रविवार, 17 जुलाई 2011

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5. उलूक -        THE OWL -- by- EDWARD THOMAS 




पहाड़ियों की ऊंचाइयों से होकर                   
तलहटी तक नीचे उतरा मैं
भूखा ,पर नहीं था क्षुधार्त 
शांत पर ज्वालामुखी बसा था मुझमें 
उस उत्तरी चक्रवात से जूझने 
तब एक सराय में मैंने बुझाई
 अपनी आग,भूख और थकान 
मैंने समझा कि कितना अतृप्त 
और थककर चूर हो गया था मैं
निस्तब्ध निशा का वह सन्नाटा
जिसे चीरती थी कर्कश चीख
उलूक ध्वनि-कितनी अवसाद भरी 
लम्बी चीख पहाड़ी पर गूंजती
जिसमें न था ख़ुशी का लेशमात्र पर 
उस रात जो मैंने पाया दूसरों ने नहीं
जब मैं पहुंचा था उस सराय में 
पक्षियों के कलरव से आनंदित 
नक्षत-जडित नीली चादर के नीचे
उन सिपाहियों और ग़रीबों के लिए थी
वह मीठी चहक ,जो भूखे थे 
उस आनंद और उल्लास के

    6.शिशिर में वनों के राजहंस   THE WILD SWANS AT COOLE    -BY-Y.B.KEATS

सूखी  है  वनों  की  पगडंडियाँ                     
और वृक्षों पर छाया शिशिर का सौन्दर्य
शरत की गोधूली  वेला पर 
अंकित है स्थिर नीलाभ का प्रतिबिम्ब 
पत्थरों पर छलकती जलधाराओं के बीच
विहार कर रहे हैं राजहंस
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मुझ पर छाई उन्नीस वसंतों की गमक
धवल परिंदों के परों का कोलाहल 
अचानक हो गया मौन...स्पन्दन्हीन
मेरा मन हो गया अवसाद से पूर्ण
गोधूली वेला में मैंने पहली बार महसूसी थी
घंटियों की मानिंद,धवल पंखों की थिरकन
आहिस्ता-आहिस्ता वह प्रणय नर्तन
अनथक हंस युगलों की जलक्रीडा
तब झरनों में थी ,अब नीलाभ  की ओर
प्रणय उन्माद    वही है ..पर गंतव्य सर्वथा नया
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शिशिर  में ,रहस्यमय मोहक शांत जल पर 
झील के किनारे या किसी पोखर में 
बसा चुके होंगे वे अपना नया बसेरा
उन्हें देख चमकती होंगी कई आँखें
पर किसी रोज जब जागूँगा मैं
दूर... उड़  चुके होंगे वे वनों के राजहंस 

            7. बाज निद्रा -- HAWK ROUSTING---BY-TED HUGH ES 

दरख्तों की ऊंचाई पर ,मुंदी आँखों से           
बैठता हूँ में शांत-स्थितिप्रग्य 
नहीं होते कोई मिथ्या स्वप्न
वक्रदृष्टि और पंजों की जकडन के बीच
नींद में भी सधता है अचूक निशाना 
मृत्युदंड -और सब कुछ ख़त्म
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वृक्षों की गगनचुम्बी ऊंचाइयों का सुख
प्राणवायु की उत्प्लाविता और 
सूर्य की रश्मियाँ हैं वरदान हैं मेरे लिए 
पृथ्वी का ऊर्ध्वमुख करता है चातकी  निगरानी
खुरदरी छाल पर पंजों की जकडन
मानो लग गई हो समूची सृष्टि 
मेरे पंख-दर-पंख रचने में 
और उन्हीं पंखों से जकड लिया है सृष्टि को  मैंने
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बांधे हैं मृत्युदंड  के सारे आदेश
वृहत  वर्तुलो के अपने यमपाशों से 
जब जिस पर चाहूँ देता हूँ फेंक 
सब कुछ मेरा होने का दंभ
लबादा नहीं ओढा है संस्कारों का 
मेरे झपटते से ही उड़ते हैं खोपड़ियों के परखचे 

8.              मार्जर विलाप      MORT AUX CAT-    BY-PETER पोर्टर

अब नहीं होंगी कहीं बिल्लियाँ                   
फैलाती हैं वे संक्रमण और प्रदूष्ण 
अपने वजन से सात गुना अधिक 
हजम कर जाती हैं ये बिल्लियाँ
पतनोन्मुख समाजों में थी वे पूजित
बैठकर करती हैं वे मूत्र विसर्जन 
जुगुप्स है उनकी प्रणय आराधना
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चंद्रमा पर होती हैं वे आसक्त
मार्जर जगत में हो वे सह्य
पर विलोम हैं हमारे उनके रिवाज 
वे सूंघती हैं ,आदत से हैं लाचार
बिल्लियाँ देखती है टेलीविजन
और तूफानों में भी हो जाती है निद्रालीन
नोंच लेती है अचानक वे दबे पाँव 
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वे लोग नहीं बन सकते बड़े कलाकार
जिनकी आदतें होती है बिल्लियों की तरह
सिरदर्द, मरते पौधे की दोषी हैं वे 
बढ़ रही है बिल्लियाँ हमारे इलाके में 
और गिरते जा रहे हैं नैतिकता के मूल्य
अनगिनत बिल्लियों का रक्तपात
देखता हूँ जब आते हैं दिवा स्वप्न
आखिर क्यों करती है वे गूढ़ प्रलाप
पर बिल्लियों का रक्तपात!  श्वानों की सता 
हजारों वर्षो तक रहेंगे शाश्वत!

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