मंगलवार, 15 मई 2012

यारों खुदा न बन जाऊं थोडा सा पाप करता हूँ...

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यारों खुदा न बन जाऊं थोडा सा पाप करता हूँ...

"क्यों दद्दू!समाज में भ्रष्टाचार और अपराध चरम पर हैं....नैतिक मूल्यों की गिरावट ने बाजार के इशारे पर इंसान को करेंसी   कमाने की मशीन में बदल कर रख दिया है.कुछ उम्मीद थी आध्यात्म से पर क्या लगता है आपको?ग़रीबों  के सामाजिक सरोकारों और तकलीफों से कोई मतलब रह गया है मजहब और उसके मौजूदा झंडाबरदार मसीहाओं को या फिर बाबा और गुरु भी सियासी हाईजैकिंग  के शिकार और नोट कमाने वाली मशीन बन गए हैं!"
                   " समाज का नंगा सच जानते हुए भी काहे जबरन मुंह खुलवा रहे हो दद्दू!उनके सवाल पर मैंने सीधा प्रति -प्रश्न किया.आखिर इतने सारे धर्म-गुरुओं और कथित तौर पर समाज में चेतना जगाने वालों के बावजूद अगर दोहरी मानसिकता की कालिख चेहरे से धुल नहीं रही तब क्या मन में कई सवाल खड़े नहीं होते?धर्म स्थलियों  में बेगुनाहों की जानें  जाती हैं... महंगाई पर कोई नियंत्रण नहीं और समाज में कुरीतियाँ कुछ परम्पराओं का बोझ बनकर गले में सांप की तरह लिपटी रहती हैं.बाजार में आस्था नए मेक अप में रिझाने को सज-धजकर बैठी है.
"दद्दू! क्या ऐसा नहीं हो सकता की  सारे धर्मगुरु मिलकर समाज की कमजोरियों ( खास तौर पर ग़रीबों और माध्यम  वर्ग से जुडी)तथा समस्याओं पर गंभीर विमर्श करें और बुनियादी मसले हल करने की दिशा में ठोस कदम उठायें!आध्यात्म की आड में दुकानदारी करने वाले सभी पाखंडियों को उजागर करे ?क्या यह बेहतर नहीं होगा की " मदद के जरिये याचक बनाये रखने"की बजाये आत्म सम्मान से अपने पैरों पर खड़ा होने लायक सड़कों पर दिखाई देने वाले वे लोग बनें जो आध्यात्म की आड़ में कटोरा फैलाये हुए रहते हैं?"
                              " एक नीम सच यह भी है जो अभी तुमने कहा" दद्दू बोले.," कुछ लोगों ने अपने भीतरी पापों को छिपाने आअध्यत्म की शुगर  कोटिंग चढ़ा रखी है.वैसे पाखंड विहीन आध्यात्म आत्मिक शुद्धता का सही माध्यम अवश्य  है लेकिन" कार्पोरेट आध्यात्म"का झकास लबादा ओढ़कर आजकल इंसान यही बहाना  गुनगुनाता नजर आता है.-
                                    मंदिर  में जाप करता हूँ, मस्जिद में जाप करता हूँ
                                   यारों खुदा न बन जाऊं थोडा सा पाप करता हूँ
आम आदमी है बुद्धुराम जो यह समझने  लगता है की भूखे भजन न होय गोपाला.उसने दद्दू से कहा," दद्दू!अपनी छत्तीसगढ़ सरकार " आपरेशन ब्रेन वाश" चलाकर सभी बाबाओं को नक्सलवादी इलाकों में सामाजिक चेतना जगाने क्यूं नहीं भेजती?स्वेच्छा  से न सही सियासत की गोद में ही वे एक महीने तक वहां रहकर लोगों और नक्सलवादियों सभी को समझाइश दे देंगे.गुड गवर्नेंस न हो तब राजनीतिग्यों से काम निकलना जिंदगी में सबसे बड़ा  ' आर्ट आफ लिविंग है!"
                                          प्रोफ़ेसर प्यारेलाल के मन में एक सवाल  दनदनाता है.,"राजनीति का आध्यात्मिक प्रदर्शन या आध्यात्मिक मोहरों का राजनीतिकरण", इसे समझना चाहिए.आध्यात्मिकता   यदि  सकारात्मक ऊर्जा का माध्यम है तब वह निस्संदेह सर्व श्रेष्ठ है.लेकिन आम आदमी बुधराम का एक ही सवाल जोता हैकि ठन्डे कमरों में बैठकर जो समाज के जमीनी मसले नहीं सुलझा सकते उनसे बेहतर है वह आम आदमी य मध्यम वर्गीय जो भूखे को निवाला देता है,अनाथ को गोद,बेसहारा को सहारा और खैरात की बजाये मेहनत की रोटी खाने लायक इंसान बनाता है.इसी बेख्याली या जूनून में खुदा बनाने से खौफजदा होकर वह कुछ पाप करने की भी बात करता है.क्या ऐसा इंसान अधिक बेहतर नहीं?बुद्धि के देवता और शक्ति की देवी से क्या समाज को सदबुद्धि  की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए????
                                              आज बस इतना ही... अपना ख्याल रखिये...
                                                                                  किशोर दिवसे 
                                                                                               मोबाइल   09827471743
                                                                                            e-mail;     kishore_diwase@yahoo.com

                       

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