राबर्ट बिनयन की एक(अनूदित ) कविता
भूख हूँ मैं...
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भीड़ से छिटककर आता हूँ मैं
किसी परछाई की तरह /और
बैठ जाता हूँ हर इंसान की बाजू में
कोई भी नहीं देखता मुझे/पर
सभी देखते हैं एक-दूसरे का चेहरा
वे जानते हैं की मैं वहां पर हूँ
मेरा मौन है किसी लहर की ख़ामोशी
जो लील लेता है बच्चों का खेल मैदान
धीमी रात्रि में गहराते कुहासे की तरह
आक्रान्ता सेनाएं रौंदती,मचाती हैं तबाही
धरती और आसमान में गरजती बंदूकों से
लेकिन मैं उन फौजों से भी दुर्दांत
गोले बरसाती तोपों से भी प्राणान्तक
राजा और शासनाध्यक्ष देते हैं आदेश
पर मैं किसी को नहीं देता हुक्म
सुनाता हूँ मैं राजाओं से अधिक
और भावपूर्ण वक्ताओं से भी
निः शपथ करता हूँ शब्दों को
सारे उसूल हो जाते हैं असरहीन
नग्न सत्य अवगत हैं मुझसे
जीवितों को महसूस होने वाला
प्रथम और अंतिम शाश्वत हूँ मैं
भूख हूँ मैं... भूख हूँ मैं!
1:05 am
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