जुल्म सहना भी जुर्म है यारों।
हर तरफ जुर्म ही जुर्म।.. प्रिंट मिडिया हो या इलेक्ट्रानिक मिडिया क्यूं बनती जा रही है सुर्खियाँ जुर्म की?क्या ही गया है इस समाज को?बच्चे भटककर जुर्म की राह पकड़ रहे हैं।बेरोजगार युवा अपराध की दुनिया में उतरने पर क्यूं मजबूर हैं?समाज में अपराधियों की बात तो दूर सफेदपोशों की जमात भी गुनाहों के दलदल में इतनी धंस गयी है की सच का चेहरा सहमा हुआ है और झूठ का मुखौटा कर रहा है अट्टहास -
सच पूछो तो तो सब ही मुजरिम हैं
कौन यहाँ पर किसकी गवाही दे?
पर जब अवसरवादी कूटनीति हावी होती है तब श्रीलाल शुक्ल का राग दरबारी याद आना स्वाभाविक है।... जिसकी दम उठाओ मादा नजर आता है।लेकिन जुर्म के मक्कार चेहरों की धूर्तता देखिये-एक फ़िल्मी गीत में कहा गया है-.आप अन्दर से कुछ और बाहर से कुछ और नजर आते है!" क्या यह जुर्म नहीं ?गाँव ,शहर या महानगर -जुर्म अलग अलग चेहरे बदलकर आता है और कभी हालत यूं भी बन जाती है-
मैं कहाँ से पेश करता एक भी सच्चा गवाह
जुर्म भी था आपका और आपकी सरकार थी
क्या आज के दौर में वे लोग बेहतर हैं जो मुजरिम की तरह जीने का फन सीख लेते हैं।वर्ना शराफत का पुतला बने उल्लुओं को " सीधा-साधा" ब्रांडेड कर हाशिये की सूली पर लटका दिया जाता है।इसीलिए नयी ट्रेंड में पूरी तरह प्रोफेशनल बन जाना निहायत जरूरी है जो बीत चुके दौर में जुर्म की तरह समझा जाता रहा।
सफेदपोशों के जुर्म की दुनिया के उसूलों का भी अंदाज नया है।दायें हाथ का काम बाएं हाथ को पता नहीं चलता।झूठ बोलना अगर जुर्म है (किसी ज़माने में सैद्धांतिक अपराध रहा)तब नयी ट्रेंड के गुनाहगार इतने आत्म विश्वास से झूठ बोलते हैं की सैकड़ों " गोयबल्स" छटपटाकर र दम तोड़ दें!-
जहाँ क़ानून बेआवाज होगा
वहीँ जुर्म का आगाज होगा
यह सच कानून और प्रशासन दोनों के लिए सामान रूप से लागू होता है।समाज में यह भी एक नीम सच है ," जो खुद ही मुजरिम है लोगों की नजर में वाही देता है सजा भी"यह स्थिति भी बदलनी चाहिए।कुछ लोगों के करम का भी कोई हिसाब भी नहीं होता।ऐसे लोगों के गुनाह गिनकर अपने दिल को छोटा नहीं करना चाहिए।इसी तरह पहली बार जुर्म करने वाले को सजा देकर गुनाहगार बनाना जरूरी नहीं।कुछ लोगों को जुर्म का एहसास भी सताता है और " अपराध बोध " उनकी देह्भाषा में उजागर हो जाता है।
क्यूं जुर्म समझ लेते हैं मुहब्बत को लोग?मीडिया में कई ख़बरें सुर्खियाँ बनी हैं जब अंतर जातीय विवाह करने वाले मुहब्बत भरे दो दिलों को समाज ने यातनाएं दी और जलील भी किया।। आनर किलिंग का लफ्ज भी हमने हालिया तौर पर अखबारों में अनेक दफे पढ़ा है जब समाज की खिलाफत करने वाले प्रेमी जोड़े को पंचायत के फरमान से मार डाला जाता है।किसी को चाहते रहना कोई खता तो नहीं!मुहब्बत पाकीजा इबादत है ... कोई जुर्म नहीं।.. बागबान से पूछे जाने की हिम्मत होनी चाहिए की किस जुर्म में निकले गुलिस्तान से हम!ख़ास तौर पर नौजवान, मुहब्बत को जिम्मेदारी से निभाए और डंके की चोट पर कहे-
कुछ जुर्म नहीं इश्क जो दुनिया से छिपाएं
हमने तुझे चाहा है हजारों में कहेंगे
जुर्म।. मुजरिम।. गुनाह और गुनाहगारों की दुनिया बड़ी तिलस्मी है. आजादी के पहले से आज तक किसम किसम के जुर्म होते आये और गुनाहों की दुनियाएं बनती रहीं।जिंदगी का काल चक्र गांधी की अहिंसा और अंग्रेजों के जुल्म का गवाह है।शारीरिक और मानसिक जुर्म की अपनी उलझनें और समाधान हैं। फिलहाल आज के दौर में इस बात पर हर एक इंसान को सोचना चाहिए की जुर्म को कैसे मिटायें-
चुप ही रहना भी जुर्म है यारों
कुछ न कहना भी जुर्म है यारों
जुर्म करना तो जुर्म है ही मगर
जुल्म सहना भी जुर्म है यारों
11:10 am
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