शनिवार, 2 मई 2015

घर पडोसी का महक जाए चमन की सूरत तेरे आँगन से मुहब्बत की वो खुशबू निकले! अपने दद्दू से बात हो रही थी मकान के मसले पर. बोले ," यार कलम घसीटू!रोटी ,कपड़ा और मकान बुनियादी जरूरतें हैं. यार दद्दू! जे कौन सी नयी बात कह दी? मैंने कहा। दद्दू बोले , नहीं! मेरे कहने का मतलब ये की जो लोग मकान नहीं बना पाते या फिर जिनके मकान ढह जाते हैं भूकम्प जैसी विपदा में उन्हें कितनी मुश्किल होती होगी नई क्या? नया मकान बनने में न जाने कितना वक्त लग जाता है! सरकार के अच्छे दिन न जाने कब आते हैं, आते हैं भी या नहीं! बात सही है दद्दू! एकड़ तो मकान बनाना कितना लोहे के चने चबाना हो गया है इस महंगाई के जमाने में। उसपर अगर कही भूकम्प जैसी तबाही बच जाए तब तो हालत यूं हो जाते हैं मानो -- दीवारें क्या गिरी मेरे मकान की लोगों ने आने जाने का रास्ता बना लिया रास्ता बनाने की बात करते हो दद्दू, मैंने छेड़ा," मुंबई जैसे शहर में कई बीड़ू तो मकान सा सपना देखते देखते गुमनामी में खो जाते हैं । आशियाना मिल जाए तो खुशनसीबी वर्ना !और तो और कई दफे तकदीर और तदबीर का खेल यूं होता है की समंदर बाँधने के लिए चले इंसान का घे पहली बारिश ही उजाड़ देती है. सलीम अख्तर के दर्द के इस अंदाज में - मैं समंदर बाँधने निकला था बस्ती छोड़कर क्या खबर थी पहली बारिश मेरा घर ले जायेगी! जो भी हो सच कहूँ तो मकान छोटा हो या बड़ा वो अपना घर होना चाहिए। जीवंत जहाँ पर रिश्ते जिए जाते हैं। दूसरे शब्दों में ईटों और दीवारों से नहीं घर तो उसमें रहने वालों से बनता है। " घर के साथ आँगन भी कितना अच्छा लगता है अखबार नवीस!" दद्दू ने चोंच खोली "यार आजकल तो अपार्टमेंट का ज़माना आ गया है। आँगन मिले तो ठीक न मिले तो भी ठीक! जरूरी बात बोले तो- मेरी ख्वाहिश ये है कि आँगन में न दीवार उठे मेरे भाई मेरे हिस्से की जमीन तू लेले! मेरी भावनाओं को समझो दद्दू! वर्ना आजकल तो जमीन और मकान के लिए भाई -भाई और परिवार में न जाने कितने सर फुटौव्वल होते हैं।बहरहाल मकान के मसले पर तो कहने को काफी कुछ है पर अपना मकान जब भी बने, छोटा हो या बड़ा हो। .... अपनी जरूरतों के बरक्स बनायें फकत इतना ख्याल रखिये क़ि - घर पडोसी का महक जाए चमन की सूरत तेरे आँगन से मुहब्बत की वो खुशबू निकले! मैंने शेर कहा और दद्दू ने इसे गुनगुनाते हुए मुझसे विदा ली।

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घर पडोसी का महक जाए चमन की सूरत
तेरे आँगन से मुहब्बत की वो खुशबू निकले!-1



अपने दद्दू से बात हो रही थी मकान के मसले पर. बोले ," यार कलम घसीटू!रोटी ,कपड़ा और मकान बुनियादी जरूरतें हैं. यार दद्दू! जे कौन सी नयी बात कह दी?
मैंने कहा।  दद्दू बोले , नहीं! मेरे कहने का मतलब ये की जो लोग मकान नहीं बना पाते या फिर जिनके मकान ढह जाते हैं भूकम्प जैसी विपदा में उन्हें कितनी मुश्किल होती होगी नई क्या? नया मकान बनने में न जाने कितना वक्त लग जाता है! सरकार के  अच्छे दिन न जाने कब आते हैं, आते हैं भी या नहीं!
बात सही है दद्दू! एकड़ तो मकान बनाना कितना लोहे के चने चबाना हो गया है इस महंगाई के जमाने में। उसपर अगर कही भूकम्प जैसी तबाही बच जाए तब तो  हालत यूं हो जाते हैं  मानो --
दीवारें क्या गिरी मेरे  मकान की
लोगों ने आने जाने का रास्ता बना लिया
रास्ता बनाने की बात करते हो दद्दू, मैंने छेड़ा," मुंबई जैसे शहर में कई बीड़ू तो मकान सा सपना देखते देखते गुमनामी में खो जाते हैं  । आशियाना मिल जाए तो खुशनसीबी वर्ना !और तो और कई दफे तकदीर और तदबीर का खेल यूं होता है की समंदर बाँधने के लिए चले इंसान का घे पहली बारिश ही उजाड़ देती है. सलीम अख्तर के दर्द के  इस अंदाज में -
मैं समंदर बाँधने निकला था बस्ती छोड़कर
क्या खबर थी पहली बारिश मेरा घर ले जायेगी!
जो भी हो सच कहूँ तो मकान छोटा  हो या बड़ा वो अपना घर होना चाहिए। जीवंत जहाँ पर रिश्ते जिए जाते हैं।  दूसरे  शब्दों में ईटों और दीवारों से नहीं घर तो
उसमें रहने वालों से बनता है। " घर के साथ आँगन भी कितना अच्छा लगता है अखबार नवीस!" दद्दू ने चोंच खोली "यार आजकल तो अपार्टमेंट का ज़माना आ गया है। आँगन मिले तो ठीक न मिले तो भी ठीक! जरूरी बात बोले तो-
मेरी ख्वाहिश ये है कि आँगन में न दीवार उठे
मेरे भाई मेरे हिस्से की जमीन तू लेले!
मेरी भावनाओं को समझो दद्दू! वर्ना  आजकल तो जमीन और मकान के लिए भाई -भाई और परिवार में न जाने कितने सर फुटौव्वल होते हैं।बहरहाल मकान के मसले पर तो कहने को काफी कुछ है पर अपना मकान जब भी बने, छोटा  हो या बड़ा हो। .... अपनी जरूरतों के बरक्स बनायें  फकत इतना ख्याल रखिये क़ि -
घर पडोसी का महक जाए चमन की सूरत
तेरे आँगन से मुहब्बत की वो खुशबू निकले!
मैंने शेर कहा और दद्दू ने इसे गुनगुनाते हुए  मुझसे विदा ली।


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