रविवार, 14 नवंबर 2010

घूंघट के पट

Posted by with 5 comments
औरत के अक्स से क्यूँ चटखता है आइना

अपनी श्रीमती जी की झिडकी का चार सौ चालीस वोल्ट करंट लगते ही दद्दू भकुआ गए थे .झोला उठाया और बृहस्पति बाज़ार का सब्जी मार्केट जाने से पहले आदतन काफी हॉउस की झड़ी लेने टपक पड़े.बतर्ज अंधे को क्या चाहिए ,दो आँखे!दद्दू को देखते ही हम हो गए बल्ले-बल्ले और शुरू हो गया बतरसिया दौर .
"यार अखबार नवीस !नारी पहले अबला समझी गई फिर सबला बनी और आज !"बला... मैंने दद्दू को टोककर फुसफुसाते हुए कहा,"भाई...काहे ओखली में मेरा सर डालने वाली बात करने को उकसा रहे हो?
                   "खैर छोडो...अखबारनवीस ! पुणे में पिछले साल और इस साल भी "रेव पार्टी " से गिरफ्तार किए गए नशेद्ची नौजवान युवक-युवतियों के  अभिभावकों के होश फाख्ता हो गए थे उस वक्त."देखो दद्दू!दो तीन बातें इस घटना से जुडी हुई हैं.पहले तो पुणे और बेंगलोर इन दिनों नई जनरेशन के सबसे पसंदीदा भाग्य विधाता शहर बने हुए हैं दूसरी बात ,बहाना भले ही इन्टरनेट की दुनिया ने ,"क्रेजी किया रे" का बताया है लेकिन अभिभावक खास तौर पर माँ (जिसे प्रथम संस्कार दात्री कहा गया है )की क्या अहम् जिम्मेदारी नहीं की वह बच्चों के मन को इतना संस्कारित करे की वह पश्चिमी बवंडर की  बुराइयों से खुद को बचा सकें!नारी तुम श्रद्धा .... तुम देवी रूप जैसे घिसे-पिटे जुमलों को हाशिए पर रखकर अब ग्लोबलाइजेशन के दौर में पुरुष के समकक्ष अपसंस्कृति की रक्षा का परचम बरदार नारी को बनाना होगा, यूँ कही यह जिम्मेदारी उसे भी समझनी होगी.
                       तिजारत में ये क्या जोर आजमाइश हो रही है
                       सरे बाज़ार औरत की नुमाइश हो रही है 
ऐसे फलसफे को आज के अल्ट्रा-माडर्न युग में दकियानूसी कहकर कुछ लोग ख़ारिज कर सकते हैं.अंतर राष्ट्रिय महिला दिवस  मनाने  की रस्म अदायगी के मौके पर किटी पार्टियों की नकचढ़ी बकवास के कोहराम में जिन्दा मुद्दों की छटपटाहट  को नक्कारखाने में तूती की आवाज बनते देखना आज की नारी को झिंझोड़ता क्यूँ नहीं?
                       धर्म की आड़ में देवदासियां बनाकर कन्याओं को देवार्पित करने का दुश्चक्र अब ख़त्म हो गया है .हो सकता है चोरी छिपे चलता भी होगा. फिर भी उच्चा कान्क्षाओं और धन की हवस मिटाने काली लक्ष्मी की आराधना करने जिस्म.,जमीर या आबरू के सौदागर और खरीददार और समर्पिता  भी अगर नारी ही बन्ने लगे तब भी नारी समाज के लिए जनचेतना का इससे बड़ा सुनहरा अवसर और कौन  सा होगा?
                            "लेकिन अखबार नवीस उत्तर आधुनिक समाज के आईने में नारी की छवि का एक उजला पहलू भी है.नारी सशक्तिकरण ,पुरुष के समकक्ष और कई क्षेत्रों में उससे भी आगे निकल जाने के रचनात्मक रिकार्डों की सूची ने यह भी साबित कर दिया है क़ि युवा ही नहीं किसी भी उम्र क़ी महिला  नई नजीर पेश कर खुद बेनजीर बन गई है.
                          दद्दू!बावजूद इस उजली छवि के आज भी हमारे  समाज में अनेक समस्याओं के यक्ष प्रश्नों ने नींद हरम कर रही हैजैसे-नारी भ्रूण हत्या ,स्त्री-पुरुष अनुपात ,जच्चा -बच्चा मौतें ,साक्षरता ,स्वास्थ्य शिक्षा ,नशा व् शराब खोरी ,दरकते रिश्ते और टूटते परिवार ,सामाजिक कुरीतियाँ और हद दर्जे का अंध विश्वास आदि -आदि .हालाँकि इनपर सोचा जा रहा है पर भागीदारी बेहद कमजोर है जिसके लिए नई पीढ़ी क़ी युवतियों को भी आगे आना होगा ताकि दलित वर्ग ही नहीं वरन समग्र नारी समाज क़ी आर्थिक रीढ़ मजबूत बने
                     तेरे माथे का आँचल तो बहुत खूब है लेकिन
                     इसे परचम बना लेती तो अच्छा था
"अखबार नवीस !महंगाई का जमाना है - पति-पत्नी दोनों को कामकाजी होना जरूरी है.ऐसे में होम मेनेजमेंट कितना  कठिन हो जाता है""दद्दू... पहले नारी अपढ़ थी पर आप जानते हो दादी-नानी कितनी कुशल थी घर का बजट बनाने में .हालाँकि नए दौर क़ी नई समस्याओं का समाधान भी मिल-जुलकर आसानी से हो जाता है पर यह दो- टूक सत्य है क़ी पुरुष क़ी बनिस्बत स्त्री अधिक संवेदनशील है.कतई कमजोर नहीं.."
"कमजोर!बल्कि पुरुष से कई मायने में उन्नीस नहीं बीस है.चाणक्य नीति में कहा गया है क़ी (पता नहीं आप सहमत हैं या नहीं )                      स्त्रीनाम द्विगुण आहारो बुद्धिस्तासाम चतुर्गुना
                             साहसं षड्गुणं चैव कामोश्त्गुन उच्यते
(पुरुषों क़ी अपेक्षा स्त्रियों  का आहार दोगुना होता है.बुद्धि चौगुनी,साहस छः गुना और काम वासना आठगुना होती है.)
"छोडी ... नए युग में मान्यताएं भी समय -सापेक्ष हो जाती हैं.पर एक बात सच है कि महिलाओं के ढेर सारे  संगठन गाँव और शहर तथा महा नगर के स्तर पर बने हैं .फिर भी सूचने क्रांति कि आंधी के दौर में नारियां अपने ही समाज के प्रति उदासीन हैं या यूँ कहिए उन्हें (खास तौर पर युवा पीढ़ी को )सकारात्मक आंधी बनाने कि फौरी जरूरत है .अब पुरुष समाज के सर पर यह कहकर ठीकरा फोड़ने से काम नहीं चलेगा कि-
                         लोग औरत को फकत जिस्म समझ लेते हैं
                        रूह भी होती है उसमें ये कहाँ सोचते हैं?
                                                                                       अपना ख्याल रखिए.....
                                                                                        किशोर दिवसे
                                                                                      
                      

Related Posts:

  • महंगाई डायन खाए जात है!!!!!! महंगाई डायन खाए जात है... दोस्तों .. महंगाई डायन खाए जात है. ह़र बन्दा इस हकीकत  को भुगत रहा है.अपने -अपने घरों में बैठकर हम सब बेतहाशा कोस लेते हैं महंगाई को.जन-जिहाद का कहीं पर नाम-ओ- निश… Read More
  • आदमी वो है जो खेला करे तूफानों से" सभी कार्यों में सफलता पूर्व तैयारी पर निर्भर करती है.पूर्व तैयारी के बगैर निश्चित रूप से असफलता हाथ लगती है."- कन्फ्यूशियस  यह कथन मुझे सौ फीसदी खरा उस समय लगा जब मैंने पीएस सी की परीक्षा पास क… Read More
  • अगर कभी हसबैंड स्टोर खुल गया तो???अगर कभी हसबैंड स्टोर खुल गया तो??? डोंट बी संतुष्ट... थोडा विश करो.. डिश करो...हालाकि यह पंच लाइन किसी ऐसे विज्ञापन की है जिसमें शाहरूख खान कुछ प्रमोट करना चाहते हैं लेकिन यूं लगता है कि इसकी थीम महिल… Read More
  • फौलाद का टुकड़ा और कपूर की टिकियाबरसात की एक रात थी.बिजली गुल थी और घुप्प अँधेरे में शमा जल रही थी.गोया कि मोम के बदन से धागे का जिगर जल रहा था.इधर हवा का एक झोंका आया और तकरार शुरू हो गई उन दोनों के बीच. "तिल -तिल कर जल रही हूँ मैं.… Read More
  • सिर्फ वक्त ही समझता है प्यार में छिपा ऐश्वर्य ७:४५ पूर्वाह्न  KISHORE DIWASE"दद्दू अभी मेरे पास नहीं हैं....प्रोफ़ेसर प्यारेलाल शहर से बाहर हैं.बाबू मोशाय कोलकाता गए.चिकनी चाची महिला म… Read More

5 टिप्‍पणियां:

  1. बाल दिवस की शुभकामनायें.
    आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (15/11/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा।
    http://charchamanch.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  2. विचारोत्तेज़क लेख !
    क्या कीजिएगा दद्दू ! मान्यताएं बदल रही हैं, समाज की यही रीति और गति है .....उत्थान -पतन /
    आपके चीख -चीख कर चिल्लाने से कुछ नहीं होगा ,
    अबला को सबला बनाने के चक्कर में वह विलासा बनती चली गयी .....इसमें पुरुष का योगदान कोई कम नहीं /
    हम सभी समान रूप से उत्तरदायी हैं इसके लिए /

    जवाब देंहटाएं
  3. समाज में समस्या तो है,
    नारी भी है,पुरुष भी है,
    इस से मन परेशान होता है ,
    हे कवि सपनों की बात कीजिये न,
    कुछ तो रिलीफ मिलेगा
    दो टके चावल मिल जाता है पर
    रिलीफ नही मिल पाता

    जवाब देंहटाएं
  4. मुझे तो लगा था
    "घूँघट की आड़ से दिलबर का दीदार अधूरा है..."
    " घूँघट के पट खोल तुझे ..."
    जैसा कुछ करेंगे.आगे के लिए अनुरोध है भाई

    जवाब देंहटाएं