,छः दिसंबर १९९२ के बाद से .....
,छः दिसंबर १९९२ के बाद से .....
तीस सितम्बर को अयोध्या मामले प़र कोर्ट का फैसला है. इस सन्दर्भ में मुझे वरिष्ठ पत्रकार व् सकाल समाचार पत्र के न्यूज़ नेट वर्क संपादक उत्तम काम्बले जी की दो कविताये आपको दिखने का मन कर रहा है. इसे मैंने मराठी से हिंदी में अनुदित किया है.
१. अजान और आरती
अजान , घंटा और आरती सुनकर
पहले जागते थे इंसान
अब जागते है , दंगे और फसाद
और इबादतगाहो को भी कराते है
अनवरत रक्तस्नान ... रक्तस्नान
२ . छः दिसंबर के बाद से
छः दिसंबर के बाद से ,धर्म्स्थलियों में आते जाते
आँखे मीच लेते है कबूतर.
की छत प़र बैठे गिद्ध
कही आँखे न फोड़ दे इसलिए.
धर्मस्थलियो की और जाने वाले , सभी रास्तो पर दिखाई देते है शस्त्र
कदम कदम पर बबैठे है शस्त्रधारी , अपनी संगीनों को तानकर.
कबूतरों के ७/१२ पर,बरसो तक थी धर्म्स्थलिया
अब आततायी गिद्धों ने, नकार दी ७ / १२ की डायरी
क़ानून कायदा कहते कहते
अब भी कुछ कबूतर
जाते है धर्मस्थलियो की ओर
लेकिन जब गूंजते है धमाके,उड़कर लौट आ जाते है वे.....
परसों से ही धर्मस्थलियो पर , शुरू हो गया है उत्खनन
वांछित इतिहास की तलाश करने
और घोंटा जा रहा है वर्तमान का गला ....
उत्खनन में मिलने लगी , अस्थियाँ और खोपड़ियाँ
जमींदोज संरचनाओं के खंडहर
और इतिहास बन चुके शिलाखंड....
अब उन शिलाखंडों को भी , सिखा रहे है धर्म की ऋचाएं
शिलाखंड करने लगे महा अजान , और गाने लगे महा आरती
इस अभीष्ट से शुरू हो गए हैं , उनपर प्रहार... प्रहार
कभी अल्लाह के नाम पर, कभी ईश्वर के नाम पर.
अब इतिहास बन चुके ,उन शिलाखंडों के युग में
आरती के लिए सख्ती नहीं थी ,नहीं. थी सकती अजान के लिए.
किस तरह समझें नए कानून , शिलाखंडों के समक्ष है पेंच
खोपड़ियों का बनाकर बुरादा ,तलाश करने जाती और धर्म
शुरू हो गए है वैज्ञानिक प्रयोग
अब कैसे बताई जय इन्हें जात ,खोपड़ियाँ है उलझन में दिन- रात ....
इतिहास की सुरंगों में दफन , तमस फ़ैल रहा है चहुँ ओर
और आँखे खुली रखने के बाद भी
नहीं दिखाई देती हैं धर्मस्थलियाँ!
देवताओं की भी कैफियत है यहाँ!
हर बरस आता है ६ दिसंबर
सुरंगों के धमाकों की अनुगूंज
लेकर आता है ६ दिसंबर
किसी को भी कुछ नहीं पताकहाँ पर फिर शुरू होगा , नए सिरे से उत्खनन!
शायद कबूतरों के कलेजे में!
और इंसानियत की कोख में!
,छः दिसंबर १९९२ के बाद से .....
तीस सितम्बर को अयोध्या मामले प़र कोर्ट का फैसला है. इस सन्दर्भ में मुझे वरिष्ठ पत्रकार व् सकाल समाचार पत्र के न्यूज़ नेट वर्क संपादक उत्तम काम्बले जी की दो कविताये आपको दिखने का मन कर रहा है. इसे मैंने मराठी से हिंदी में अनुदित किया है.
१. अजान और आरती
अजान , घंटा और आरती सुनकर
पहले जागते थे इंसान
अब जागते है , दंगे और फसाद
और इबादतगाहो को भी कराते है
अनवरत रक्तस्नान ... रक्तस्नान
२ . छः दिसंबर के बाद से
छः दिसंबर के बाद से ,धर्म्स्थलियों में आते जाते
आँखे मीच लेते है कबूतर.
की छत प़र बैठे गिद्ध
कही आँखे न फोड़ दे इसलिए.
धर्मस्थलियो की और जाने वाले , सभी रास्तो पर दिखाई देते है शस्त्र
कदम कदम पर बबैठे है शस्त्रधारी , अपनी संगीनों को तानकर.
कबूतरों के ७/१२ पर,बरसो तक थी धर्म्स्थलिया
अब आततायी गिद्धों ने, नकार दी ७ / १२ की डायरी
क़ानून कायदा कहते कहते
अब भी कुछ कबूतर
जाते है धर्मस्थलियो की ओर
लेकिन जब गूंजते है धमाके,उड़कर लौट आ जाते है वे.....
परसों से ही धर्मस्थलियो पर , शुरू हो गया है उत्खनन
वांछित इतिहास की तलाश करने
और घोंटा जा रहा है वर्तमान का गला ....
उत्खनन में मिलने लगी , अस्थियाँ और खोपड़ियाँ
जमींदोज संरचनाओं के खंडहर
और इतिहास बन चुके शिलाखंड....
अब उन शिलाखंडों को भी , सिखा रहे है धर्म की ऋचाएं
शिलाखंड करने लगे महा अजान , और गाने लगे महा आरती
इस अभीष्ट से शुरू हो गए हैं , उनपर प्रहार... प्रहार
कभी अल्लाह के नाम पर, कभी ईश्वर के नाम पर.
अब इतिहास बन चुके ,उन शिलाखंडों के युग में
आरती के लिए सख्ती नहीं थी ,नहीं. थी सकती अजान के लिए.
किस तरह समझें नए कानून , शिलाखंडों के समक्ष है पेंच
खोपड़ियों का बनाकर बुरादा ,तलाश करने जाती और धर्म
शुरू हो गए है वैज्ञानिक प्रयोग
अब कैसे बताई जय इन्हें जात ,खोपड़ियाँ है उलझन में दिन- रात ....
इतिहास की सुरंगों में दफन , तमस फ़ैल रहा है चहुँ ओर
और आँखे खुली रखने के बाद भी
नहीं दिखाई देती हैं धर्मस्थलियाँ!
देवताओं की भी कैफियत है यहाँ!
हर बरस आता है ६ दिसंबर
सुरंगों के धमाकों की अनुगूंज
लेकर आता है ६ दिसंबर
किसी को भी कुछ नहीं पताकहाँ पर फिर शुरू होगा , नए सिरे से उत्खनन!
शायद कबूतरों के कलेजे में!
और इंसानियत की कोख में!
9:00 am