" कुछ लोग तो ऊपर से बड़ी चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं लेकिन उनके मन में जहर भरा होता है.ऐसे मिठलबरा इंसानों के पेट में दांत होते हैं"
" ठीक कह रहे हो .. कुछ तो नारियल की तरह होते हैं ...ऊपर से सख्त लेकिन भीतर से उतने ही नर्म और कोमल"
"" सच कहा,हरेक इंसान की सूरत और सीरत होती है. सूरत भले ही अच्छी न रहे पर सीरत अच्छी होनी चाहिए "
"बस ,वैसे ही जैसे भोला-भाला चेहरा और दिल बेईमान है.यानी तन के उजले , मन के काले!बातचीत के दरम्यान अक्सर यह कहते हुए सुना जाता है कि अमुक इंसान बड़े ही प्यारे दिल का है.वह हर दिल अजीज बन जाता है.वहीँ जिसके दिल में खोट है वह लाख छिपाने पर भी छिप नहीं सकता."
यूं ही समय काटने के लिए दद्दू और मैं गपिया रहे थे.मसला अच्छे और बुरे दिल का था.दद्दू बोले,"अखबारनवीस!ये दिल कैसी बला है मैं तो समझ ही नहीं पाता." मैंने कहा," दद्दू! ये दिल की रियासत भी बड़ा अबूझ तिलस्म है.बस इतना ही समझ लो-
दुनिया की बलाओं को जब जमा किया मैंने
धुंधली सी मुझे दिल की तस्वीर नजर आई
" पर अखबारनवीस!अगर किसी के दिल की तस्वीर धुंधली सी नजर आए तो समझना क्या मुश्किल नहीं होगा की अमुक इंसान का दिल अच्छा है या बुरा!" -दद्दू ने फिर सवाल किया.
"देखो दद्दू!किसी का दिल अच्छा है या बुरा यह पता लगाने उसे गहराइयों तक समझना होता है.हालाकि यह अनुभव की बात है पर एक किस्सा सुनो... सारी बात आईने की तरह साफ़ हो जाएगी.
" इस शहर में मेरा दिल सबसे खूबसूरत है" एक नौजवान शहर के बीच चौराहे पर खड़े होकर चुनौती भरा दावा कर रहा था.थोड़ी देर में वहां पर जबरदस्त भीड़ इकठ्ठा हो गई.सभी ने महसूस किया की उसका दिल एकदम चंगा है.उसके दिल पर कहीं जख्म नहीं था.न कहीं रिश्ता हुआ लहू,न कोई निशान." सचमुच यह सबसे खूबसूरत दिल है " पहले ने कहा." मैंने तो इससे प्यारा दिल कहीं नहीं देखा"दूसरे ने हामी भरी.धीरे-धीरे सभी लोग एक- दूसरे से सहमत होने लगे." फिर क्या हुआ अखबार नवीस!दद्दू ने अधीर होकर पूछा."अरे सुनो तो यार!वह नौजवान बड़े घमंड से " खपती की तरह अपने खूबसूरत दिल पर इतराने लगा.
अचानक भीड़ को चीरता हुआ एक बूढा बीचोबीच आकर खड़ा हो गया.उसने नौजवान को चुनौती दी,"ओ नौजवान!आखिर तुम्हारा दिल मेरे दिल की तरह खूबसूरत क्यों नहीं है?"चौंक गया वह नौजवान. उसने बूढ़े के दिल में झांककर देखा.उसका दिल मजबूती से धड़क रहा था.लेकिन ओह!उसके दिल पर जख्मों के कई निशान थे.उस दिल में कई जगहों से मांस के टुकड़े गायब थे.अनेक जख्मों पर गोश्त के टुकड़े कहीं से बड़े ही बेतरतीब ढंग से चिपका दिया गए थे.उस नौजवान ने हैरत भरी आँखों से देखा.बूढ़े के दिल में कुछ स्थानों पर गड्ढे दिखाई दे रहे थे.वहां सिर्फ सूराख ही नजर आ रहा था.
समूची भीड़ की आँखें एक ही सवाल कर रही थीं," यह बूढा किस तरह दावा कर रहा है की उसका दिल सबसे खूबसूरत है " वे किंकर्तव्यविमूढ़ थे .उस बूढ़े के दिल की ऐसी हालत देककर नौजवान ने उपेक्षा भरा ठहाका लगाया और कहा," " इस बुढ़ापे में आपको ऐसा भद्दा मजाक करना शोभा नहीं देता.कहाँ मेरा दिल चुस्त दुरुस्त और कहाँ आपका-सैकड़ों जख्मों से भरा... और आंसुओं के सैलाब में डूबा हुआ."
अब उन बूढी आँखों ने नौजवान को गहराई से देखकर कहा,"अरे नौजवान!तुम्हारा दिल सिर्फ देखने में अच्छा है पर उसे कसौटी पर नहीं परखा गया है.तुम जानते हो!मेरे दिल पर पड़ा हर एक एक निशान उस इंसान का प्रतीक है जिसे मैंने अपना प्यार दिया है.यह बात है की कुछ लोग बदले में अपने दिल का टुकड़ा दे देते हैं.कई बार मेरे दिल के जख्मों पर वे टुकड़े बेतरतीब लगते है.लेकिन मैं दिल पर मौजूद उन पैबन्दों से भी मैं खुश हूँ क्योंकि वे मुझे प्यार बांटने का अहसास दिलाते रहते है.और इस दिल में सूराख बने हैं न..वो इसलिए क्यूंकि कुछ बेगैरत इंसानों ने मेरे प्यार के बदले अपने दिल का टुकड़ा नहीं लौटाया.
भीड़ में सन्नाटा छा गया.वह नौजवान सम्मोहित सा उस बूढ़े की और देखने लगा," सुनो ओ नौजवान!देख रहे हो मेरे दिल के सूराखों को?किसी को अपना प्यार देना " शतरंज की बाजी खेलना" है.ये खुले जख्म काफी दर्द भरे हैं फिर भी ये हमेशा मुझे यही याद दिलाते हैं," मैंने इन्हें कभी अपना प्यार दिया था .मुझे उम्मीद है
की लोग कभी किसी रोज मेरा प्यार लौटाकर इस दिल के खुले जख्मों को भर देंगे.
" अब तुम्हीं बताओ नौजवान!कौन सा दिल प्यार के काबिल है?तुम्हारा जो कोरे कागज की तरह है या मेरा जिसने प्यार बांटकर जख्म हासिल किये हैं?- उस बूढ़े की दर्द भरी आँखों में सवाल था.उस नौजवान की आँखों से आंसुओं की धाराएँ बह निकली.वह उस बूढ़े के पास गया और अपने खूबसूरत दिल का टुकड़ा निकालकर कांपते हुए हाथों से उसे सौप दिया.
तत्काल ही बूढ़े ने अपने जख्मी दिल का टुकड़ा निकालकर नौजवान के दिल में लगा दिया.नौजवान ने देखा की अब उसका दिल देखने में सही नहीं था लेकिन पहले से कहीं बेहद खूबसूरत बन गया था... भले ही बूढ़े के दिल का टुकड़ा बेतरतीब ढंग से लगा था. दरअसल बूढ़े के दिल से प्यार का सैलाब उस नौजवान के दिल में समा गया था.कुछ देर बाद वह भीड़ भीगी हुई आँखों से देख रही थी - उस बूढ़े और नौजवान ने एक-दूसरे को गले लगा लिया. अब वे साथ-साथ चलने लगे थे.
साथ -साथ चलते हुए दद्दू ने पूछा," अखबार नवीस!खुले दिल के...साफदिल और अच्छे दिल के लोग सब को पसंद आते हैं.यह तो बताओ कि आपके दिल में कौन है?यार छोडो भी!!!उस वक्त तो दद्दू को मैंने टाल दिया था पर यही सवाल चूंकि आपने भी पूछा है ... तब तो बताना ही पड़ेगा न..
किटी पार्टी में श्रीमती बडबोले ने एक अफवाह मिसेज मंथरा के कानों में कही.कुछ ही दिनों के बाद वह अफवाह समूची कालोनी में फ़ैल गयी.जिसके बारे में वह अफवाह थी वह बड़ी दुखी हुई.बाद में श्रीमती बडबोले को पता चला की अफवाह बेसिर -पैर थी....सफ़ेद झूठ. तब माथे पर हथेली मारकर बोली-" हाय राम! मैंने ये क्या कर डाला!"
श्रीमती बडबोले को बहुत बुरा लगा( हालाकि इस आदत की महिलाओं को नहीं लगता.)वह स्वामी मुक्तानंद के पास गई।
.और उनसे पूछा,"स्वामीजी! मेरी फैलाई हुई अफवाह से किसी के दिल पर चोट पहुंची है बताइये मैं इसका प्रायश्चित्त कैसे करू?मैं सचमुच दुखी हूँ .
" ऐसा करो... तुम बाजार जाओ. एक मुर्गा खरीदना और उसे मार डालने के लिए कहना .फिर मरे हुए मुर्गे को हाथ में लेकर वापस अपने घर लौटना .लेकिन खबरदार!पूरे रास्ते भर एक-एक पंख नोंचकर सड़क पर डालती जाना.श्रीमती बडबोले इस सलाह से भौचक थी पर उसने वही किया जो उससे कहा गया था.दुसरे दिन वह स्वामी मुक्तानंद के पास पहुंची. प्रणाम और आशीर्वचन की औपचारिकताओं के बाद स्वामीजी ने मुस्कुराते हुए कहा,"भद्र महिला.. अब तुम जाओ और वे सारे पंख चुनकर वापस ले आओ जो तुमने कल फेंके थे.वे सारे पंख मुझे लाकर देना .
काफी दूर चलने के बाद भी श्रीमती बडबोले को कोई पंख नहीं मिला." उफ़! न जाने वे सारे पंख कहाँ चले गए." ... वह खीझकर कहने लगी.कई घंटों की तलाश के बाद उसे सिर्फ तीन पंख हाथ लगे." तुमने देखा! उन पंखों को नोंचकर बिखेरना कितना आसान था ?लेकिन उसे वापस लेना कितना कठिन!" अपनी ओढ़नी के सिरे से पसीना पोंछती श्रीमती बडबोले से स्वामी जी बोले.कहानी का क्लाइमेक्स अभी आने को ही था की अपने दद्दू ने तपाक से बीच में चोंच मारी.,"भाई अखबारनवीस!ये तो बताओ फिर क्या हुआ?
"होना क्या था दद्दू!स्वामी जी ने श्रीमती बडबोले को समझाइश दी की किसी अफवाह को फ़ैलाने में अधिक समय नहीं लगता.एक बार आपने अफवाह फैलाई की बन्दूक की तरह..... जंगल में आग की तरह फैलती है अफवाह.इससे होने वाले नुकसान का पूरो तरह प्रायश्चित्त नहीं कर सकते." लेकिन अखबारनवीस!क्या अफवाहबाज सिर्फ महिलाएं होती हैं?इन पर तो हमेशा आरोप लगता आया है कि उनके पेट में कभी कोई बात नहीं पचती.आजकल मर्द तो इस मामले में महिलाओं से काफी आगे निकल चुके हैं.देखते नहीं!.. आफिस-आफिस, संस्थानों में काफी हाउस या गपोड़ियों के अड्डों पर किस तरह अफवाहों की मिसाइलें उडा करती है?"दद्दू ने नया पासा फेंका.( बाद में पप्पू से पता चला कि श्रीमती जी को अफवाहबाज कहने पर उन्हें बेल्नास्त्र का प्रहार सहन करना पड़ा था।)
दद्दू के सर पर उमड़े गूमड़ को देखकर अखबारनवीस ने मुस्कुराते हुए कहा,"भाई दद्दू! अफवाहें सचमुच परेशानियों में डालती ही हैं.कानाफूसी से पैदा हुई अफवाहें मन और चरित्र पर भी असर डालती हैं.संस्थानों में भी कुछ अघोषित(?) पट्टे दार इस काम के लिए शाबासी हासिल करते हैं .वास्तव में देखा जाये तो अफवाहबाजी किसी के लिए शौकिया तो किसी के लिए चरित्र की खासियत बन जाती है.यकीन मानो , जो इंसान अफवाहों पर तत्काल भरोसा कर लेता है वह उसे फ़ैलाने का पहला दोषी है.सच कहूं तो यह देखना और महसूस करना कितने हैरत की बात है की किस तरह कुछ लोग अफवाहबाजी के चलते चरित्र और खुशियों को बर्बाद करते हैं।"
ठीक कह रहे हो अखबारनवीस! बच्चों को कई बार यह कहकर भरमाया जाता है," वो देखो! कौवा कान ले गया.आसमान गिर रहा है....सारे जानवर भागने लगते हैं .पर कभी आसमान गिरता है क्या? खैर! चाय की चुस्कियों के साथ किस्सेबाजी का दौर ख़त्म हुआ ही था कि महरी अपना एक हाथ कमर पर और दूसरा नचा-नचाकर र्रिम्तीजी से कह रही थीं," मैडम जी।.. मैडम जी! मंथरा मैडम जी से किसी ने कहा मालूम....शुक्रवार की रात को नौ बजे उत्तर दिशा में नीली रौशनी वाला एक तारा चमककर दक्षिण की और जायेगा .उसे देखकर सवा किलो मिठाई जो ब्रह्मण को दान करेगा उसे एक सप्ताह के भीतर खूब धनराशी प्राप्त होगी .
शायद इस बूढ़े बाप को मनी आर्डर भेजा हो बेटे ने....मेरा इंटरव्यू काल लेटर होना चाहिए....पप्पू ने सोच ... बलम परदेसिया को दुखियारी बिरहन की यादे हो..... उस भाभी का मन कह रहा था जिसके साजन नौकरी धंधे की जुगत में दूर शहर में रहते हैं...... और नजरें चुराकर चांदनी भी देखती है कहीं उसके चकोर ने गुलाबी ख़त भेजा हो.... इधर निपट देहातन की सूनी नजरें भी तक रही हैं उसी को जो आकर चिट्ठी भी बांच देगा.कोई और नहीं..एक ही है वह शख्स जिसे हम कहते हैं पोस्ट मेन या डाकिया.
याद है पहले कितनी चिट्ठियां लिखा करते थे आप और हम!ख़ुशी और गम के कडवे -मीठे घूँट चिट्ठियां बांचते ही पीने पड़ते थे.मुस्कान और आंसू देने वाली ये इबारतें कभी लिफाफे के भीतर तो कभी अंतर देशीय या पोस्ट कार्ड पर।ज़माने की रफ़्तार ने ढेर सारे नए जरिये पैदा कर दिए है ... डाकिये भी हैं और उनका विकल्प भी आज के हाई -टेक युग में आना ही था ..फिर भी आज भी कानों में गूंजती है एक आवाज जो बढ़ा देती है हर किसी के दिल की धडकनें -
डाकिया डाक लाया डाकिया डाक लाया
ख़ुशी का पैगाम कहीं कहीं दर्दे जाम लाया
क्या आपको याद है पिछली बार आपने चिट्ठी कब लिखी थी?वही डाकिया जो अक्सर दरवाजे की सांकल या कालबेल बजाकर आवाज लगता था -पोस्ट मेन अब कितनी बार घर आता है?चिट्ठियां लिखना कम हो गया तो पाओगे कहाँ से? सारे परिवार का हाल-चाल , सुच-दुःख की बातें.. मान-मनुहार यानी भावनाओं की भानुमती का पिटारा हुआ करती थी चिट्ठियां .
आप में से बहुतों को मालूम है चिट्ठियां लाने - ले जाने वाले कासिद हुआ करता है.राजा महाराजाओं के जमाने में कबूतर भी कासिद हुआ करते थे जो प्यार के पैगाम ले जाते.ऐसे ही आशिक राजकुमार के दीदार को ,तरसती माशूका ने एक ख़त लिखा और तड़पकर कासिद से कहा -
नामाबर ख़त में मेरी आँख भी रखकर ले जा
क्या गया जो देखने वाली भी न गयी
खतों में गीत-गजल, शायरियां लिखने का रिवाज भी खूब चला था.दिल को छू लेने वाली चिट्ठियां लिखना भी एक कला है.पंडित नेहरू,महात्मा गाँधी,अब्राहम लिंकन ,अमृता प्रीतम,के लिखे खत ऐतिहासिक दस्तावेज है.विश्व विख्यात चित्रकार विन्सेंट वान गो और उनके भाई थियो के पत्रों पर आधारित उपन्यास " LUST FOR LIFE अद्भुत रचना है.पत्रों का अनोखा संसार है क्योंकि चिट्ठियां ऐसी पंखदार कासिद हैं जो पूरब से पश्चिम तक प्यार की राजदूत बनकर जा सकती हैं.ऐसी ही एक चिट्ठी मोर्चे डटे जवान को मिलती है और खंदक में ही वह अपने दोस्तों के साथ एक गीत गाता है ( फिल्म बार्डर)-
संदेशे आते हैं, वो पूछे जाते हैंकि तुम कब आओगे
की घर कब आओगे ये घर तुम बिन सून सूना है...
फिल्म पलकों की छाव में -डाकिये की भूमिका में राजेश खन्ना ने परदे पर दिल छू लेने वाला गीत गया था -डाकिया डाक लाया.... फिर ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर तुम...और ख़त लिख दे सांवरिया के नाम बाबू...और चिट्ठी आई है आई है चिट्ठी आई है...
और एक बात मेरे नौजवान दोस्तों के लिए - साहित्यकार जान जेकिन रूसो ने कहा है सबसे अच्छा प्रेम पत्र लिखने, बगैर जाने यह लिखना शुरू कीजिए की आप क्या चाहते हैं .यह जाने बिना भी ख़त्म कीजिए की आपने क्या लिखा है.पर जरा गौर तो कीजिए इस नौजवान ने एक रूक्के पर हाले-दिल किस तरह बयान किया है-
मेरे कासिद जब तू पहुंचे मेर दिलदार के आगे
अदब से सर झुकाना हुस्न की सरकार के आगे
डाकिये की जिंदगी रील लाइफ में जितनी अलहदा है रियल लाइफ में उतनी ही कठिन और संघर्ष पूर्ण.उसकी सायकल के कैरियर और झोले में बिल.व्यावसायिक पत्र,अखबार, मैगजीन और रजिस्टर्ड पार्सल होंगे पर जज्बातों में डूबी चिट्ठियां अब नहीं होतीं.आज अगर किसी को चिट्ठियां लिखने को कहें तो वह कहेगा ,"क्या लिखूं कुछ भी समझ में नहीं आता."पर एक बात जरूर समझ में आ गयी की बदलते वक्त के साथ लोगों के मिजाज भी बदल गए हैं .दद्दू के घर टीवी चैनल पर एक फ़िल्मी गीत चल रहा है-
कबूतर जा जा जा ... कबूतर जा जा जा
पहले प्यार की पहली चिट्ठी साजन को दे आ
छोडो कल की बातें... अब तो क़ासिद का काम अपना मोबाइल ही सम्हाल रहा है.डाकिये और कूरियर सर्विस से आगे जरूरी मैसेज या " नन्ही इबारतों वाले खत " ये कासिद ही लाते-ले जाते हैं.क्या नयी क्या पुरानी जनरेशन ... ऐसी दीवानगी देखी नहीं कहीं.. पार एक बात का यकीन मानिए अच्छी .. प्यारी और खूबसूरत चिट्ठियां लिखने वाला इंसान ही संजीदा संवेदनशील और मुहब्बत भरे दिल का मालिक होता है.चिट्ठी लिखकर अपने भीतर खुद की तलाश कीजिए सिर्फ चिट्ठियों के जरिये किया जाने वाला प्यार प्लेटानिक लव कहलाता है.
एक बार फिर चिट्ठियों ..खतों.. कासिद और नामाबर की दुनिया के करीब से गुजर कर देखिये,खुद को तलाशने का एक आइना यह भी है.एक मिनट...रुकना जरा..देखूं तो मेरा कासिद "इलेक्ट्रानिक कासिद "यानी मेरा मोबाइल कौन सा पैगाम लेकर आया है-
अगर जिंदगी में जुदाई न होती,तो कभी किसी की याद आई न होती
साथ ही अगर गुजरते हर लम्हे तो शायद रिश्तों में ये गहराई न होती
हर तरफ जुर्म ही जुर्म।.. प्रिंट मिडिया हो या इलेक्ट्रानिक मिडिया क्यूं बनती जा रही है सुर्खियाँ जुर्म की?क्या ही गया है इस समाज को?बच्चे भटककर जुर्म की राह पकड़ रहे हैं।बेरोजगार युवा अपराध की दुनिया में उतरने पर क्यूं मजबूर हैं?समाज में अपराधियों की बात तो दूर सफेदपोशों की जमात भी गुनाहों के दलदल में इतनी धंस गयी है की सच का चेहरा सहमा हुआ है और झूठ का मुखौटा कर रहा है अट्टहास -
सच पूछो तो तो सब ही मुजरिम हैं
कौन यहाँ पर किसकी गवाही दे?
पर जब अवसरवादी कूटनीति हावी होती है तब श्रीलाल शुक्ल का राग दरबारी याद आना स्वाभाविक है।... जिसकी दम उठाओ मादा नजर आता है।लेकिन जुर्म के मक्कार चेहरों की धूर्तता देखिये-एक फ़िल्मी गीत में कहा गया है-.आप अन्दर से कुछ और बाहर से कुछ और नजर आते है!" क्या यह जुर्म नहीं ?गाँव ,शहर या महानगर -जुर्म अलग अलग चेहरे बदलकर आता है और कभी हालत यूं भी बन जाती है-
मैं कहाँ से पेश करता एक भी सच्चा गवाह
जुर्म भी था आपका और आपकी सरकार थी
क्या आज के दौर में वे लोग बेहतर हैं जो मुजरिम की तरह जीने का फन सीख लेते हैं।वर्ना शराफत का पुतला बने उल्लुओं को " सीधा-साधा" ब्रांडेड कर हाशिये की सूली पर लटका दिया जाता है।इसीलिए नयी ट्रेंड में पूरी तरह प्रोफेशनल बन जाना निहायत जरूरी है जो बीत चुके दौर में जुर्म की तरह समझा जाता रहा।
सफेदपोशों के जुर्म की दुनिया के उसूलों का भी अंदाज नया है।दायें हाथ का काम बाएं हाथ को पता नहीं चलता।झूठ बोलना अगर जुर्म है (किसी ज़माने में सैद्धांतिक अपराध रहा)तब नयी ट्रेंड के गुनाहगार इतने आत्म विश्वास से झूठ बोलते हैं की सैकड़ों " गोयबल्स" छटपटाकर र दम तोड़ दें!-
जहाँ क़ानून बेआवाज होगा
वहीँ जुर्म का आगाज होगा
यह सच कानून और प्रशासन दोनों के लिए सामान रूप से लागू होता है।समाज में यह भी एक नीम सच है ," जो खुद ही मुजरिम है लोगों की नजर में वाही देता है सजा भी"यह स्थिति भी बदलनी चाहिए।कुछ लोगों के करम का भी कोई हिसाब भी नहीं होता।ऐसे लोगों के गुनाह गिनकर अपने दिल को छोटा नहीं करना चाहिए।इसी तरह पहली बार जुर्म करने वाले को सजा देकर गुनाहगार बनाना जरूरी नहीं।कुछ लोगों को जुर्म का एहसास भी सताता है और " अपराध बोध " उनकी देह्भाषा में उजागर हो जाता है।
क्यूं जुर्म समझ लेते हैं मुहब्बत को लोग?मीडिया में कई ख़बरें सुर्खियाँ बनी हैं जब अंतर जातीय विवाह करने वाले मुहब्बत भरे दो दिलों को समाज ने यातनाएं दी और जलील भी किया।। आनर किलिंग का लफ्ज भी हमने हालिया तौर पर अखबारों में अनेक दफे पढ़ा है जब समाज की खिलाफत करने वाले प्रेमी जोड़े को पंचायत के फरमान से मार डाला जाता है।किसी को चाहते रहना कोई खता तो नहीं!मुहब्बत पाकीजा इबादत है ... कोई जुर्म नहीं।.. बागबान से पूछे जाने की हिम्मत होनी चाहिए की किस जुर्म में निकले गुलिस्तान से हम!ख़ास तौर पर नौजवान, मुहब्बत को जिम्मेदारी से निभाए और डंके की चोट पर कहे-
कुछ जुर्म नहीं इश्क जो दुनिया से छिपाएं
हमने तुझे चाहा है हजारों में कहेंगे
जुर्म।. मुजरिम।. गुनाह और गुनाहगारों की दुनिया बड़ी तिलस्मी है. आजादी के पहले से आज तक किसम किसम के जुर्म होते आये और गुनाहों की दुनियाएं बनती रहीं।जिंदगी का काल चक्र गांधी की अहिंसा और अंग्रेजों के जुल्म का गवाह है।शारीरिक और मानसिक जुर्म की अपनी उलझनें और समाधान हैं। फिलहाल आज के दौर में इस बात पर हर एक इंसान को सोचना चाहिए की जुर्म को कैसे मिटायें-
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दीवार ...दरवाजा और दहलीज ।..!
भला यह भी कोई बात करने या लिखने का टापिक हुआ?नहीं।.. पर क्यूं नहीं हो सकता?बातें तो किसी भी चीज पर की जा सकती हैं। लेकिन जरा सोचिये ..अगर दीवार. दरवाजा और दहलीज की इंसानी शक्लें होती और ये आपस में रूठने-मनाने ,नुक्ताचीनी करते हुए बतियाते लगते तब किस तरह की बातचीत होती इन तीनों के बीच आपस में !अरे।..यह क्या .. दीवार... दरवाजे और दहलीज के चेहरे भी उग आये और गपियाना भी शुरू कर दिया इन तीनों ने आपस में .
दीवार ने दरवाजे को छेड़ते हुए कहा,"सुन ओ दरवाजे!तुम जानते हो लोग कितना परेशां होते हैं जब तुम बंद होते हो. क्या बात हुई यह समझना ही मुश्किल हो जाता है." बंद दरवाजा देखकर पप्पू कह रहा था-
दरवाजे बंद-बंद मिले जिस तरफ गया
कुछ तो बताओ दोस्तों क्या बात हुई?
बात क्या होनी थी?दरवाजे ने दीवार से कहा --" किसी के इन्तेजार की शमाएँ जल रही थीं। शमाएँ बुझ गयीं इन्तेजार करते-करते पर मैं खुला का खुला ही रह गया.इसी बीच अचानक तेज हवा का झोंका आया. दहलीज उठकर दरवाजा खोलने लगी पर दीवार ने उसे रोक दिया.दीवार को दस्तक के मायने मालूम थे.दहलीज को दरवाजा खोलने से मना करते हुए दीवार ने दीवार ने कहा -
दस्तक हुई दरवाजे पे दरवाजा न खोलो
ये तुमसे लिपट जाएगी ये जंगल की हवा है
अब भला जंगल की हवा अपनी शोख अदा कैसे न दिखाती !वह दीवार से लिपट कर फुसफुसाने लगी.," मैं तो जा रही हूँ पर दरवाजे से कह देना की दहलीज पर किसी को भी दीये रखने से मना कर दें.इसलिए क्यूंकि मकान सूखी हुई लकड़ियों के होते हैं" अनजाने में उन तीनों ने जनाब बहीर बद्र को याद कर लिया था.
अपने दद्दू के मकान का एक हिस्सा कच्ची दीवार का है.सोच ही रहे थे रविवार को छुट्टी के रोज मिस्त्री बुलाकर पलस्तर करवाऊंगा जी यकायक वह दीवार भरभराकर गिर पड़ी।शुक्र है कोई हादसा न हुआ वर्ना!चाय की चुस्कियां लेते लेते टूटी दीवार से गिरी ईटों और मलबे के बीच गुजरते राहगीरों की आमद रफत देखकर दद्दू का मूड दुखी होने के साथ-साथ कुछ शायराना हो गया था.वे आ-जाने वालों को देखते जाते और गुनगुनाते भी-
दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की
लोगों ने आने-जाने का रास्ता बना लिया !
दीवार....दरवाजे और दहलीज पर अभी चेहरे उगे हुए हैं।उनकी बातचीत भी अभी जारी है...जरा सोचिये तो ... चीन की दीवार और बर्लिन की दीवार भी न जाने क्या क्या कहती होंगी गुजरने वालों से!यकायक दहलीज और दरवाजे के चेहरे कुछ उदास हो गए.दीवार ने जब कोंच-कोंचकर उनसे पूछा तब एकराय थे दहलीज और दरवाजा.
" अरी दीवार !तुम तो खामोश रहती हो नुकसान नहीं करती किसी का लेकिन उस अदृश्य दीवार का क्या जो हिन्दू -मुस्लिम और इंसान-इंसान के बीच है?इस दीवार ने तो इंसानियत का जनाजा ही निकाल दिया है.
दुखी होकर रो पड़े वे तीनों और उन आंसुओं के बीच फिजा कादरी के बोल इस तरह से गूंजने लगे-
तामीर जो घर होता बुनियाद-ए- मोहब्बत पर
आंगन में ये नफरत की दीवार नहीं होती
अपने आंसू पोंछकर एक बार फिर दीवार दरवाजा और दहलीज लगे थे आपस में बतियाने.उन तीनों के चेहरों ने आँखें उठाकर ऊपर देखा ...एक और चेहरा कुछ बुजुर्ग ... गंभीर सा ... ममता भरे नेत्रों से उन्हें निहार रहा था.वह था " घर" का चेहरा.दद्दू ने घर की बिखरी हुई दीवार और दहलीज का चेहरा थपथपाया और आजकल समाज में दरकते रिश्तों और परिवार के लोगों के बीच उठती दीवार से मर्माहत हो गया.घर का चेहरा आंसुओं से भीग गया था.रूंधे हुए गले से वह रुक-रूककर कहने लगा-
कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दरमियाँ
घर कहीं गम हो गया दीवार-ओ -दर के दरमियाँ
अब चार चेहरे आपस में सुख-दुःख की बात करने लगे थे.दीवार... दरवाजा ..दहलीज और घर. घर ने दीवार की पीठ थपथपाते हुए कहा," देख दीवार!तू मजबूत बन.घर की दीवार मजबूत नहीं होंगी तो वे भीतर रहने वालों की सुरक्षा कैसे करेंगी?गिर जाये जो ठोकर से दीवार नहीं होती.अब की बार दहलीज ने अपनी शिकायतों का निशाना दीवार को बनाया।लड़ने के अंदाज में घर से कहने लगी," इस दीवार की ऊंचाई से ही घर के भीतर लोग बैठे हैं या नहीं ... ज़माने को इसकी हवा तक नहीं लगती।"इस बार खिडकियों के कुछ चेहरे भी झाँकने लगे थे.दीवार और दहलीज की नोंकझोंक सुनकर वे समवेत स्वर में गाने लगे-
घर में बैठो तो ज़माने को भी हवा न लगे
इतना ऊंचा न उठाना कभी दीवारों को
दीवार... दरवाजा और दहलीज के चेहरों के साथ-साथ अब बातचीत में घर और खिडकियों के चेहरे भी शामिल हो गए थे.घर के चेहरे ने सभी को समझाते हुए कहा,"बच्चों! कभी अपने परिवार के आँगन में दिलों के भीतर दीवारें मत उठने देना.हमसाये का घर भी अपने घर की तरह ही होता है."
दीवार।.. दरवाजा।.. दहलीज और खिडकियों ने आज की जिंदगी में धू-छाव खूब देखी थी।घर के चेहरे के साथ मिलकर वे सभी ख़ुशी से नाचने लगे थे. दरअसल मुहब्बत की हवौएँ बहने लगी थीं.-
घर पडोसी का महक जाये चमन की सूरत
तेरे आँगन से मुहब्बत की वो खुशबू निकले
दीवार ..... दरवजा....दहलीज.....घर ... खिडकियों की धमा- चौकड़ी से दद्दू की नींद खुल गयी.हडबडाकर वे उठे," ओह!!!क्या मैं सपना देख रहा था!"...उधर कालबेल लगातार चीखे जा रही थी .
" यार अखबारनवीस!लोग आजकल इतने मतलब परस्त हो गए हैं की तभी मिलेंगे जब कोई काम होगा।एक-दुसरे से सुख-दुःख की बातों का रिश्ता ही नहीं रहा।"-दद्दू आज कुछ दुखी होकर बोल रहे थे।
" हाँ दद्दू!तभी तो जिधर देखो हर इंसान आपा आपा-- धापी में दिखाई देता है।बैठकर सुकून से घर-परिवार की बातें करने की फुर्सत किसी को नहीं।एक तो वैसे ही जिंदगी की रफ़्तार पहले से काफी तेज हो चुकी है ,उसपर "टीवी मेनिया" ने बतरसिया जमात को न जाने कहाँ गुम कर दिया है!किस्सागोई जो किसी वक्त हर लिहाज से रिश्ते मजबूत बनाने और समझाइश देने की कड़ी हुआ करती थी उसके लिए किसी के पास वक्त नहीं।"- मैंने दद्दू की बात पर हामी भरी।" इसका यह मतलब नहीं की काम छोड़कर गप्पें हांकने लग जाये।जैसा की अक्सर " आफिस-आफिस " में दिखाई देता है।फिर भी मतलब के साथी या सेल्फसेंटर्ड होने होने के बदले आपस में कभी-कभार किस्सागोई का सिलसिला चलते रहना चाहिए।"
हम दोनों ने एक-एक किस्सा सुनने की ठानी और पहली बारी थी दद्दू की- बाबा चतुरानन्द एक बार मूसलाधार बारिश में फस गए थे।कुछ घंटों मने पता चला की जिस होटल में वे रुके हुए थे वह पानी से घिर गया है।घबराकर बाबा चतुरानन्द उस होटल की छत पर चढ़कर भगवान् से प्रार्थना करने लगे।-" हे भगवान् ... मेरी जान बचा लो!मेरी जान बचेगी तभी तो मैं लोगों को धर्म के उपदेश दे सकूंगा!"कुछ ही मिनटों के भीतर एक लाइफबोट उनके निकट पहुंची।खिड़की से झाँककर जीवन रक्षक बोला," बाबा चतुरानन्द जी!बाढ़ का पानी बढ़ रहा है।.. अभी वक्त है आ जाइये।"
" नहीं नहीं।.. मैं यहीं पर रुकूंगा" बाबा चतुरानन्द बोले," भगवान् मेरी रक्षा करेंगे"..बारिश अभी भी जारी थी।तकरीबन एक घंटे बाद दूसरी नाव वहां पहुंची। पानी छत पर पहुँचने को ही था।" बाबा चतुरानन्द जी!बाढ़ का पानी बढ़ रहा है।.. अभी वक्त है आ जैसी।"
नहीं नहीं।.. तुम्हारा कल्याण हो।भगवान् मुझे इस संकट से छुटकारा दिलाएंगे।" बाबा चतुरानन्द अब भी अपनी बात पर अडिग थे.शाम तक बाढ़ का पानी छत पार कर चूका था।बाबा छत पर बने बुर्ज के ऊपर जा पहुंचे।चौंककर बाबा चतुरानन्द ने ऊपर देखा।शासकीय हेलीकाप्टर बुर्ज के चारों और चक्कर लगा रहा था।
" बाबा चतुरानन्द जी!... हम सीधी नीचे लटका रहे हैं।इससे हम आपको ऊपर खींच लेंगे।इसके बाद आपको बचने कोई नहीं आएगा।
" मैं ठीक हूँ" आसमान की और देखकर उन्होंने कहा," मैं जानता हूँ भगवन मुझे अवश्य आसरा देंगे".नौकाएं चली गयी।...हेलीकाप्टर भी उड़ गया।यकायक छत पर बिजली गिरी और बाबा चतुरानन्द " खर्च " हो गए।स्वर्ग के चमचमाते दरवाजे पर पहुंची बाबा चतुरानन्द की आत्मा।गुस्से से उबल रही थी।" आखिर में हुआ क्या!" आत्मा चीख पड़ी ," मैंने सोचा था भगवान् मुझे बचने आएंगे".भगवान् बड़े व्यंग्य से मुस्कुराये।.. इतने में ही दिव्य आकाशवाणी आसमान में गूंजने लगी-" ओह! बाबा चतुरानन्द ...मैंने ही आपके लिए मनुष्यों के माध्यम से दो नौकाएं और एक हेलीकाप्टर भिजवाया था।!
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अब मेरी बारी थी, सो एक किस्सा मैंने भी ढील दिया।टुन्नी राम आदतन शाम के बाद से टुन्न थे।फिर भी एकाध पेग की तलब हुई और पहुँच गए बार में।टुन्नी राम की टेबल पर पेग रखा हुआ था और सुकराती स्टाइल में कहीं शून्य में घूर रहे थे।आधा घंटा यूं ही गुजर गया।
यकायक ट्रक ड्राइवर संता सिंह उसी टेबल पर पहुंचे जहाँ टुन्नी राम पर फिलासफर की आत्मा सवार थी।आव न देखा ताव,बांह चढ़ाई और एक ही सांस में संता सिंह ने हलक में उड़ेल लिया वह पेग।टुन्नी राम अपने आप में लौटा।.." आप मेरा पेग चढ़ा गए पापे!!आप पैसे वाले हो ... ये आपने क्या किया?"
ओये!! रोता क्यूं है बादशाहों!एक पेग की ही तो बात है... तेरे लिए अभी मंगा देता हूँ"-संता सिंह मूंछों पर ताव देते हुए बोले।टुन्नी राम का नशा हिरन हो गया था।," बात वो नहीं है पाजी!आज मेरी जिन्दगी का सबसे मनहूस दिन है।पहली बात-मैं आज देर तक सोता रहा।देर से दफ्तर पहुंचा तो बॉस ने जमकर बत्ती दी और एक दिन की छुट्टी करवा दी।दफ्तर के बाहर आया तो स्टैंड के बाहर रखी स्कूटर चोरी हो गयी।रिक्शे से घर पहुंचा ,उसे पैसे दिया और पर्स रिक्शे में ही गिर गया।.. घर के भीतर गया तो देखा..घर खुला हुआ था।पडोसी ने बताया ...बीबी किसी के साथ भाग...!वहां से बार पहुँचने से पहले मैंने तय कर रखा था ,"अब जहर खाकर मर जाऊंगा।अपने पेग में मैंने जहर डाल दिया था और अपने बारे में सोच रहा था ...आप आये और बिना पूछे वह पेग चढ़ा लिया।..!!!
क्यूं अखबारनवीस! खुदा ने अपनी जुबान में हड्डी क्यूं नहीं दी?"- दद्दू ने एकाएक मुझपर सवाल की मिसाइल दागी।खुद को संयत करते हुए मैंने कहा,"शायद उसे किसी के भी बयां में सख्ती पसंद नहीं होगी इसलिए जुबान में हड्डी नहीं दी।"फिर भी नेताओं की कौम है की भड़काऊ बयां लगातार और हर वक्त दिए जाते है।बात सिर्फ किसी एक नेता की नहीं।हर पार्टी के नेता सांपनाथ हो या नाग नाथ- एक दुसरे को सियासी हमाम में नंगा करने खिलाफ में बयां पेले पड़ते है मानो वे जनता को बेवकूफ समझ रहे हो। अब तो आम आदमी भी इन नेताओं की नूरा- कुश्तियों को खूब समझने लगा है।
संसद विधान सभा और नगरीय निकायों की बैठकों के दौरान जन प्रतिनिधियों के आचरण छोटे परदे पर दर्शक देख ही रहे हैं।मजहब को ढाल बनाकर सियासत का कहर बरपाने वाली पार्टियों के नुमाइंदों को हर हाल में इस बेशर्मी से बचना चाहिए।चुनावी माहौल में आरोप- प्रत्यारोप का जलजला समझ में आता है लेकिन शालीनता की कोई हद होती है या नहीं ?"
दद्दू कहते हैं जब तक निहायत जरूरी न हो जुबान में कडवाहट नहीं होनी चाहिए।कबीर ने भी कहा है,"मीठी बानी बोलिए।..यह भी सच है की लीगल ज्यूरिसप्रूडेंस में उल्लिखित ," ईश्वरीय न्याय "या एक्ट आफ गाड तथा सामाजिक परम्पराओं के तहत " कडवी जुबान"बेआवाज लाठी का शिकार होती है।जहरीले शब्द उगलने वाले नेताओं तो क्या आम आदमी को भी देर -सबेर सबक जरूर मिलता है।जहाँ तक जुबान में हड्डी नहीं होने का मसला है ,यकीनी तौर पर आज-कल के माहौल में जब सच के गालों पर झूठ को मलने लगे हैं लोग तब इस सच को याद रखना जरूरी है की-
उन्होंने अपनी गंजी चाँद पर प्यार से हाथ फेरा और दसों अँगुलियों के नाखूनों को रगड़ते हुए बापू की फ्रेम की और देखकर लगे थे कुछ सोचने।" क्या बात है दद्दू!बाबा रामदेव का फार्मूला आजमा रहे हो क्या?"-ड्राइंग रूम में एंट्री मारते हुए मैंने उन्हें छेड़ा।अपनी गंजी चाँद की कसम... अखबारनवीस इन नामुराद जुल्फों ने थोड़ी सी नहीं,...बहुत बड़ी सी बेवफाई की है मुझसे .तब मुझे लगा क्यों न यही फार्मूला ट्राई करें!मैंने भी सोचा चलो आज गंजत्व पर ही चकल्लस कर ली जाये।
दद्दू।.. तकदीर वाले हो ...बालों को सँवारने में समय बर्बाद नहीं होता वर्ना हमें तो आईने के सामने देर तक खड़ा देखकर श्रीमती जी की त्योरियां ही चढ़ जाती हैं-" इस उम्र में इतनी देर मेक अप ... आपके कानों पर जूं क्यों नहीं रेंगती ?" अचानक यह डायलाग याद आया और हमारी निगाह पड़ी दद्दू की चाँद पर।... भला सर पर बाल हों तो जू रेंगने की हिमाकत करे ना !पर ... अखबारनवीस।.. पुरुष अगर घुटा सर हो तब उसे गंजा कहते हैं लेकिन ऐसी महिला को " गंजी कहते हैं या नहीं?मैंने कहा किसी खल्वाट साहित्यकार को पूछ कर बताऊँगा।!
स्कूल जाने वाली दद्दू की बिटिया बबली अचानक अपने पापा के पास कहने लगी," पापा आपके सर पर तो बाल ही नहीं हैं फिर आप जेब में हमेशा कंघी क्यों रखते हैं?"दद्दू हमारी और देखकर मुस्कुराये और झेंपकर कहा,"" जा बिटिया।..अंकल के लिए पानी लेकर आना!" "और सुनाओ दद्दू! क्या खबर है?? "खबर नहीं
मजेदार बात सुनो अखबारनवीस।." चहकते हुए उन्होंने बताया,"आज गया था कटिंग करने।मेरे बैठे हुए शरीर पर कपडा लपेटकर कंघी बजाता हुआ दो-तीन मिनट इर्द-गिर्द प्रदक्षिणा करता रहा " तब मैंने झुंझलाकर कहा ," यार! क्यों बोर कर रहे हो!फटाफट बाल काटो ... कई काम पड़े है ना अभी करने के!" साहब .. आपकी चाँद को देखकर सोच रहा हूँ किधर से शुरू करूं , गिने चुने ही तो बाल हैं" मैंने ( दद्दू) में सोचा ,लगता है किसी झुल्पहा नौजवान के बाल काटने के बाद थका हुआ यह ड्रेसर मुझ जैसे उजड़े चमन के जरिया अपना "लास " अडजस्ट करने की सोच रहा है.इसी बीच बनती एन टीवी का स्विच आन किया और एक हसीं खूबसूरत शायरा की खनकती आवाज गूंजने लगी-
जुल्फों की याद से दद्दू को मैंने बाहर खींचते हुए कहा,"यार दद्दू! खोपड़ी अगर गंजी है तो अफ़सोस क्यों करते हो आजकल तो यह फैशन में भी शुमार हो गया है.भूल गए क्या!फिरोज खान को नहीं देखा...कई गंजे खिलाडी मैदान पर गंजे होकर खेलते हैं.तिरुपति जाकर केश दान की परंपरा है.सलमान खान भी एक बार मुंडी घुटाकर अवार्ड समारोह में पहुंचा था.रेखा और शबन आजमी ने भी सर मुड़कर परम्पराओं की बगावत की थी.हमारी बातों से दद्दू की कुछ हौसला अफजाई हुई और उनकी घुटी चाँद फोर्टी की बजाये सिक्सटी वाट के बिजली के लट्टू की तरह चमकने लगी.यकायक दद्दू और मेरी निगाह टीवी स्क्रीन की तरफ गयी." पड़ोसन" के किशोर कुमार वाली अदा से एक शायर ने अपनी जुल्फों को झटका दिया और आशिक मिजाजी के फूल बिखेर दिए.-
तेरे हुस्न से जो संवर गयी फिजायें मुझको अजीज हैं
तेरी जुल्फ से जो लिपट गयी मुझे उन हवाओं से प्यार है
मेरे एक ज्योतिषी मित्र भी उजड़े चमन हैं.सर के दस परसेंट बचे-खुचे बालों की सुरक्षा के लिए उन्होंने कंघियों की बटालियन रख छोड़ी है.नहाते वक्त शेम्पू लगाकर बिग बी स्टाइल में पोलियो ड्राप्स वाले विज्ञापन को नए अंदाज में पेश करते हैं," दो बूँद शेम्पू की.. बस...!!"" उनका बेटा भी कुछ दिन पहले कह रहा था," अंकल जी इस बार मैंने अपने पापा को बर्थ डे पर हम सब मिलकर अच्छी सी विग देने वाले हैं.".
विग की बात होनी थी की दद्दू उछल पड़े.मुझे पूरा यकीन था की दद्दू को फिर कोई किस्सा याद आ गया .मेरे कुछ कहने से पाजले ही उनहोंने चोंच खोली ," अखबार नवीस! मेरे एक मित्र सीनियर कलाकार हैंजो विग लगते हैं.बता रहे थे ,एक रोज बेहद भन्नाई श्रीमतीजी ने मेरे बाल पकड़ लिए .यह तो किस्मत अच्छी है की हम अपनी चाँद पर विग लगाये हुए थे .मुई विग उनके हाथ में रह गयी . हमने अपनी खोपडिया खुजाते हुए वहां से नौ-दो-ग्यारह होने में ही अपनी भलाई समझी.
इसी बीच दद्दू के दोनों शरारती बच्चों बनती और बबली ने मेरे मेरे एक-एक कान में फुसफुसाकर कहा," अंकल जी!कल एक सेल्समेन आया था.वह पापा को बीस रूपये में तीन कंघी बेचकर चला गया.कह रहा था," यह तो हमारी सेल्समेन शिप का कमाल है ... हमतो गंजों को भी कंघी बेच लेते हैं."
बातों ही बातों में मुशायरा कुछ और आगे बढ़ चुका था.इस बार टीवी पर एंकर ने माहौल बनाने ग़ालिब का शेर दागा-
आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी जुल्फ के सर होने तक?
चाय की प्याली के साथ ही गंजत्व और गंजावाद पर चर्चा के साथ ही गंजा-पूरण के कई और पन्ने पलटने लगते हैं.विदेशों में कुछ अभिनेत्रियों को गंजे मर्द बड़े सेक्सी लगते हैं.कास्मेटोलोजी में गंजेपन की इंजीनियरिंग और कृत्रिम केशरोपण पर रिसर्च का पूरा ब्यौरा दिया गया है.मैं दद्दू से बातें कर ही रहा था की बंटी ने अपने पापा को झिंझोड़ते हुए पूछा,"पापा! गंजों को नाखून क्यों नहीं होते?" बबली की नजरें अपने पापा के नाखूनों पर थी.बहरहाल उजड़े चमन होने का नफा-नुक्सान और पूरे सेन्स आफ ह्यूमर के साथ अपने पूरे परिवार और दोस्तों में गप -सडाके के दौरान बांटिएगा...और हां.. अपने मोबाइल पर एस एम् एस का इन्तेजार करें.. गंजों का सम्मेलन होने वाला है.अपने शहर में ... लेकिन तब तक सुनिए ... ये शायर क्या कह रहे हैं-
इस शहर के बादल तेरी जुल्फों की तरह हैं
जो आग तो लगते हैं,बुझाने नहीं आते!
अपना ख्याल रखिये ...
किशोर दिवसे
"क्यों दद्दू!समाज में भ्रष्टाचार और अपराध चरम पर हैं....नैतिक मूल्यों की गिरावट ने बाजार के इशारे पर इंसान को करेंसी कमाने की मशीन में बदल कर रख दिया है.कुछ उम्मीद थी आध्यात्म से पर क्या लगता है आपको?ग़रीबों के सामाजिक सरोकारों और तकलीफों से कोई मतलब रह गया है मजहब और उसके मौजूदा झंडाबरदार मसीहाओं को या फिर बाबा और गुरु भी सियासी हाईजैकिंग के शिकार और नोट कमाने वाली मशीन बन गए हैं!"
" समाज का नंगा सच जानते हुए भी काहे जबरन मुंह खुलवा रहे हो दद्दू!उनके सवाल पर मैंने सीधा प्रति -प्रश्न किया.आखिर इतने सारे धर्म-गुरुओं और कथित तौर पर समाज में चेतना जगाने वालों के बावजूद अगर दोहरी मानसिकता की कालिख चेहरे से धुल नहीं रही तब क्या मन में कई सवाल खड़े नहीं होते?धर्म स्थलियों में बेगुनाहों की जानें जाती हैं... महंगाई पर कोई नियंत्रण नहीं और समाज में कुरीतियाँ कुछ परम्पराओं का बोझ बनकर गले में सांप की तरह लिपटी रहती हैं.बाजार में आस्था नए मेक अप में रिझाने को सज-धजकर बैठी है.
"दद्दू! क्या ऐसा नहीं हो सकता की सारे धर्मगुरु मिलकर समाज की कमजोरियों ( खास तौर पर ग़रीबों और माध्यम वर्ग से जुडी)तथा समस्याओं पर गंभीर विमर्श करें और बुनियादी मसले हल करने की दिशा में ठोस कदम उठायें!आध्यात्म की आड में दुकानदारी करने वाले सभी पाखंडियों को उजागर करे ?क्या यह बेहतर नहीं होगा की " मदद के जरिये याचक बनाये रखने"की बजाये आत्म सम्मान से अपने पैरों पर खड़ा होने लायक सड़कों पर दिखाई देने वाले वे लोग बनें जो आध्यात्म की आड़ में कटोरा फैलाये हुए रहते हैं?"
" एक नीम सच यह भी है जो अभी तुमने कहा" दद्दू बोले.," कुछ लोगों ने अपने भीतरी पापों को छिपाने आअध्यत्म की शुगर कोटिंग चढ़ा रखी है.वैसे पाखंड विहीन आध्यात्म आत्मिक शुद्धता का सही माध्यम अवश्य है लेकिन" कार्पोरेट आध्यात्म"का झकास लबादा ओढ़कर आजकल इंसान यही बहाना गुनगुनाता नजर आता है.-
मंदिर में जाप करता हूँ, मस्जिद में जाप करता हूँ
यारों खुदा न बन जाऊं थोडा सा पाप करता हूँ
आम आदमी है बुद्धुराम जो यह समझने लगता है की भूखे भजन न होय गोपाला.उसने दद्दू से कहा," दद्दू!अपनी छत्तीसगढ़ सरकार " आपरेशन ब्रेन वाश" चलाकर सभी बाबाओं को नक्सलवादी इलाकों में सामाजिक चेतना जगाने क्यूं नहीं भेजती?स्वेच्छा से न सही सियासत की गोद में ही वे एक महीने तक वहां रहकर लोगों और नक्सलवादियों सभी को समझाइश दे देंगे.गुड गवर्नेंस न हो तब राजनीतिग्यों से काम निकलना जिंदगी में सबसे बड़ा ' आर्ट आफ लिविंग है!"
प्रोफ़ेसर प्यारेलाल के मन में एक सवाल दनदनाता है.,"राजनीति का आध्यात्मिक प्रदर्शन या आध्यात्मिक मोहरों का राजनीतिकरण", इसे समझना चाहिए.आध्यात्मिकता यदि सकारात्मक ऊर्जा का माध्यम है तब वह निस्संदेह सर्व श्रेष्ठ है.लेकिन आम आदमी बुधराम का एक ही सवाल जोता हैकि ठन्डे कमरों में बैठकर जो समाज के जमीनी मसले नहीं सुलझा सकते उनसे बेहतर है वह आम आदमी य मध्यम वर्गीय जो भूखे को निवाला देता है,अनाथ को गोद,बेसहारा को सहारा और खैरात की बजाये मेहनत की रोटी खाने लायक इंसान बनाता है.इसी बेख्याली या जूनून में खुदा बनाने से खौफजदा होकर वह कुछ पाप करने की भी बात करता है.क्या ऐसा इंसान अधिक बेहतर नहीं?बुद्धि के देवता और शक्ति की देवी से क्या समाज को सदबुद्धि की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए????
आज का दिन मेरे लिए कहानियों को याद करने का दिन है.मंटो का जन्म दिन आज है.उनकी जन्म शती मनाई जा रही है. सदाअत हसन मंटो की कहानिया आज भी दिल को उसी हद तक छू लेती हैं जितना अरसे पहले जब उन्हें पहली बार पढ़ा था.मंटो ने उन सभी को झिडक दिया जो उन्हें प्रगतिशील कहते थे.मंटो की तुलना अक्सर मोपांसा से की जाती रही." कथा लेखकों का देवता " की मानिंद नहीं वरन समाज में मौजूदा बुराइयों और पाखंड की पुरजोर खिलाफत करने के लिए.फिर भी उनका भरोसा कायम रहा के इंसान में खुदा का अक्स है.वे इस बात पर डटे रहे के त्रासदी और अभाव के बावजूद इंसानियत के जज्बे का क़त्ल नहीं हो सकता.पैनी कलम के व्यंग्य और कटाक्ष से वे समाज की विडम्बनाओं की बखिया उधेड़ते रहे.
कृष्ण चन्द्र, राजिन्द्र सिंह बेदी, अहमद नदीम कासमी, उनके अजीज दोस्त थे.आम आदमी के बारे में मंटो क्षेत्रीय और वैश्विक सोच के साथ लिखते रहे.मंटो की आधुनिकता दुनियावी विसंगतियों से आकार लेती रही.उनहोंने फ़्रांस और रूस का साहित्य अंग्रेजी से उर्दू में अनुदित किया.विक्टर ह्यूगो, चेखब, वैद और गोर्की की रचनाएँ अनुदित किन.फिल्म मैगजीन मुसाफिर की एडिटिंग की और फिल्म-कृष्ण कन्हैया ,अपनी नगरिया के डायलाग लिखे.उनकी रचनाओं में रेडियो नाटक- आओ,मंटो के ड्रामे,जनाजे,तीन औरतें चर्चित रहे.बेहद ख्यात कृतियों की फेहरिस्त लम्बी है पर-स्याह हाशिये,बादशाहत का खत्म,सड़क के किनारे,बुर्के,शैतान शिकारी औरतें,रत्तीमाशा टोला,खोल दो..और काली शलवार जिन्होंने नहीं पढ़ा उन्होंने बहुत जरूरी चीज नहीं पढ़ी.अछूत समझे जाने वाले मुद्दे जैसे -वेश्याएं ,रंडियां,चकलाघर और अपराधी उनकी कहानियों का हिस्सा रहे." मैंने कभी अश्लील साहित्य नहीं लिखा" कहते हुए वे अपनी पैरवी करते हैं,"मेरे लेखन की कमजोरियां मौजूदा हालत की खामियां ही रहीं.".वे कहते, " आखिर मैं समाज का लिबास कैसे फाडकर तार-तार कर सकता हूँ जब वह खुद ही नंगा है!मंटो विनम्रता से कबूलते हैं की वे खुदा से छोटे कथा कहैय्या है.मंटो की कालजयी रचनाओं में- टोबा टेक सिंह,बू, नया कानून,ठंडा गोश्त अहम् रही.उन्हें अपने वतन पाकिस्तान ने कभी नहीं दुलारा.नसीरूदीन शाह के थिएटर वर्क-"मंटो इस्मत हाजिर हो " के जरिये दोनों कथाकारों( मंटो की कहानी -बू, और इस्मत चुगताई की कहानी- लिहाफ-) को एक साथ लाया गया..
मनो विश्लेषण और मानव व्यवहार उनकी कथाओं का अक्स है.दो देशों के बटवारे से उपजा दर्द उनकी कहानियो में कसकता है.मुझे लगता है के अगर मंटो आज जिन्दा होते तब सामाजिक औरसियासी बुराइयों के बहुआयाम उनकी कहानियों से प्रतिबिंबित होते.और हाँ एक मसले पर उनकी कलम जरूर चलती वो है भारत और पाकिस्तान की मौजूदा वैचारिक खाई.उनकी कहानी यज़ीद में यही प्रतिध्वनित होता है.मंटो की लघु कथाएं पूरी शिद्दत से समय सापेक्ष बनी हुई हैं.... जन मानस में कौंधती है.मंटो के अल्फाज और किरदार आज भी समाज में जिन्दा हैं .-किशोर दिवसे