किशोर दिवसे
                                                                                      
                      

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

संगीत का करिश्मा

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तेरे मेरे ओठों पे ,मीठे-मीठे गीत मितवा 

*जिस इंसान के भीतर संगीत नहीं ... मीठी धुन से जो स्पंदित नहीं होता वह मुर्दा दिल ,बेजान छला जाने वाला तथा विश्वासघात करने लायक है-शेक्सपीयर 
*जिस गीत को गाने मै इस धरती पर आया हू वह आज तक अगेय है सारा जीवन मै अपने वाद्य यंत्र के तंतुओं को ही तालबद्ध करता रहा-रविन्द्र नाथ टेगोर 
*संगीत, अध्यात्म और संवेदना से भरी जिंदगी की मध्यस्थ कड़ी है -बीथोवेन 
 "पुराने ज़माने में राजा-महाराजाओं के दरबार गीत-संगीत की महफ़िल से गुलजार क्यों रहा करते थे?शौक ... रुबाब या तनाव दूर करने का तरीका था यह?
"भाई दद्दू!उनकी बात तो वे ही जानें पर एक बात तो सच है कि अंग्रेजी कि कहावत पर यदि गौर करें तो यही कहा गया है कि "आ हेड विथ क्राउन इज रेस्टलेस " यानी राजा का तनाव वही जान सकता है.तब हो सकता है किउनके लिए भी गीत-संगीत तनाव मुक्ति का जरिया हो!
राजाओं क़ी बातें तो अब बीते ज़माने क़ी हुई जो अब इतिहास क़ी पुस्तकों के पन्नों पर हैं लेकिन आज तो भैये जिंदगी का दूसरा नाम ही टेंशन हो गया है .
                             "जिधर देखो भाग-दौड़  क़ी जिंदगी में एक ही बात हर किसी का तकिया -कलाम टेंशन है!" दद्दू इसका खुलासा करते हुए कहते हैं,"बच्चों को पढाई का ...पुरुष को नौकरी का..बिजनेसमेन को धंधे का...महिला अगर कामकाजी हो तब दफ्तर -घर दोनों जगह का और गृहिणी हो तब घर का तो है ही.परिवार में रिश्तेदारी का ... किसम-किसम के टेंशन अनगिनत... लेकिन इनसे निपटने के तरीके भी ढेर सारे हो गए हैं.
                               आपसे पूछूँगा तो सिनेमा,टीवी ,पिकनिक ,आउटिंग,खेल,पेंटिंग आदि लाइन से गिनने लगेंगे.लेकिन सबसे नायब तरीका है गीत-संगीत.बिलकुल जरूरी नहीं कि आपकी आवाज किशोर कुमार ,लता आशा या आज के दौर के किसी पार्श्व गायक / गायिका क़ी तरह हो.आप अव्वल दर्जे के बाथरूम सिंगर बन जाइए ,तनाव मुक्त होने लगेंगे.
                               थकान से चूर हैं ? रेडिओ प़र गाने  सुनिए ,टेप-सीडी पर गीत-संगीत सुनिए अपनी पसंद का .गायब हो जाएगी सारी थकान.आजकल बच्चों को देखा है कंप्यूटर पर लोड किए हुए गाने लगाकर पढ़ते रहते हैं .हमारे ज़माने में कस के डांट पड़ जाती थी.लगता है गीत-संगीत के बीच पढाई के भूत का भय क्म हो जाता होगा, तनाव क्म महसूस  करते होंगे छात्र . .    "संगीत पैगम्बर का करिश्मा है,धरती का विप्लव और व्याकुलता ... यह खुदाई सौगातों में नायब और बेनजीर तोहफा है "लूथर ने संगीत क़ी इन शब्दों से पूजा क़ी है.कोयल क़ी कूक ... मैना क़ी सुरीली आवाज .. तोते क़ी टें टें.. झरनों क़ी कल कल ... पत्तों क़ी सरसराहट ... बैलों के गले में लटकती घंटियों क़ी ध्वनी ... गोधुली में लौटते मवेशियों क़ी पदचाप ... प्रकृति के रोम-रोम में गीत- संगीत समाया है.इसलिए प्रकृति तनावमुक्त है और उसके सहज संगीत से छेड़खानी करने वाले हम सब इतने तनाव और अवसाद से भरे हुए.ख़ुशी-गम,करुना-उल्लास ,कामेडी ,गीत-संगीत हर मूड का है.यह तनाव से आहत क़ी राहत है.आप तनाव में हैं?किसी नन्हे बच्चे क़ी खिलखिलाहट सुन लीजिए ... ऐसा लगेगा मानो सैकड़ों बांसुरियों से एक साथ सरगम गूंजने लगे हैं..लगा दीजिए अपने माँ को भाने वाला कोई संगीत यूँ लगेगा जैसे मन क़ी धरी पर लगी अमरैया में  गूँज रही है कूहू... कूहू.!किसी जल धारा क़ी कल-कल या पायल क़ी छम-छम...!
              देखा नहीं,पढ़ा और सुना है क़ी तानसेन के संगीत में ऐसा जादू था क़ी दीपक राग अलापते ही दीप जल उठते थे अथवा मेघ मल्हार क़ी तन छेड़ते ही टप...टप.टप ..टप...वर्षा क़ी फुहारें होने लगती थीं.पर बात कहीं गलत नहीं लगती.खास तौर पर ऐसे वक्त जब गीत-संगीत "थेरपी"यानी इलाज का एक कारगर साबित होने लगा है.
          अभी उस रोज पप्पू बता रहा था अपने दोस्त को,"अबे आजकल विदेशों में और शायद भारत में भी डेयरी में भैसों को दुहने से पहले एक विशेष संगीत लगाते हैं जिससे वे अधिक दूध देती हैं.खेतों में भी संगीत के जरिए पौधों का विकास अधिक देखा गया है.दफ्तरों  में भी धीमा संगीत कार्यक्षमता को बढ़ता देखा गया है."
      अरे भाई जिसे जो पसंद है वो गए और सुने.बस... को अच्छा लगना चाहिए.कोई भी संगीत बुरा नहीं है.शास्त्रीय,पश्चिमी,जाज रैप म्यूजिक ... सब का अपना ध्वनी शास्त्र है.और प्रभाव क्षमता भी.सवाल यह है कि किस व्यक्ति की मेंटल फ्रीक्वेंसी के साथ कौन सा गीत या संगीत तारतम्य बिठा पाता है 
                दद्दू बीच में टोककर बोले,"छत्तीसगढ़ में भी तो एक से एक बढ़कर संगीतकार हैं वे संगीत थेरपी पर क्यों शोध नहीं करते?राग आनंद भैरवी में निबद्ध गीत हृदय रोग  विशेषकर उच्च रक्त चाप के मरीजों पर लाभदायक सिद्ध हुए हैं.राग यमन का विशिष्ट प्रभाव वात,पित्त  एवं  कफ़ के दोषों पर स्पष्ट है.खैर.. यह तो दूर कि बात है लेकिन गीत-संगीत तो सुनना अपने बस में ही है ना!तब तो आज से ही जब भी फुर्सत मिले खूब गाइए... मन पसंद गीत सुनिए ... सुनाइए .शेख सादी ने कहा है संगीत का दूसरा नाम संजीवनी है.यह भी कहा गया है कि जिस मनुष्य की आत्मा में संगीत नहीं है उसका विश्वास मत करो.
                   गीत-संगीत कि दुनिया से जुड़ने के लिए दोस्तों ... कोई पहाड़ नहीं तोडना है.बैठ जाइए परिवार के जितने भी सदस्य हैं एक साथ (समय आप तय कीजिए )और हो जाइए  शुरू 
                                   समय बिताने के  लिए करना है कुछ काम
                                    शुरू करो अन्त्याक्षरी लेकर प्रभु का नाम.
   चलो!"म " अक्षर से सुनाओ अब कोई गाना!!!!!!
                                       शब्बा खैर... शुभ रात्रि... अपना ख्याल रखिए.
                                                      

                   किशोर दिवसे     ई मेल     kishore_diwase@yahoo.com


















बुधवार, 10 नवंबर 2010

.क्षितिज की कसक

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अब तक है जलजले में जमीं आसमान की

क्या क्या हुआ है  जुनूं में हमसे न पूछिए
उलझे कभी जमीं से कभी आसमान से हम
दरअसल जिंदगी ही अपने-आपमें एक बेहद खूबसूरत जुनूं है .ये अलग बात है की कभी ख़ुशी कभी गम के दौर में आप और हम कभी जमीं तो कभी आसमां से उलझने लग जाते हैं.और अगर ना भी उलझे तो यकीन मानिए इस जिंदगी का जमीन और आसमान से बेहद करीबी रिश्ता है.
                 अपने दद्दू इस मसले की लट को यूँ सुलझाते हैं ,"अखबार नवीस !वैसे भी यह कहा जाता है की हर कोई इंसान जो आसमान में उड़ता है उसे अपनी जमीन कभी भूलनी नहीं चाहिए क्योंकि-
                   शोहरत की बुलंदी पल भर का तमाशा है
                    जिस शाख पे बैठे हो वो टूट भी सकती है
चलना भले जमीन पर लेकिन ख्वाहिशें आसमान की बुलंदियां छूने की जरूर होनी चाहिए.खुद का हर लिहाज से आंकलन कर अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करना ही आसमान छूने की जिद कहलाता है.जमीन से अपने लक्ष्य के आसमान को हासिल करने के सफ़र में रुक जाना ही सपनों की मौत है .इसलिए अपनी जमीन मजबूत बनाकर नए आसमान की हर पल तलाश आज की जरूरत है.
                कभी कभी किसी इंसान का कद आसमान की तरह होता है .मगर वह यूँ सर झुके होता है की किसी को उसके कद का अंदाज ही नहीं हो पता है.और हाँ,अपनी जमीनी सचाइयों को न भूलने की बात इसलिए भी चेतावनी के तौर पर कही जाती है क्यूंकि                      मिली हवा में उड़ने की ये सजा यारों
                                 की मैं जमीं के रिश्ते से कट गया यारों
आखिर नौबत ही क्यों आए ऐसी?जब जमीनी मसलों की बात की जाती है ,वो मसले जो घर -परिवार ,रोजमर्रा की जिंदगी और प्रोफेशन से भी जुड़े होते हैं तब आसमान में उड़ने वालों से भी ये अपेक्षा की जाती है कि वे सही  जमीनी सचाइयों का अहसास करें, कुछ इस अंदाज में -    
                                          तुम आसमान की बुलंदियों से जल्दी लौट आना
                                         हमें जमीं के मसएल पर बात करनी है
मसलों पर अगर समय रहते बात नहीं होगी तब वे नासूर बन जाएँगे.हकीकत में जमीनी मसलों पर सही वक्त के सही फैसले नहीं लेने की वजह ही हमें आसमान छूने के लिए होने वाली मेराथन रेस में पीछे कर देती है.कुछ लोगों की बात अलग है जो जमीं पर भी सलीके से नहीं चल सकते लेकिन डींगे मरने के नाम पर आसमान छूने की बात करते हैं .मगर अपना आत्म विश्वास ऐसा होना चाहिए की हम जोश से कह सकें -
                                       मैं आसमान-ओ- जमीं की हद    मिला देता
                                        कोई सितारा अगर झुक के चूमता मुझता
कोई न कोई सितारा जरूर चूमेगा ... वक्त आने पर!लेकिन आपने कभी जमीन की कोख से निकलते चश्मों (जलधाराओं ) को उबलते हुए देखा है?जमीन से उबलते इन चश्मों को देखकर कहा जाता है-
                                         जमी का दिल भी किसी ने यकीनन तोडा है
                                         बिला सबब तो ये चश्मे उबल नहीं सकते!
छोडी उबलते चश्मों की बात,कभी किसी आबो-हवा में जहर घुला होता है ,ऐसे हालात में फ़ौरन नई जमीन और नया आसमान तलाश करें.पर जब जूनून जवानी के जोश का हो तब किसी के लरजते हुए ओठों ने अगर किसी का नाम लिया तब मुहब्बत के ख्वाबों में दिल यूँ उड़ने लगता है मानों कह रहा हो ,"मुझे जमीं ने चूम लिया, आसमान ने थाम लिया.  धडकते हुए दिल कूकने लगते हैं -               उतर भी आओ कभी आसमान के जीने से
                            तुम्हे खुदा ने हमारे लिए बनाया है
"यकीनन खुदा ने जमीन और आसमान हमारे लिए ही बनाए हैं" दद्दू कहते हैं ,"अपनी काबिलियत की जमीन और लक्ष्य के आसमान में सही संतुलन ही कामयाबी की आतिशबाजियां दिखलाता है."
"ठीक कह रहे हो दद्दू " मैं उनसे विदा लेते हुए कहता हौं ,"एक अख़बार नवीस इतना वायदा जरूर कर सकता है -
                           कलम की नोंक से मैं आसमान छू लूँगा
                           मुझे जमीन पे रहने को एक मकां तो दो!
                                                   मुस्कुराते रहिए....
                                                                                      किशोर दिवसे

                              

अगर तुम....

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मेरे बच्चे तुम भी बन जाओगे एक इंसान ...!

कोई मजहम ऐसा भी यहाँ चलाया जाए 
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए 
 सोलह आना सच कहा है कवी नीरज ने .दो टूक ऐसी बात जो नीम सच है  और एकदम सामयिक भी.पर आज यहाँ हम इंसान को इंसान नहीं वरन नौजवान को इंसान बनाने की बात करेंगे.जातक कथाएँ और फेबल्स से लेकर दादी- नानी की कहानियों ,पंचतंत्र,सिंहासन बत्तीसी और संस्कार व् दर्शन के माध्यम से भी बेटे -बेटी को श्रेष्ठ बनाने के सूत्र व् मन्त्र जीवनोपयोगी बनाये गए हैं.
          पुत्र/पुत्री के प्रति पिता का कर्तव्य यही है कि वह उसे सभा में प्रथम पंक्ति में बैठने लायक बना दे-तिरुवल्लुवर ने कहा था .अंग्रेजी में भी कहावत है,"LIKE FATHER,LIKE SON".शेक्सपीयर ने भी माता-पिता को यह समझाइश दी ,"IT IS WISE FATHER THAT KNOWS HIS CHILD "यानि बच्चे को  जानना और समझना अगर जरूरी है तो उसे समझाना भी आवश्यक है.हालाँकि जार्ज  हर्बर्ट के मुताबिक ,"सौ स्कूली शिक्षकों की तुलना में एक पिता की भूमिका अधिक मूल्यवान होती है. यानी  संस्कार अपनी जगह अहमियत रखते हैं लेकिन परिवार संस्कारों की पहली पाठशाला है.
                      "अख़बार नवीस ! ऐसा कहा जाता है की माँ बच्चे को पहला संस्कार देती है"-दद्दू बोले."बरसों पहले सिर्फ यही सच था लेकिन आज्ञ के समय में माता और पिता दोनों  की ही भूमिका बराबरी की है.संस्कारवान बनाने में पिता की भी उतनी ही  महत्वपूर्ण एवं गंभीर भूमिका है " मैंने दद्दू की बात को आगे बढ़ाते हुए कहा.
                    "एक बात और भी है जिसे आप दोनों भूल रहे हैं" प्रोफ़ेसर प्यारेलाल ने दार्शनिक अंदाज में घडी की सूइयों को घूरकर हमारी ओर अपनी दृष्टि लौटते हुए कहा,"कोचिंग संस्थानों में भी नौजवान युवक-युवतियों का व्यक्तित्व विकास किया जाता है."बुल्स आई "  के दरवाजे पर रुडयार्ड किपलिंग की कविता "इफ ",फलसफे को शीशे की तरह जीवन में उतारने के लिए प्रेरित करती है.कविता को जीवन दर्शन बनते देखना भी एक अद्भुत अनुभव है.
   हालाँकि अंग्रेजी पढने वालों के लिए यह कविता अच्छी तरह जानी -पहचानी है लेकिन अनेक लोग रुडयार्ड की इस कविता में छिपे ऊर्जा भंडार से अछूते हैं.सारांश यही है की हर एक बच्चे से लेकर युवा अथवा माता -पिता के लिए यह कविता " IF  "यानि "अगर "  की भावनाओं को समझना किसी पूजा या इबादत से कम नहीं होगा. सो, प्रस्तुत है रुडयार्ड किपलिंग की कविता "इफ " का भावानुवाद जो मैंने स्वयं किया है तथा वास्तव में यह एक पिता की बेटे के लिए भी खरी-खरी है-
  
अगर  तुम ...


अगर तुम अपना मस्तिष्क संतुलित रख सकते हो 
जब,सभी आपा खोने लगे हों और 
तुम्हें ठहरा रहे हों इसके लिए दोषी!
अगर तुम कर सकते हो स्वतः पर विश्वास 
जब सभी करते हों तुम पर अविश्वास 
और दे सकते हो इसकी अनुमति भी !
अगर तुम कर सकते हो इसकी प्रतीक्षा 
वह भी विलम्ब की थकान से दूर 
या कर सकते हो झूठ का सामना 
और नहीं शामिल होते हो छद्म -तंत्र में 
या घृणित माने जाकर भी रहते हो
तुम इससे पूर्णतः  अविचलित 
फिर भी नहीं दिखते हो श्रेष्ठि और  
न प्रस्तुत करते हो स्वयं को स्वयं को स्वयंभू 
अगर तुम बन सकते हो स्वप्नद्रष्टा 
नहीं बनने देते हो सपनों को नियंता
 अगर तुम सोच सकते हो निरंतर 
और सिर्फ विचारों को नहीं बनाते लक्ष्य 
अगर तुम सामना करते हो जय-पराजय का 
और रखते हो दोनों-छलावों को समकक्ष 
अगर तुममें साह्स है सुनने का 
जिसे तुमने कहा था वही सत्य 
पर धूर्तों ने बना  दिया उसे असत्य 
बिछाने एक जाल मूर्खों के लिए 
या उन कर्मों पर निगरानी करने 
जो तुमने किए हैं समर्पित ,और 
आबाद किया अपने जर्जर औजारों से 
वंचितों और सीमांत लोगों का जीवन
अगर तुम बना सकते हो एक गट्ठर 
अपनी तमाम विजय और उपलब्धियों का 
और लगा सकते हो ततखन उसे दांव पर 
सब खोकर शुरू कर सकते हो शून्य से यात्रा !
वह भी दीर्घ निःश्वास भर शब्द उच्चारे बिना!
अगर तुम रख सकते हो नियंत्रित हृदय 
मस्तिष्क और अपनी मांस पेशियों को 
चुकने के बाद भी बहाते हो परिहास धारा
और.. सहेजकर रख लेते हो सब कुछ 
जब तुम्हारा अंतस है ख़ाली,नहीं है कुछ 
बाकि रह गई है एक अलौकिक वसीयत 
जो सबसे कहती है "प्रभावशाली रहो"
अगर तुम कर सकते हो भीड़ को संप्रेषित 
और जीवंत रख सकते हो सदाचार ,सदगुण 
या राजाओं के साथ-साथ  रहकर भी 
नहीं भूलते हो आम आदमी की संवेदना 
अगर तुम नहीं होते हो किंचित भी प्रभावित 
अपने शत्रु या मित्रों के विकिरण से 
अगर तुममें  है भाव समानता का 
नहीं है किसी के प्रति पक्षपात 
अगर तुम किसी के लिए न रुकने वाले 
निर्मम पल के मिनट की दूरी 
साथ सेकण्ड की तदित आपाधापी से 
कर लेते हो यदि पूर्ण फतह ....
तब वह सब कुछ तुम्हारा है 
धरती  और भीतर -बाहर समाहित संसार 
और उससे भी कहीं पारदर्शी सत्य -
मेरे बेटे!तुम बन जाओगे एक इंसान !

                                             शब्बा खैर.. शुभ रात्रि ... अपना ख्याल रखिए...
                                                                     किशोर दिवसे .... मोबाईल -09827471743 




  

शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2010

ठिठुरती रात की बात

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जब चली सर्द हवा मैंने तुझे याद किया 

ये सर्द रात ,ये आवारगी,ये नींद का बोझ 
हम अपने शहर में होते तो घर चले जाते


बढ़ते शहर में मौसम को जीने का अंदाज भी चुगली कर जाता है.या फिर यूँ कहिये के बदलते वक्त में मौसम को जीने की स्टाइल भी "अपनी अपनी उम्र" की तर्ज पर करवटें बदलने लगती हैं.सर्दियों का मौसम अपना अहसास दिलाने लगा है यह भी सच है की शहर के बन्दे अब मौसम का मजा लेने लगे हैं.और उसका अंदाज भी खुलकर व्यक्त करते है सब लोग.
       यूँ ही काम ख़त्म कर चाय पीने के बहाने ,दिमाग पर पड़ते हथौड़ों को परे हटाकर उसे कपास बनाने की नीयत से लोग स्टेशन या बस स्टेंड के चौक पर इकठ्ठा हो जाया करते हैं.करियर की चिंता के तनाव को चाय की चुस्कियों में हलक से नीचे उतारती नौजवान पीढ़ी के चेहरे सर्वाधिक होते हैं.बाकी तो सर्विस क्लास और दो पल रूककर अपनी चाहत  बुझाने को रुकते हैं लोग.
प्लेटफार्म पर इन्तेजार में बैठे उस शख्स को ठोड़ी पर हाथ रखे देर रात तक सोचने की मुद्रा में देखने पर ऐसा लगा मानो वह मन में कह रहा हो... हम अपने शहर में होते तो ....! खैर अपनी -अपनी मजबूरी!
                       ठण्ड काले में सूरज भी सरकारी अफसर हो जाता है 
                      सुबह देर से आता है और शाम को जल्दी जाता है 
दिन छोटे हो गए.नीली छतरी सांझ को जल्दी ही मुंह काला कर लेती है.यह अलग बात है की सफ़ेद-पीले बिजली से रोशन"सीन्स के देवदूत"अँधेरे को उसी तरह मुंह चिढाते हैं मानो शैतान बच्चों की कतार लम्बी जीभ निकलकर कह रही हो...ऍ ssssss !  
चौक चौराहों पर ... सड़क किनारे आबाद खोमचों -ठेलों पर पहली दस्तक मकई के भुट्टों ने दी थी.पीछे-पीछे मेराथान्रेस में दौड़ते आ गए बीही ,गजक ,गर्मागर्म मूंगफली के दाने और गुड पापड़ी.
                     घरों और शादी के रिसेप्शन में गाजर का हलवा और लजीज व्यंजनों के साथ मौसम को जीना सीखते शहर के बन्दों को देखकर बदलते मिजाज को भांपने में दिक्कत नहीं होती.
 खाते-पीते " घर के लोगों की खुशकिस्मती है पर " पीते -खाते "लोगों को देखकर ख़ास तौर पर मन उस वक्त कचोटता है जब सरी राह चलते चलते किसी कोने में दिखाई दे जाता है -
                        मुफलिस को ठण्ड में चादर नहीं नसीब 
                        कुत्ते    अमीरों के हैं लपेटे  हुए लिहाफ 
आने वाले दिनों में सर्दियाँ तेज होंगी तब अपनी तबीयत बूझकर मौसम से जूझना और उसका लुत्फ़ उठाना दोनों ही करना होगा.क्या सर्दियों में यह बेहतर नहीं होगा की समाज सेवी संगठन मानसिक आरोग्य केंद्र ,मातृछाया ,वृद्धाश्रम या  अनाथाश्रमों की पड़ताल कर उन्हें यथा  संभव मदद करने की पहल करें?वैसे सच तो यह है की यह मौसम सबसे आरोग्यकारी है. सुबह-सुबह लोगों को तफरीह करते और गार्डन-मैदान में बैड मिन्टन खेलते देखा जा सकता है.
                       सर्दियों में जो अकेले हैं वे सोचेंगे "सर्द रातों में भला किसको जगाने जाते"दिल बहलाने को तो ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है के यादों का कफन ओढने वालों को ठण्ड का एहसास नहीं होता लेकिन ग़रीबों और बेसहारों की मदद करना भी हमारे कर्तव्य का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए.अब यह भी क्या सोचने की बात है के दूल्हा  अपनी दुल्हन के मेहंदी से रचे हाथों को देखकर क्या कह रहा होगा, यही ना कि-
                        दिल मेरा धडकता है इन ठण्ड भरी रातों से 
                       तकदीर मेरी लिख दो मेहंदी भरे हाथों से 
बहरहाल ,मुद्दे कि बात यह है कि ख़ुशी या गम में पीने वाले संयम में रहें.अपनी और खास तौर पर बुजुर्गों कि तबीयत का विशेष ध्यान रखें.एक बात मेरे नौजवान दोस्तों के लिए जो अपने -अपने प्यार क़ी मीठी यादों में खोकर यही कहते हैं=
                      इस ठिठुरती ठण्ड में तेरी यादों का गुलाब 
                     इस तरह महका के सारा घर गुलिस्तान हो गया 
                                                                     प्यार सहित... अपना ख्याल रखिएगा---
                                                                           किशोर दिवसे 
                                                        kishore_diwase@yahoo.com