मंगलवार, 31 मई 2011

वो तिल बना रहे थे, स्याही फिसल गई

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वो तिल बना रहे थे, स्याही फिसल गई 
उस रोज रेडियो पर किसी कार्यक्रम में बहस चल रही थी काले और गोरे रंग को फिल्म वालों  ने किस तरह तरजीह दी है....हिरोइन या हीरो काले क्यों नहीं होते? गोरा रंग ही क्यों अपील करता है...( हालाकि आज के दौर में इस बाबत भी प्रयोग होने लगे है.) फ़िल्मी गीतों में काले -गोरे का इस्तेमाल कैसा किया गया है वगैरह-वगैरह.लोग अपनी राय दे रहे थे और बीच-बीच में गीतों के बोल भी सुनाई दे रहे थे- गोरे रंग पे न इतना गुमान कर ... हम काले है तो क्या हुआ दिलवाले हैं ... राधा क्यों गोरी ,मैं क्यों काला... ये काली कालीऑंखें .. ये गोरे गोरे गाल....
                      गोरे रंग की नजाकत पर शायरों और लेखकों ने अरसे से लिखीं हैं अनगिनत इबारतें लेकिन बेचारा काला रंग ! उसपर चर्चा करना भी लोग गवारा नहीं समझते.जबकि जिन्दगी के रंगों में इसकी अहमियत जितनी है उतनी किसी अन्य रंग की नहीं..काले रंग के बारे में मन कुछ सोचने लगा था की अचानक दद्दू आ टपके." बात क्या है दद्दू!. काली शर्ट और पैंट भी काली... कोई खास बात !"इससे पहले की वे कुछ जवाब देते मुझे याद आया अखबारवाले ही तो छापते हैं अमुक दिन अमुक रंग के कपडे पहनना शुभ होता है .फिर दद्दू भी अगर इस लहर में बह जाएँ तब कैसा  आश्चर्य!
                      "भाई .. शनिवार है नहीं मालूम क्या?नहा  धोकर पूजा -पाठ किया और काले तिल, काली उड़द और काले कपडे का दान कर इसी और निकल पड़ा. शनिवार को काले रंग का महत्व है और शनिदेव की प्रतिमा भी तो काली है " दद्दू की बातों से मुझे काले रंग पर चिन्तन के लिए रास्ता खुलता हुआ महसूस हुआ.यों तो दद्दू और  मैं दोनों ही " कलूटा समुदाय" के हैं पर खुद को बचाने कई बार सांवला कहकर गौरवान्वित हो जाते हैं .इससे भी  अगर  मन नहीं भरता तब भगवान के दिए पक्के रंग (रंग न उड़ने की सेंट परसेन्ट गारंटी )को इस शेर के जरिये याद कर अपने समुदाय के बाकि मेम्बरों की हौसला अफजाई भी कर लेते हैं-
                         चेहरा अगर सियाह है तो उनका क्या कसूर 
                         वो तिल बना रहे सियाही फिसल गई
 गुनगुनाकर ठहाका लगाया ही था कि यकायक दद्दू  न जाने क्या सोचकर गंभीर हो गए.मैंने राज जानना चाहा और वे बोले,'कलमकार... डेढ़ बरस पहले मैंने एक घटना पढ़ी थी.किसी तीन एजर बच्ची को काली है कहने पर इतनी कोफ़्त हुई कि उसने आवेग में आकर ख़ुदकुशी  कर ली." इससे बड़ी बेवकूफी क्या हो सकती है " मैंने कहा ," काला या गोरा खास मायने नहीं रखता .सूरत से भी अधिक महत्वपूर्ण है सीरत. गुणों के सामने चेहरे का रंग बेमायने है.कोयल की मीठी कूक हो या स्वर -कोकिला लता मंगेशकर ... काला रंग मिठास या शोहरत की बुलंदी में कहाँ आड़े आया?
                        दद्दू ने हामी में सर हिलाया.बातचीत कुछ और आगे बढ़ी..काला जादू ..काली रातों के डरावने किस्से ...कालिया नाग ... कृष्ण पक्ष..अमावस की काली रात !" अख़बार नवीस!नेत्रहीनों की दुनिया कितनी अँधेरी होती होगी!" दद्दू के मन में कुछ जानने की चाह थी." नहीं दद्दू .. वे चमत्कारिक लोग होते है .बाहर से उनकी दुनिया स्याह होती है पर उनकी अंतर्दृष्टि की जगमगाती रौशनी अँधेरी राह को उजाले से भर देती है." मैंने अपनी बात को वजनदार बनाने फिल्म ब्लैक देखकर उसे महसूस करने की हिमायत भी की.
                    " कारी घटा छाय मोरा जिया घबराय .. काली घटाओं ने गोरी का घूँघट उड़ा  दिया ... काली घटाओं  से गोरी का जिया घबराने और घूँघट उड़ने का एहसास हम दोनों ने उन गीतों के मुखड़ों से कर लिया था जो हमारी बातचीत के दरम्यान विविध भारती पर बज रहे थे.काले बालों और गोरे गालों का शोख अंदाज इस कव्वाली में बेहतर ढंग से किया गया है-
                         हमें तो लूट लिया मिल के हुस्नवालों ने 
                         काले काले बालों ने गोरे गोरे गालों ने
गोरे गालों से निगाहें हटकर जब एक पुस्तक पर बनी बापू की फोटो पर पड़ी तब ख्याल आया काले रंग का चर्चा  हो और महात्मा गाँधी का जिक्र न आये यह  कैसे हो सकता है?काले- गोरे के रंगभेद ... कालो पर अत्याचार मिटाने गाँधी के भागीरथ प्रयास आज कालजयी है.कालों की वैश्विक दुनिया  गाँधी के सामने नत मस्तक है.
                        नतमस्तक उन  महापुरुषों के सामने भी होने को मन करता है जो हमेशा यह सीख देते हैं की अपने मन के कल्मष (अन्धकार) को दूर करने की चेष्टा करें.काश काले मन को गोरा बनाने के लिए सद्विचारों के फेयर एंड लवली का भी इस्तेमाल करना लोग सीखें  .काला अक्षर भैस बराबर  मुहावरा सुना है लेकिन इन्हीं काले अक्षरों को पढकर हर इंसान अपनी दुनिया में तरक्की का उजाला भरने में कामयाब   होता है .फैशन के दीवाने ब्लैक कास्ट्यूम अब भी बेहद पसंद करते हैं.
                            " क्यों अखबार नवीस ! विदेशों की डिप्लोमेटिक बैठकों में काला  सूट पहनकर पहनकर  हाई प्रोफाइल शख्सियतें रहती हैं." हाँ इसे ही तो ड्रेस कोड कहते हैं" मैंने कहा.दद्दू यकायक बोले ." दूल्हा कितना भी काला-बिलवा हो अखबार में विज्ञापन छपवाएगा की दुल्हन  गोरी ही चाहिए.वैसे विवाह  योग्य उम्मीदवारों को काले रंग नहीं आर्थिक  क्षमता और चरित्र पर ध्यान देना चाहिए.
                                बचपन से ही काला धागा .. काला  टीका ... काजल की कोठरी  काली बिल्ली का खौफ देखते -सुनते आये है .किसी हसीं के गोरे चेहरे पे  काला तिल भी तो यूं लगता है जैसे -
                          दौलते हुस्न पे दरबान बिठा रक्खा है!
पीने के शौक़ीन अपने लिए बहाना  ढूंढ ही लेते है. और अगर काली काली घटायें छा गयी हो तो-
                 पीने का इरादा तो नहीं था मगर ऐ जोश 
                 काली घटा को देखकर नीयत बदल गयी
बहरहाल काले रंग पर बातचीत के इतने दौर चले  तब मंटो की मर्मस्पर्शी कहानी "काली सलवार" को कैसे भूल जा सकता है. कोई पत्थर दिल भी इसे पढकर आँखें पोंछने पर मजबूर हो जायेगा.जितनी जुगुप्सा है काले रंग में उतना ही तिलस्मी है इससे जुडा संसार. हाँ यह भी सच है की काले इंसानों की दुनिया से हीं भावना मिट चुकी है.फिर भी काले रंग से जुडी रोचक बाते अगर आपको मालूम हों तो जरूर बताइयेगा.
                     

                     
                             
                           

सोमवार, 30 मई 2011

समंदर है जिन्दगी और प्यार अतलांत...

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समंदर है जिन्दगी और प्यार अतलांत...
ट्रेन में मुसाफिरी के दौरान कुछ कदम साथ चलने वाले हमसफर ऐसे भी मिलते है जो यादों में अमिट इबारत बनकर चस्पा हो जाते है हमेशा के लिए...!
           अमूमन रिजर्वेशन कम्पार्टमेंट  में यूं होता है कि ट्रेन के स्टेशन छोड़ने के कुछ मिनटों बाद साँसे व्यवस्थित होते ही बातचीत का सिलसिला शुरू हो जाता है .कूपे में सवारियां अपनी-अपनी पसंदीदा गतिविधियों में संलग्न हो चुकी है.सचमुच... शुक्रिया मेरे पास रखी उस मैगजीन का जो हम दोनों के बीच बातचीत का एक बहाना बन गई.
          जरा मेगजीन दिखायेंगे!उसने मुझसे पूछा और पत्रिका के उन हाथों में जाते ही हवा के एक झोंके ने जिस पन्ने को हमारे सामने ला दिया उस पर लिखा था-प्यार  और जिन्दगी .शायद इसी बीच वह पल बीत चुका  था जब बातचीत शुरू करने दो इंसानों को एक फ्रीक्वेंसी पर आने का इंतजार  होता है.
               मैं कंगन कामराज... साइकोलाजी में एम् फिल कर रही हूँ... पति साफ्टवेयर इंजिनियर हैं ... मायके जा रही हूँ. और मैं .. ( अपना परिचय उन्हें जो बताया वह आप जानते ही हैं) अपने इंट्रो के बाद जब कूपे में बैठे दीगर लोगों पर निगाह डालता हूँ तब लोगों के हेल्थ कांशस होने की बात सतह से काफी ऊंची उठी हुई दिखाई देती है.यूं भी हम पत्रकारों को लम्हों की सुरंग में धंसकर मुद्दे और नए ट्रेंड तलाशने का मेनिया हो जाता है.वैसे भी अगर खिड़की से सटी आमने -सामने की सीटों पर बैठे हों तब उन दोनों मुसाफिरों के बीच मौसम का टॉपिक सुनिश्चित होता है .विषय आहिस्ता से रेंगकर एक बार फिर प्यार और जिंदगी पर आकर केन्द्रित हो जाता है  तब  बतर्ज लेडीज फर्स्ट मैं ईमानदार श्रोता की भूमिका में आ जाता हूँ.
                  " मेरे पति साफ्टवेयर इंजीनियर है.मुझे प्यार है उनके निश्छल और मजबूत स्वभाव से.उनके चौड़े सीने पर सर रखना मुझमें निश्चिंतता की ऊष्मा भर देता है .शादी से पहले दो बरस की दोस्ती और शादी के बाद पांच बरस की जिन्दगी बिताने के बाद ऐसा लगता है की मैं रिश्ते से थकने लगी हूँ."
                    मेरी आँखों में एक सवालिया अक्स उभरता है लेकिन कंगन की बात अभी अधूरी है ." रिश्ते के मामले में में  भावुक हूँ.रोमांटिक पलों की तलाश मुझे वैसी ही होती है जैसा किसी नन्ही बच्ची को चाकलेट ही.लेकिन मेरे पति ठीक इसके विपरीत है.वे जिंदगी में रोमांटिसिज्म लाना ही नहीं चाहते .इसलिए मुझे गुस्सा आने लगता है.
                   " पर आप ऐसा क्यूं सोचती हैं?"-मेरे भीतर का अखबारनवीस जागता है.
 इसलिए एकदिन मैंने अविचल (अपने पति)से तलाक लेने की बात कह दी " आखिर क्यूं?-उसने हैरत से पूछा " मै ऊबाऊ जिंदगी से थक चुकी हूँ."- मेरा जवाब  था. मेरे पति सारी रात कुछ  सोचते रहे ,ऐसा  मुझे लगा.मेरी छटपटाहट और बढ़ गई ." ऑफ़ ओह!यह इंसान मुझे अपना दुःख भी नहीं बताता .इससे मैं क्या उम्मीद करूँ!
मैं सोचने लगी थी.आखिर मेरे पति अविचल ने मुझसे पूछा ," तुम्हारा मन बदलने के लिए मैं क्या कर सकता हूँ?" अविचल की आँखों में गहराई तक झांककर मैंने  कहा ," मैं तुमसे एक सीधा सवाल करूंगी अगर तुमने मुझे राजी कर लिया तब मैं तलाक के बारे मैं अपना फैसला बदल लूंगी.
                     कंगन ने सवाल किया ," किसी पहाड़ पर एक फूल है .हम दोनों जानते हैं कि उस फूल को तोड़ने से आपकी ( मेरे पति ) की मौत हो जाएगी .फिर भी क्या आप वह फूल लाकर देंगे?" अविचल का जवाब था ," इस सवाल का जवाब मै कल दूंगा." पति के इस उत्तर से कंगन का दिल बैठ गया.अगली सुबह जब कंगन उठी तब उसके पति कहीं जा चुके थे.चाय के प्याले के नीचे दबा हुआ एक रुक्का रखा हुआ था जिसपर ये पंक्तियाँ लिखी  हुई थी ," माई डियर!मै वह फूल नहीं ला सकता.!रुको... जरा मुझको  इसकी वजह बताने तो दो..."
                  कंगन के पति ने रुक्के में जो पहली लाइन लिखी थी उससे मैंने अपने कुछ साँसों को अपने भीतर ही खो दिया-
                      " कंगन ...जब तुम कम्प्यूटर पर होती हो उसके प्रोग्राम गड़बड़ाने पर स्क्रीन के सामने चिल्लाने लगती हो..." मुझे अपनी अंगुलियाँ बचानी हैं ताकि प्रोग्राम ठीक कर सकूं .
                   "  कंगन तुम्हें चाबियाँ भूलने की आदत है...". मुझे अपने पाव बचाने हैं ताकि दौड़कर तुम्हारे लिए घर आ सकूं.
                      "कंगन ,तुम्हें नए शहर अच्छे  लगते हैं पर रास्ता  भूल जाती हो "...मुझे अपनी आँखें बचानी होंगी ताकि तुम्हें रास्ता दिखा सकूं.
                     " कंगन घर के काम-काज से तुम्हारे हाथों में दर्द होता है " मुझे अपनी हथेलियाँ बचानी होंगी ताकि तुम्हें सहला सकूं.
                     " कंगन , दोहरी जिम्मेदारी से तुम्हे तनाव होता है " चुटकुले सुनकर तुम्हारी थकान दूर करने मुझे अपना मुहं सलामत रखना होगा.
     कंगन .. तुम हमेशा कम्प्यूटर की स्क्रीन के सामने रहती हो .बुढ़ापे में जब तुम्हारी आँखों की रौशनी धुंधली हो जाएगी ,तब तुम्हारे नाखून काटने ... बालों में हिना लगाने ... शाम को हाथों में हाथ लेकर तफरीह करने मुझे अपनी आँखें भी तो सम्हालनी होंगी .मैं ही तुम्हे बताऊँगा ... वे खूबसूरत पेड़...परिंदे  ... खिलखिलाते बच्चे  और फूलों के रंग जिनकी चमक तुम्हारे जवान चेहरे पर रहा करती थी . बस... इसलिए ... माई डियर...जब तक मुझे यह भरोसा नहीं हो जाता कि कोई मुझसे  भी अधिक  तुम्हें प्यार कर सकता है ... मै उस पहाड़ी के फूल को तुम्हारे लिए तोड़कर मरना नहीं चाहता...."
                            कंगन की आँखें भीग गयी थीं.-" मेरे आंसूं उस चिट्ठी पर गिरते ही अक्षर धुंधले हो गए थे." उसने कहा " आप जानते है उस खत की आखिरी लाइन में क्या लिखा था? मैं अब पत्रकार नहीं  कालम राइटर की भूमिका में था.कंगन बोलती गई.उसकी आखिरी लाइन में अविचल ने लिखा था ," कंगन ... शायद अब तुम मेरी चिट्ठी पूरी तरह पढ़ चुकी हो.अगर तुम मेरे जवाब से संतुष्ट हो तब जरा बाहर आकर  दरवाजा खोलो . देखो!मैं तुम्हारे लिए तुम्हारी पसंद के समोसे और मिठाई लेकर आया हूँ."
                         मैं भागकर दरवाजा खोलने गई.देखा अविचल के चेहरे पर बेताबी झलक रही थी उसके हाथों में नाश्ते का पैकेट था .मुझे अब पूरा भरोसा है कि अविचल जैसा प्यार मुझे और कहीं नहीं मिल सकता .कंगन की मुस्कुराती आँखे इस विश्वास का साक्षी थीं कि " अब कोई जरूरत नहीं है पहाड़ी के उस फूल को तोडकर लाने की."
                   ट्रेन कब प्लेटफार्म पर आकर लगती है पता तब चलता है  जब ढेर सारा कोलाहल कानों से टकराता है.इन्हीं के भीतर एक आवाज  मुझे झकझोरती है ," कम ऑन जर्नलिस्ट!यह लीजिये आपकी मैगजीन .. नागपुर स्टेशन आ चुका है मीठी मुस्कान  के साथ जब हम विदा होते है तब पन्ने पर वही इबारत मेरे सामने एक बार फिर होती है - प्यार और जिन्दगी!
                 
                      

                              
            

शनिवार, 14 मई 2011

मैं किस्से को हकीकत में बदल बैठा तो हंगामा !

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जींस -टॉप... कार्गो टी-शर्ट ... फंकी -शंकी  लुक वाले नौजवान छोकरों और बोल्ड ब्यूटीफुल और बिंदास लड़कियों से घिरा था मैं.भाई कुछ भी बोलो मुझे तो आज की नयी जनरेशन बेहद पसंद है... बिलकुल मीठे-नमकीन बिस्कुट फिफ्टी-फिफ्टी या फिर खट्टी -मीठी इमली की तरह.आज के ज़माने में जब हाफ  सेंचुरी के करीब या उसके पार लोग नए  रंग में रंगने लगे हैं तब जवानी को दिशाहीन ,उच्श्रीन्खल या दीवानी कहने की फितरत एकदम बकवास है.यकीनी तौर पर समाज के आज या आज के समाज को महसूस करने के बाद बूढों का यह फिकरा ," हमने धूप में बाल सफ़ेद नहीं किये हैं " उन युवाओं की कड़ी चुनौती से जूझता हुआ लथपथ सा लगता है जो " होश भरे जोश "के साथ जिंदगी जीता है .इसमें गंभीरता के साथ पूरी मस्ती-शस्ती भी होती है .... दिल से!
                                 यूं ही सीरियस मुद्दों  पर लिखते रहोगे या कभी हमारे साथ मस्ती भी!अपने डोले दिखाते एक " माचो मैन"और एक जोड़ी शैतान, शरीर कनखियों की शरारत ने मुझे यह एहसास दिला दिया कि मुहब्बत और करियर के साझा जज्बे को पुचकारती पीढ़ी का मीठा रिश्ता इस पल मुझसे क्या मांग रहा है.
                                     सच कहूं  !दद्दू और प्रोफ़ेसर  प्यारेलाल जब साथ हो जाते हैं तब किसी भी महफ़िल की रौनक क्या खूब जमती है .हुआ भी यूं... एहसासों का आकाश था ... चर्चा  के बहाने ही सही अल्फाजों के परिंदे मुहब्बत की रेशमी डोर लेकर उड़ने लगे ... ऊंचे... और ऊंचे....
                              कि कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है 
                              मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है 
यहाँ प्यासी धरती की बेचैनी और बरसने को आतुर बादल की बेकरारी किसकी है यह हर कोई समझ  सकता है .लेकिन दद्दू के मन में एक और बात आती है ," मनोविज्ञान में मैंने पढ़ा है कि दूरियां प्यार को और बढा देती हैं " लेकिन इसकी मियाद भी तो तय होनी चाहिए न " मैंने टोका.उदास खोई सी आँखों वाला युवक गुनगुनाने लगा ... शायद उसके दिल की आवाज थी -
                            मैं तुझसे दूर कैसा हूँ,तू मुझसे दूर कैसी है 
                            ये तेरा दिल  समझता है या मेरा दिल समझता है  
दो जोड़ी आँखें जब एक-दूसरे से बिना कुछ  कहे सब कुछ कह रही थीं तभी प्रोफेसर प्यारेलाल ने कहा,"प्यार में दिल और दिमाग का सही संतुलन जरूरी है . मुहब्बत में FALL IN LOVE  के बजाये   RISE IN LOVE   होना चाहिए.खास तौर पर नयी पीढ़ी अगर इसे समझ गयी ( शायद अब समझ चुकी है )तब प्यार  अँधा नहीं बल्कि तेज आँखों वाला और जिम्मेदार हो जायेगा."
                          कि मुहब्बत एक एहसासों  कि पावन कहानी है
                          कभी कबीर दीवाना था कभी मीरा दीवानी है 
कबीर और मीरा से कम, हीर-राँझा ... शीरीं -फरहाद...रोमियो- जूलियट से अधिक वाकिफ न्यू जेन .. शोख हॉट एंड स्वीट कहने लगी ," सर जी!उनके प्यार को समाज  समझ नहीं पाया .मेरी आँखों के आंसुओं को कौन समझेगा कि ये मोती हैं या पानी!
                          यहाँ सब लोग कहते है कि मेरी आँखों में आंसूं हैं
                          जो तू समझे तो मोती है  जो न समझे  तो पानी है 
दद्दू अपनी जवानी का किस्सा बताते हैं ," हुआ यूं कि मुहब्बत की राह पर निकल पड़ी थी दो जोड़ी आँखें तकदीर का फ़साना कहिये कि साथ छूटा और लड़की  की शादी हो गई कहीं और. दो बरस बाद जब वह मुझसे मिली .  उस युवती ने  अपने बच्चे से कहा , " देखो बेटा ...ये  मामा जी है तुम्हारे ." उनके जाने के बाद खीझ उतारने ( युवती के पति को बददुआएं इस अंदाज में दी-
                           समंदर पीर का अंदर है लेकिन रो नहीं सकता 
                           ये आंसू प्यार का मोती है इसको खो नहीं सकता 
                          मेरी चाहत को तू अपना बना लेना मगर 
                           जो मेरा हो नहीं पाया वो तेरा हो नहीं सकता 
" अब समझदार हो चुकी है युवा पीढ़ी."नौजवानों से रिएक्शन लेने जब दद्दू ने लड़के-लड़कियों से कहा ,"प्रेम हिंदुस्तान में ऐसा विषय है जिसमें केवल थ्योरी  की क्लासेस  चलती है  " इसपर दबी जुबान से खिल खिलाह्टें और इशारेबाजियाँ जब हुईं ,मामला सा था कि वे क्या कहना चाहते हैं .
             "सर जी!आज के नौजवान युवक-युवतियां सोच -समझकर अपने जीवन साथी का चुनाव करते हैं"-                                                         पहला युवक.
"हाँ सर!पैरेंट्स को भी चाहिए की हम पर भरोसा कर कम से कम हमारी बात तो सुनें "-पहली युवती.
" करियर मेकिंग और फियान्सी को अच्छी तरह समझने का कम हम लोग कोर्टशिप के दौरान ही कर लेते हैं सर जी!"-दूसरा युवक.
"सर जी! इसीलिए तो प्रेम विवाह भी अछे माता-पिता परखने के बाद अरेंज्ड में बदल देते हैंकसौटी पर कसना तो हर मामले में पड़ता है."-दूसरी युवती.
                         खोई-खोई सी आँखों वाले उस युवक को देखकर ही लगा था की वह शायराना तबीयत का नौजवान है .दद्दू.प्रोफ़ेसर और मैं ,हम तीनों की अनुभवी आँखें यह जानती थीं की खोया-खोया सा रहना भी प्यार में होने की निशानी है ( बशर्ते कोई दीगर मनोरोग से जुदा  मसला न हो ).इसी बीच उसने एक पल आसमान की और देखा फिर अपने साथियों की और मुखातिब होकर कहने लगा," सर जी!प्यार  तो मीठा एहसास है .. जूनून और पैशन भी " क्योंकि-
                         भ्रमर कोई कुमुदिनी पर मचल बैठा तो हंगामा 
                          हमारे  दिल में कोई ख्वाब पल बैठ तो हंगामा 
                        अभी तक डूब कर सुनते थे तब किस्सा मुहब्बत का 
                       मैं किस्से को हकीकत में बदल बैठा तो हंगामा 
वाह-वाह और सीटियों के स्वर यदि नौजवानों के बीच से नहीं आते तो आश्चर्य जरूर होता .प्यार भरी मस्ती में नौजवान टोली हमसे बिदा लेती है .लेकिन हमारी  नजर में इश्क जिस्मानी नहीं रूहानी करिश्मा है इबादत...खुदाई...आतिश-ए-ग़ालिब .राधा ,मीरा और जूलियट का समर्पण है जो रब के लिए सूफीज्म भी बन जाता है .मुसाफिर के साथ रहने वाले क़दमों का निशान हैं प्यार .इस प्यार को सेक्स की आदिम अवधारणा से अलहदा करने पर ही उसकी पवित्र सुगंध का एहसास होता है.उसी प्यार का जो जात,उम्र,मजहब ,जन्म के बंधन से परे गहराइयों तक समां जाता है सिर्फ दिल की धडकन में .हालाँकि सीरियस लफ्जों की बजाये अपनी जींस -टॉप... कार्गो टी शर्ट... फंकी-शंकी लुक वाले " तुझमें रब दीखता है" गुनगुनाने वाले मेरे प्यारे नौजवान दोस्तों को यह बात जल्द समझ में आती है की प्यार तो बस हर हाल में निभाना ही है क्योंकि-
                           इश्क वाले आँखों की बात समझ लेते हैं
                            सपनों में मिल जाएँ तो मुलाकात समझ लेते हैं 
                           रोता तो आसमान ही है प्यार के लिए
                           पर नादाँ लोग उसे भी बरसात समझ लेते हैं 
                                                                                                                 प्यार सहित...
                                                                                                                         किशोर दिवसे 
                         

                        

                             

शुक्रवार, 6 मई 2011

जहाँ कानून बेआवाज होगा ,वहीँ से जुर्म का आगाज होगा

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जहाँ कानून बेआवाज होगा ,वहीँ से जुर्म का आगाज होगा 

अल्सुब्बह दद्दू तफरीह कर लौटे और श्रीमती जी ने चाय का प्याला उनकी टेबल पर धर दिया.शहर से छपने वाले दो-तीन अखबारों के पन्ने पल्टाते पूरा चाट गए.खाली प्याला देखकर सोचने लगे ," अखबारों में जुर्म की ख़बरें इतनी ज्यादा क्यों हैं! क्या हो गया है इंसान को!क्या गाँव क्या शहर और महानगर हर  तरफ जुर्म का बोलबाला !सारे मुल्क में बढ़ते जुर्म को देखकर कभी-कभी लगता है कानून है या नहीं और अगर है तब सख्ती से उनपर अमल क्यों नहीं हो रहा"?
                           रहेगा मुल्क में अम्नो सुकून तब बाकी
                            हरेक जुर्म पे कानून जब सजा देगा
खैर कानून अपना काम करेगा .लेकिन एक बात सच है कि गुनाहगारों ने अपने चेहरों पर कैसे-कैसे मुखौटे लगा लिए है.कहीं जज्बातों का ...रिश्तों का...आध्यात्मिकता  का ... मिठलबराई का ...कहीं परायेपन और अपनों का अपनापन भी जुर्म की भेंट चढ़ जाता है.लगता है  जिंदगी की किताब का ऐसा  कोई सफा नहीं बचा है जिसपर ईमानदारी का केनवास गुनाह की कालिख से बदरंग न हुआ हो. वक्त बदलने का बहाना ढूंढ लिया है समाज ने पर हाशिये पर जाते  नैतिक मूल्य  आम इंसान के खोखले जमीर की चुगली  कर देते है.
                           आप ही बताइए हर तरफ आगे मुजरिम ही नजर आने लगे तब कौन किसकी गवाही देगा?
लेकिन दद्दू यदि किसी ने  अपना जुर्म कबूल कर लिया है  तब क्या उसे सजा मिलनी चाहिए",मैंने पूछा." नहीं अगर  कोई सच्चे दिल से माफ़ी मांग ले और गुनाह फिर न दोहराए तब सजा की क्या जरूरत" बशर्ते जुर्म गंभीर न हो तब उसे चेतावनी देकर छोड़ दिया जाता है-
                             अब उसको सजा दे के गुनाहगार न बनिए 
                              मुजरिम के लिए जुर्म का इकरार बहुत है
  अलग बात है जुर्म का इकरार करना .लेकिन देखा जा रहा है कि क्या सरकारी और क्या गैर सरकारी  सभी जगह करप्शन आसमान छूने लगा है.न कानून का डर है  न किसी पर  कोई जवाबदेही फिक्स की गई है. न सरकार जवाबदेह है अपनी करतूतों के लिए... न व्यक्तिगत रूप से अधिकारी या नागरिक.संसद में करोड़ों रूपये बहस के दौरान(  अक्सर हुए बगैर भी ) बर्बाद हो जाते है, नतीजा सिफर. हर किसी पर आर्थिक जवाबदेही तय होनी चाहिए.
                         कई बार अनजाने में किये जुर्म का एहसास भी सताता है यह दो-टूक सच है कि अपराध और गलती में निशित रूप से फर्क है और  सजा कि मियाद भी तय होनी चाहिए खास तौर पर सामाजिक रिश्तों के परिप्रेक्ष्य में इसीलिए तो कानून में भी DETERRANT THEORY OF PUNISHMENT और REFORMATIVE THEORY के बीच संतुलन बनाने  की कोशिश की गई है लेकिन कराप्प्शन की बदबू तो समाज के हर क्षेत्र से आने लगे तब सक्रिय हस्तक्षेप पर सोचना  वक्त की जरूरत बन ही जाती है .यह तो सच है पर कई बार अपराध बोध बेचैन कर देता है ,नींद उड़ जाती है और रातों को उठ-उठकर टहलने की नौबत आ जाती है . लेकिन यह सिर्फ उनके साथ होता है जिनका जमीर दिल के किसी कोने से उन्हें धिक्कारता है. इसी धिक्कार के ईलेक्ट्रोंस को गतिवान बनाना जरूरी है. और अपराधबोध की घबराहट भी कई बार ऐसी होती है की गुलिस्तान से खदेड़ दिए जाने के बाद जब कभी बागबान से नजरें मिलती हैं तब -
                                  जुरअत से की बागबान से पूछ सकें हम 
                                  किस जुर्म में निकले गए गुलिस्तान से हम 
बेहद तिलस्मी है जुर्म और गुनाहगारों की दुनिया.मासूम बच्चों से लेकर  तीन-एजर्स और बूढ़े तक     इसका शिकार हैं.आजकल हालत ये है कि इन्साफ का तराजू भी डोलने लगा है." मैं पूछता हूँ दद्दू कि आज के ज़माने में जिस तरह ईमानदारी से जीना मुश्किल है और बेईमानी से आसान ,वैसे ही फ़रिश्ता बनकर मरने का डर क्यूं सताने लगता है?" यह गलत सोच है दद्दू,दिल बहलाने को भले ही आप कह लें अच्छा हुआ मुजरिमों की तरह जीना सीख लिया ... फ़रिश्ता बनते तो कब के खर्च हो चुके होते.लेकिन जुर्म के विरुद्ध आवाज उठाना भी सीखना चाहिए. यह सच है कि,"चुप रहना जुर्म है जुर्म करना तो जुर्म है ही मगर जुर्म सहना भी उससे बड़ा जुर्म है."यूं होता है की कभी लम्हे खता करते है और सदियाँ इसकी सजा पति है इकबाल ने कहा है-
                                   तारीख की नजरों ने वो दौर भी देखा है 
                                   लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई
सदियाँ तो दूर ....मुहब्बत भरे दिल तो गाहे--ब-गाहे पूछ लिया करते है ," किसी को चाहते रहना कोई खता तो नहीं?अपने अजीज के बगैर तो जिन्दगी भी गुनाह लगती है.जुर्म सी लगने के बावजूद जिंदगी से न जाने क्यूं प्यार करने लगते हैं हम! बहरहाल ,बढ़ते जुर्म पर हर एक इंसान को समाज और सियासत पर लगाम लगानी चाहिए.महापुरुषों ने कहा है," घृणा अपराध से करो, अपराधी से नहीं" जुर्म और गुनाहगारों पर सख्त नियंत्रण करने सभी को सक्रीय रहना होगा जहाँ तक नौजवान दोस्तों की बात है की वे जुर्म की दुनिया से हमेशा दूर रहकर सफलता कई बुलंदियां हासिल करने की कोशिश करें.क्या जरूरत है प्यार को दुनिया से छिपाने की-
                                   कुछ जुर्म नहीं इश्क जो दुनिया से छियायें
                                    हमने तुम्हें चाह है हजारों में कहेंगे 
                                                                                                                  किशोर दिवसे 
                                                                                                                       मोबाइल -9827471743
                        
                           

                         

गुरुवार, 5 मई 2011

वो शख्स धूप में देखूं तो छांव जैसा था.

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वो शख्स धूप में देखूं तो छांव जैसा था.






गरमी, सर्दी या बारिश ... मौसम चाहे कैसा  भी हो हमारी बातचीत का एक जुमला तयशुदा होता है .सर्दियों में बाप रे!कितनी ठण्ड लग रही है!बारिश में ... ओफ ओह... क्या घनघोर बारिश है!और आज जब लू के थपेड़े चल रहे हैं हम यह कहने से नहीं चूकते "क्या जबरदस्त गरमी है यार!अब आप ही बताइये अप्रैल और मई में आसमान से सूर्यदेव आप पर अंगार नहीं बरसाएंगे तो क्या फूल फेकेंगे?
                                फिर भी हर एक इन्सान खुश है कि आग उगलते मौसम में तरावट लाने जलजीरे का शर्बत है... बर्फ के रंगीन रसभरे गोले .. गन्ने का रस ... आइसक्रीम .. मौसमी फलों की फांकें... कोल्ड ड्रिंक्स और लस्सी... वाह -वाह !!!!दद्दू जैसे अनेक लोगों ने चाहे वे बच्चे ,नौजवान या बुजुर्ग क्यों न हों अपनी जिंदगी में धूप की तल्खियाँ बर्दाश्त की हैं.कुछ   लोग  जरा सी धूप बर्दाश्त नहीं कर सकते  पर यकीनन कई  लोग आज भी बड़े गुरूर से यह कहते हुए नहीं चूकते कि-
                      हम तो सूरजमुखी के फूल है ,पलते हैं धूप में 


 धूप से खुद को बचने के तौर-तरीके हम सबने सीख लिए हैं.याद है नानी या माँ भी बचपन में कहा करती थी ," बेटा! धूप में बाहर जा रहा है एक प्याज रख ले अपनी जेब में .और हाँ...धूप में कहीं भी रुको तब पल भर रुककर ही पानी पीना.अब तो बनती-बबली से लेकर दद्दू तक की उम्र के लोग भी चेहरे को पूरी तरह लपेटकर धूप में निकलते है.फॉर व्हीलर की सवारियां धूप के शैतानियों से बेअसर होती हैं लिकिन हममें से कई लोग ऐसे है जो यह कह सकते हैं -
                       धूप में चलने की आदत है हमें बचपन से 
                       जलने लगते हैं कदम छांव में जब होते हैं 
फिर भी तेज आंच में ही चांदी और सोने का रंग-रूप निखरता है.हमारी जिंदगी में भी ऐसा है होता है.अनुभवों की गरमी से ही हमारा व्यक्तित्व परिपक्व होता है.शहर कंक्रीट के जंगल बन चुके हैं और दुनियाभर में हर शहर " ग्रीन  सिटी बनने को तरस रहा है और चाहिए भी.चिलचिलाती धूप में शहर के भीतर हो या बाहर वृक्षों की छांव कितना सुकून देती है  और सर पर ऐसे वक्त अगर कोई साया न हो मन में कसक यूं उठती है-
                        धूप में मेरे सर पर कोई साया तो होता 
                         काश मैंने भी कोई पेड़ लगाया तो होता
अपने  शहर में भी महानगरों की तरह विकास जरूर होना चाहिए पर अपने दद्दू की बात मानो और  अपने शहर को भी ग्रीन सिटी बनाने के लिए मुहिम  छेड़ दो.अमूमन हर शहर में पेयजल की समस्या शुरू हो चुकी है . अगर सही  वक्त  पर अपने शहर में वृक्षारोपण  ,भूमिगत जलस्रोत और पानी बचने  जनचेतना जगाने हम चौकन्ने न हुए तो अपने शहर की हवाएं भी चीखकर कहने लगेंगी-
                         कितने हँसते हुए मौसम अभी आते लेकिन 
                          एक ही धूप ने कुम्हला दिया मंजर मेरा 
यकीन है ऐसा नहीं होगा पर " डर्मीकूल का मौसम " आता है तब डियो और किस्म -किस्म के परफ्यूम से महकने लगते हैं जिस्म.पसीने में तर-ब-तर शरीरों से उठती गंध बेचैन कर देती है.गर्मियों से मौसम में किसी खूबसूरत से जिस्म से अपनी ओर आते परफ्यूम से भरी हवाओं के झोंके दद्दू  को  धडकते दिल से यह कहने पर मजबूर कर देते हैं -
                         तेरे बदन की आंच है की दोपहर कि धूप
                        जुल्फों के साये को भी पसीना आ गया
तेज गर्मियों के मौसम में हर  अर्पिता  धरती भी प्यासी  हो जाती है.उसकी गोद में खिलने वाले पौधे और फूल मुरझाने लगते हैं .शाम को धूप में ऐसे ही किसी फूल का उदास मुरझाया सा चेहरा देखकर सूरज के  जायज गुस्से पर भी गुस्सा आने लगता है. मेरा मन कहता है-
                          मुरझाया हुआ फूल सरे शाख पर क्यों है 
                          लगता है चूमा है किसी के आतिशी लब ने 
खैर मौसम की धूप हो या तेज गर्मियों के थपेड़े ... जिंदगी का पहिया तो घूमता ही रहेगा गर्मियों का भी आनंद लीजिए पर मौसम से अलहदा बात अगर जिंदगी की तल्ख़ धूप की हो तब अपने -आपको छांव की तरह सुकून देने वाला बनाए रखिए.गर्मियों में अपना और अपने पूरे परिवार की सेहत का अच्छी तरह ख्याल रखिए. और हाँ.. अपना चेहरा आईने में देखकर मुझे यह जरूर बताइयेगा की क्या आप सचमुच वैसे ही हैं जैसा में आपके बारे में सोचता हूं -
                              रुके तो चाँद,   चले तो हवाओं जैसा  था 
                             वो शख्स धूप में  देखूं तो छांव जैसा था 
                                                                                                       किशोर दिवसे