इंसान अपना मूल स्वभाव पूरी तरह नहीं बदल सकता?
Human being cant completely transform its original behavior
इंसान और संस्कृति के ढांचे के बीच गहरा रिश्ता पहले था, शायद अब भी है। यही रिश्ता समाज व्यवस्था से भी उतना ही जटिल है। इंसान समाज व्यवस्था से समझौता कर उसे स्वीकार कर सकता है। इन समझौतों की प्रक्रिया दौरान वह खुद को कमजोर और ,नपुंसक बनाकर आम तौर पर प्रतिक्रिया देता है। बिरले होते हैं जो ऐसे लिजलिजी प्रतिक्रिया नहीं देते। कालांतर में यह विस्फोटक होती है। इंसान काम वासना का दमन करने और ब्रह्मचर्य की सख्ती सिखाने वाली संस्कृति से भी समझौता कर सकता है। प्रसिद्द मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड के मुताबिक़ यह समझौता प्रक्रिया मनोविकार के लक्षण हैं। जिस संस्कृति का ढांचा मानव के मूल स्वभाव के विरुद्ध होता है उसके खिलाफ बौद्धिक या भावनात्मक आक्रोश मानव की सहज अभिव्यक्ति भी है। आश्चर्य जनक ढंग से इन प्रतिक्रियाओं का पटाक्षेप उस सांस्कृतिक ढाँचे परखच्चे उड़ने में .देखा गया है। इसकी बुनियादी वजह यही है कि इंसान अपना मूल स्वभाव पूरी तरह नहीं बदल सकता।
Homo sapien and culture are integrally related entities .So is the complex relation of human being with social systems .Traditionally its observed that during the process of compromises human beings react in a feeble ,somewhat impotent reaction due to orthodox approaches . Human beings may due to pressures of traditions ,compromise with the culture that stresses upon suppression of libido and practicing celibacy. Reknowned psychologist Sigmund Freud opines that such process of involuntary compromise results in to symptoms of chronic psychological disorders.
The infra structure of society which is tightly interwoven around against the fundamental nature of human being commonly observed phenomena is occurance of emotional or intellectual furore and aggression .The resultant climax is gradual disintegration and rebellion against that societal infrastructure turning it in to mega debries of orthodox hypotheses.The basic cauz of this havoc is the fact that "Human being cant completely transform its original behavior .
Human being cant completely transform its original behavior
इंसान और संस्कृति के ढांचे के बीच गहरा रिश्ता पहले था, शायद अब भी है। यही रिश्ता समाज व्यवस्था से भी उतना ही जटिल है। इंसान समाज व्यवस्था से समझौता कर उसे स्वीकार कर सकता है। इन समझौतों की प्रक्रिया दौरान वह खुद को कमजोर और ,नपुंसक बनाकर आम तौर पर प्रतिक्रिया देता है। बिरले होते हैं जो ऐसे लिजलिजी प्रतिक्रिया नहीं देते। कालांतर में यह विस्फोटक होती है। इंसान काम वासना का दमन करने और ब्रह्मचर्य की सख्ती सिखाने वाली संस्कृति से भी समझौता कर सकता है। प्रसिद्द मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड के मुताबिक़ यह समझौता प्रक्रिया मनोविकार के लक्षण हैं। जिस संस्कृति का ढांचा मानव के मूल स्वभाव के विरुद्ध होता है उसके खिलाफ बौद्धिक या भावनात्मक आक्रोश मानव की सहज अभिव्यक्ति भी है। आश्चर्य जनक ढंग से इन प्रतिक्रियाओं का पटाक्षेप उस सांस्कृतिक ढाँचे परखच्चे उड़ने में .देखा गया है। इसकी बुनियादी वजह यही है कि इंसान अपना मूल स्वभाव पूरी तरह नहीं बदल सकता।
Homo sapien and culture are integrally related entities .So is the complex relation of human being with social systems .Traditionally its observed that during the process of compromises human beings react in a feeble ,somewhat impotent reaction due to orthodox approaches . Human beings may due to pressures of traditions ,compromise with the culture that stresses upon suppression of libido and practicing celibacy. Reknowned psychologist Sigmund Freud opines that such process of involuntary compromise results in to symptoms of chronic psychological disorders.
The infra structure of society which is tightly interwoven around against the fundamental nature of human being commonly observed phenomena is occurance of emotional or intellectual furore and aggression .The resultant climax is gradual disintegration and rebellion against that societal infrastructure turning it in to mega debries of orthodox hypotheses.The basic cauz of this havoc is the fact that "Human being cant completely transform its original behavior .
10:04 am