गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

घोंघा,,खरगोश और विरही परिंदा

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कविताओं की दुनिया बड़ी  निराली है. अंग्रेजी के साहित्यकारों ने वनचरों पर अद्भुत रचनाएँ की हैं मैंने कुछ कविताओ को अनुदित किया है  आपके लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ -
घोंघा (considering the snail-Thomas Gun) 
 
हरी चादर पर रेंगता एक घोंघा
भीगी, खुरदरी ,बोझिल सी घांस पर
एक चमकीली सी पगडण्डी बनाता
वहां, जहाँ धरती के धूमिल रंग को 
और भी गहरा कर देती है बारिश 
रेंगता है वह आकांक्षाओं के बीहड़ में
****
अपने शिकार को आता देख 
भयभीत  पुन्केसरों का कम्पन
समझ नहीं पता मैं कि कौन सी 
शक्ति से वे हैं उद्दीप्त!
प्रयोजन -कुछ भी न समझकर 
कैसा है उस घोंघे का आवेश
मैं सोचने लगता हूँ कि अगर 
मैंने नहीं देखी होती वह पगडण्डी
सफ़ेद ,पतली और चमकीली
*******
कभी नहीं कर पाता कल्पना मैं 
धीमी पर निश्चिन्त प्रगति के लिए
घोंघे के उस मंथर उन्माद की 
हरी चादर पर.... रेंगता है एक घोंघा 
   
2.खरगोश (THE HARE- WILLIUM COPPER)


  
जिसे ग्रे-हाउंड भी छू न पाया
ओस भी जिसके पैरों रही अ-मृत 
दुलारा गया जिसे प्यार  से
रोटी,दूध और  डूब खता था वह
सलाद और गाजर भी भाते थे उसे 
उसका लान था तुर्की गलीचा
जहाँ भरता था वह कुलांचे
शाम को करता था वह शैतानी 
पुरबाई या फुहारों के समय 
आ जाता था दुबककर वह गोद में 
अब अखरोट कि छाया तले है
उसका बसेरा  ,चिरनिद्रा में लीन
मानो खामोश करता है प्रतीक्षा 
मेरे पुचकारने क़ी... 
           3.   विरही परिंदा   (TO THE WIDOW BIRD-P.B.SHELLEY )


बिछड़ी माशूका के गम में मायूस था
विरह से व्यथित एक विरही परिंदा
बैठा था डाल के कोने पर
गुमसुम... यादों के हसीं हिंडोले पर
 सीना चीर रहीं थीं हवाएं सर्द
नीचे बहता झरना भी हो गया था बर्फ
बेरौनक थे बेपत्ता जंगलों के नंगे ठूंठ
जमीन पर नहीं गिरा था एक भी फूल
खामोश थी हवाएं .. एकदम बेजान
गाहे ब-गाहे चीखती थी,पवन चक्की नादान
                                               

        आज बस इतना ही .. अपना ख्याल रखिए
                                                           किशोर दिवसे 
                                                               मोबाइल   09827471743
           

 

 

 
 

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