सोमवार, 24 जनवरी 2011

गणतंत्र दिवस मनई ले पर क्या जिगर में लगी आग है.

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लो आ गया एक और गणतंत्र दिवस!मालूम है ,क्या तोप मार लोगे आज के दिन!टीवी या मैदान पर सन्देश और राज्यों के विकास का " अर्ध सत्य "  बताने वाली झांकियां देखोगे?कर्मचारी इस जुगाड़ में होंगे कि कैसे  लगातार और छुट्टियों का जुगाड़ हो जाए.वैसे शुक्र, शनि या सोम ,मंगल को गणतंत्र दिवस आए तो यह जुगाड़ करने की तबीयत और मचल उठती है ताकि दो- तीन दिन की छुट्टी मिल जाए.इलाकेदार नेता चुनिन्दा कार्यक्रमों में अलापेंगे अपनी- अपनी ढपली,अपना -अपना राग.बाकी लोगों के लिए..कुछ नहीं तो आउटिंग,मिलना-जुलना या घर बैठकर आराम...यही होना है.रही युवा साथियों की बात-घूमेंगे -फिरेंगे ,नाचेंगे -गाएँगे ... ऐश करेंगे और क्या!!!
                                       गणतंत्र दिवस ... भारत के संविधान की बुनियाद का दिन. आज के  हालात- कहाँ का गण  और कहाँ का तंत्र! उम्र के हिसाब से सठिया चुके ( माफ़ कीजिए साठ वर्ष से अधिक हो गए इसलिए) गणतंत्र की हालत  आज क्या है ... क्या कभी इस बात पर सोचा गया है?खिसियाकर दद्दू पूछते हैं ," भैये!यह तो बताओ.. गणतंत्र के मायने क्या हैं?मैंने उन्हें टेंथ क्लास के  छात्र की तरह समझाया" गण " यानी BODY OF FOLLOWERS  और " तंत्र"    के मायने हैं RULE OR ADMINISTRATION.गणतंत्र दिवस  या REPUBLIC DAY में रिपब्लिक का अर्थ होता है गणराज्य ,लोकतंत्र या प्रजातंत्र.
                                     " प्रजातंत्र में प्रजा शब्द से क्या सामंती बू नहीं आती ? " दद्दू ने छेड़ने के लिहाज से पूछा." ठीक कह रहे हो ,इसलिए तो अब लोकतंत्र को व्यापक अर्थों में स्वीकार गया है.लोंक अर्थात नागरिक." मैंने जवाब दिया." लेकिन अखबार नवीस... 1950  में ढेर सारे संविधानों की चुनिन्दा खासियतों से बनाये गए हमारे देश के संविधान की समय सापेक्षता को लेकर क्या कुछ ज्वलंत मुद्दों पर बहस नहीं छेडी जानी चाहिए? 1950 और आज2010 के राजनैतिक और समाजार्थिक माहौल में जमीन -आसमान का फर्क नहीं है?
                                           " बात तो ठीक कह रहे हो दद्दू!लेकिन कहाँ कोई इस मुद्दे पर गंभीरता से सोचता है? जनमानस ही जब कुछेक लचर कानूनों की समीक्षा और नागरिकों के दायित्व के मसले पर नहीं खदबदाता ,नीति निर्धारकों के कानो पर भला क्यूं कर जूं रेंगेगी?" अब आप ही बताओ दद्दू सच्चे लोकतंत्र के लिए जैसे " लोंक " चाहिए जैसा " तंत्र" चाहिए जैसे " नेता चाहिए  क्या आज हैं?बीते पांच वर्षों में जितने घोटाले हुए ,मीडिया ने जितने भ्रष्टाचारियों के नाम उछाले क्या किसी पर भी जवाबदेही तय की गई. चाहे व्यक्ति पर हो या सरकार पर जब तक जवाबदेही तय नहीं होगी  यह देश भाड़ बनता रहेगा.    
                                                                                      गांधी,नेहरू,सुभाष,पटेल शास्त्री , जैसे जमीने स्तर के नेता 
 और दीगर  क्रांतिकारियों के फलसफे पर अमल होने की क्या कोई उम्मीद की जा सकती है?वह पीढ़ी अब पुस्तकों  तक सिमट गई है.पार्टियों की बेशर्म नूरां कुश्ती का तमाशा जगजाहिर है.शहीदों की याद दिलाने वाले गाने हड़ताली पंडालों में ही सुनाई दे जाते है.आधुनिक भारत की बुनियाद के दौर में बीसवी सदी के कुछ नेताओं ने अवश्य ही देश को विकास की रौशनी दी पर आज देश की हालत डा. हनुमंत नायडू के शब्दों में
                                     सपने बिछाके  दो-चार ओढ़कर ,सोता है देश देखिए सरकार ओढकर 
                                     भाषण छपा है देश में खुशियाँ बरस रहीं ,लेटे है खाली पेट हम अखबार ओढकर 
गणतंत्र दिवस पर यह सोचा जाना चाहिए की विकास की रौशनी से सुदूर गाँव ला गरीब कब तर-बतर होगा!जहाँ तक नेताओं का सवाल है जमीरी (जमीर वाले ) और जमीनी दोनों ही स्तर के नेता अब दुर्लभ हो चुके हैं.यह सोच का बिंदु  है क्योंकि _ "आज की राजनीति की रम्भा ,दिल कहीं,दलबदल रही है कहीं".
                                       खून  करते हैं वे नकाबें और दास्तानें पहन 
                                        जुर्म को अपने छिपाने में कुशल अत्यंत हैं.
वाकई जुर्म को छिपाने में उनकी कुशलता काबिल -ऍ-तारीफ़ है.इसलिए तो पहले के नेता जमीन दान ( भूदान) करते थे और आज के नेता भू-माफिया के साथ मिलकर या स्वयम बनकर भूमि डकार जाते हैं...या अनाप-शनाप रेट हासिल कर लेते हैं.डा. अर्बनात ने कहा  है, ALL POLITICAL PARTIES DIE AT LAST OF SWALLOWING THEIR OWN  LIES "जो कुछ तो सच है पर यह भी सच है कि देश का काफी पैसा नौकरशाह और सरकारी अफसरों के भ्रष्टाचार की भेट चढ़ रहा है.
                                    दद्दू  ! गणतंत्र दिवस मनाते हैं हम सब लेकिन आज तक क्या जिम्मेदार नागरिक बन सके हैं?दूसरी ओर नागरिक सरकार पर निर्भरता अपना अधिकार  समझते हैं लेकिन अपने कर्तव्यों के प्रति पूरी तरह गैर-जिम्मेदार हैं.क्या शहर की साफ़-सफाई,बेतरतीब यातायात ,प्रदूष्ण ,कार्यालयीन भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जनता  की कोई जवाबदेही नहीं?महंगाई, व् राजनैतिक घोटालों पर जानता की आवाज बुलंद नहीं होनी चाहिए?लोग अपने -आपमें इतने आत्म केन्द्रित हो गए हैं के गंभीर मसले पर सोचने पर मजबूर नहीं होते कि-        
      क्या हो रहा ही सड़कों पे रात-दिन ,लोगों निकल के देखो आरामगाह से 
जिम्मेदार नागरिक बनना जरूरी है.देश के कुछ सड़े हुए सिस्टम  में तबदीली लाने करप्शन फ्री बनाने प्रत्येक नागरिक को नैतिक मूल्य जीवित रखने होंगे बैड गवर्नेंस को गुड गवर्नेंस ( अखबारी रिपोर्ट नहीं, हकीकत में बदलने ईमानदार जन-भागीदारी आज की अनिवार्यता है.
                           बहरहाल, आज तो गणतंत्र दिवस मनई  ले...पर याद रहे बदहाली का खुशहाली में कायाकल्प करने हरेक के जिगर  में देश के प्रति स्वाभिमान की आग जलनी चाहिए.भरोसा ही कि वो सुबह कभी तो आएगी पर जरूरत है अलख जगाने वाले, मशालों से लैस अनगिनत हाथों की .
                                                             गणतंत्र दिवस क़ी शुभ कामनाएँ
                                                                             किशोर दिवसे 
                                                                             
                                       

मिले सुर मेरा तुम्हारा ,तो सुर बने हमारा...

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आज  एकाएक टीवी चैनल पर जब पंडित भीम सेन जोशी के निधन की खबर सुनी .आंखों के सामने उनकी  गीत -संगीत यात्रा चल-चित्र की तरह घूमने लगी.अपनी रूचि के अबूझ पहलुओं को जानने -समझने की उनकी ललक कभी कम नहीं हुई बल्कि सदा बढती ही रही.पंडित जोशी को प्यार से "संगीत का हाई कमिश्नर " कहा जाता था.जीवन और संगीत में उनकी खोजी प्रवृत्ति अनथक जारी रही.होनहार बीरवान के होत चीकने पात- जब तीन बरस के थे पहली बार घर से भागे और मस्जिद के सामने बैठ गए.मुइज्जन की अजान- अल्लाह हो अकबर के अल्फाजो में छिपा संगीत तलाश रहे थे. फिर मंदिरों में गाने वाली भजन मंडलियों और बारातों में गीतों की धुनें भी गहराई से सुनते रहे.उनके भाग  जाने की आदत से परेशां होकर उनके पिता गुरुराज जोशी ने कई बार पुलिस में शिकायत भी दर्ज कराई  . हर बार कोई बन्दा नन्हे भीम को घर लाकर छोड़ देता था.
    ग्यारह बरस की उम्र में भीमसेन फिर घर छोड़  कर भाग गए- वजह थी मां उसे घी-चावल परोसने की हैसियत नहीं रखती थी.भीमसेन की जिन्दगी का यह जबरदस्त मोड़ था.नजदीक की चाय दूकान पर किराना घराने के उस्ताद  अब्दुल करीम खान साहिब का राग झिंझोटी में आबद्ध कोई ग्रामोफोन रिकार्ड सुना और ट्रेन पर बेटिकट ही सवार हो गए.मुसाफिरों से भीख मांगते किसी तरह तीन महीने में अपने गाव कर्नाटक के गदग जिले के रान से पुणे, मुंबई होते हुए ग्वालियर पहुंचे. आख़िरकार उस्ताद करीम (1936 ) से मुलाकात हो ही गई.गुरु-शिष्य परंपरा में पक्का भरोसा रखने वाले पंडित जोशी  कहते थे,"पहले किसी गुरु से सीखना और फिर उसमें अपना हुनर समाहित करना जरूरी है तभी कोई मजबूती से अपनी बात कह सकता है.अपनी संगीत यात्रा के दौरान  किराना   घराने  के परम्परावादी होकर  भी दीगर घरानों के लिए अपनी सोच को उन्होंने पूरी तरह खुला रखा.
       पंडित  भीमसेन जोशी अक्सर कहा करते थे की खुद को दूसरे दर्जे का नकलची बनाने की बजाए अपने गुरु का पहले दर्जे का सुधारक बनना चाहिए. जयपुर के संगीतग्य मल्लिकार्जुन मंसूर और केसर बाई केरकर के प्रति गहरी आस्था उनमें थी.केसर बाई ने एक बार टिप्पणी भी की थी ,: मै जानती हूँ के तुमने मुझसे काफी -कुछ चुरा लिया है.उनके संगीत ने अनेक पहलुओं को उकेरा जिनमें चिन्तन ,मनोरम,अंतर ज्ञान मूलक और अतार्किकता  थी.असफलता के तीव्र अंदेशे को  उन्होंने  कभी अपनी  ललक पर हावी नहीं होने दिया. इसलिए वे किराना घराने के एकमात्र गायक हैं जिन्होंने राग रामकली पर अपनी जिद दिखाई.पंडित भीमसेन ने अपने संगीत में उस्ताद करीम खान,सवाई गन्धर्व ,रोशन आरा बेगम सहित अनेक विभूतियों को जिन्दा रखा.
 1936  में पंडित भीमसेन सवाई गन्धर्व( पंडित राम भाऊ  कुन्दगोलकर ) के शिष्य बन गए थे.गंगू बाई हंगल भी सह-शिष्य थी. वे घर का काम करते और संगीत भी सीखते. 1943 ,में  वे मुंबई पहुच गए और 19 साल की उम्र   में रेडियो  आर्टिस्ट बनकर कन्नड़ और हिंदी गीत गाए .ख्याल,मराठी भजन, अभंग गायन में उन्हें महारत थी.उनको मिले अवार्डों में -पद्मश्री (1972),संगीत नाटक अकादमी अवार्ड(1976),नेशनल फिल्म अवार्ड(1985),पद्मभूषण(1985),पद्मविभूषण(1999),आदित्य विक्रम बिरला अवार्ड(2000),कला   शिखर पुरस्कार(),महाराष्ट्र भूषन(2002,कर्नाटक रत्न(2005),भारत रत्न(2008), लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड दिल्ली(2009),नारायण स्वामी अवार्ड बेंगलूरू (2010)प्रमुख रहे.
पंडित भीमसेन जोशी के बारे में सारी जानकारियाँ किसी एक लेख में समाहित करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. उनकी संगीत यात्रा " हरी अनंत, हरी कथा  अनंता" है . फिर भी उनका गायन सुनकर तन- मन झूमने लगता है .उनके प्रसिद्द हुए रागों में-सुधा कल्याण,मियां की तोड़ी,पुरिया धनश्री ,मुल्तानी,भीम पलासी,और दरबारी है.उन्होंने बसंत बहार ,बीरबल माई ब्रदर,नोदी  स्वामी नावु इरोधू हीगे,तानसेन तथा अनकही फिल्मो में गीत गाए.हालिया समय में लोगो को उनका गाया " मिले सुर मेरा तुम्हारा  .. तो सुर बने हमारा ...(1985  वीडियो ) बरबस याद आ गया होगा. पंडित भीमसेन जोशी को इस लेख के माध्यम से संगीत साधकों की ओर से श्रद्धा सुमन. उनकी संगीत  साधना के सुर हमारे बीच अमर रहेंगे.
                                                                  किशोर दिवसे
                          

रविवार, 23 जनवरी 2011

कश्ती के मुसाफिर ने समंदर नहीं देखा

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मान लो के दुनिया अगर समंदर है तब आप और हम कश्तियाँ ही तो हुए !हमारा जमीर पतवार की भूमिका अदा करता  है .खुदा  और नाखुदा (नाविक )की अपनी-अपनी अहमियत होती है.किसी की भी हो ,जिन्दगी है तब समंदर की तरह उसमें तूफ़ान आयेंगे ही.और यही वक्त होता है जब हम सब ईश्वर या खुदा तथा नाखुदा को जिन्दगी के आईने में कुछ इस तरह देखने लगते हैं-
                     खुदा और नाखुदा मिलकर डुबो से ये तो मुमकिन है 
                     फकत तूफ़ान मेरी वजहें तबाही नहीं हो सकता 
यकीनन जब भी किसी कि जिन्दगी में तूफ़ान आते हैं देर -सबेर कश्तियाँ साहिल पर पहुँचती ही हैं.हौसला अफजाई करने हम एक-दूसरे से कहते भी है ,"नाखुदा जिनका ना हो उनका खुदा होता है "यह बात अलग है कि जिन्दगी के सफ़र में खुद से कोई लुट जाता है तो किसी को नाखुदा  ही लूट लेता है.दरअसल आपने भी कभी महसूस किया होगा हमारे जीवन में कुछ तूफ़ान ऐसे भी आते हैं जो खुद-ब खुद हमें किनारा सौंप देते हैं.
                      " पर अखबार नवीस ... जिन्दगी में कुछ लोग खुशामद करना नही जानते.उनकी खुद्दारी उन्हें व्यावहारिक नहीं बनने देती है.-दद्दू भावावेश में बहने लगे थे." लेकिन ऐसे लोग प्रैक्टिकल न होने कि वजह से कभी-कभी सफल नहीं हो पाते.
पारदर्शी प्रशंसा और फूहड़ चाटुकारिता में जमीन-आसमान का फर्क हैऔर यही पर कोई खुद्दार अपनी औकात पर कुछ इस तरह उतरता है -
                         नाखुदा मुझसे न होगी खुशामद तेरी 
                         मै वो खुद्दार हूँ ,कश्ती से उतर जाऊंगा 
जिद होनी चाहिए कि कश्ती  है तब सफ़र करना ही है चाहे कितनी भी चुनौतियाँ क्यों न हो भला कश्ती का ऐसा कोई मुसाफिर होगा जिसने समंदर नहीं देखा होगा? भाई!जिन्दगी को पूरी संवेदना ,गहराई और चौकस नजरिये से देखना और समझना होगा वर्ना कश्ती के ड़ूब जाने का ख़तरा  नहीं मंडराएगा  क्या?
                        प्रोफ़ेसर प्यारेलाल ने संजीदा होकर कहा,"' अखबार नवीस! कभी कोई कश्ती ड़ूब जाती है तब आसानी से तूफ़ान की खबर हो जानी चाहिए लेकिन चाहे इसे खुदा की गफलत कहें या जिंदगी के सफ़र में हमारी अपनी असावधानियाँ ,साहिलों से टकराकर कई नौकाएं टूट जाती हैं.इसलिए जिन्दगी को पूरी गंभीरता से हर अंदाज समझकर जीना चाहिए."
                     " जिंदगी के दौरान जीवन  क़ी धूप,तल्खियों या जिम्मेदारियों से  कुछ लोग भागना चाहते है.आंधियां आने पर अपनी कमजोरियां एक-दूसरे पर टालने क़ी कोशिश भी करते हैं .एक खूबसूरत साकी ने जिसकी कश्ती साहिल पर ही टूट गई थी अपनी आँखों में कशिश लिए हुए मुझसे कहा था-
                            खुदा क़ी गफलत भी क्या से क्या दिखाती है
                            साहिलों से टकराकर नाव भी टूट जाती है 
यकीन मानिये ,जीवन में हर पल नाखुदा (नाविक )को बाखबर रहना होता है.नदी क़ी शांत लहरों  पर तैरते हुए दीये से भी सवाल किए जाते होंगे ,ऐ  मौजों (लहरों ) वो कौन लोग है जो कश्तियाँ डुबोते हैं?" आचार्य विनोबा ने कहा है , ' संघर्ष और उथल-पुथल के बिना जीवन बिलकुल नीरस बनकर रह जाता है.इसलिए जीवन में आने वाली विषमताओं को सह कर उससे सीखना ही समझदारी है.
                                कल रात को जब मैं सोया था,सपने में जिन्दगी को देखा
"I slept and dreamt that life was beauty.I woke and found that life was duty."
आप तो मेरे अपने हैं .जिन्दगी के समंदर में जब आप और हम कश्तियाँ हैं खुदा ...नाखुदा ... साहिल और समंदर क़ी चढ़ती -उतरती लहरों में भीगी-भीगी एक बात मुझे अक्सर याद आया करती है
                                 उसकी कश्ती को हवादिस ने दिया है साहिल
                                बढ़ के जो वक्त के तूफ़ान से टकराया है
                                                                                           अभी इतना ही... अपना ख्याल रखिए
                                                                                                     किशोर  दिवसे

                       

बुधवार, 19 जनवरी 2011

हे प्रभु.. तू इन्हें माफ़ कर ....

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अन्थोनी गोंजाल्विस... हाँ... ट्रेन में सफ़र के दौरान उसने अपना यैच्च नाम बताया था.पता नहीं था मुसाफिराना अंदाज में हुई यह मुलाकात दोस्ती में बदल जाएगी.आज वही अपुन का दिलदार दोस्त अन्थोनी गोंजाल्विस घर आएला था.अक्खा साल भर बाद अपुन का यार अन्थोनी आएला है और खाली-पीली भंकस करने के साथ-साथ दिल खोलकर रख दिया था हम दोनों ने.मेरी सुनने के बाद जब अन्थोनी की बारी आई तब उसने अपने एक रिश्तेदार जान डीकोस्ता का किस्सा सुनाया.
                       बोले तो जान रईस खानदान का औलाद.जान ग्रेजुएट होने जा रहा था.रास्ते पर एक शो रूम में उसे एक स्पोर्ट्स कर बेहद पसंद आई थी.वह जानता  था कि उसका डैडी उसे यह कार खरीद कर दे सकता है.उसने अपने दिल की बात डैड को बताया.ग्रेजुएशन के रिजल्ट वाले दिन जान को पक्का भरोसा था कि डैड वह कार तोहफे में देंगा.उस रोज डैड ने उसे बुलाया था और कहा," माई सन !! तुम्हारे जैसे बेटे को पाकर हम कितना प्राउड फील करता है यह मेरा दिल ही जानता है.डैड उससे बेहद प्यार करता है.इतना कहकर जान को उसके डैड ने रंगीन चमकीली जिल्द लगा गिफ्ट बाक्स दिया.जान हैरान और दुखी था.उसने जब वह बक्सा खोला ,उसमें चमड़े का कव्हर लगी  एक बाइबल  थी जिसपर सुनहरी इबारत में लिखा था ," तू जान विथ लव." न जाने कैसे जान का गुस्सा फट पड़ा.," डैड!गिफ्ट में क्या यही बाइबल दे रहे हो?कोई अच्छा तोहफा नहीं दे सकते थे?आग बबूला होकर वह अपने घर से जो निकला फिर लौटकर नहीं आया.
                 एक-एक कर कई साल बीतते गए.जान गोवा में बिजनेस करने लगा था.गाड की दुआ से सक्सेस भी हुआ.... घर बनाया...शादी भी बनाया.एक दिन यूं ही उसकी वाइफ शर्ली ने कहा," जान! कभी डैड को देखने का मन नहीं करता?" " हाँ शर्ली कई साल हो गया,सन्डे को जाकर देख आऊँगा." फ्राइडे का दिन था वह.
                           अचानक सैटरडे को एक टेलीग्राम पहुंचा.खोलकर देखा तो लिखा था," योर डैडी एक्सपायर्ड ,कम  सून."फ़ौरन ही वे लोग मुंबई से गोवा पहुंचे.सब कुछ ख़त्म हो गया था.फ्यूनरल होने के बाद जब घर पर यूं ही कुछ कागजात पलट रहा था तब जान को पता चला कि डैड ने  सारी वसीयत उसके नाम कर दी थी.किताबों के शेल्फ में अचानक उसकी नजर पड़ी-अरे! यह तो वही बाइबल है चमड़े के कवर से ढकी हुई.उसने भारी मन से कुछ पन्ने पालते.डैडी ने बाइबल कि कुछ लाइनों को अन्डर लाइन किया था.उसमें  लिखा था  -
                       Matt: 7;11     And if ye being evil know how to give good gifts to your children,how much more shall your hevenly father which is in heavengive to those who ask for it?"
                         जैसे ही जान ने ये शब्द पढ़े एक चाबी बाइबल से नीचे खिसक कर गिरी.उसमें उसी डीलर के नाम का कार्ड लगा हुआ था.जिसके शो रूम में उसने स्पोर्ट्स कर  देखी थी.उसी कार्ड पर जान के ग्रेजुएशन का दिन और तारीख के अलावा यह भी लिखा था  PAID IN FULL यानी पेमेंट हो चुका है.जान की आँखों से बहते आसुओं को बाइबल ने अपने सीने में यूँ छिपा लिया था जैसे दुखियों का दर्द जीसस अपने सीने में .शर्ली ने जैसे ही जान के कंधे पर हथेली रखी फफककर रो पड़ा था जान.शर्ली ने उसे ढाढस दिलाया.
                                आखिर हम कितनी बार प्रभु के आशीष को दरकिनार कर जाते हैं?सिर्फ इसलिए की वे उस रूप में हमारे सामने नहीं आते जैसा की हम चाहते हैया हमें उम्मीद होती है.हमें यह सोचना चाहिए की जो सुख हमारे पास है उसे क्या सिर्फ यूं ही तबाह होने दे क्यूंकि हमने कुछ  और  ज्याद इच्छाएँ पालरखी थी .? जो आपके पास है उसे महसूस करें.हो सकता है की आपने जो चाहा वह आने वाले समय में और बेहतर पॅकेज में मिले!
                                दद्दू बोले," यूं आर राईट अन्थोनी.हम छोटे -छोटे सुखों को अपनी बड़ी आकांक्षाओं के नीचे कुचल देते हैं.छोटे-छोटे सपनों और सुखों को जीना सीखें... उनकी सराहना करें.अगर जान में सब्र होता तब ऐसा  दुःख क्यूं होता?छोटे सुखों के रास्ते हम बड़े सुखों से जुड़ने लगते हैं.ये हमें स्नेह और लगाव के लम्बे रास्ते पर ले जाते हैं.दरअसल जान के मन में सब्र या पेशंस नहीं था.किसी ने सच कहा है," सहनशक्ति या धीरज अक्सर किसी वजह से मिली असफलता को सफलता में बदलने में मददगार होती  है लेकिन सहनशक्ति नहीं रही तब अछे से अच्छा शक्तिमान भी अपनी ताकत को बेसब्री से तबाह कर देता है "
                                                           अपना ख्याल  रखिए
                                                                                  किशोर दिवसे 

                       

सोमवार, 17 जनवरी 2011

आदमी वो है जो खेला करे तूफानों से

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" सभी कार्यों में सफलता पूर्व तैयारी पर निर्भर करती है.पूर्व तैयारी के बगैर निश्चित रूप से असफलता हाथ लगती है."- कन्फ्यूशियस 
यह कथन मुझे सौ फीसदी खरा उस समय लगा जब मैंने पीएस सी की परीक्षा पास करने वाले होनहार युवक-युवतियों के इंटरव्यू अखबारों में पढ़े थे.रोक्तिमा राय ,फरिहा मतीन,दीपक अग्रवाल,अरविन्द पतले ,सोनल खंडूजा,सुनील चौधरी ,आदित्य शर्मा और सुनील सिंह के अलावा अनेक नौजवान ,मेहनतकश पढ़ाकुओं ने सिविल सेवाओं के लिए परीक्षा यों ही नहीं पास कर ली होगी.बेशक इनकी सफलता के पीछे लक्ष्य,बेहतर कोचिंग , गहरा मार्गदर्शन ,सही विषय चयन और नए ट्रेंड की जानकारी के साथ ही ज़माने की नब्ज को भी पहचानने की बात रही होगी.
                         इन सबके साथ ही गायत्री सिंह,निवेदिता पाल,नेहा पाण्डे, रेणुका श्रीवास्तव ,मीनाक्षी शुक्ल,और सोनिया नायक जैसी करियर कांशस युवतियों की फेहरिस्त भी है जिनके बुलंद हौसलों और सही अकादमिक रणनीति ने उन्हें सफलता बक्शी.उन्हें मैंने उसी वक्त बधाइयों के गुलदस्ते भेजे थे.मन में यह बात उठती है की क्या उनसे बाकी हम-उम्र युवा कोई सीख नहीं ले सकते! निश्चित तौर पर उन सभी के रास्तों में भी कठिनाइयाँ आई होंगी पर समस्याओं के तूफानों से लड़ने की जिद ही तो सफलता के कदम चूमने का मौका देती है.शैलेन्द्र ने क्या खूब गया था-
         बात इतनी सी है कह दो कोई दीवानों से 
        आदमी वो है जो खेला करे तूफानों से 
तमाम प्रोफेशनल कालेजों और नौकरियों के लिए  चयन स्पर्धाओं में सफल होने वाले मुकद्दर के सिमंदारों और शिकस्त खाने वाले , दोनों के लिए ही नए सफर का आगाज शुरू होना चाहिए .सफलता की ख़ुशी तब सार्थक होती है  जब सफल प्रतियोगी अपनी रणनीति का खुलासा साथियों के बीच करते हैं.वैसे यह जिम्मेदारी कोचिंग सेंटरों की है जहाँ पर वे पढ़ते रहे.जो असफल रहते है उन्हें अपनी रणनीति का पुनरावलोकन करना चाहिए.इमर्सन ने कहा है ," सफलता का पहला रहस्य है आत्म विश्वास."
यानी  हम विफल हुए तो अपनी कमजोरियों को दूर कर दोबारा मेहनत करें.
                           सफल परीक्षार्थियों  ने यकीनी तौर पर खुशियाँ मनाई होंगी पर मै असफल शहसवारों की हौसलाफजाई इन शब्दों में करना चाहूँगा.-          वो देख चिरागों के शोले मंजिलों से इशारा करते हैं 
                                          तू हिम्मत हार के बैठ गया, हिम्मत कहीं हारा करते हैं ?
अपनी असफलताओं से मत घबराइए.सफल होने के लिए तुरंत फैसला करने की शक्ति आवश्यक है.सफल इंसान उस गुलदस्ते की तरह होता है जिसे जिन्दगी का घूमता चाक अच्छे कुम्हार(मार्गदर्शक )की मदद से गढ़ता है.वैसे देखा जाए तो हालिया नौजवानों की पीशी ने सचमुच यह साबित कर दिया है के करियर बनाने में " अकादमिक विरासत " की कहीं कोई मोह्ताज्गी नहीं है.
                       पर हमारे ज़माने में करियर बनाने के मौके भी कम थे, माता-पिता और बच्चों के बीच दूरियां भी इतनी थी की जनरेशन गैप की वजह से हमें उतना मार्ग दर्शन नहीं मिला जितना आज की पीढ़ी को मिल रहा है." दद्दू ने अतीत की याद कर अपनी बात कही.बात तो ठीक कह रहे हो दद्दू,मैंने कहा ," आज अवसरों का खजाना सामने है ,बच्चे माता-पिता के दोस्त बन गए है.दूरियों की दहशत समाप्त हो गई हैऔर पालकों ने भी अच्छी तरह सीख लिया है " जनरेशन-मैनेजमेंट" .बेहतर  और अपडेटेड मार्गदर्शन करने और जुटाने में भी आज पालक सक्षम हैं.
तफरीह करते हुए मै और दद्दू जब पान ठेले के सामने से गुजरते है .... चार  युवा खड़े हैं जिनकी  बाते हमारे कानों से टकराती हैं.-सिगरेट फूंकता पहला युवा शिक्षा पद्धति को कोसता है.गुटका मुहं में ठूंसकर दूसरे ने कहा," यार !पैसे देकर भी मामला नही जमा.तीसरा बोला, मैंने तो हरे नोट देकर मामला सलटा लिया है.चौथा बिगड़ा  नवाब है ."अबे झंडू बाम! बाप किसके लिए कमा रहा है!" पान ठेले के थोड़ी ही दूर टिमटिमाते दिए की रोशनी में झोपड़ी के भीतर एक मजदूर का बेटा सुरेश मन लगाकर पढ़ रहा है.दसवी की  बोर्ड परीक्षा में उसने टॉप किया था.सुरेश जैसे ही जोशीले हिम्मत वालों के लिए कहा गया है-
                        सफर मैं मुश्किलें  आए तो जुरअत और बढ़ती है 
                         कोई जब रास्ता  रोके तो  हिम्मत और बढती है 
नौजवान पीढ़ी को हिम्मत और लग्न से लक्ष्य तक की सीढियां चढ़नी होंगी..मुसीबतें सहनी होंगी क्योंकि  "  शिकायतें गर न हों तो जिन्दगी मोहकम  नहीं होती"  इसलिए जोश और होश वाले नौजवान दोस्तों , जब भी हम लक्ष्य के सफर पर चलना शुरू करें एक बात हमेशा अपने-आपसे दुहराते रहना जो बशीर बद्र साहब ने आपके और  सभी के लिए कही है-
            जिस दिन से चला हूँ मंजिल पे मेरी नजर है 
             आँखों  ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा 
                                                                          अपना ख्याल रखिए .. खुश रहिए...
                                                                                 किशोर दिवसे


                          

अगर कभी हसबैंड स्टोर खुल गया तो???

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अगर कभी हसबैंड स्टोर खुल गया तो???
डोंट बी संतुष्ट... थोडा विश करो.. डिश करो...हालाकि यह पंच लाइन किसी ऐसे विज्ञापन की है जिसमें शाहरूख खान कुछ प्रमोट करना चाहते हैं लेकिन यूं लगता है कि इसकी थीम महिलाओं को मद्दे नजर रखकर सोची गई है".
" बात कुछ हज़म नहीं हुई ... जरा और खुलासा करो" मेरी छोटी सी बुद्धि के खांचे में बात फिट न होने पर मैंने दद्दू से पूछा."यार अखबार नवीस !क्या इस दुनिया में महिला को कोई पूरी तरह संतुष्ट कर सकता है" दद्दू ने सीधा सवाल दागा.सवाल थोडा डेंजरस टाइप लगा इसलिए मैंने दद्दू कि गुगली को "डक"  करना चाहा.. मैंने पूछा," क्या मतलब?"
नहीं  नहीं...इसका वो मतलब नहीं जो आप समझ रहे हो.क्या कोई पुरुष किसी महिला को पूरी तरह खुश रख सकता है?क्योंकि बेचारे पुरुष तो छोटी -छोटी खुशियों में ही बल्ले... बल्ले.. करने लगते हैं .लेकिन महिलाऐं कभी पूरी तरह संतुष्ट नहीं होती.
" दद्दू यह आपका अनुभव बोल रहा है क्या?इस बार मने जरा चालाकी से सवाल उनकी ही ओर रिबाउंड करते हुए कहा ,"  दद्दू.... वैसे संतुष्टि तो अपने मानने पर होती है लेकिन आप किस मुद्दे पर अपने दिमाग कि लेजर बीम का बटन ऑन कर रहे हो?
                            समझ गए थे दद्दू कि मैंने उनकी नीयत भांप ली है इसलिए मूड में आकर उन्होंने किस्सागोई शुरू की-
मुंबई में एक स्टोर खुला है जहाँ पर "पति " मिलते है.कोई भी विवाह इच्छुक महिला वहाँ पर पति का चुनाव कर सकती है .इस स्टोर के प्रवेश द्वार पर एक तख्ती लगी है जिस पर लिखा है कि आपको यहाँ पर सिर्फ एक बार ही दाखिला मिल सकता है.इस स्टोर में छः मंजिलें हैं.जैसे-जैसे खरीददारी के लिए ऊपर की मंजिल पर पहुँचते जाते हैं पुरुषों के भीतर मौजूद खासियतें बढ़ती जाती हैं.( पाठक युवती व् महिला के शाब्दिक झमेले में न पड़ें , मतलब विवाह योग्य से है.)
                           वैसे इस पति स्टोर की अनिवार्य शर्त यही है कि किसी मंजिल पर एक ही विवाह इच्छुक अपने पति का चुनाव कर सकती है.वहाँ से वापस किसी दूसरी मंजिल पर नहीं जा सकती .उसे सीधे बाहर ही निकलना होगा.
शादी करने की इच्च्छुक एक महिला उस स्टोर में गई.पहली मंजिल में लिखा था-" इन पुरुषों की नौकरी है और वे भगवान पर विश्वास रखते हैं.दूसरी मंजिल की तख्ती-इनके पास नौकरी है,भगवान पर विश्वास है और ये बच्चों से प्यार  करते हैं.तीसरी मंजिल की तख्ती पर लिखा था फ्लोर थ्री -यहाँ रखे गए पतियों की नौकरी है ,भगवान पर विश्वास करते हैं ,बच्चों से प्यार करते है और बेहद सुन्दर है.
                           अरे वाह!विवाह की आकांक्षा रखने वाली वह महिला सोचने लगी.फिर पल भर में उसके मन में विचार आया ," क्यूं न अगली मंजिल में जाकर देख लूं! वह अपने मन के लालच को रोक न सकी.चढ़कर वह सीधे चौथी मंजिल पर पहुंची.चौथे मंजिल की तख्ती में दर्ज था ,इन पुरुषों के पास नौकरी है ,भगवान पर विश्वास ,बच्चों से प्यार, बेहद सुन्दर हैं और घरेलू कामकाज में मदद भी करते हैं.
                  " ओ माई गाड..!कितनी ख़ुशी की बात है वह महिला सोचने लगी लेकिन दूसरे ही पल उसके मन में ख्याल आया ,"  क्यूं न अगली मंजिल में जाकर देख लूं !" मिनटों में वह पाचवी मंजिल पर थी . वहाँ भी थी एक तख्ती.वह पढने लगी ,-फ्लोर नंबर पांच के हाल में मौजूद पुरुषों के पास नौकरी है,भगवान में विश्वास ,बच्चों से प्यार,खूबसूरत है ,घरेलू कामकाज में मददगार है ,एक और खासियत यह की ये बेहद रोमांटिक तबीयत के हैं.."
                      उस महिला के मन में उसी फ्लोर पर रुकने का ख्याल  आया.पर ये दिल है  के मानता नहीं! थोड़ी ही देर में वह छठवी मंजिल पर पहुँच गई.तख्ती यहाँ भी लटक रही थी." फ्लोर सिक्स -आप इस फ्लोर पर आने वाली -899989 वी महिला है.इस मंजिल पर जो हाल है वहाँ पर एक भी पुरुष नहीं है.यह फ्लोर इस बात का सबूत है कि महिलाओं को खुश रखना असंभव है.आपको हसबेंड स्टोर में आने का शुक्रिया.बाहर  निकलते समय आप अपने कदम के बारे में सोचें .आपका दिन शुभ हो.
                      अब बताओ अखबार नवीस! क्या ख्याल है? दद्दू ने फिर चहककर पूछा. देखो दद्दू! संतुष्टि अपनी जगह पर है लेकिन महत्वाकांक्षा अपनी जगह पर.क्योंकि-  AMBITION IS NOT A WEAKNESS UNLESS IT IS DIS-PROPORTIONATE TO THE CAPACITY .TO HAVE MORE AMBITION THAN ABILITY IS TO BE AT ONCE WEAK AND UN-HAPPY.
                        ददू मेरी बात से सहमत थे.बोले-अखबार नवीस... मानता हूँ तुम्हारी बात को ... प़र भूल से भी अगर यह किस्सा लिखोगे तब एक बात जरूर वहा पर दर्ज कर देना---
संवैधानिक चेतावनी...महिलाओं के हसबेंड स्टोर वाले किससे के बारे में घर पर ( अपनी भाभीजी से  ) चुगली नई करने का क्या!!!!!!!
                            शुभ रात्रि.. शब्बा खैर... अपना ख्याल रखिए...
                                                                                      किशोर दिवसे
                        

महंगाई डायन खाए जात है!!!!!!

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 महंगाई डायन खाए जात है...
दोस्तों .. महंगाई डायन खाए जात है. ह़र बन्दा इस हकीकत  को भुगत रहा है.अपने -अपने घरों में बैठकर हम सब बेतहाशा कोस लेते हैं महंगाई को.जन-जिहाद का कहीं पर नाम-ओ- निशाँ तक नही है.आज सुबह से इण्डिया टीवी ने इस मुद्दे को खूब उभारा है. कागजी शेर बने सामाजिक संगठन मिलजुलकर महंगाई के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकते क्या? मुझे  धार्मिक आस्था से कोई परहेज नहीं लेकिन  अपने भारत का यह दुर्भाग्य है कि  यहाँ पर मंदिरों में भगदड़ मचती है और सौ से अधिक लोग मर जाते है. ऐसा कई बार हुआ है. महंगाई जैसे भीषण मुद्दे पर समाज "जिन्दा लाशों का समूह बनकर कानों में अंगुलिया डाले बैठा रहता है.
     सरकारों का हाल ये है कि-      चाट  समझ फिर चाट  जाओ देश को
                                               ,आप खाओ और बच्चों को खिलाओ देश को
                                             दूर मंडराते रहे आकाश में फिर एकदम ,
                                                      इक झपट्टा मार पंजों में दबाओ देश को
                                              भाषणों की भस्म नारों की शहद में घोटकर
                                                       ,देश बीमार बतलाकर चटाओ देश को
मुझे लगता है कि सारे  गाँव ..शहर  के लोगों को इस मुद्दे पर शालीन तरीके से सड़कों पर आना चाहिए. समाज के सारे तबके के लोग महंगाई के खिलाफ निजी और सांगठनिक तौर पर अपने विरोध का खुला इजहार करे. इन्टरनेट के चिटठा जगत ... चौपालों पर भी इसपर अपनी प्रतिक्रियाएं दर्ज क़ी जाए . और तो और खुला हस्ताक्षर अभियान  भी चलाया जा सकता है. आप खुद भी सोचिये कि जिम्मेदार नागरिक की हैसियत से आप महंगाई का विरोध कैसे कर सकते है?सोचिये   क्या ऐसे मुद्दों पर जनता का सामूहिक हस्तक्षेप जरूरी नही? उठिए... अब यह जागकर अपने जिम्मेदार होने का सुबूत देने का सही वक्त है...
                                            

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

फौलाद का टुकड़ा और कपूर की टिकिया

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बरसात की एक रात थी.बिजली गुल थी और घुप्प अँधेरे में शमा जल रही थी.गोया कि मोम के बदन से धागे का जिगर जल रहा था.इधर हवा का एक झोंका आया और तकरार शुरू हो गई उन दोनों के बीच.
"तिल -तिल कर जल रही हूँ मैं.... तभी तो यहाँ पर स्याह लिबास को चीरने के लिए रोशनी है.... लेकिन तुम क्या जानो पल-पल-जलने के दर्द को "- उस धागे ने पूरी तरह ऐठते हुए कहा जिसका जिगर मोम के बदन से ढका हुआ था .
"ठीक है... ठीक है...पर तुम भी यह मत भूलो कि मेरे जिस्म का कतरा-कतरा पिघलता है....क्यूँ भूल गए क्या ?आखिर तुम्हे भी तो मैंने  अपने साथ और अपने भीतर सम्हाल कर रखा है."-पिघलकर गिरती मोम के बदन ने भी अपनी जिद छिपाते हुए कहा भले ही ह़र क्षण उसका बदन घटता जा रहा था.धागा और मोम का बदन दोनों ही अपनी-अपनी अकड में ऐंठ रहे थे.इधर मासूम लौ उनकी इस अहंकार भरी तू-तू,मैं-मैं से थरथरा रही थी.
                        
 लौ के इर्द-गिर्द मंडराता पतंगा बड़े ध्यान से उनकी तकरार सुन रहा था.,सोचने लगा " क्या इनका रिश्ता भी पति-पत्नी की तरह नहीं है ...लेकिन अपना-अपना अहंकार नहीं छोड़ रहे हैं ये दोनों.आखिर पतंगे से रहा न गया और उसने जलती शमा के धागे और मोम के बदन से कहा ," चुप रहो बेवकूफों ...! लड़ो मत!सुनो विक्रम और वेताल की कहानी....तुम दोनों को अपनी कमजोरी समझ में आ जाएगी.और पतंगे ने पर फडफडाते हुए किस्सा यूं शुरू किया....
                                  वेताल का शव कंधे  पर लादकर हमेशा की तरह राजा विक्रमार्क जा रहे थे गंतव्य की ओर.रास्ते में सफ़र काटने की दृष्टि से वेताल ने  किस्सागोई शुरू की.पर साथ में ताकीद भी कि जवाब जानते हुए भी अगर तुमने उत्तर नहीं दिया तो तुम्हारी खोपड़ी के टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगे.और जवाब दिया तो मैं फिर लटक जाऊँगा अपनी डाल पर.
        
 खैर किस्सा कुछ इस तरह से शुरू हुआ ,"  फौलाद का एक  टुकड़ा और कपूर की टिकिया  साथ-साथ रहते थे एक ही आले मैं.रोज दोनों ही एक-दूसरे की बखिया उधेड़ते रहते.एक रोज फौलाद ने कहा ,"जानते हो मेरी अहमियत!सुई से लेकर जहाज तक मुझसे ही बनते हैं... घर -बाहर की अनगिनत चीजें... है न कमाल!"कपूर की टिकिया का स्वर भी तीखा था.उसने भी प्रत्युत्तर दिया,"जानते हो तुम ,जब लौ मुझे जलती है .. खुद जलकर समाप्त हो जाती हूँ पर सारे घर को पवित्र गंध से महका देती हूँ.मेरी वजह से ही ह़र जगह सुगंध है" दोनों ही अपने दंभ में चूर थे,पूरी तरह गर्वोन्मत्त.
                                  बारिश के दिन आये और पानी की बौछारें फौलाद पर पड़ी.रखे-रखे उसमें जंग लग गया और मोर्चे से वह बदशक्ल हो गया.इधर कपूर की टिकिया भी अभिमान से चूर थी.बारिश के बाद की तेज हवाओं ने उसे आहिस्ता-आहिस्ता अस्तित्वहीन कर दिया.फौलाद और कपूर दोनों ही अब उखड़े-उखड़े और कटे-कटे से रहने लगे.वक्त गुजरता गया और कई दिनों बाद-
                                   दोनों के भीतर  से एक-एक रूहानी फ़रिश्ता बाहर निकला .पहले रूहानी फ़रिश्ते ने जंग लगे फौलाद के टुकड़े को गलाकर उसका पूजा का थाल बनाया.इधर दूसरे फ़रिश्ते ने कपूर की टिकिया को खूब समझाया तब कपूर ने स्वतः को पूजा के थाल को समर्पित कर दिया .थाल में रखी चीजों के साथ अब कपूर की टिकिया पूरी तरह सुरक्षित  और खुश थी.पूजा का थाल चमचमाने लगा था .दीया जल रहा था और कपूर की टिकिया खुद जलकर भी समूचे घर को महका रही थी.सारी चीजों को अपने साथ सहेज लिया था उस थाल ने.दोनों ही फ़रिश्ते समझाइश देकर लुप्त हो गए थे.
                       कथा सुनकर वेताल ने राजा विक्रमार्क से पूछा"यह बताओ राजा, फौलाद का टुकड़ा और कपूर की टिकिया वास्तव में कौन थे दोनों में परिवर्तन कैसे आया?राजा विक्रमार्क ने गहरी सांस ली और पल भर रूककर कहना शुरू किया-
" सुनो वेताल!फौलाद का टुकड़ा और कपूर की टिकिया दरअसल पति-पत्नी का रिश्ता है.दोनों के बीच "इगो" अथवा अहम के टकराव तकरार का मुख्य कारण.फौलाद के टुकड़े का का थाल बनना आत्मबोध है और कपूर का थाल को स्वयमेव समर्पण करना अपने मस्तिष्क में बने अहंकार का कुहासा समाप्त करना है.और ... ये जो दोनों फरिश्तों की बात कर रहे हो ना वह दोनों पति-पत्नी का विवेक है.इधर कपूर ने थाल को समर्पित किया तब थाल ने उसे अपने भीतर समेट लिया.फौलाद भी पूजा का थाल तब बना जब उसने अपना अहंकार छोड़ा.दोनों ही बातें साथ-साथ हुईं.दोनों को ,भीतर जड़ें जमाये अहंकार ने निर्जीव और अस्तित्वहीन बना दिया था.यानी पति-पत्नी का रिश्ता मुरझा गया था.जैसर ही यह रिश्ता दर्प-विहीन हुआ सारा घर पूजा के थाल में रखी जलती टिकिया की गमक से महकने लगा..सारे परिवार में खुशयां छा गयीं.
                                    जोरों से अट्टहास कर वेताल ने राजा विक्रमार्क से कहा-राजा!तूने मेरी बातों का सही-सही जवाब दिया और ये मैं चला... वेताल अट्टहास कर फिर जाकर लटक गया उसी वृक्ष की डाल पर जहाँ से राजा विक्रमार्क उसे कंधे पर बिठाकर लाया था.
                                        आज बस इतना ही... अपना ख्याल रखिये...
                                                                              किशोर दिवसे 

                                             
                                            
                                           








सोमवार, 10 जनवरी 2011

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सिर्फ वक्त ही समझता है प्यार में छिपा ऐश्वर्य

"दद्दू अभी मेरे पास नहीं हैं....प्रोफ़ेसर प्यारेलाल शहर से बाहर हैं.बाबू मोशाय कोलकाता गए.चिकनी चाची महिला मंडल में पंचायत कर रही है.दोस्तों के साथ मस्ती के मूड में किसी फास्ट फ़ूड कोर्नर में मस्ती कर रहे होंगे बंटी और बबली.और तो और देवर्षि नारद भी नहीं जो पंखिल शब्दों के बादलों पर सवार होकर मेरे सामने आ जाएँ और कानों में आवाज गूंजने लगे-
      नारायण... नारायण... नारायण... नारायण....
और वे पूछने लग जाएँ ," कैसे हो अखबार नवीस?"फिर शुरू हो जाए गप्पों का सिलसिला . छोडो भी , क्या फर्क पड़ता है ?आप तो हैं मेरे साथ .. फिर क्या जरूरत है किसी तीसरे की ? यानी आज सिर्फ आप और मैं !
               दर असल मैं भावना के बारे में सोच रहा था .मुझे लगता है हम सबको उसके विषय में सोचना चाहिए." क्या मतलब ! वह तो अच्छा -भला एम्.बी.ऍ. कर रही है. प्लेसमेंट होगा एकाध-दो महीने में और जाब लग जाएगा किसी अच्छी कंपनी में .कोई सोचने वाली बात ही नहीं है." ओह शीट!मैं उस भावना की बात नहीं कर रहा हूँ ." मेरे कहने का मतलब उस भावना से है जिसका मायने है फीलिंग या एहसास." अच्छा -अच्छा ... यानी भावना जैसे प्यार ... अमीरी ... ख़ुशी... अनुभव...अहंकार...और अफ़सोस.!" हाँ ...अब बिलकुल ठीक समझे आप.आज आप और मैं हम दोनों ही हैं चलो कहीं कल्पनाओं की उडान उड़ते हैं यानी -" सोचो कभी ऐसा हो तो क्या हो ?"" पहले  आप बताइए तो सही की आप कहना क्या चाहते हैं?
                            जरा सोचो की अगर एक द्वीप है जहाँ पर भावना कई  चेहरों में हमारे सामने है और वह द्वीप डूबने लग जाए तब क्या होगा?" आखिर पड़ गए ना सोच में !कुछ सूझ नहीं रहा ? ठीक है जब भी कोई कल्पना सूझे मुझे ई-मेल कर देना.इस वक्त हम दोनों ही साथ हैं इसलिए मैं ही एक किस्सा सुनाए देता हूँ .लेकिन एक शर्त पर ... आपको भी कभी न कभी जरूर सुनाना होगा.
                       आपको मालूम है ... हुआ यूं की एक बड़ा सा द्वीप था जहाँ भावनाओं के कई चेहरे एक साथ नजर आते थे.यानी सारी भावनाएं संग-संग रहती थी.ख़ुशी अहंकार,गम,अनुभव,प्यार  और बाकी भी.एक रोज अचानक यह मुनादी हुई की जल्द ही वह द्वीप डूबने वाला है.इसलिए इसे खाली करना होगा." फिर क्या हुआ ?क्या वे भावनाएं स्त्री और पुरुषों के अलग-अलग चेहरों वाली थीं?
                             ? हाँ.. स्त्री और पुरुष भी.आगे सुनो.... उन सभी ने अपनी नौकाएँ तैयार की और द्वीप छोड़ने की तैयारी कर ली.बाकी सभी भावनाएं बदहवास थीं... एकदम घबराई हुई.उनके चेहरे से पसीने की धार बह रही थी.लेकिन प्यार था  एकदम शांत, गंभीर.वह आखिरी पल तक अडिग लग रहा था.अपने जूनून का पक्का.जब वह द्वीप लगभग डूबने को था प्यार ने मदद चाही.अमीरी एक बड़ी सी नाव में जाने को तैयार थी.प्यार  ने बड़े प्यार से  पूछा" तुम मुझे अपने साथ ले जाओगे?अमीरी के चेहरे पर घमंड था.उसने गर्व से कहा, "नहीं ...बिलकुल नहीं मेरी नाव  में ढेर सारा   सोना ,चांदी  और करेंसी है.प्यार...वहाँ तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं.
                                            प्यार  ने फिर अहंकार से पूछा जो एक खूबसूरत नाव में जाने को तैयार था."अहंकार! तुम मेरी मदद करोगे?-प्यार  का सवाल था.फ़ौरन दो-टूक जवाब देते हुए अहंकार ने खिल्ली उड़ाई ," प्यर !मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता.तुम इतना भीगे हुए हो की मेरी नाव ख़राब हो जाएगी.नजदीक ही दूसरे कोने में था अफ़सोस.प्यार    ने झट से पूछा ,"अफ़सोस !तुम मुझे अपने साथ ले चलो."अफ़सोस ने अपनी ही तन्हाइयों में मायूस चेहरे पर हाथ रखकर कहा,"ओह प्यार!यूं ही अकेला रहने दो अफ़सोस को.मैं अपने टूटे हुए दिल के साथ रहना चाहता हूँ."
                                ख़ुशी की नाव भी प्यार के  नजदीक से गुजरी.प्यार  को आस बंधी थी की वह ख़ुशी के साथ हो लेगा लेकिन ख़ुशी अपनी ख़ुशी में इतनी खुश थी की उसे कहाँ  प्यार  का एहसास होता?ख़ुशी ने तो प्यार की आवाज भी नहीं सुनी.हालाकि प्यार ने उसे कई बार बुलाया भी.
                         प्यार ... प्यार ... प्यार ...! अचानक कानों में गूंजती आवाज से चौंक गया प्यार ." आओ प्यार ... मेरे पास आओ." वह एक बूढी आवाज थी जिसने प्यार से कहा, "आओ प्यार ..मैं तुम्हें अपने साथ ले चलूँगा.प्यार को यूं लगा मानो उसे किसी ने आशीर्वाद देकर दुलार लिया हो प्यार उस बुजुर्ग के साथ नदी के रेतीले तट पर पहुंचा.लेकिन वह इतना खुश था की उसका नाम पूछना ही भूल गया.भावनाओं के सभी अलहदा चेहरे अमीरी,ख़ुशी,अहंकार .अफ़सोस आदि पहले ही तट पर पहुँच कर अपना-अपना काम भी करने लगे थे.
                                       " अरे!मैं तो उस बुजुर्ग का नाम ही पूछना भूल गया जिसकी नाव पर सवार होकर आया था मैं " -प्यार ने अपने मन में सोचा.उसने नदी के तट पर बड़े से पत्थर पर बैठी पोपले मुहं वाली बूढी मां से पूछा,"मां मुझे नाव में कौन बिठाकर लाया मैं उसका नाम ही पूछना भूल गया."अब आप पूछेंगे की उस मां का नाम क्या था? मां तो बस मां होती है,लेकिन प्यार ! उस मां का नाम था विद्या.विद्या मां ने गंभीर स्नेहिल मुस्कान के साथ प्यार से कहा,"प्यर ,जानते हो, उस बुजुर्ग इंसान का नाम है वक्त." वक्त!" प्यार ने कुछ चौंककर विद्या मां से अपनी जिज्ञासा शांत करनी चाही," लेकिन विद्या मां ! वक्त ने भला मेरी मदद क्यों की?"
                                    मां विद्या की बूढी आँखों में ज्ञान की अलौकिक आभा थी.एक बार मुस्कुराकर मां की ममता भरी मेधा ने पूरे आत्म विश्वास से कहा ,"प्यार! वक्त ने तुम्हारी मदद इसलिए की क्योंकि वक्त ही यह समझ सकता है की कितना महान है प्यार.
                                 अरे! कहाँ खो गए आप?वो देखिए हम दोनों के आस-पास भावना कितने चेहरे बदलकर लोगों के दिलों में बस गई है.मां विद्या तो उस सभी को दुलारती है जो उसकी कद्र करते है लेकिन प्यार को साहिल तक पहुँचाने वाला बूढा वक्त रेत पर अपने क़दमों के अनगिनत निशान छोड़ गया है.लौटता हुआ मांझी गुनगुना रहा है-
                    प्यार है एक निशान क़दमों का 
                     जो मुसाफिर के साथ के साथ रहता है 
                                                                         
                                          खुश रहिए .अपना ख्याल रखिए...
                                                                              किशोर दिवसे 


रविवार, 9 जनवरी 2011

सिर्फ वक्त ही समझता है प्यार में छिपा ऐश्वर्य

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"दद्दू अभी मेरे पास नहीं हैं....प्रोफ़ेसर प्यारेलाल शहर से बाहर हैं.बाबू मोशाय कोलकाता गए.चिकनी चाची महिला मंडल में पंचायत कर रही है.दोस्तों के साथ मस्ती के मूड में किसी फास्ट फ़ूड कोर्नर में मस्ती कर रहे होंगे बंटी और बबली.और तो और देवर्षि नारद भी नहीं जो पंखिल शब्दों के बादलों पर सवार होकर मेरे सामने आ जाएँ और कानों में आवाज गूंजने लगे-
      नारायण... नारायण... नारायण... नारायण....
और वे पूछने लग जाएँ ," कैसे हो अखबार नवीस?"फिर शुरू हो जाए गप्पों का सिलसिला . छोडो भी , क्या फर्क पड़ता है ?आप तो हैं मेरे साथ .. फिर क्या जरूरत है किसी तीसरे की ? यानी आज सिर्फ आप और मैं !
               दर असल मैं भावना के बारे में सोच रहा था .मुझे लगता है हम सबको उसके विषय में सोचना चाहिए." क्या मतलब ! वह तो अच्छा -भला एम्.बी.ऍ. कर रही है. प्लेसमेंट होगा एकाध-दो महीने में और जाब लग जाएगा किसी अच्छी कंपनी में .कोई सोचने वाली बात ही नहीं है." ओह शीट!मैं उस भावना की बात नहीं कर रहा हूँ ." मेरे कहने का मतलब उस भावना से है जिसका मायने है फीलिंग या एहसास." अच्छा -अच्छा ... यानी भावना जैसे प्यार ... अमीरी ... ख़ुशी... अनुभव...अहंकार...और अफ़सोस.!" हाँ ...अब बिलकुल ठीक समझे आप.आज आप और मैं हम दोनों ही हैं चलो कहीं कल्पनाओं की उडान उड़ते हैं यानी -" सोचो कभी ऐसा हो तो क्या हो ?"" पाहे आप बताइए तो सही की आप कहना क्या चाहते हैं?
                            जरा सोचो की अगर एक द्वीप है जहाँ पर भावना कई  चेहरों में हमारे सामने है और वह द्वीप डूबने लग जाए तब क्या होगा?" आखिर पड़ गए ना सोच में !कुछ सूझ नहीं रहा ? ठीक है जब भी कोई कल्पना सूझे मुझे ई-मेल कर देना.इस वक्त हम दोनों ही साथ हैं इसलिए मैं ही एक किस्सा सुनाए देता हूँ .लेकिन एक शर्त पर ... आपको भी कभी न कभी जरूर सुनाना होगा.
                       आपको मालूम है ... हुआ यूं की एक बड़ा सा द्वीप था जहाँ भावनाओं के कई चेहरे एक साथ नजर आते थे.यानी सारी भावनाएं संग-संग रहती थी.ख़ुशी अहंकार,गम,अनुभव,प्यार  और बाकी भी.एक रोज अचानक यह मुनादी हुई की जल्द ही वह द्वीप डूबने वाला है.इसलिए इसे खाली करना होगा." फिर क्या हुआ ?क्या वे भावनाएं स्त्री और पुरुषों के अलग-अलग चेहरों वाली थीं?
                             ? हाँ.. स्त्री और पुरुष भी.आगे सुनो.... उन सभी ने अपनी नौकाएँ तैयार की और द्वीप छोड़ने की तैयारी कर ली.बाकी सभी भावनाएं बदहवास थीं... एकदम घबराई हुई.उनके चेहरे से पसीने की धार बह रही थी.लेकिन प्यार था  एकदम शांत, गंभीर.वह आखिरी पल तक अडिग लग रहा था.अपने जूनून का पक्का.जब वह द्वीप लगभग डूबने को था प्यार ने मदद चाही.अमीरी एक बड़ी सी नाव में जाने को तैयार थी.प्यार  ने बड़े प्यार से  पूछा" तुम मुझे अपने साथ ले जाओगे?अमीरी के चेहरे पर घमंड था.उसने गर्व से कहा, "नहीं ...बिलकुल नहीं मेरी नाव  में ढेर सारा   सोना ,चांदी  और करेंसी है.प्यार...वहाँ तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं.
                                            प्यार  ने फिर अहंकार से पूछा जो एक खूबसूरत नाव में जाने को तैयार था."अहंकार! तुम मेरी मदद करोगे?-प्यार  का सवाल था.फ़ौरन दो-टूक जवाब देते हुए अहंकार ने खिल्ली उड़ाई ," प्यर !मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता.तुम इतना भीगे हुए हो की मेरी नाव ख़राब हो जाएगी.नजदीक ही दूसरे कोने में था अफ़सोस.प्यार    ने झट से पूछा ,"अफ़सोस !तुम मुझे अपने साथ ले चलो."अफ़सोस ने अपनी ही तन्हाइयों में मायूस चेहरे पर हाथ रखकर कहा,"ओह प्यार!यूं ही अकेला रहने दो अफ़सोस को.मैं अपने टूटे हुए दिल के साथ रहना चाहता हूँ."
                                ख़ुशी की नाव भी प्यार के  नजदीक से गुजरी.प्यार  को आस बंधी थी की वह ख़ुशी के साथ हो लेगा लेकिन ख़ुशी अपनी ख़ुशी में इतनी खुश थी की उसे कहाँ  प्यार  का एहसास होता?ख़ुशी ने तो प्यार की आवाज भी नहीं सुनी.हालाकि प्यार ने उसे कई बार बुलाया भी.
                         प्यार ... प्यार ... प्यार ...! अचानक कानों में गूंजती आवाज से चौंक गया प्यार ." आओ प्यार ... मेरे पास आओ." वह एक बूढी आवाज थी जिसने प्यार से कहा, "आओ प्यार ..मैं तुम्हें अपने साथ ले चलूँगा.प्यार को यूं लगा मानो उसे किसी ने आशीर्वाद देकर दुलार लिया हो प्यार उस बुजुर्ग के साथ नदी के रेतीले तट पर पहुंचा.लेकिन वह इतना खुश था की उसका नाम पूछना ही भूल गया.भावनाओं के सभी अलहदा चेहरे अमीरी,ख़ुशी,अहंकार .अफ़सोस आदि पहले ही तट पर पहुँच कर अपना-अपना काम भी करने लगे थे.
                                       " अरे!मैं तो उस बुजुर्ग का नाम ही पूछना भूल गया जिसकी नाव पर सवार होकर आया था मैं " -प्यार ने अपने मन में सोचा.उसने नदी के तट पर बड़े से पत्थर पर बैठी पोपले मुहं वाली बूढी मां से पूछा,"मां मुझे नाव में कौन बिठाकर लाया मैं उसका नाम ही पूछना भूल गया."अब आप पूछेंगे की उस मां का नाम क्या था? मां तो बस मां होती है,लेकिन प्यार ! उस मां का नाम था विद्या.विद्या मां ने गंभीर स्नेहिल मुस्कान के साथ प्यार से कहा,"प्यर ,जानते हो, उस बुजुर्ग इंसान का नाम है वक्त." वक्त!" प्यार ने कुछ चौंककर विद्या मां से अपनी जिज्ञासा शांत करनी चाही," लेकिन विद्या मां ! वक्त ने भला मेरी मदद क्यों की?"
                                    मां विद्या की बूढी आँखों में ज्ञान की अलौकिक आभा थी.एक बार मुस्कुराकर मां की ममता भरी मेधा ने पूरे आत्म विश्वास से कहा ,"प्यार! वक्त ने तुम्हारी मदद इसलिए की क्योंकि वक्त ही यह समझ सकता है की कितना महान है प्यार.
                                 अरे! कहाँ खो गए आप?वो देखिए हम दोनों के आस-पास भावना कितने चेहरे बदलकर लोगों के दिलों में बस गई है.मां विद्या तो उस सभी को दुलारती है जो उसकी कद्र करते है लेकिन प्यार को साहिल तक पहुँचाने वाला बूढा वक्त रेत पर अपने क़दमों के अनगिनत निशान छोड़ गया है.लौटता हुआ मांझी गुनगुना रहा है-
                    प्यार है एक निशान क़दमों का 
                     जो मुसाफिर के साथ के साथ रहता है 
                                                                         
                                          खुश रहिए .अपना ख्याल रखिए...
                                                                              किशोर दिवसे 

                                                                                  मोबाइल -09827471743